हर शब्द विशेष है। उसके अपने मतलब, अपनी खासियत है। जैसे पूजा
गणेश पूजा ?
या सरवस्ती पूजा ?
या बजरंगी पूजा ?
या शिव पूजा ?
पूजा शब्द एक है, मगर उसके साथ, अगर कुछ और जुड़ा है, तो वो उसका अर्थ एकदम से बदल देगा। एक शब्द की महिमा से राजनीती भी बदल जाएगी। उसके पीछे छिपा, विज्ञान भी। और आम-आदमी से उस राजनीतिक विज्ञान का, वाद-विवाद और संवाद भी। क्यूँकि, आम-आदमी से वाद-विवाद या संवाद का मतलब, भावनात्मक भड़क । हम किसी विषय को लेकर कितने सवेंदनशील हैं। उसी सवेंदनशीलता को हमारे खिलाफ भी प्रयोग किया जा सकता है। कुछ सवेंदनशीलता एक दुखती रग जैसी होती हैं। जिसे थोड़ा-सा छुआ नहीं, की भड़क गए। यही भावनात्मक भड़क है। भड़काने वालों के लिए, वही आम-आदमी से छल-कपट का माध्यम भी। जैसे राजनीती, इतना मंदिर-मस्जिद क्यों करती हैं? खासकर, चुनाओं के दिनों में? राजनीती को मालूम है, की धर्म-अधर्म, जात-पात के विषय, आम-आदमी के लिए संवेदनशील मुद्दे हैं। कितना ही गरीब आदमी क्यों न हो, अपनी गरीबी भूलकर, जीवन के अहम मुद्दे, रोटी, कपडा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य भूलकर, ऐसे-ऐसे मुद्दों पर अड़ जाएगा। जैसे उससे आगे दुनियाँ खत्म है।
बड़ी-बड़ी कंपनियों को तो और भी कैसी-कैसी, आम-आदमी की दुखती रगों का ज्ञान है। सब डाटा-खनन की वजह से। और वो उनको भुना के आम आदमी को खाती हैं। सिर्फ और सिर्फ पैसे और कुर्सियों के लिए। वो भी गुप्त तरीकों से। और आम आदमी को उसका ज्ञान भी नहीं। डाटा-खनन वो ज्ञान और विज्ञान है, जो आपके बारे में वो सब जानता है, जो खुद आप और आपके बहुत अपने भी नहीं जानते। अब आपका तापमान कितना है? 10 दिन पहले कितना था? 10-20 दिन बाद कितना होगा? या आपको कौन-सी बीमारी हो चुकी, अभी है या आगे हो सकती है? या कौन-कौन सी ना हुई, ना हैं, और ना हो सकती? मगर घड़ी जा सकती हैं, बड़ी आसानी से। है ना आपके अपने डाटा का कितना बड़ा शोषण, खुद आपके खिलाफ? सब राजनीती और बड़ी-बड़ी कंपनियों की मिलीभगत से। जब राजनीती वाले आम-आदमी से डाटा की बात करेंगे, तो शायद कुछ ऐसा बताएं, दिखाएं या सुनाएं; जो आपकी भावनाओं को भड़काए। मगर, हकीकत के पास होकर भी, बहुत दूर हो। इसी को मानव-रोबोट बनाना बोलते हैं। आपके बारे में जानकारी जितनी ज्यादा होगी, उतना ही आसान होगा, आपको मानव-रोबोट बनाना। यही नहीं, इल्जाम भी आपपे ही लगा देना। यही आज की SMART दुनियाँ है। अब शब्द भेद देखो। एक तरफ, SMART मतलब बुद्धिमान और दूसरी तरफ, हद दर्जे के गिरे हुए छल और कपट।
जुड़ाव, रीती-रिवाजों के माध्यम से, धर्म-कर्मों के माध्यम से। और संस्कृति के जालों के माध्यम से। जैसे किसी संस्कृति में काला कपड़ा शादी भी पे पहना जाता है, तो किसी में सफेद। किसी का शादी का कपड़ा लाल होता है, तो कहीं कुछ और भी हो सकता है। वही रंग जो एक धर्म या संस्कृति या रीती-रिवाज में शुभ अवसर पे पहना जाता है, किसी दूसरी संस्कृति या रीती-रिवाज में अशुभ पे। जैसे हिन्दुओं में, सफेद ज्यादातर किसी की मौत पे पहनते हैं, तो ईसाईयों में शादी पे। इसको PK में अच्छे से दिखाया गया है।
