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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Sunday, April 30, 2023

किसकी ज़मीन?

आप जब दो-चार घंटे के लिए, वो भी दस-पन्दरह दिन में कहीं आते-जाते हैं, तो उस जगह को, उन आदमियों को नहीं जानते, वैसे -- 

जैसे, जब किन्ही भी वजहों से आपको वहाँ रहना पड़ जाए। और कब तक, ये भी मालुम ना हो। इसी दौरान कुछ अजब से पहलुओं से मुलाकात हुयी, हमारी अपनी सभ्यता के। ऐसा भी नहीं, की इससे पहले बिलकुल भी वाकिफ़ नहीं थी। मगर, शायद ऐसे आमना-सामना नहीं हुआ, जैसे इस दौरान।  

आप 21वीं सदी की बात करते हैं, मगर कहीं-कहीं हालत आज भी शायद कई सदी पुराने हैं। और बनाये किसने? हमारे अपने पढ़े-लिखे जुआरियों ने। खासकर, वो काला कोट पहनकर न्याय की बात करने वालों ने? शायद कुछ हद तक। अब ऐसे-ऐसे cryptic केस लड़ोगे, तो समाज कहाँ जाएगा? उलझा रहेगा जातों, धर्मों में। निकल ही नहीं पायेगा, अजीबोगरीब जमीनों-जायदाद के विवादों से। जहाँ लोग लोभी, लालची और स्वार्थी ना भी हों, तो भी राजनीति के काले जाले और अजीबोगरीब बुने हुए ताने-बाने लोगों को धकेलेंगे ऐसे विवादों में। अपने-अपने राजनीतिक लाभ के लिए।   

और मान भी लिया जाए की राजनीती की मार शायद उतनी नहीं है, जितनी लालच या लोभ की, या एक परिवेश से उपजे मानसिक विचारों की। तो भी समाधान कहाँ है? मुझे कभी समझ नहीं आया की लड़कियों को अपना हिस्सा मांगना क्यों पड़ता है? और लड़कों को पैदायशी क्यों मिल जाता है? लड़की जहाँ पैदा होती है, वहाँ पराया धन कैसे हो सकती है? और वो अपने घर में ही पराया धन है, तो आगे जाके किसी ससुराल में अपना धन कैसे हो सकती है? सबसे बड़ी बात, यहाँ औरत सिर्फ़ और सिर्फ़ एक आदान-प्रदान का धन है? जैसे की जमीन किसी की? भला जमीन भी कभी किसी की हुयी है? हाँ, जमीन मरने के बाद सबको मुट्ठी भर जगह जरूर दे देती है। फिर वो राजे हों या रंक। किसके साथ गयी है? या जाने के बाद उसी की रही है? राजे-महाराजाओं की? या उनकी औलादों की? राजनीतिक मैप पर कुछ लाइन्स खींच देने से, या बाड़ें, दीवारें, हथियारबंद आदमी खड़ी कर देने भर से?

इस समाज के औरतों की ज़्यादातर समस्याएँ, इसी मानसिकता की ऊपज हैं। और सिर्फ़ औरतों की ही नहीं, बल्कि अपने आप में उस समाज की भी। इसका सीधा-सा समाधान है, की जहाँ लड़कियों को उनका हिस्सा न मिले या जिसके लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़े, ऐसी जमीन को उसके न रहने पर भी सरकारी घोषित कर दिया जाए। क्युंकि, ऐसे समाज में ऐसी लड़कियों को खत्म करने के चांस भी बढ़ जाते हैं। ख़ासकर, जब ताने-बाने के जाले पुरने वाले राजनीति से प्रेरित हों। 

मगर ऐसा सिर्फ लड़कियों के साथ हो, ये भी जरूरी नहीं। दुसरी किस्म की समस्याएँ भी हों सकती हैं। जैसे की ज़्यादातर, ज़्यादा शराब या ड्रग्स लेने वालों के साथ होता है। समझ से परे है, की जो इंसान बोल क्या रहा है, उसे ये मालुम हो या ना हो, मग़र वो अपनी जमीन बेचने लायक है? या बोतल थमाई ही ऐसे लोगों द्वारा जाती हैं, जो उस जमीन-जायदाद पर निग़ाह रखते हैं? ज़्यादातर ज़वाब शायद हाँ में ही होंगे। 

वैसे किसी के पास पैदायशी सैकड़ों एकर हों और किसी के पास कुछ भी नहीं। आप पैदा कहाँ हुए हैं, यही आपकी नियती निर्धारित कर दे, ग़लत तो ये भी है। ऐसे लोगों को भी कुछ तो न्यूनतम मिलना चाहिए। 

मुट्ठी भर जंमी और मुट्ठी भर आसमान

आदमी को चाहिए 

मुट्ठी भर जंमी 

और मुट्ठी भर आसमान 

बस हो गया पुरा उसका जहाँ

फिर ये इतना झोल क्या है?   


उनकी जमीन और तुम्हारी जमीन अलग है? 

उनका आसमान और तुम्हारा आसमान अलग है ?

हाँ जैसे --

जुए की जमीन और लड़की की जमीन? 

जुए के शिकार और लड़की के विचार? 

वैसे ही जैसे, जुआरियों के स्कूल? 

और लड़की की समझ के स्कूल ?

वैसे ही जैसे सुप्रीम-कोठे का धंधा 

और लड़कियों की तकदीरों के फंदे?

अलग हैं क्या -- 

मगर बना दिए गए एक हैं?   


शायद वैसे ही, जैसे, इस समाज में, लड़कों की पुस्तैनी जमीन-जायदाद, और लड़की की, अपनी खुद की कमाई? सही है क्या? 

Thursday, April 27, 2023

शैतान-दिमाग! तोड़फोड़-भेझे!

Let's Crack

Let's Break

Let's Kick Out

Let's Finish Off

क्या है ये सब? ऐसा ही बहुत कुछ और भी। 

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थोड़ा कम्प्युटर करें?

हाँ दो। 

और मैंने एक लैपटॉप उसे थमा दिया। 

उसने इंटनेट चलाया और अपने कार्टून्स देखने लगी। थोड़ी देर बाद आपने फिर वही प्रश्न दोहराया। Can we do some computer work?

No! गुस्से में। 

क्यों? कम्प्युटर आपको अच्छा नहीं लगता?

लगता है। 

फिर?

मुझे मम्मी वाला लैपटॉप चाहिए। 

अबकी बार जाऊँगी तो ठीक करवा लाऊँगी। अभी इसी पर कर लो। 

ये ठीक कैसे हो गया ? वो क्यों नहीं हुआ ? मम्मी का था इसलिए ?

एक गन्दी-सी कम्प्युटर शॉप पे गयी थी। उसने नहीं किया। 

अच्छा। उसने ये कैसे कर दिया ?

He is a bad guy. That's why. 

तो किसी और शॉप से करवा लेते। 

दिल्ली या चंडीगढ़ साइड जाना होगा, तो हो जाएगा। 

क्यों रोहतक में कोई और शॉप नहीं है?

है। एक दूसरे से भी करवाया था। वो भी bad guy निकला। 

दिल्ली, चंडीगढ़ भी bad guy निकले तो?

आपको नया मिल जाएगा। 

मुझे तो यही चाहिए। 

OK, ऐसा ही मिल जाएगा। 

ऐसा नहीं, यही। 

हुँ! और आप चुप। उसे मालूम ही नहीं, की आप ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे, कई और खुरापातियों की वजह से खराब लैपटॉप लिए हुए हैं। जिसमें एक इस जिद्दी बच्चे का भी टैबलेट है। थोड़ी-सी जिद शायद अच्छी भी है, खासकर तब, जब सामने वाले ने, सिर्फ और सिर्फ शैतानी के इरादे से ऐसा किया हो। 

इन्ही समस्याओं के चलते कभी ज्यादा महँगा लैपटॉप लिया ही नहीं। स्टार्टिंग रेंज लो। खराब हो जाए तो ठीक कराने के नाम पे ज्यादा धक्के खाने की बजाए, नया ले लो। ऐसे bad guys लोगों को जब इसका पता चलता है, तो वो और ज्यादा खराब करने लगते हैं, शायद। 

और ऐसा नहीं है, की ये समस्या सिर्फ़ लैपटॉप या टेबलेट्स के साथ ही हैं। ऐसे bad guys हर प्रोफेशन और हर फील्ड में हैं। किसी में कम तो किसी में ज्यादा। वो ना कोई इलेक्ट्रॉनिक एप्लायंस या व्हीकल बक्शते हैं और ना ही इंसान। Bad guys, मतलब जानवर, शैतान और भी शायद बहुत कुछ ऐसा-ही? हम उस दुनिया में हैं, जहाँ लोग शवों पे भी पैसे बनाने के चक्कर में रहते हैं। बचे-खुचे लोगों को एक दूसरे से भिड़वाने के चक्कर में रहते हैं। फिर एक छोटा-सा लैपटॉप बला ही क्या है? 

Tuesday, April 25, 2023

प्रतियोगिताएं -- चाही-अनचाही !

प्रतियोगिताएं -- चाही-अनचाही!

ऐसी-वैसी, कैसी-कैसी ?   

 बचपन में ही हो जाती हैं शुरू 

और 

चलती रहती हैं, आख़िरी साँस तक 

कितनी जरूरी? कितनी गैरज़रूरी?

