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Wednesday, November 1, 2023

छद्दम युद्ध में जीव-जंतुओं के हाल

सामान्तर घढ़ाईयाँ इंसान पे ही नहीं, बाकी जीव-जंतुओं पे भी होती हैं। उनकी ज़िंदगियाँ कितनी ऑटोमेशन में या सेमीऑटोमेशन में चलती हैं? और कितनी Enforced?  

2013, 2014 या 2015? याद नहीं अच्छे से। एक दिन Molecular Biology का प्रैक्टिकल था। जैसे ही लैब के करीब पहुँची, तो देखा सब स्टुडेंट्स लैब के बाहर खड़े थे। 

मैंने पूछा क्या हो गया? बाहर क्यों खड़े हैं आप? लैब लगाने का मन नहीं है ?  

और जवाब मिला, लैब में कोई पागल, कीड़े पड़ा हुआ कुत्ता घुस गया है। लैब अटेंडेंट किसी को बुला के लाएंगे, ताकि इसे बाहर निकाला जा सके।  

लैब  की तरफ मुड़ी तो स्टूडेंट्स और लैब अटेंडेंट ने बोला, मैम बाहर ही इन्तजार करलो, कहीं काट ना ले। कुत्ता छिड़ा हुआ है और लैब में इधर-उधर चक्कर काट रहा है। हम बाहर निकालने की कोशिश कर चुके, पर वो काटने को आ रहा है। 

पता नहीं क्यों, मैंने फिर भी लैब के अंदर की तरफ देखा, तो समझ आया, की वो तो शायद खुद डरा हुआ है और एक कोने में चिपका पड़ा है। मैं हिम्मत करके थोड़ा और आगे बढ़ी, तो लैब अटेंडन्ट ने रोका। मैम, बाहर आ जाओ, ये काट लेगा। सिक्योरिटी को बुलाया हुआ है।  

मैंने कुत्ते की तरफ ध्यान से देखा और वो थोड़ा कु-कु करके, चुप होके वहीं ठिठक गया। जैसे उसे समझ आ गया हो, की यहाँ सहायता है, ना की डर। तब तक शायद लैब अटेंडेंट को भी समझ आ चुका था। वो भी थोड़ा आगे आ गया। लैब में बड़े-बड़े सिंथैटिक कवर अक्सर पड़े होते हैं। मैंने पास की अलमीरा से लैब अटेंडेंट को एक कवर निकालने को बोला और आराम से उस कुत्ते को उसमें लपेटा और उठा के चल दी। कुछ स्टूडेंट्स थोड़ा आश्चर्यचकित से हो रखे थे। उन्हीं में से कुछ स्टूडेंट्स को साथ लिया और जब तक सिक्योरिटी वाले पहुँचे, मैं कुत्ते को अपनी गाड़ी की पीछे वाली डिग्गी में रख चुकी थी। उनमें से एक ने कहा, मैम हम ले जाते हैं। मुझे लगा अब इस कुत्ते को और छेड़ा तो पक्का काट लेगा। क्यूँकि वो भी कौन-सा पशु सहायता सेंटर से थे, की उन्हें ऐसे छिड़े हुए कुत्ते को उठाने का ज्ञान हो। उनसे पूछा, बस ये बता दो यहाँ पशु सहायता सेंटर कहाँ होगा। और उन्होंने कहा, यहीं पास में, नहर के दूसरी तरफ। वो उस वेलफेयर सेंटर का पहला विजिट था। उसके बाद भी, कई बार उस सेंटर की विजिट हुई, अलग-अलग वजहों से। 

