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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Thursday, July 27, 2023

हेराफेरी (Trickeries)

हेराफेरी 

Trickeries: Setting narratives are like setting news-agendas by different parties media.  

जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। मतलब Deceptive Designs, चालबाज़ी।   

अंदर या बाहर (In or Out, Spin offs, step in, step out, checked in, checked out)  

होम मिनिस्टर (कौन से और कैसे देश के?) की भाषा में बोलें तो, घर में घुस कर मारना होगा? ये कैसा होम मिनिस्टर और कैसी भाषा?   

काँटा फेंकना, जाल डालना (Fishing, Bait and Switch)

Out, Kick out खदेड़ बाहर करना? Knock out? Checkmate?

अखाड़ा, दंगल (R in g)  

एक होते हैं राजनीती के चेहरे और मोहरे, और दुसरी तरफ होते हैं असलियत के, हकीकत के इंसान और रिस्ते। ये अंदर और बाहर के कुत्ते-बिल्ली के राजनीतिक खेल, हकीकत के इंसानों और रिस्तों को भी भद्दे से भद्दे रूप में मोहरा बना सकते हैं। 

कोई अच्छे भले इंसानों को कहे की मैं आपको बहनचो, माँचो, या बेटीचो या भतीजीचो या भांजीचो बना सकता हूँ? और आप ऐसा बोलने वाले को, या तो संवाद के काबिल ना समझ आगे निकल लेंगे या शायद ठोक देंगे? 

मगर कोई जाल ऐसे फेंके की आपको खबर भी ना हो, और आपको ऐसा कोई मानव रोबोट बनाने की mind programming शुरू हो चुकी हो? अब वो mind programming कितनी और किस हद तक सफल होगी या कितनी नहीं, ये तो बहुत सी चीज़ों पे निर्भर करता है। खासकर, उस जाल के गुप्त रहने या उजागर हो जाने पर। मगर, अगर आप ऐसे-ऐसे जालों की बारिकियों पर गौर फरमाएंगे, तो शायद संभावनाएं तो बहुत हैं। खासकर, अनभिग और नादान बच्चों के केसों में। कैसी बेहुदा दुनियाँ है ये? और कैसे-कैसे, ऐसे जाले फैलाने वाले लोग?  

मानव रोबोट बनाना सच में इतना आसान है क्या? जानते हैं अगली किसी पोस्ट में।  

क्या कोई आपको मानव, जीवों और निर्जीवों के संसाधनों के दुरूपयोग की तरफ धकेल सकता है? वो भी ऐसे, की आपको खबर भी न हो और वो अपना काम कर जाय?

हवा भरना (Ballooning, Pump and Puncture, Pump and Dump) 

इंदिरा गाँधी, नेहरू, मोदी, ट्रम्प, पुतिन, राजकुमारी, राजकुमार, राजा या रानी हो तुम। फुलने की बजाय, इनके पीछे छिपे राजनीतिक निहित स्वार्थों को समझो। जब वो ये सब कहते हैं, तो किसी कोड की तरफ ईशारा होता है। न की आपको किसी गद्दी पर बैठाने की तरफ। आपके आसपास उन कोडो के मँडराने का मतलब क्या है? उनकी किसी आदत, गुण या अवगुण को आपसे जोड़ना? उसे बढ़ा-चढ़ा, तोड़-मरोड़ कर पेश कर आपको बढ़ाना-चढ़ाना, गिराना, घुमाना या विचलित करना या आगे बढ़ाना?  

जैसे कोई कहे, अर्रे आपका घर तो ताज जैसा है। जैसा है, न की ताज है। अब उस जैसे में कोई झोपड़ पट्टी भी हो सकती है और ठीक-ठाक घर भी। वैसे ही किसी भी हस्ती से आपकी तुलना करना, आसपास भी हो सकता है और आपसे बिलकुल उल्टा भी।   

Wednesday, July 19, 2023

हकीकत, आभाषी, और मिथ्याभाषी दुनियाँ?

हकीकत की दुनियाँ?

आभाषी दुनियाँ?

मिथ्याभाषी दुनियाँ?

और खिचड़ी दुनियाँ?   

और भी पता नहीं कैसी-कैसी दुनियाँ? 

जैसे हकीकत के जीव, फोटोजीव, विडियोजीव? और भी पता नहीं कैसे-कैसे जीव?

चलो इसे थोड़ा अपने नेताओं के सफाई अभियान से समझते हैं।  

कुछ लोग होते हैं जो सही में सफाई पसंद होते हैं। कुछ दिखावे के सफाई पसंद होते हैं। दिखावे वालों को हकीकत की इमेज से ज्यादा, शायद सामाजिक इमेज ज्यादा पसंद होती है। अब इमेज के अपने फायदे-नुकसान हैं। तो बनाने में क्या जाता है? जैसे एक झाड़ू उठाओ, थोड़ा सफाई करते फोटो करवाओ और दुनियाँ को दिखाओ। देखो कितना सफाई पसंद लोग हैं। या गरीबों को दान-दक्षिणा दो और फोटो करवाओ या विडियो बनाओ और डाल दो ऑनलाइन। कितने दयालु लोग हैं? पब्लिक जगहों को साफ़ करने वाले लोग? स्टेजों पे, प्रोग्रामों में दान देने वाले लोग? ऐसे लोगों की हकीकत सच में वही होती है? या धोखा, दिखावा? उसके बदले कुछ ज्यादा पाने की खातिर? दोनों ही सच हो सकते हैं शायद। इंसान-इंसान पे निर्भर है। 