बेवज़ह, यहाँ-वहाँ, कहाँ-कहाँ ?


ज़िंदगी आसान है 

जितनी बेवजहों को 

या खामखाँ थोपी हुई मुश्किलों से 

जितना जल्दी करलो किनारा 

ज़िंदगी उतनी ही मुश्किल है

जितनी ज़्यादा देर, उलझे रहो 

गैरज़रूरी या खामखाँ थोपी हुयी मुश्किलों में !

माटी के कच्चे-पुतले

बच्चे जैसे?

सीधे-साधे लोग? 

भोले-भाले लोग?   

अनपढ़-गँवार लोग? 

गँवारपठ्ठे?

अपरिपक्कव इंसान?  

आसानी-से धोखा खाने वाले लोग?

आसानी-से बहकाई में आ जाने वाले लोग?


Or Gullible Crowd? Gullible People? 

कौन हैं ये लोग? शायद हममें से हर कोई? किसी न किसी रूप में, कहीं न कहीं? कुछ थोड़े-से कम, तो कुछ थोड़े-से ज़्यादा?     

बच्चे दिल के सच्चे 

बच्चों के खेलों को देखना-समझना और उसका विश्लेषण करना, अपने आप में एक दुनिया दिखाता है। 

आस पड़ोस में कई सारे बच्चे हैं -- कुछ cousins, कुछ अड़ोसी-पडोसी, कुछ इधर-उधर के। इनमें से एक बच्चा या यूँ कहुँ बच्ची, मारने-पिटने में अव्वल थी। बाकी ज़्यादातर, मार-पिटाई खाते रहते थे और शिकायतों के ढ़ेर रखते थे, उसके खिलाफ़। 2-3 साल बाद ही, सारे बच्चे मार-पिटाई के खेल-खेलने लगे।  ये सब देखके अज़ीब भी लगता, और अटपटा भी। एक-दो बच्चों के व्यवहार को बदलना, कितना आसान या मुश्किल है? बजाय की सबको लड़ाका बना देना? 

यही हाल भाषा के हैं। अब ये सब दूर से तो कहीं आएगा नहीं। सीधी-सी बात, अपने वातावरण से सीख रहे हैं। वातावरण, आप अपने बच्चे का निर्धारित कर सकते हैं या ज़्यादातर कुछ खास अपनों का। उससे आगे तो थोड़ा मुश्किल है। हालाँकि इस मुश्किल का काफी हद तक हल है। वो स्कूल, जहाँ ये बच्चे पढ़ते हैं। क्युंकि, ये वो जगह है, जहाँ वो घर के बाद अपना सबसे ज्यादा वक़्त गुजारते हैं। और घर के बाद जहाँ की मानते भी हैं। 

अजीबोगरीब प्रतिस्पर्धा: माँ-बाप बच्चों में प्रतिस्पर्धा रखते हैं, किस का एक या दो अंक कम या ज़्यादा है। किसका एक या आधा अंक कट गया? मगर --

कौन कैसे बोलता है ? क्या-क्या खेलता है ? अब इसकी प्रतिस्पर्धा कौन रखे? क्युंकि, उसके लिए तो आपको खुद को भी जिम्मेदार ठहराना पड़ेगा। खुद में भी थोड़ा-बहुत बदलाव करना पड़ेगा। बस यही वो मार है, शायद जहाँ परवरिश कैसे लोगों के बीच हुयी है, का फ़र्क दिखने लगता है।  

माटी के कच्चे पुतले धीरे-धीरे ढलने लगते हैं, अपने आसपास के रंगों की घड़ाई में।

बच्चे वो साँचा हैं, जिन्हें जिस किसी साँचे में ढालोगे, वो ढल जाएँगे। उसके बाद इंसान जितना बड़ा होता जाता है, उतना ही मुश्किल होता जाता है। हालाँकि असंभव कुछ नहीं। 

माटी का कच्चा पुतला पे पहले भी शायद कहीं कुछ लिखा था: 

Click on: माटी का कच्चा पुतला 

Or copy-paste: https://worldmazical.blogspot.com/2016/08/blog-post.html

Thursday, April 13, 2023

Countryside Beauty from Here or There



Or copy-paste: https://www.youtube.com/watch?v=yxzeNqWJv98

कौन हैं ये अंधभक्त, कौन है ये आदमखोर?

एक तरफ हैं अंधभक्त और दुसरी तरफ़?

इस आदमखोर का खात्मा जरूरी है?

अब कौन हैं ये अंधभक्त?

और कौन है ये आदमखोर?

ये भी तो जानना जरूरी है। 

नहीं?     

Saturday, April 8, 2023

Modi No More!

 Think, tomorrow's breaking news: Modi No More!

अरे सोचने के लिए बोला है। 

क्यूँकि, किसी भी परिणाम की पहली सीढ़ी सोच से शुरू होती है?  

ऐसे तो दुनिया पता नहीं, किस-किसको रोज मार के सोती है। नहीं ?

हाँ भी और नहीं भी। 

चलो करते हैं, एक शुरुआत। बहुत हुआ। फुट बे। तेरे बाप की ना है यो कुर्सी। 

कुछ-कुछ, बोले तो कुछ भी? या सही है?

आप सोचिये, आते हैं Breaking News पे, किसी अगली पोस्ट में।    


तुम जहाँ रहते हो

तुम जिसके पास रहते हो, उसी जैसे-से दिखने लगते हो। कैसे? व्यवहार भी, वैसा-सा ही करने लगते हो। 

कुछ साल पहले, दो बच्चों के बालों में, कुछ अजीबोगरीब बदलाव महसुस किये गए।जेनटिक के हिसाब से, वो कुछ हज़म नहीं हो रहा था। एक बच्चे के पैदायशी, सीधे भारतीय भूरे-काले बाल, काले और  घुँघराले में बदलने लगे थे। दूसरे के पैदायशी, काले और घुँघराले बाल, सीधे और हलके काले में। कोई बड़ी बात नहीं। कितने ही तो कॉस्मेटिक्स हैं बाज़ार में, ऐसा करने के लिए। मगर, वो इन बच्चों के केस में संभव नहीं लग रहा था। माँ-बाप ही इतना पार्लर नहीं जाते, तो बच्चे कहाँ से जाएँगे?

उस वक़्त ये शायद किसी ने लिखा था कहीं, "तुम जिसके पास रहते हो, उसी जैसे-से दिखने लगते हो।" मुझे समझ नहीं आया तब। शायद, अब कुछ-कुछ आ रहा है।  

व्यवहार भी, वैसा-सा ही करने लगते हो। 

खाते-पीते वही हो। नहाते-धोते उसी पानी से हो। रखरखाव भी, वैसा-सा ही रखते हो। नहाने-धोने के लिए, रखरखाव के लिए, प्रोडक्ट्स भी तक़रीबन वही प्रयोग करते हो। छोटी-मोटी बिमारियों के नाम पे, दवाईयाँ भी वहीं की लेते हो। तो क्या होगा? 

पहले मैं यहाँ से कोई प्रोडक्ट कम ही लेती थी। चाहे वो खाने-पीने का हो या किसी और तरह का। क्युँकि, इतनी देर रुकना ही नहीं होता था। अब जब रूकना पड़ा, तो काफी-कुछ समझ आया। दिनप्रतिदिन प्रयोग होने वाला कुछ  सामान, मैंने यहाँ से लेना शुरू कर दिया। 

ये भी समझ आया की Molecular Bio के Codon Usage की तरह, हर प्रोडक्ट का अपना एक कोड है और वो किस कोड वाली जगह या दुकान पे फिट बैठता है, वो प्रोडक्ट भी वहीं आएगा। इसमें काफी कुछ automation पे है और काफी कुछ semi-automation ऐसे ही जैसे, इस जगह इनके हॉस्पिटल हैं, उस जगह उनके। इन हॉस्पिटल्स में, इन-इन कंपनियों की दवाईयाँ मिलेंगी। उन हॉस्पिटल्स में उनकी। बदल गए, उनको बनाने वाली सामग्री और तरीके। तो प्रभाव भी बदलेंगे।   

सोचो, एक ही कंपनी, एक ही प्रोडक्ट, मगर थोड़ी-सी जगह बदलते ही, उसपे कुछ अजीब-सा, कोई शब्द बदला मिले? ऐसा एक नहीं कई प्रोडक्ट्स के साथ हुआ। आपने कोई खाने का सामान लिया है। याद ही नहीं कब से वही ले रहे हैं। दोनों जगह पैकेजिंग वही, स्वाद भी वही, दिख भी वैसा ही रहा है। मगर बड़ा-सा लिखा एक शब्द, आपको उत्सुक बनाता है। और आप सोचते हैं, ये क्या है? वैसे भी मेरी आदत का हिस्सा है, तारीख़, ingredients वैगरह जाँच कर लेना।   

एक जगह के उसी कवर पे अंदर की साइड M, और दूसरी जगह B। अब किसी खाने-पीने की वस्तु के अंदर के कवर पे भी, ऐसा क्या फर्क हो सकता है? ये कौन-सा, electronic-items की chip हैं? 

कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे, कहीं सीधे और खुले बालों का चलन हो। बाँधना हो, तो इक्क्ठ्ठे किये, सिम्पल सा रुफल डाला और हो गया। मतलब, जो काम आसानी से और कम वक़्त में हो सके और ठीकठाक भी लगे। और कहीं चलन में,जलेबी-जैसी, सीधी-सी-चोटी (Braid)। वहां पर शायद वही अच्छी लगती है। उनके लिए खुले बाल मतलब, भूतनी! भांध ले इन्ह, भुंडी लाग्य सै। दादियों के वक़्त में, एक जबस्दस्त गुँथा-हुआ, सिर के ऊपर जुड़ा जैसा-सा चुण्डा होता था, जो वो खुद नहीं बनाती थी, बनाने वाली आती थी। तो कहीं बच्चों को नए-नए शौक थमाए जा रहे हों। आज इधर से, कल उधर से, परसों उधर से, टेढ़ी-मेड़ी, उलटी-पुल्टी, कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी इस साइड से, तो कभी उस साइड से, कभी एक, कभी दो, कभी और भी ज्यादा। आओ, पार्लर-पार्लर खेलते हैं। खामखाँ की रोकटोक, शायद किसी को भी अच्छी नहीं लगती। खासकर जबतक बताया ना जाए, की ऐसे या वैसे करने से फर्क क्या पड़ता है। हमें क्या करना है, या क्या बनना है, उसके हिसाब से वक़्त कहाँ लगाना चाहिए। वक़्त, जरूरतों, जगह और समय के हिसाब से काफी कुछ बदलता है।   

मगर इन्ही के अंदर छिपा होता है सिस्टम, राजनीतिक कोड्स और पार्टियों के द्वन्द्व। बच्चों से लेकर बड़ों तक, सिर्फ उनका अनुशरण कर रहे होते हैं। ज़्यादातर बिना जानकारी के। इसीलिए, अगर आप किसी या किन्हीं बिमारियों का बार-बार शिकार हो रहे हैं या लगता है, की ये किया हुआ है -- राजनीतिक बीमारी है, तो जगह बदल कर देखिये, शायद ठीक हो जाएं। वो कहते हैं ना, कुछ बीमारियाँ हवा-पानी बदलने से ही खत्म हो जाती हैं। क्युंकि, उस हवा-पानी के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है। वैसे ही, जैसे, भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान आदि। ये सब पेड़ पौधों से ज्यादा सीखा जा सकता है। 

Friday, April 7, 2023

छोटी-छोटी सी बातें, जब सिरदर्द लगने लगें

Creation of Parallel Cases in Society

कल की ही तो बात थी, जब मेरा जन्मदिन, मेरे उपहार, आपका जन्मदिन भी मेरा जन्मदिन और बच्चों की खुली-सी मस्ती। मगर, एक ही दिन में घुट-सी गयी थी वो। बदल गयी थी, उदासी में । उसके बाद जो हुआ, वो तमाशा पहली बार देखा था। बच्चा जैसे उठा लिया गया था। किसी अपहरण की तरह। शायद पसंद नहीं आया, कुछ लोगों को उसका यूँ शिकायत करना कहीं। चाहे वो शिकायतें थी, डरे-सम्हे, एक दबे-से बच्चे की। 

मेरी नजरों से ही ओझल कर दिया गया था उसे। घर रहके भी घर नहीं थी वो। जैसे वो घर उसका कभी था ही नहीं। जैसे निकाला दे दिया हो, उसे उस घर से -- पड़ोसियों के यहाँ या गली में। कौन पड़ौसी? कैसे पड़ौसी? किसके पड़ौसी? क्या लेना-देना उनका, किसी के बच्चे से? बच्चे के पेपर सिर पे और माँ है नहीं। घर में सब अनपढ़-गवाँर। कोई पढ़ाने वाला नहीं। गररररररर 

सच में?

अब tution तो लगाना पड़ेगा ना? अरे वो पहले से पढ़ाती है, तो अब भी पढ़ा लेगी?

सच में?

पहले से, कब से? अभी 2022 में पढ़ाना शुरू किया है। Correspondence से MA कर रही है। नहीं कर चुकी।    

बढ़िया। 

तुम्हे छोटे बच्चों को पढ़ाने का तजुर्बा नहीं है ना। 

और आप हक्के-बक्के से, सामने वाले के मुँह की तरफ देख रहे हैं। और सोच रहे हैं, 31st जनवरी तक तो था, शायद। कम से कम अपने घर के बच्चे को पढ़ाने का। हाँ, tution का जरूर नहीं है। इजाज़त नहीं होती, सरकारी नौकरी में और ना ही कभी महसुस किया, ऐसा करने का। फिर ऐसा क्या बदल गया? शायद बहुत कुछ, 1st, फरवरी को। 

आसपास एकाध और आवाज़ आती हैं, क्यों सिरदर्द ले रहे हो। वो ...... है ना।  

और आप मन ही मन सोचते हैं, "सिरदर्द? अपने बच्चे को पढ़ाना सिरदर्द?"

अब बच्चा आपके पास थोड़ी बहुत देर खेलने के बहाने आता है, बस। 

1-2 दिन बाद वो भी बंद। अब खेलेगा भी वहीँ। वही पड़ोस में tution वाली madam के पास।- Correspondence-MA  

उसके बाद खाना-पीना भी वहीं। कई बार तो दादी भी रस्ता ही देखती रह जाए। 

आपको लगता है, बच्चा ज्यादा ही बाहर खेलने लगा। रात के 9.00 बजे तक। 9.30 बजे तक। आप भी उसके पीछे-पीछे रहने लगे। और इसी के साथ इधर-उधर खटपट भी रहने लगी। और आप मन ही मन सोचते हैं --एक माँ, कितनी जरूरी है, बच्चे के लिए। कितना कुछ करती है। उसे पल-पल की खबर है, अपने बच्चे की। कितनी देर पढ़ना है। कितनी देर खेलना है। कहाँ खेल सकते हो और कहाँ नहीं। कब तक खेल सकते हो, और कब तक नहीं। और भी पता नहीं क्या-क्या। कितना कुछ बदल जाता है, सिर्फ एक इंसान के ना होने से -- खासकर माँ। दादी या बुआ वो सब करने लगें तो खामखाँ की बड़बड़ क्यों? सब जैसे सिर के ऊपर से जा रहा था। 

अब इन अजीबोगरीब पड़ोसियों पे, अजीबोग़रीब शक होने लगा। भला कोई क्यों करेगा ऐसा? किसलिए? और इसमें बच्चे की भलाई कहाँ है? क्या-क्या सीख रहा है वो, ऐसे माहौल में? धीरे-धीरे, आप ये सब, कुछ अपने बड़ों से, इधर-उधर बाँटने लगते हैं। जो शायद कुछ कर सकते हैं। और थोड़ा बहुत बदलाव होता भी है। बच्चा वापस घर दिखने लगता है। दैनिक दिनचर्या में कुछ-कुछ पहले की तरह लौटने लगता है। मगर कुछ जगह, कुछ अजीबोगरीब सख्ताई भी होने लगती है। ये जिसकी शिकायतों से हुआ है, उससे जितना और जैसे हो सके, दुर रखने की कोशिशें।  

वो नयी-नयी tution वाली मैडम, उसकी माँ वाले स्कूल में पढ़ाने लगती है। चलो अच्छा है। सब निठल्ले, जितनी जल्दी, अपने-अपने कामधाम लगें, उतना अच्छा। इधर-उधर, फालतु का दिमाग कम चलेगा। उलटे-पुल्टे काम कम होंगे। इधर-उधर परेशानियाँ कम होंगी। 

मगर 

अब बच्चे का स्कूल बदलने की भी खबरें चलने लगी। हाँ। ख़बरें चलने लगी। अब ये क्या बकवास है? और क्यों? वो भी, वहीँ tution वाली madam के साथ जाएगा। अच्छा? अगर वो स्कूल इतना अच्छा था, तो उसकी माँ अपने साथ ही ना ले जाती? मैंने तो सुना है, वो खुद भी स्कूल बदलने .....

एक समझदार (?) पड़ोसन: अरे दो पैसे बचेंगे। 

और आप फिर से चुप, मन ही मन सोचते हुए। पढ़ाई में भी दो पैसे बचाने हैं? क्या सोच है। और सच में ऐसी कोई नौबत आ गयी और तुम्हें खबर ही नहीं। कैसे अपने हो तुम?

थोड़ा रूककर आप बोलते हैं। पैसे की दिक्कत, किसी की तरफ देखते हुए? जो कल देता था, अब भी वही देगा। बस कुछ महीने की दिक्कत थी। लड़की स्कूल नहीं बदलेगी और ना ही पैसे की ऐसी कोई दिक्कत। यहाँ, स्कूल की पढ़ाई में तो फिर कुछ लगता ही नहीं। 

मामला कुछ और है? क्या है? क्यों है? किसलिए है? महज़ राजनीति? खतरनाक राजनीति? और क्या कहा जाए?

ऐसे ही बनते हैं Parallel Cases?

Twists, Turns, Manifestations, Manipulations as per requirements.

Brain-Wash ( जादु?)

जादु? या (Brainwash) -- किसी खास उदेश्य से विचार, भाव, बर्ताव आदि बदलने की कोशिश करना। 

ऐसा कहाँ-कहाँ संभव है? पहले इसे आतंकवादी बनाने में प्रयोग करने वाली विधि के रूप में यहाँ-वहाँ पढ़ा था। ज़्यादातर, अख़बारों में। उसके बाद, दिमाग-नियंत्रण के तौर-तरीके और राजनीतिक पार्टियों द्वारा सामाजिक स्तर पर इसके दुरूपयोग के किस्सों में, वाद विवादों में। जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी का समाज पे प्रभाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ये सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) में ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हो रहा है। कहीं सही, तो कहीं गलत। 

किस तरह के लोगों को आसानी से नियंत्रित (Control, Brainwash) किया जा सकता है?  

