कुछ वक्त पहले सुनने में आया की किसी बच्चे को बहुत ही छोटी उम्र में हॉस्टल भेझ दिया गया। जहाँ कोई और समाधान ना हो, वहाँ तो शायद सही है। लेकिन, अगर कोई सिर्फ ये सोचकर भेझने की सोचें, की इससे उस बच्चे का ज्यादा भला होगा, तो सही नहीं है। अगर घर के हाल बहुत बुरे नहीं है, तो कम से कम स्कूल तक तो उसे घर का माहौल चाहिए। उसका कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। पैसे से आप उसे घर का माहौल या माँ-बाप का प्यार या देखभाल नहीं दे सकते। हाँ। अगर आपके पास अपने बच्चों के लिए वक्त ही नहीं है, तो मान के चलो कुछ भी नहीं है। स्कूल के बाद तो ज्यादातर पढ़ाई, वैसे ही घर से दूर रहके होती है। इतने छोटे बच्चे उतने परिपक्कव भी नहीं होते की अपना भला या बुरा समझ सकें। और ज्यादातर मिडिल क्लास के स्कूलों के हॉस्टल, ना ही उतने अच्छे। Day Boarding तक तो फिर भी समझा जा सकता है। क्यूँकि, ज्यादातर बच्चे स्कूल के बाद टूशन पे होते हैं, खासकर जिनके यहाँ पढ़ाने वाले नहीं होते।
जो माँ-बाप जितनी ज्यादा मेहनत अपने बच्चों के साथ उनके काम करवाने में करते हैं, उतना ही उन्हें इस चूहा-दौड़ में कम झुझना पड़ता है। जरुरी नहीं आप उतने पढ़े लिखे हों या आपको एक क्लास से आगे सबकुछ आता हो। बहुत जगह देखा है, की छोटी-छोटी सी चीजें, जैसे बच्चा जब पढ़ रहा है, तो सच में पढ़ रहा है या इधर-उधर वक्त ज्यादा बर्बाद कर रहा है, देखना मात्र ही बहुत होता है। कभी-कभार उसके साथ देर रात तक जागना, खासकर पेपरों के वक्त या सुबह उठाकार पढ़ने की आदत डालना ही काफी कुछ बदल देता है। ऐसा मैंने अपने कुछ cousins के यहाँ या दोस्तों के यहाँ देखा है। बच्चा रात को लेट पढ़ रहा है और माँ या बाप साथ में जाग रहे हैं। वो भी स्कूल के स्तर पे नहीं, बल्की यूनिवर्सिटी के स्तर पे। जबकी सुबह माँ-बाप को नौकरी पे भी जाना होता है, वो भी घर का काम करके। और अगर पूछो की ये तो खुद ही पढ़ लेता है या पढ़ लेती है, फिर आप क्यों जगरता करते हैं? जवाब मिलेगा, अरे उसे लगेगा कोई और भी साथ जाग रहा है, तो नींद कम आएगी। अब हॉस्टल में तो बच्चे रातभर जागते हैं। एक-दूसरे से होड़ रखते हैं, तो माहौल ही अलग होता है। घर पे सब सोते दिखेंगे तो उसे भी नींद जल्दी आएगी। क्यूँकि हॉस्टल में, खासकर पेपरों के दिनों में ऐसा ही होता है। जैसे कोई सो ही नहीं रहा।
हालाँकि, जिन्हें लगन होती है, वो ये आदतें खुद भी बना लेते हैं। मगर बहुतों को शायद थोड़ा-सा दिक्कत होती है, खासकर ऐसे माहौल में, जहाँ पढ़ाई का मतलब या तो जबरदस्ती का टूशन हो या धमकाना और डराना। कुछ तो उससे आगे चलके, दे पटापट भी शुरू हो जाते हैं। वो दे पटापट या जबरदस्ती वाले ज्यादातर, 10-12 के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। और फिर ज्यादातर उन्हीं माँ-बाप का सिर फोड़ते हैं। और ऐसे माँ-बाप ऊपर से ये भी कहते मिल सकते हैं, की हमने तो बहुत किया, अपने बच्चों के लिए। क्यूँकि उन्हें शायद मालूम ही नहीं, की बहुत वाले कितना करते हैं। बहुत कुछ ना करके भी, पढ़ाई का माहौल देने की कोशिश करना, कहीं ज्यादा काम करता है। ऐसा माहौल, जहाँ बच्चा अपने आप पढ़ना शुरू करे। क्यूँकि, जबरदस्ती की बजाय, माहौल और लगन ज्यादा कारगार होता है। यहाँ माँ-बाप पे बेवजह का प्रेशर डालना नहीं है, सिर्फ ये बताना है, की पैसा सबकुछ नहीं दे सकता। जब तक आप अपने बच्चे को वक्त तक नहीं दे सकते।
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