शुभ-अशुभ क्या है? जो आपको नुकसान ना करे, या फायदा पहुँचाए, वो शुभ है। जो किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाए, वो अशुभ। गलत तरीकों को अपनाके भी, किसी का नाजायज फायदा लेने की कोशिश करना भी अशुभ ही है। जैसे काला रंग, एक तरफ रहस्य्मय माना जाता है, इसलिए आम आदमी के लिए थोड़ा खतरनाक भी। इसलिए ज्यादातर अशुभ माना जाता है। तो दूसरी तरफ, सत्ता के लिए रहस्य्मय होना, मतलब, अपनी चालों, घातों और छलों को छुपाना। हर तरह का साम, दाम, दंड, भेद प्रयोग करके भी, शुभ है। सत्ता के गलियारों के ज्यादातर शीशे काले होते हैं। खुद को और अपने गुनाहों को छुपाने के लिए। मगर वही शीशे, सफेद मिलेंगे या कहो ऐसे मिलेंगे, जिनके आर-पार, साफ-साफ दिखता हो। जब-जब कुछ "दिखाना है, बताना नहीं" का सवाल हो। क्यूंकि, वो साफ-साफ तो आम जन को दिखाने के लिए है। कालिख उसके पीछे छुपा है। जिसमें ज्यादातर विज्ञान का दुरूपयोग है।
एक माँ अपने बच्चे के कान के पीछे काला टिक्का लगाती है और बोलती है, किसी की नजर ना लगे। मतलब, बुरी नजरों से बचाना। अब कोई काला टिक्का, वो भी कान के पीछे लगा, किसी काली नज़र से कैसे बचा सकता है? क्या विज्ञान या मनोविज्ञान होगा इसके पीछे? वैसे ही जैसे चौराहे पे, पैर आ गया या माता धोकन जाऊँ सूं? और भी कितने शब्दों के अर्थ वैसे नहीं होते, जैसे वो समझ आते हैं या दिखते हैं।
जैसे कोई बोले आप मंजु हैं। और आपको घर पे कोई मंजु बोलते हों। माँ ने दिया हो, वो नाम। फिर वो बोलें, मंजु रानी? और आप बोलें ना बेटा, हमारे यहाँ रानी-महारानियाँ नहीं होती। वो काम करने वाली होती हैं, घर पे। फिर बोलें, अच्छा तो आप फलाना-धमकाना की बेटी हैं या पोती हैं? किसी और का नाम लेके। आपके अपने माँ-बाप या दादा-दादी का नहीं। और आपको बोलना पड़े, हाँ, वैसे-ही, जैसे आप अपने माँ-बाप के नहीं, किसी और के माँ-बाप के हैं। कितना बेहुदा हो सकते हैं ना लोग? अब एक शब्द किसी और शब्द या शब्दों के मिलकर बनने से मौलिक नहीं रह जाता, बल्की कृत्रिम (Synthetic) जैसा हो जाता है। जैसे, हर शब्द की अलग पहचान है। अलग अर्थ है, वैसे ही हर इंसान अपने आपमें अनोखा है। वो कोई और हो ही नहीं सकता। हाँ। राजनीती या जुए के खिलाड़ी, उसे alter-ego बता सकते हैं ।
Alter, शब्द का अर्थ क्या है? बदलना। अपने अनुसार फिट करना। इधर-उधर से जोड़ना-तोडना, काटना वैगरह। जैसे कोई कपडा आपको फिट ना हो और आप टेलर को कहें, इसे alter कर दो। Ego, मतलब अहंकार। खासकर, जब आप इसे आदमी पे प्रयोग करते हैं। यही है alter ego। बड़े कहे जाने वाले लोगों में, शायद ये अहंकार ज्यादा होता है। तुम जैसा मैं चाहता हूँ, वैसे क्यों नहीं हो? हम अब तुम्हें, अपनी मन चाही alter ego बनाएंगे। Alter ego, एक तरह की छवि भी। जैसे कोई बोले, मुझे पता है, तुम्हारी छवि क्या है। आप बोलें क्या है? अब एक इंसान के लिए वो अच्छी भी हो सकती है। किसी दूसरे के लिए, शायद बहुत अच्छी। किसी तिसरे के लिए, शायद उतनी अच्छी ना भी हो। राजनीती में इसे Perception War भी कहते हैं। आम-आदमी के बीच, जब राजनीतिक पार्टियाँ लड़ती हैं, तो इसी Perception War को लड़ती हैं। उनके प्रचार-प्रसार माध्यम, इसी छवि के इर्द-गिर्द, पैसा पानी की तरह बहा रहे होते हैं। उसमें मीडिया और राजनीतिक शाखाएँ अहम भूमिका निभाती हैं। इसीलिए राजनीती में चीरहरण भी होते हैं जिन्हे Character-Assassination बोला जाता है। इसीलिए वो दिखाना है, बताना नहीं जैसे खेल खेलते हैं। खेल, आम आदमी की ज़िंदगियों के साथ। जहाँ हर तरह की बुद्धिमता, छल और कपट प्रयोग होता है। इसीलिए कहा जाता है, की जो दिखता है, वो होता नहीं। और जो होता है, वो दिखता नहीं। मगर देखना चाहो, तो दिखने भी लगता है और सुनने भी।
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