और किस तरह के लोग टेढ़ी खीर साबित हो सकते हैं?

सीधी सी बात -- भोले, अंजान, अनभिज्ञ और ज़्यादातर कम पढ़े-लिखे। ज्यादातर! हमेशा जरूरी नहीं। क्युंकि कभी-कभी, अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे भी धोखा खा जाते हैं और कम पढ़े लिखे बच निकलते हैं। क्युंकि, ये सब इसपर भी निर्भर करता है, की सामने वाले को किसी विषय-वस्तु की जानकारी कितनी है। 

बच्चों के केस में, ये सबसे आसान होता है। इसीलिए बच्चों को कहीं भी ऐसी जगह या ऐसे लोगों के बीच या आसपास भी अकेले नहीं छोड़ा जाता। मगर क्या हो, जब जाने-अनजाने, कुछ खास अपने कहे जाने वाले लोग, किन्हीं जालों के चक्कर में आकर, ऐसे किसी प्रोग्राम या षड़यंत्र का हिस्सा बन जाएँ?

किसी और के घर के बच्चे की इतनी अहमियत किसी या किन्हीं बाहर वालों के लिए, कैसे और क्यों हो सकती है? किस तरह की राजनीति हो सकती है, उसके पीछे? और उसके परिणाम क्या हो सकते हैं?

आइये पहले Brainwash के तरीकों को जानते हैं: 

सबसे पहले ऐसे किसी आदमी को या समुह को, उनसे अलग करना होता है, जो किसी भी तरह की brainwashing  में रोड़ा बन सकें। कौन होंगे ऐसे लोग? परिवार या उनके शुभचिंतक। किसी भी तरह से उनसे अलग करो। ऐसे किसी भी रोड़े को रस्ते से साफ़ करो। काम बहुत आसान हो जाएगा। 

अब brainwash किये जाने वाले व्यक्ति की पढ़ाई शुरू होती है। जिनसे दूर करना है, उनके खिलाफ भड़काने के तरीके क्या-क्या हो सकते हैं? खासकर जब, जिसके या जिनके खिलाफ भड़काना हो, वो बहुत अपना या खास हो? आप सच्ची-झूठी जितनी बुराई उनके खिलाफ, उस इंसान के पास रहते हुए कर सकें। जरूरी नहीं वो सच भी हो या आसपास भी हो। समझदार आदमी होगा, तो हक़ीक़त जानने की कोशिश करेगा। ज्यादा तिकड़म वाले शायद उन कोशिशों में ही फंसा लें, येन-केन-प्रकारेण। और बच्चा हो तो? कोशिश ही नहीं कर पायेगा। शायद उसे सहायता चाहिए, तो शुरू-शुरू में चोरी-छुपे बताएगा, डर-डर के। जब शैतानों को ऐसा कुछ पता चलेगा, तो वो उस पर भी जैसे-तैसे प्रतिबंध लगाने की कोशिश करेंगे। तब कहाँ जाएगा वो? वो सब उसके व्यवहार में आना शुरू हो जाएगा। चिखना-चिलाना, रोना, बात-बात पे चिढ़ना, बात-बात पे मारना-पिटना, उदास रहना। और शायद वक़्त के साथ जालों के जंजाल में फंस जाएगा?

अगर ऐसे किसी केस का पता हो, तो समय रहते बचा भी सकते हैं? क्यूंकि ऐसे-ऐसे केसों में, किसी Parallel केस जैसी-सी घड़ाई की तरह, हर कदम पर खामियाँ ही खामियाँ धरी होती हैं। 

Vacation Zone

Off track, a bit longer. Coming back to track, soon. What's that? Just a feeling? Remove that from your mind and nothing off track? 

OK. Something on track. Something off track. Writing on track. Exercise zone, off track. Some praise somewhere, some criticism somewhere, part and parcel of life, of public writing. Something taking a bit time. But some support somewhere and welcome sign. Thank you. Whoever wanna use these writings can use. They are for public. Just give a reference (writer's name and link). 

In this part of world, rural setting and still not having that comfort zone of doing things, the way, I wanna do them. Maybe, it will take some more time. Maybe, few more months. Still no proper office setting, the kind I need. But sometimes, not so comfort zone and some abrupt happenings, do become fuel to some writing. Like, whatever I am writing these days, I did not thought about much. They are either curiosity zone resultants or some questions arose from here or there. 

Whatever I planned, is still in folders, waiting to be unfold. Botanical choreography, political diseases, poetry, and blah, blah, at different stages. Some just need lilbit edit. Some still not started. Some started but will take time, not in any hurry. Rather should say, they cannot be done that way.

Missing something? Rural places are themselves some kind of vacation zone. Take it easy. You can be lazy and still no problem. 

Thursday, April 6, 2023

जादु?

 जादु (Manifestations and Manipulations) 

काला जादु 

धोला जादु 

हरा जादु 

पीला जादु 

नीला जादु 

और जाने कैसा-कैसा जादु!

कैसे घड़े जाते होंगे, ये जादु?

काला जादु 

आपको किसी ज़िंदगी में फिट करना है। अरे नहीं, यूँ कहना चाहिए, की किसी की ज़िंदगी, आपका प्रयोग करके फिट करनी है। रखैल का काम करेंगे क्या? चौंकिए मत, आपको बताया नहीं जाएगा। आप क्या पता ज्यादा नहीं तो थोड़े बहुत समझदार हों, और ऐसे काले जादुओं के चक्कर में ही न आएं? ये तो दिक्कत वाली बात हो गयी ना?   

आपके आसपास वालों का प्रयोग (दुरूपयोग बोलना चाहिए) कब काम आएगा? समझदार लोग, ऐसे किसी शैतान को आसपास भी न फटकने दें। पर दुनियाँ में भोले लोगों की कमी कहाँ है? जाने कैसे-कैसे झाँसों में आ जाते हैं। उन बेचारों को पता ही नहीं होता की समझदार आदमी कोई भी बात आमने सामने करता है -- खासकर जब रिश्ते की बात हो। पर वो क्या है, गधों (भोले लोगों) के यहाँ, आज के वक़्त में भी गंधर्व विवाह जैसा कुछ होता है। और उसमें भी हेरफेर ये, की परीक्षा होगी? ये कौन सी आदिम जाति के राम को पकड़े हुए हैं?   

पहली बात, हमारे यहाँ ऐसा कुछ होता नहीं। दुसरी, जहाँ लड़की या लड़का पसंद हो, और किसी तरह की रूकावट या अड़ंगा लगे, तो सीधे कोर्ट पहुँचते हैं, शादी करते हैं और घर जाके बोलते हैं, अब करलो जो करना हो।  मस्त है ना? ये इंसानों पे प्रयोग-वरयोग, लफंडरों के काम होते हैं और ज़िंदगियाँ बर्बाद करते हैं।  

काला जादु मतलब कालिख़? दिलो-दिमाग से काले लोग? अरे नहीं, सत्ता के दायरे में वो ऐसी भाषा प्रयोग नहीं करते। उसे बड़े-बड़े नाम दे देते हैं -- जैसे चाणक्य नीति? सत्ता संघर्ष? अंग्रेज टाइप हों तो Inclusive? Progressive? Justice? हरेक रंग कई-कई परिभाषाएँ लिए होता है। तो काला रंग आम आदमी के लिए अगर कालिख़ हो सकता है, तो राजनीति के लिए शौर्य, वीरता का प्रतीक भी।     

माएँ, अक्सर बच्चे के कान के पीछे काला टीका लगा देती हैं, और बोलती हैं, किसी की नज़र न लगे। बाबे- शाने, काले गंडे, मालाएं, ताबीज़ और भी पता नहीं क्या-क्या दे देते हैं। इन्हेँ गले में डालो। इन्हें हाथ में या पैर में। इसे यहाँ रखो या वहाँ। माँ या अपना बंदा कुछ ऐसा करता है, तो दिल से तो शायद दुआ ही निकलती होगी। मग़र किन्ही  बाबे-शानो पे यक़ीन करना? इतने चक्रों में पड़ना ही क्यों?  

अक्सर ऐसा भी देखने में आया है की ज्यादातर लोग, जो इस तरह के परचंगो में विश्वास रखते हैं, अक्सर ऐसी या वैसी परेशानी में ही रहते हैं। या ऐसी शंकाओँ के दायरे में। और ज़्यादातर कम पढ़े-लिखे होते हैं। 

ज़्यादातर! हमेशा नहीं। क्यूंकि कई-बार, बड़े-बड़े, पढ़े-लिखों को भी, ऐसे अंधविश्वास वाले केसों में उलझे देखा है, की रोंगटे खड़े हो जाएँ। सालों पहले रोहतक मेडिकल का ही, डॉक्टर का एक ऐसा केस, जो अखबारों की सुर्खी बना -- डॉक्टर बाप ने, बाबे की मानकर, घर की सुख-शांति के लिए, बच्चे को काट डाला। ज्यादा ख़ून बहने से, बच्चे की मौत। ये तो थोड़ा ज्यादा ही हो गया। नहीं ?

