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Wednesday, November 1, 2023

समाज का अमानवियकरण (Dehumanization of a Society)

पहले भी कई बार लिख चुकी की राजनीती के इन जालों के सामान्तर घढ़ाईयों का नुकसान, वहाँ का समाज भुगगता है। जितना ज्यादा किसी भी समाज को, ऐसे राजनीतिक जालों का हिस्सा बनाया जाता है, वो उतना ही ज्यादा पिछड़ता जाता है। 

शुरू में मुझे जब ऐसे कई क्रूर और अमानवीय तथ्यों की जानकारी हुई, तो हजम ही नहीं हुआ, की लोगबाग इतना निर्दयी कैसे हो सकते हैं ? किसी को तो बक्सें। बच्चे, बुजुर्ग, अपाहिज, बेजुबान जीव-जंतु, पेड़-पौधे, ये तो किसी को भी नहीं बक्शते। मौत पे भी किसी की रैली पिट या पिटवा सकते हैं और शादी पे मातम मनवा सकते हैं। कुर्सियों के चक्कर में, कितने अंधे हो जाते हैं लोग?

कुछ सामान्तर घड़ाईयाँ   
      
मैं रिलायंस से सामान लाती थी। एक दिन ऐसे ही ऑफिस के बाद पहुँच गई और गाड़ी उसके सामने पार्क कर दी। सामान लेके वापस आई, तो मेरी गाड़ी के साइड में, SP के घर और रिलायंस के बीच, एक बुजुर्ग औरत, तकरीबन आधे से ज्यादा नंगी और लैट्रिन से लथ-पथ कपड़े, बिखरे-उलझे गंदे बाल, मक्खियों की उसपे भरमार, वहाँ खड़े कुछ लड़कों से जैसे खुद को दिवार की तरफ छिपा रही हो। उस जगह पे ऐसा नज़ारा? मैं उस औरत को बोलने ही वाली थी, की पीछे से किसी ने बोला, मैम, गाड़ी उठाओ और निकलो। दिखता नहीं, वो SP के घर के बाहर जैसी जगह बैठी हुई है। उन दिनों ड्रामे बहुत हो रहे थे, मुझे भी लगा हो सकता है, कुछ गड़बड़ हो। इसलिए चुपचाप निकल आई। मगर हजम नहीं हुआ। अगले दिन फिर ऑफिस के बाद, मैं वहाँ से गुजरी। मगर वहाँ सब साफ था। उस वक्त समझ नहीं आया, की वो सब क्या था? 

शायद कोई extreme hype? असलियत या महज ड्रामा? पता नहीं। 

मैं किन्ही के यहाँ गई हुई थी। वहाँ अकसर एक बुजुर्ग-अपाहिज खाना या पानी माँगने आता था। वो चलता भी बैठ के ही घिसट-घिसट के था। मगर जिस अकड़ और शब्दों से उनसे माँगता था, यूँ लगता था, क्या है ये। वो जिनसे ऐसे बोल रहा था, उन्हें बोला भी, आप डाँटते क्यों नहीं इसे? ये क्या तरीका है, बोलने का? उन्होंने कहा गरीब है, उसपे अपाहिज। यहीं थोड़ा पीछे जाके, मियाँ-बीबी एक झोपड़ी में रहते हैं। कई बार गुस्सा भी आता है और डाँट भी चुकी, मगर आदत से लाचार है। दया आ जाती है, तो दे देती हूँ। मैंने नोटिस किया की वो सिर्फ उस घर की औरत से ऐसे बोलता था। बाकी से नहीं, क्यूँकि डरता था। थोड़ा और जाना उसके बारे में। बस इतना ही कहा जा सकता है की अजीबोगरीब दुनियाँ है।      

जब कैंपस क्राइम सीरीज को लिखा और समझा जा रहा था, उसी दौरान जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की तरफ भी ध्यान गया। मेरे H#30, Type-4 के पीछे एक अमरुद का पेड़ था। लाल अमरुद, मगर बहुत ज्यादा बीज। खाने में कोई खास नहीं। मैंने नोटिस किया की उस पेड़ पे कुछ मोटी-मोटी सी गाँठे उभर आई थी। और वो बढ़ती ही जा रही थी, जैसे कैंसर में होता है। एक दिन एक दोस्त घर आई हुई थी, जो अकसर आती थी। उसने पेड़ की तरफ देखा और बोला, ये तो खोखला होने लगा, खत्म समझो। मुझे भी समझ आ रहा था। उसपे किसी घर में ऐसे पेड़ की कोई अहमियत भी नहीं होती, जिसका फल कोई खास खाने लायक ना हो और पेड़ भी खोखला या भद्दा लगे। हालाँकि, बचाना चाहो तो बचा सकते हो। क्यूँकि, कुछ वक़्त बाद समझ आया की वो बीमारी क्या थी। पैदा की हुई बीमारी, वो भी इंसानों द्वारा। क्यूंकि कई और पेड़-पौधों के साथ भी छेड़छाड़ हो रही थी। किसी में ऐसे हॉर्मोन्स डाल देना की फूल ही ना आएँ। और किसी में ऐसे हॉर्मोन्स डाल देना की फूल आने के बाद भी फल ना आए। हॉर्मोन्स एक तरह के रसायन होते हैं, और बहुत तरह के होते हैं। इनकी जीवों में अलग-अलग तरह की भूमिका होती है। अहम, ये था जानना, की किस पौधे में फूल या फल ना आएं, वाले हॉर्मोन्स डाले जा रहे थे और किन घरों या इंसानो तक वैसे दुष्प्रभाव थे? वैसे पौधे और किन-किन घरों में पहुंचाए जा रहे थे और उनका वहाँ क्या हो रहा था ?  

यूनिवर्सिटी के साथ-साथ, इस अध्ययन का दायरा,मेरे अपने गाँव और आसपास के दोस्तों और रिश्तेदारों के घरों पे भी होने लगा था। और उसके साथ-साथ दूरियाँ भी बढ़ने लगी थी। जहाँ कहीं ऐसा करने वाले लोगों को लगता है, की उनके नापाक इरादों को कोई देखने और समझने लगा है और जैसे ही वो समझ आम-आदमी तक पहुँचेगी, उनका सिर्फ खेल खत्म नहीं होगा, बल्की जहाँ ऐसे लोग अच्छे और अपने बने बैठे हैं, उनकी वो इमेज भी खत्म हो जाएगी। ऐसे में, ऐसे लोग फूट डालना शुरू कर देते हैं।       

राजनीती के छद्दम युद्धों की ये विद्या पुरानी है। जितना ज्यादा आप इसे पढ़ने और समझने लगेंगे, उतना ही ज्यादा इसके दुस्प्रभावों से बचते जाएँगे। छद्दम युद्ध में हमले आमने-सामने नहीं, बल्की गुप्त रूप से और चालाकियों और छल से होते हैं। मतलब, करने और करवाने वाले दिखाई भी ना दें और सामने वाले का काम तमाम। ज्यादातर बीमारियों के राज यहीं छिपे हैं। हालाँकि, आज हम उस युग में हैं, जहाँ छुपा कुछ नहीं है। आम-आदमी का तो कभी भी नहीं छुपा हुआ था। मगर आज राजे-महाराजों का भी नहीं छुपा हुआ। काफी हद तक, वो भी इधर-उधर से निकल के आ रहा है। और ये अच्छा है, आम आदमी के लिए।     
           

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