पिछले कुछ वक्त से यहाँ गाँव में जो कुछ देखा, उससे समझ आया की ज्यादातर पशु, पक्षी या पेड़-पौधे, राजनीती की सामान्तर घढ़ाईयों की मार सह रहे हैं। कई बार झल्लाहट भी होती थी। मगर फिर समझ आता है की जिस माहौल में इंसानों की कदर कम हो या राजनीती के खुंखार जालों की मार ज्यादा, वहाँ सबकुछ जैसे जहरीला हो जाता है। दिखने को यूँ लगेगा, जैसे लोगबाग बड़े दानी हैं। बड़े जीव-जन्तु प्रेमी हैं। मगर ऐसे दानियों के आसपास शायद, ज्यादा बीमार, लाचार, जीव-जंतुओं की संख्या बढ़ती जाती है। और वो अपने आप नहीं होता। उसके पीछे शरारती तत्वों की बाढ़ होती है और राजनीती के जालों के तड़के।  

 भावनात्मक भड़क या भड़काना और मानव-रोबोट बनाने में इसका प्रयोग या दुरूपयोग? 

एक कुत्ता किसी चोट की वजह से कई दिन से बीमार था। मैं भी शायद माहौल के अनुसार थोड़ा सख्त हो चुकी। एक-दो बार सोचा भी, की किसी पशु सहायता सेंटर को फोन कर दूं, शायद ले जाएँ। क्यूँकि मेरी कार कई दिन से खराब पड़ी है। नहीं तो शायद, अब तक मैं छोड़ के आ चुकी होती। एक-दो दिन से उस कुत्ते के बेहाल थे। आज सुबह उठी, तो थोड़ी अजीबोगरीब डाँट सुनने को मिली। सुना की मैंने कहीं का दरवाजा खुला छोड़ दिया और कुत्ते ने वहाँ का बैड खराब कर दिया। वो कुत्ता जिससे चला नहीं जा रहा हो। थोड़ा-सा ऊपर चढ़ने में भी करहा रहा हो। इतने ऊँचे बैड पे चढ़ जाए? पिछले दो-दिन से कोई ड्रामा चल रहा था यहाँ, जैसे अकसर चलता ही रहता है। कुछ आदम के खोल में घटिया जानवरों की यहाँ-वहाँ खबर भी आ रही थी। अब इन लोगों को नहीं मालुम, की इनके इन घटिया कारनामों के चरचे कहाँ-कहाँ होते हैं। करने वालों के भी, और करवाने वालों के भी। सोचने की अहम बात ये, की ऐसे माहौल में जीव-जंतुओं, पेड़-पौधो का तो जो होना है, सो होना है। ऐसे माहौल के बच्चों की ज़िंदगियाँ क्या होंगी? और लोगों की बीमारियाँ? कहीं न कहीं, उसी जहरीले वातावरण की देन हैं। क्यूँकि, ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की सामान्तर घढ़ाईयाँ हैं।  

राजनीती ने हर चीज को इतना भावनात्मक भड़क ाया हुआ है, की बहुत से आमजन अलग-अलग इंसानो या जीव-जंतुओं को अलग-अलग देख समझ ही नहीं पाते। जैसे हर केस को ऐसे मानना, की जो उन्हें बताया या दिखाया जा रहा है, वही सच है। जबकि सच उसके पीछे छुप कर चल रहा होता है। एक तरफ जहाँ राजनीतिक रंगमंच की, ये मानव-रोबोट बनाने की महारत या दक्षता है। वहीं दूसरी तरफ, आम आदमी का सिर्फ और सिर्फ नुकसान।    

दिन प्रतिदिन आप आसपास ऐसे-ऐसे बच्चों को या कहना चाहिए की वयस्कों को देखते हैं, जिनकी ज़िंदगी के अच्छे-खासे साल, ये सामान्तर घढ़ाईयाँ निगल चुकी। और अब भी वो संभले नहीं है। बल्की, कुछ राजनीतिक जालों के चक्करों में, वो सब कर रहे हैं, जिनके उन्हें आसपास भी नहीं होना चाहिए। क्यों ? क्युंकि शायद उन्हें समझ ही नहीं है, की उनसे क्या करवाया जा रहा है और वो क्यों कर रहे हैं?   

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