धोला जादु 

कटपुतली का खेल देखा है ? उँगलियों पे नचाना, जैसे? 

जब हम Manipulations या Manifestation की बात करते हैं, तो उसकी पहली-सीढ़ी किसी धागे या ताबीज़ या किसी वस्तु को कहीं किसी कपडे आदि से ढ़ककर रखना होता है। उसकी योजना (Programming) की अगली सीढ़ियाँ, ऐसा कुछ आपको बार-बार दिखाना, बताना, सुनाना या महसुस करवाना होता है, जिससे वो आपके दिमाग में बैठ जाए। वैसे ही, जैसे बच्चों या पालतु पशुओं की ट्रेनिंग होती है। 

एक शिक्षा के उच्तम पायदान या कहें सीढ़ी पर :

हाँ में हाँ मिलाना, मतलब तरक़्क़ी पाना? या सही को सही और ग़लत को ग़लत कह पाने की हिम्मत रख पाना? हिम्मत क्यूँ? शिक्षा के उच्त्तम स्तर पे तो आज़ादी नहीं होती होगी, विचारों की अभिव्यक्ति की? गलत-सही के मुलयांकन की ? वाद-विवाद की? हाँ! किसी तालिबानी जैसे इलाके में ज़रूर, विचारों की स्वतंत्र-अभिव्यक्ती पर पाबंदी हो सकती है। हो सकता है वहाँ वाद-विवाद जैसा, कोई तरीका ही न हो।  


और कुछ थोंपने की कोशिश करना ? जैसे आपके अंदर 1, 2, 3, 4, 5, 6 और भी पता नहीं, कितनी उँगलियाँ वास करती हैं? कैसा लगेगा, आपको ये सब सुनकर या देखकर? ये बेहुदा इंसान किसी पागलखाने से छूट के आया है क्या? नहीं ? आप शायद शिकायत करेंगे Sexual Harassment की। उसी दायरे में आता है ना, ऐसा कोई शब्द, वाक्या, चिन्ह, तस्वीर आदि किसी को दिखाना? 


   

नफरत नहीं होने लगेगी, ऐसा दिखाने या बोलने वालों से? बैठने की, बोलने की, हावभाव की, अपनी एक अहमियत होती है, खासकर पब्लिक स्थानों पर। हाँ, किसी तरह की राजनीति में शायद ऐसा संभव है। क्यूंकि राजनीती, ज्यादातर लिचड़ों का ही खेल ही है, सभ्य लोगों का नहीं? माफ़ी सभ्य लोगों से, क्यूंकि राजनीती में भी काफी शालिन लोग भी हैं। मगर ऐसा शिक्षा-संस्थानों या समाज में आम होने लगे तो? खतरनाक है, ऐसे शिक्षा संस्थानों या किसी समाज के लिए। 

बार-बार, ऐसा कोई शब्द या इशारा, किसी के सामने बार-बार करने से, मना करने के बावज़ूद, एक तरफ जहाँ उस आदमी की नजर में आपके प्रति नफ़रत भरता है। वहीँ, दूसरी-तरफ, ऐसा करने वाले के दिमाग में, उसकी Programming गलत और सही का भेद ही खत्म करने लगती है। हो सकता है, जाने-अनजाने, आप ऐसे शब्दों को अपनी आम बोलचाल की भाषा का ही अंग बना चुके हों।  

ऐसा ही कुछ, कुछ वक़्त पहले, आसपास के कुछ पड़ोस के बच्चों के, किसी गाने या डांस में देखने को मिला। और अज़ीब बात ये, की वहां पे बैठे कुछ समझदार (?), उस बच्चे को समझाने की बजाए, ऐसा करने के लिए उकसा रहे थे ! वो बच्चा इतना छोटा है, की उसे मालुम ही नहीं, की इसमें गलत क्या है और सही क्या। उस बच्चे के आसपास खड़े, कुछ उससे थोड़े बड़े बच्चे भी उसका आनंद उठा रहे थे, बिना जाने की इसमें ग़लत क्या है। 

वक़्त के साथ, ये धोला जादु, जाने कहाँ-कहाँ दिखने लगता है। इसी को Programming की अलग-अलग सीढ़ियाँ कहते हैं। इसके बाद शुरू होती है Processing (प्रकिर्या)। इसमें इंसान जाने-अंजाने ऐसा कुछ करने लगता है, जो सभ्य के दायरे से थोड़ा परे है। मगर फिर भी, सबके सामने कर रहा है, या बोल रहा है। और उसे शायद मालुम ही नहीं, की उसका मतलब घड़ने वालों की योजना के अनुसार क्या है। गुस्से में कहीं अजीबोगरीब शब्दों का प्रयोग तो नहीं करने लगे आप? सोचो, वो सब आपने कहाँ सुना या कहाँ से आया? अजीबोगरीब ढंग से ताली बजाना? अजीबोगरीब ढंग से उंगलियों को या हाथ को अपना पॉइंट जोरदार ढंग से रखने के लिए प्रयोग करना। और भी कई तरह की हरकतें, इधर उधर देखने-सुनने को मिल सकती हैं , इधर-उधर के लोगों की बातों ही बातों में। 

इसके आगे की सीढ़ी, लोगों को अजीबोगरीब वक़्त पे सुला देना। अब ये कैसे संभव है? हो सकता है जाने-अनजाने, ऐसे लोगों के खाने-पीने में सोने की दवाई जैसा कुछ मिलाया जा रहा हो? कुछ को डॉक्टर ने ही सलाह दी हो? या कुछ परेशान ज्यादा रहते हों और नींद न आती हो और खुद ही लेने लगे हों। वक़्त के साथ इनके अपने दुष्प्र्भाव शुरू होने लगते हैं। 

ऐसा ही कुछ नीला, पीला, हरा जादु जैसे Manifestation और Manipulation की हक़ीक़त है। और ये सब अचानक नहीं आता। इनका प्रभाव इंसानों पर धीरे-धीरे वक्त के साथ होता है। इन जादुओं को आप आसपास देख भी सकते हैं। माथे पे अलग-अलग तरह के तिलकों के रूप में। घरों पे लहराते कुछ झंडों में। या इधर-उधर बंधे धागों में। इंसानों पर, जानवरों पर, पेड़ों पर या शायद कुछ इमारतों पर। ज्यादातर आस्था के साये में पल बढ़कर, धीरे-धीरे किसी समाज के रीति-रिवाज़ों का हिस्सा हो जाते हैं। 

अगर मंदिरों की जगह, मस्जिदों की जगह, पुस्तकालयों का चलन बढ़ा दिया जाए तो शायद ऐसे-ऐसे कितने ही अन्धविश्वाशों और उनके दुस्प्रभावों से निपटा जा सकता है। जैसे किसी भी पिछड़े इलाक़े को आगे बढ़ाने का तरीका है,  शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना। 

Mind Programming and Editing Tricks-1 (राशि (Horoscope))

क्या आप राशि में विश्वास रखते हैं? 

नहीं 

अरे बड़े काम की होती है और सही बताती हैं 

अच्छा 

हाँ !

लो ज्ञानी जी हो गयी शुरू, राशियों का ज्ञान देने। एक-एक करके 12 की 12 का दे डाला। किस राशि की किस राशि से ज्यादा बनती है और किससे कम। और किससे बिल्कुल भी नहीं बनती। 

अब तो रोज अख़बार का वो पन्ना पढ़ा जाने लगा। 

कहीं पे, पटाओ अभियान शुरू हो रखा था, या शर्त लगी थी शायद। 

लड़की को डराने, पहले कुछ आवाराओं को भेजो और फिर खुद सुरक्षा दिवार बनके पहुँचों। 

जो अख़बार पढ़ा जा रहा था, उसकी भी जानकारी थी। और उस अख़बार में जानकार भी। अब राशि भी काम आने लगी। 

और शर्त जीत गए। 

ऐसे ही कितने ही तरीक़े हो सकते हैं Manifestation और Manipulations के ? ये तो बच्चों वाली-सी Trick है। नहीं?

तो सोचो, किसी का किसी आस्था या धर्म-जैसी श्रद्धा में विश्वास का प्रयोग या दुरूपयोग करके कैसे-कैसे और कितनी आसानी से दिमाग घुमाया जा सकता है? राजनीति में उसका दुरूपयोग सबसे ज्यादा होता है। इसीलिए बचना होता है, किसी भी अंधभक्ति से। 

Tuesday, April 4, 2023

छोटी-छोटी सी कड़ियाँ (Like Reg Edits?)

छोटी-छोटी बातें मिलजुलकर बड़ी होती जाती हैं 

जब उनसे निपटा नहीं जाता, जब वे छोटी होती हैं 

मगर हर राई को, पहाड़ भी तो नहीं बनाना चाहिए 

मगर क्या हो अगर राई से पहाड़ खड़े होने लगें?

ऐसा ही कुछ Amplifications और Manipulations में होता है 

ऐसे ही Parallel Cases बनते हैं। जिन्हे पता चलने पर, वक़्त रहते रोका भी जा सकता है।   

देखो या सुनो तो, ये तो कोई खास बात नहीं 

तुम्हे तो हर चीज़ पे, हर इंसान पे शक करने की आदत हो गयी है। या खामखाँ प्रश्न करने की आदत है, जैसे डायलाग भी सुनने को मिल सकते हैं। 

मगर जानने लगो तो?  

छोटी-छोटी सी कड़ियाँ मिलके ही बना देती हैं पहाड़ 

और वो कभी-कभी ले उड़ते हैं, ज़िन्दगी को ही 

सोचो आपके पास किसी ब्रांड का कोई लैपटॉप है, टेबलेट या आईपैड है। कुछ और भी हो सकता है। जैसे कपड़ा, कोई पढ़ने लिखने का सामान, कार, स्कूटी, साइकिल, घर या ऑफिस का कोई भी सामान। या शायद इंसान ही। किसी को वो आपके पास पसंद नहीं या हो सकता है, आपसे कोई खुंदक हो। शातीर और घटिया ताकतें, उसमें तोड़फोड़, अदला-बदली करने लगी हों। वो आपके दिमाग की ही Programming करने लगें हों, की वो आपके लिए सही नहीं है। उसकी अच्छाईओं को ही, बुराईओं की तरह पेश किया जा रहा हो या शायद बदला ही जा रहा हो। उपभोग की वस्तुओँ तक तो, फिर भी देखा जाए। कहीं वो इंसान को ही ना उपभोग की वस्तु बना दें या खत्म ही कर दें। सम्भलना उससे पहले होता है। 

In such cases, alert and timely help is important.

अखाड़ा (R-ing?)

 अखाड़ा!

 जब अखाड़े की बात दिमाग़ में आती है, तो कौन-सी तस्वीर उभरती है, दिमाग़ के सामने?

पहलवान, कुस्ती करते हुए?

अखाड़ा, जिसे अंग्रेजी में Ring कहते हैं। वही वाला ना?  

वैसे Ring के नाम पे कौन-सी तस्वीर उभरती है, दिमाग़ में? 

वही Ring, जो आप उँगलियों में पहनते हो?

कौन-सी उंगली में?

अच्छा, आप नहीं पहनते? मेरी तरह शायद ज्यादा गहनों के शौक़ीन नहीं हैं? या शायद गहने हैं ही नहीं?

चलो फिर भी, पता तो होगा, की कौन-सी ऊँगली में, कौन-सी अंगुठी पहनी जाती है?      

कौन सी मतलब? सिर्फ एक ही तरह की अंगुठी का पता है?

अरे, लोगों को, औरतोँ को भी, कभी देखा नहीं क्या, अलग-अलग तरह की अंगुठियां पहने?   

और बच्चों को? स्कुल जाने वालों को? 

स्कुल में ये सब अनुमति होती है क्या? हमारे वक्त तो नहीं होती थी। आजकल?

हमारे यहाँ तो (यूनिवर्सिटी) आजकल भी अच्छा नहीं माना जाता, खासकर प्रक्टिकल्स में। ऐसे विद्यार्थियों को गंभीर नहीं माना जाता। क्यों, के पीछे के, अपने तर्क-वितर्क हैं। 

आपको पता चले, ये सब बच्चों के पास आने लगा। कहाँ से, कैसे और क्यों जानना चाहेंगे क्या आप?

शायद किसी जगह आजकल इसका फैशन हो? नहीं ?

बच्चे, मैं आपको Copper-Ring उपहार में देती हूँ।  इसे पहली ऊँगली में डालोगे या दुसरी में? अच्छा ये दुसरी ऊँगली में शुभ रहेगी। 

मैं आपको Gold Ring देती हूँ। इसे पहली ऊँगली में पहनोगे या तीसरी उँगली में?

में आपको Diamond Ring देती हूँ।  इसे ?

आजकल चलन में या फैशन में है क्या ?

गहनों का, कपड़ों का, जूतों का फैशन या फिर किसी और वस्तु का, पता है कौन तय करता है ? राजनीतिक अखाड़े। या बॉलीवुड, हॉलीवुड? आपको लगता है, बॉलीवुड, हॉलीवुड? या शायद कम्पनियाँ जो वो सब बनाती हैं? 

आप सिर्फ़ और सिर्फ उसका अनुशरण करते हैं। वो भी, बैगर सोचे समझे? नहीं ?

अरे इसमें भी अब क्या सोचना? जो चल रहा है, वही तो सही लगता है। नहीं?

शुभ और अशुभ?

बाबा ने बताया या किसी ब्रामण ने बताया की ये शुभ होगा और ये अशुभ। आप उसका भी अनुशरण करने लगते हैं। अब उस बाबा या ब्रामण को कैसे पता की क्या शुभ होगा और क्या नहीं? ज्ञानी हैं न वो ? और आप मुर्ख ? आपमें भी तो दिमाग है ? फिर सोचना क्यों नहीं की इसमें मेरा भला या बुरा कैसे है ?

और अगर बिना सोचे समझे आप कर रहे हैं, तो रोबोट में और आप में फर्क क्या है ? 

ये सब Manifestation और Manipulation का काम करती हैं। जैसे किसी अंजान, अनभिज्ञ इन्सान के दिमाग की Programming करना। 

अपनी योजना को किसी के भेझे में डालना। वो Programming, सिर्फ शुभ कही गयी (जरूरी नहीं शुभ हो भी), वस्तु के पहनने या डालने या घर में किसी खास जगह रखने से नहीं होता। बल्कि, वो उनकी रची गयी योजना (Programming) की पहली सीढ़ी होता है। वो सीढ़ियाँ, Chemistry, Physiology, Psychology, Physics, Biology, और भी न जाने, कैसी-कैसी खिचड़ी पकने से बनती हैं। 

(आम आदमी को ये सब कैसे समझ आएगा? आएगा शायद कुछ हद तक उनके अपने आस पास के उदाहरण देकर? बच्चे, कुत्ते, बिल्ली, गायं, भैंस, भेड़, बकरी, खेती और भी कितना कुछ तो है न? मगर फिर भी शायद थोड़ा-सा मुश्किल तो है? हो सकता है, इन सब विषयों के जानकारों को भी न पता हो, जिन्होंने वो योजना तैयार ही न की हो। या तो ये सब रचने वाला बता सकता है या ऐसी रचनाओं को उखाड़-फेंकने की क्षमता वाला। विज्ञान को जो आमजन तक पहुंचाते हैं, अंधविश्वासों को, जिनमें अक्सर षड्यंत्र भी छिपे होते हैं, को उखाड़ फेंकना चाहते हैं।)

बाकी सीढ़ी कहाँ हैं? आपको पता ही नहीं ! जिन्होंने रचा है, उन्हें पता है। वो आपके शुभचिंतक हैं या दुश्मन, आपको ये भी नहीं पता। ज़्यादातर शुभचिंतक आपके आसपास, आपके अपने बन्दे होते हैं। दूर से बैठकर, ये सब रचने वाले, ज़्यादातर सत्ता, राजनीतीक पार्टियाँ या बड़े-बड़े, औद्योगिक साये होते हैं। और ज्यादातर automation या semiautomation का प्रयोग करते हैं। ताकि उनका घड़ा (Programming), ज्यादा से ज़्यादा लोगों पर, और कम से कम संसाधन प्रयोग करके प्राप्त किया जा सके। ऐसे लोगों के लिए टोने-टोटके, ताबीज़-गहने, मंदिर-मस्जिद या इसी तरह की आस्थाएँ, अक़्सर, आम आदमी के मानसिक-दुहन (Psychological and Scientific, Manipulations and Manifestations) के लिए होती हैं 

कुछ चीज़ें लोग अपने कस्ट, दुख-निवारण के लिए भी, दुसरों के गले डालने की कोशिश में रहते हैं। वो सुना है न, ज़्यादातर लोग, अपने दुख से नहीं, दुसरे के सुख से दुखी हैं। जब तक वो सामने वाले को भी, अपने जैसा न बना लें, तब तक शायद उन्हें मज़ा ही नहीं आता। अब सब लोग तो एक जैसे नहीं हो सकते न?   

तो बेहतर रहता है, ऐसे किसी चक्कर में पड़ो ही ना। और अपने आसपास वालों को भी, खासकर बच्चों को, इन सबसे दूर रखो। 

कैसे ?आगे की कुछ पोस्ट्स में।           

Monday, April 3, 2023

इंसान, जानवर, पेड़-पौधों का आना और जाना

इंसान, जानवर, पेड़-पौधों का आना और जाना, कितना एक जैसा सा हो सकता है ?

सब्ज़ी ले लो, सब्ज़ी 

भैया कितने की दी?

अरे, इससे मत ले, वो ऑटो वाला आएगा ना 

ये भी तो ऑटो वाला है?

नहीं वो बजरंग बलि है 

तो?

ये तो बामन है, बासी लावै है 

अच्छा फिर तो उस बड़ी टेम्पो वाले से लेना 

क्या फ़र्क पड़ता है, इससे या उससे, जहाँ से सही मिले ले लो?

ये पैसे भी ज्यादा लेता है। 

गररर 

और आपको ऑफिस याद आता है, वो उस दिन वाली अज़ीब विषय बातचीत।  सब्ज़ी कहाँ से लो ये भी विषय है?

आपके यहाँ कौन सब्जी लेके आता है? कहाँ से है? किसमें आता है? नाम क्या है? कौन-सी सब्जी, कितने की देता है? कब तक आता है और कब दूसरा आना शुरू कर देता है। ये भी राजनीतिक जुआ बताता है या ये सिस्टम? 

और बच्चे ऐसे-ऐसे खेल भी खेलते हैं?   

जी हाँ! ऐसा ही। खाने-पीने से लेकर, ओढ़ने-पहनने तक। किस हिस्से में, कौन-सी फसल उगेंगी और कब तक, सब ये सिस्टम बताता है। और आपको लगता है, वो सब अपने आप होता है? हाँ! जो आपके सामने होता है, उसमें से पसंद आप करते हैं। मगर, वो भी शायद बहुत जगह नहीं। बहुत-सी चीज़ें प्रभावित करती हैं, उसको भी। बहुत बार automatic version से और बहुत बार शायद आपकी जानकारी के बिना।बहुत बार एक तरह से थोंपी हुयी, अलग-अलग तरह की हेरा फेरी से। हेराफेरी, जो आपको नजर नहीं आती।   

अपने आसपास पेड़ पौधो को देखिये। कौन, कौन-से हैं? कौन से बहुत सालों से? कौन से नए? वो नए कहाँ से आये? कौन लाया? या कैसे आये? उनपे फूल-फल कैसा आता है? कौन-कौन से पौधों पे नहीं आता है? कभी जानने की कोशिश की, ऐसा क्यों? अपने आप? या किया जा रहा है? हो सकता है, आपको जानकारी ही न हो, की ऐसा कैसे? जानवरों के साथ भी ऐसा ही है। और इंसानों के साथ भी। किसी भी इलाके में जो-जो, पेड़-पौधों के या जानवरों के साथ हो रहा है, वैसा ही कुछ इंसानों के साथ भी। अब ये अपने आप कैसे संभव है? 

कुछ automation पे रखा हुआ है। कुछ semiautomation और कुछ जबरदस्ती। शायद आसपास के लोगों की जानकारी के बैगर। मगर हो सकता है, करवाया उन्ही से जा रहा हो। या हो सकता है, बाहर से भी।    

खेल ही खेल में

खेल ही खेल में, आओ दुनियाँ को जाने-समझें?  

आओ गुड़िया-गुड़िया खेलें? नंगी-पुंगी गुडियाएँ?  

या सुनार-सुनार? लुहार-लुहार? कुम्हार-कुम्हार? पुलिस-पुलिस? चोर-सिपाही? छुपम-छुपाई? पकड़म-पकड़ाई? 

सांप-सीढ़ी? लुड्डो? 

पासे, गुट्टे? वो तो पुराने लोग खेलते थे। जेल में, आजकल भी खेलते हैं?   

Video Games? Coding-Decoding? Word Puzzles, Suduko, Travel The World, World Map, Currency-Currency? Chess?

कौन, कहाँ पे और कैसे-कैसे खेल, खेल रहे हैं? वहाँ की आसपास की हकीकत के आसपास ही कुछ गा रहे हैं?

Child-Kidnapping? 

Kicking out child from home? 

Away from own people? 

What kind of games are these? What kind of stakes, such people could have? Political? 

गवांरपठ्ठे, ये सब खुद कर रहे हैं? या कहना चाहिए कौन हैं, ये सब करवाने वाले? 

कुछ Parallel cases अभी भी आपके आसपास घड़े जा रहे हैं।  राजनीती जैसे न रुकने वाला रथ है, जो निरंतर चलता ही रहता है। वैसे ही Parallel cases भी निरंतर चलने जैसा ही है। ये भी कभी न रुकने वाली प्रकिर्या है। आपके साथ या आपके आसपास क्या हो रहा है, ये जानना जरूरी है, खासकर जब आपको पता हो की कुछ अच्छा नहीं चल रहा। या वो क्या कहते हैं -- वक़्त अच्छा नहीं चल रहा है ?

हक़ीक़त ये है, वक़्त तो एक जैसा ही रहता है मगर उसका पहिये का कोई हिस्सा किसी के लिए अच्छा है, तो कोई किसी के लिए। क्या उस पहिये को हम अपने अनुसार सैट कर सकते हैं?

शायद कुछ हद तक। जानते हैं, आगे किसी पोस्ट में।  

एक तरफ़ बच्चोँ के खेल और दूसरी तरफ़?

उँगलिमाल, किकमार? Finger-Printing?

One, Two, Three, Four, Five, Six 

अरे Stop! Stop!

इतनी kick की जरुरत नहीं। मेरी एक्टिवा 2-3 Kick में ही शुरू हो जायेगी। 

धुररर 

नहीं हुयी?

ठण्ड है न थोड़ी, तो वक़्त लगता है 

अरे, फिर से  

धुररर, धुररर, धुररर, धुररर

नहीं हो रही, धुआँ छोड़ रही है ये तो।  

आग लगा दे इसे, खटारा। 

चल बुलेट-बुलेट खेलें? 

एक तरफ़ बच्चोँ के खेल और दूसरी तरफ़? 

बच्चों की और बड़ों की ज़िंदगियों के उतार-चढ़ाव?

आओ रोबोट्स-रोबोट्स खेलें

आप सुबह 9. 0 0 बजे रोटी खा लो 

रोटी के साथ पानी नहीं पीना 

10. 0 0 बजे पानी पी लो 

11 . 0 0 बजे चाय पी लो 

दोपहर 1. 0 0  बजे सो जाओ 

रात को 12 बजे चाँद देखो और सो जाओ 


क्या है ये सब? बच्चे रोबोट्स-रोबोट्स खेल रहे हैं।  

एक ने कहा Statue

दूसरा Statue बन गया 

ATM 

दूसरा ATM बन गया 

 बच्चे ने नकली ATM कार्ड निकाला और दूसरे बच्चे को हाथ में थमा दिया 

जिसने पकड़ा उसने बोला पासवर्ड डालो 

पहले बच्चे ने पासवर्ड डाला 

ATM बनने वाले के यहाँ से आवाज़ आयी गलत पासवर्ड 

2 -3 बार ऐसा ही हुआ 

ATM बोला, कान पे लगाओ 

पहले वाले ने कार्ड वापस लेकर अपने कान पे लगा लिया 

ATM ने थप्पड़ मारा और बोला अपने नहीं, मेरे कान पे लगाओ 

उसने वैसा ही किया, और उसे पैसे मिल गए 

ATM ने पैसे छीन लिए और कहा मर जाओ 

सामने वाला मरे इंसान की तरह लेट गया 

क्या हुआ, कुछ लोग भयभीत तो नहीं होने लगे? नहीं ना? आगे सुनाऊँ?    


चलो कुछ और ऐसा ही शायद 

अपने बच्चों के खेलों को ध्यान से देखो, सुनो और सोचो वो किसने बनाये होंगे? कहाँ से आये होंगे? शायद वो आपके आसपास की ही किसी हकीकत के थोड़ा इधर या शायद थोड़ा उधर घूम रहे हों? हो सकता है ऐसा न भी हो। मैंने पहले ही कहा, न्यायविद आप हैं, मैं नहीं। मेरा काम सिर्फ अपने अध्ययन को आपके सामने रखना है। 

बच्चे काफी हद तक रोबोट ही होते हैं। वो, वो सब खेलते हैं, जो उन्हें बताया जाता है। वो सब बोलते हैं, या करते हैं जो आसपास देखते हैं। वो कोई वैज्ञानिक, डॉक्टर या प्रोफेसर की तरह विद्वान तो हैं नहीं जो प्रयोग कर सकें। विश्लेषण दे सकें। बहुत बार ये ज्यादा पढ़े-लिखे भी खुद को रोबोट्स-सा ही अनुभव करते हैं। नहीं ? कौन-कौन महान हैं वो ?

क्या वो बता पाएँगे की 0 3 . 0 4.  2023  को 3D कैसे Create करना है? 

बच्चे को क्या, आम आदमी को भी नहीं पता। आम आदमी भी ज्यादातर वही सब करता है, जो उसे बताया जाता है। ज्यादातर बिना सोचे समझे। बिना उनके परिणाम जाने। आपको क्या लगता है? आप सोचिये, आप ऐसा क्या-क्या करते हैं, बिना सोचे समझे, जो आपको भी रोबोट की लाइन में खड़ा करता है?  शायद बहुत कुछ? कभी सोचा क्युं ? आपको किसी ने ऐसा करने के लिए बोला है? नहीं? परिणाम जानते हैं क्या हो सकते हैं उस सबके? या आपके आसपास उसका क्या असर हो रहा है या हो सकता है?

जानते हैं आगे किसी पोस्ट में।     

क्या आप मानव रोबोट हैं?

क्या आप मानव रोबोट हैं? या इंसान हैं? 

या इंसान हैं और कई बार या शायद बहुत बार रोबोट की तरह इस्तेमाल हुए हैं या शायद होते ही रहते हैं?   

 इंसान और रोबोट में फर्क क्या है?  

रोबोट पे बाहरी नियंत्रण होता है? उसे सही या गलत का पता नहीं होता। उसे अपना फायदा या नुकसान नहीं पता होता। उसकी सोचने-समझने की क्षमता, अभी इंसान की तरह विकसित नहीं हुयी। उसमें जो योजना फिट की गयी है, वह सिर्फ और सिर्फ वही काम कर सकता है। रोबोट्स, अभी उस योजना को बदल पाने में शक्षम नहीं है। रोबोट्स का शरीर इंसान की तरह हाड-माँस का नहीं है। उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी इंसान जितनी विकसित नहीं है।   

वह अभी इंसान पर नियंत्रण करने लायक़ नहीं हुआ। रोबोट्स पर इंसान का नियंत्रण है। रोबोट्स इंसान की सुविधा के लिए बने हैं। इंसान रोबोट्स की सुविधा के लिए नहीं। और भी कितनी ही तरह की विभिन्ताएँ हो सकती हैं। और सामानताएँ भी। 

कहीं-कहीं यूँ नहीं लगता की इंसान कितनी जगह, कितनी ही बार तो रोबोट्स की तरह प्रयोग और दुरूपयोग होते हैं ? हड़ी-माँस का रोबोट जैसे?   

और कितनी ही जगह उसे पता ही नहीं होता की ऐसा हो रहा है! और ऐसा बहुत हो रहा है क्यूंकि सिस्टम और राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे ही काम कर रही हैं। कैसे ?

बाहरी दखल और सामानांतर केस

जितना ज़्यादा आप सामानांतर केसों का विश्लेषण करेंगे, उतना ही समझ आएगा की अपने आप जैसा कुछ नहीं है। बहुत जगह, बहुत तरह के जबर्दस्ती घड़ने के तरीके हैं। चालाकी और धूर्तता के तरीके हैं। 

जो केस जितना ज्यादा एक जैसा-सा दिखता है, उसमें उतनी ही ज्यादा जबरदस्ती घड़ाई हुई है। जो बाहरी दख़ल के बिना संभव ही नहीं है। जहाँ Campus Crime Cases में इनके प्रमाण Documented हैं। वहीँ सामाजिक घड़ाई में बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना। आधी-अधूरी जानकारी देना। इधर का उधर, उधर का इधर करना या बताना। कुछ-कुछ हेराफेरी जैसा-सा ही। हेराफेरी करने के लिए कुछ उपयुक्त परिस्थितियाँ, जैसे:  

जिस जगह मनमुटाव या आपस में फुट ज्यादा होगी। 

विचारों में मदभेदों को स्वीकार करने की सहनशीलता कम होगी।

लोग कान के कच्चे ज्यादा होंगे। 

आपस में बात करने की बजाय, बाहर वालों से ज्यादा बात करते हों। 

या किन्ही केसों में एक दूसरे के बारे में जानकारी किसी और से लेते हों, किसी भी परिस्थिति वस। 

शांत दिमाग की बजाय जल्दी गुस्सा करने लगते हों। 

और भी ऐसी ही कितनी परिस्तिथियाँ हो सकती हैं, जहाँ इन्हे घड़ना आसान हो जाता है । जहाँ फुट या मनमुटाव ना भी हो, या ऊपर दी गयी जैसी कोई परिस्थियाँ न भी हों, वहाँ भी शातिर  लोग जाने कैसी-कैसी परिस्थियाँ पैदा करने का मादा रखते हैं।

आजकल ऐसा ही कुछ आसपास चल रहा है, जिसके परिणाम 2024 तक ही शायद खतरनाक रूप में सामने आ सकते हैं। जो इस घड़ाई के मोहरे बने हुए हैं, उन्हें खुद नहीं मालूम की वो रोबोट्स की तरह प्रयोग हो रहे हैं। उनके अपने लिए इसके परिणाम सही नहीं होंगे।  

Sunday, April 2, 2023

हेराफेरी, शब्दों की, इरादों की

थोड़ा हेरफेर इधर, थोड़ा हेरफेर उधर, शब्दों का, इरादों का, क्या-क्या करवा सकता है?  

आप इस विषय और इससे संभंधित हो सकने वाले प्रभावों पर विचार करिये। आते हैं इस विषय पर भी। इसके इंसान के रोबोट्स की तरह प्रयोग कर पाने की क्षमता पर। भावानात्मक प्रहार, भावानात्मक रूप से बदल पाने की क्षमता। सिर्फ़ थोड़ा-सा दिमाग प्रयोग करके शांति को बवंडर में और बवंडर को शांति में बदल पाने की क्षमता। रिश्तों के  जोड़-तोड़ करने की क्षमता। रिश्ते बदलने की क्षमता। घरों को, समाज को तोड़ने या जोड़ने की क्षमता। परिणामों को इधर से उधर कर पाने की क्षमता। 

बड़ी-बड़ी कंपनियों के जोड़-तोड़ की क्षमता। राजनीतिक उथल-पुथल मचाने की क्षमता। कुर्शियों के द्वंद्वों का शातिर हेर-फेर। जिन्हें ज़्यादातर करते हैं, कहीं दूर बैठे शातीर इंसान, और भुगतान करता है अक्सर आम आदमी।  

छोटे स्तर पर भी, आप रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कितने ही ऐसे वाक्यों से वाक़िफ़ होते होंगे। कभी इधर तो कभी उधर देखते होंगे। तो शायद कहीं खुद भी भुक्तभोगी होंगे। 

इन सबके पीछे कोई जादू नहीं है। साइंस है, साइकोलॉजी है और उनके अलग-अलग तरीके से बदलाव कर पाने की क्षमता।  

Saturday, April 1, 2023

मानव रोबोट और राजनीतिक जुआ

सिस्टम Automation पे कितना है?  Semiautomatic कितना है?

या फिर Manual और Enforced कितना है?

और उसका प्रभाव आम-आदमी पर कैसे और कितना है? 

कैसे और कहाँ-कहाँ वो आपको रोबोट्स की तरह प्रयोग कर रहा है? 

अपने आसपास का कोई भी केस उठाओ और जानने की कोशिश करो, कहाँ-कहाँ और किस हद तक वो अपने आप हुआ है और कहाँ-कहाँ वो करवाया गया है, जो होना ही नहीं था? इन्हे parallel cases भी कहा जाता है और created भी। ज्यादातर, ऐसे cases में इंसान रोबोट्स की तरह प्रयोग हुए हैं। सबसे बड़ी बात, इन cases में Campus Crime Series से भी ज्यादा खामियाँ मिलेंगी। Parallel Cases का मतलब, सिर्फ अदालती मुकदमों से नहीं है, बल्कि आपकी ज़िंदगी के हर पहलु से है। जैसे 

कौन पैदा होगा, कौन नहीं होगा ?

किस तारीख को होगा, कहाँ होगा ? 

क्या-क्या बिमारियाँ होंगी। या बिना बिमारी के भी, किसी बिमारी के नाम पर अस्पताल पहुँचोगे? अगर हाँ तो उसके बाद आप किसी भगवान के नहीं, बल्कि वहाँ कदम-कदम पर अलग-अलग तरह के यमराजों के हवाले होंगे। 

कौन कब तक कहाँ रहेगा? क्या करेगा? कब तक करेगा? कब कौन सा रोजगार बदलेगा?

कहाँ पढ़ेगा, कहाँ नहीं? किसके पास रहेगा, किसके नहीं?

कहाँ जमीं-जायदाद या घर खरीदेगा और कहाँ नहीं?

कब, कहाँ और कैसे मरेगा?  

थोड़ा ज्यादा हो गया?

बिमार होने पे किस डॉक्टर या अस्पताल जाएगा और कौन सा इलाज़ होगा ? 

कौन सी दवाई लेगा ? किस दवाई का असर कैसा रहेगा?

और भी बहुत कुछ 

मरने के बाद, रीति रिवाज़ के नाम पे क्या-क्या होगा?

बहुत ज्यादा हो गया ना ?    

अदालती मुकदमों में भी, कौन सा केस कैसे जाएगा और किस तरह का फैसला आएगा। किसको कब केस से मुक्ति मिलेगी और कौन कब तक अटका रहेगा। किसको किस केस में कब और कितने दिन की छुट्टी मिलेगी?

ये सब राजनीतिक जुआ तय करता है। यही नहीं आगे भी जाने 

ऐसे ही पढ़ाई लिखाई का है -- स्कूल से लेकर विश्वविधालय तक। सिलेबस से लेकर परिक्षाओं तक। 

इससे भी ज्यादा कुछ है, जो बहुत ही अजीबोगरीब है और उल्टा-पुल्टा है। खासकर, धर्म के नाम पे। आस्थाओं के नाम पे। और ना जाने कैसे-कैसे। मंदिर, मस्जिद से लेकर बाबाओँ और पाखंडों तक। 

खेती से लेकर बाज़ार तक। आपके खाने-पीने से लेकर कपड़ों तक। 

देश, राज्यों के बनने से लेकर टुकड़ों में टुटने-बिखरने या जुड़ने तक। 

फिर अछूता क्या है? कुछ भी नहीं? जो भी आप देख सकते हैं, सुन सकते हैं या महसूस कर सकते हैं, वो सब इसका हिस्सा है? 

इसीलिए मानव को रोबोट की तरह प्रयोग करना उतना मुश्किल नहीं है, शायद जितना लगता है। 

मेरा काम सिर्फ मेरे अध्ययन और अवलोकन (Observations) को आपके सामने रखना है। कितना सही है और कितना गलत और कैसे? ये तय करना आपका काम है।   

इसमें बहुत कुछ शयद मुझे भी नहीं मालूम। हो सकता है, इन्हे लिखते-लिखते ही कुछ समझ आ जाए। ऐसा कई बार होता है मेरे साथ। या शायद अलग-अलग विषयों के जानकार कुछ और बता सकें।  

मगर संभव कैसे है ये सब? शायद ये सब जानना और भी जरूरी हो जाता है। नहीं ? आगे की पोस्ट्स में वो सब भी मिलेगा।