बहुत से ऐसे लोग, जो ऐसे-ऐसे ऑनलाइन फोटो या विडियो डालते हैं, यहाँ सफाई अभियान का हिस्सा, वहाँ सफाई अभियान का हिस्सा। यहाँ दान, वहाँ कल्याण में दिखते हैं, फोटो या विडियो में। क्या वो अपने खुद के घरों या आसपास का भी ऐसे ही ध्यान रखते हैं? या वहाँ की हकीकत कुछ और ही होती है? कई बार तो उनके अपने खाली प्लॉट, पुराने-घर सड़ांध मार रहे होते हैं, जहाँ अक्सर उनका बचपन बीता होता है। और उनके बाहर ताले लटके होते हैं। कभी-कभी तो इतने टूटे-फूटे से मकान, की अड़ौसी-पड़ोसियों को भी खतरा रहने लगे। कई पडोसी तो शायद बोल भी चुके हों ऐसा कुछ कई बार। थोड़ा बड़े होते ही, कुछ लोग तो ऐसी-ऐसी जगह शायद आना-जाना तक पसंद नहीं करते। हालाँकि, उनका बचपन वहीँ गुजरा होता है। और धरोहर बताते हैं, वो ऐसी-ऐसी जगहों को? जैसे हाथी के दाँत खाने के और, और दिखाने के और? थोड़ा ज्यादा हो गया शायद? सफाई पसंद लोगो, आओ ऐसी-ऐसी जगहों की भी खबर लें।

ये कैसा संसार और कैसा लोकतंत्र?

हम उस महाभारत की दुनियाँ में नहीं हैं, जहाँ राजदरबार में पाँडव और कौरव आमने-सामने हैं और मामा शकुनि अपने खास अंदाज में, भाँजे दुर्योधन कहके गोटियाँ फेंक रहा है। और कह रहा है, ये भी गई। ये भी गई। और ये भी। भांजे युधिष्ठर! कुछ और है दाँव पर लगाने को?

हम उस महाभारत की दुनियाँ में हैं, जहाँ इन जाहिल जुआरियों, जो अपने आपको योद्धा कह रहे हैं और बेहुदा किस्म के खिलाडियों के लिए, हर इंसान एक गोटी/कोड है। वो कोड जिसके नाम पे या कहो नंबरों पे, या मिश्रित चिन्हों पे, राजनीतिक पार्टियाँ चाल (दांव) चलती  हैं। आखिर सबजन राजा-महराजाओं की ही तो प्रॉपर्टी हैं? भला वो इंसान थोड़े ही हैं? उनके कोई अधिकार थोड़े ही हैं, जो उनको चलने से पहले, उनसे पूछा जाए या इजाज़त ली जाए?  

क्यों धर्तराष्ट्र महाराज? अब ये धर्तराष्ट्र और इनके राजदरबारों में, चारों तरफ बैठे बड़े-बड़े लोग, न्यायलय और उनके न्यायधीश? बेचारे! बिलकुल महाभारत की तरह मुसीबत में फँसे, लंजु-पंजु हुए, कोई भीष्मपितामह जैसे? या ये भी किसी पार्टी के योद्धा (खिलाड़ी) हैं? या कहना चाहिए मात्र कोड हैं। कौन सा कोड कहाँ बैठेगा, ये भी ये गुप्त सिस्टम बताता है।  

इस महाभारत में, कितनी ही गोटियाँ, कोड आप जैसे, हम जैसे, पता नहीं कब और कहाँ भेंट चढ़ जाएँ। इन खिलाडियों/जुआरियों के checkmate/s के दाँवों पे! कहीं accidents में, कहीं बिमारियों में, कहीं रिश्तों में फेंकी गई दरारों में। कहीं ऐसे, तो कहीं वैसे, जालों में, जंजालों में।

इन जुआरियों से परे, कथित खिलाडियों से परे, इन राजाओं और राजदरबारों से परे, कोई और जहाँ भी है क्या? होना तो चाहिए। वो संसार, जहाँ कोई इंसान, अगर इनका हिस्सा न होना चाहे या इनकी रची बेहुदा दुनियाँ से परे रहना चाहे, तो रह सके। उस संसार में जिसमें लोकतंत्र है, जुआरियों से परे, शिकारियों से परे। उस संसार में जहाँ सजा है, कुर्सियों पे बैठकर गुंडागर्दी करते या करवाते, शामिल होते या जुर्मों के खिलाफ आँख  बंद कर बैठे अधिकारियों के लिए। जहाँ जुर्म भुगतने वाले को अपना ऑफिसियल घर और नौकरी नहीं छोड़नी पड़ती, क्युंकि जुआरियों के गुप्त दाँवों के अनुसार ऐसा ही होना है। बल्की ऐसे करने या करवाने वाले अधिकारीयों को सिर्फ वो कुर्सियां ही नहीं छोड़नी पड़ती, बल्कि जेल भी जाना पड़ता है। ये कैसा संसार और कैसा लोकतंत्र, जहाँ डर ही नहीं है, इन कुर्सियों पे बैठे जुआरियों या जुआरियों का साथ देने वाले अधिकारियों को?  

मुझे 2018 में, जब इस संसार और इन गुप्त लोकतंत्रों के नाम पे धब्बों की खबर होने लगी थी, तो मेरी दुनियाँ तो उल्ट-पुलट हो चुकी थी। ऐसा जानकर-समझकर, किसी भी आम इंसान की होनी थी। क्युंकि जो मुझे दिखाया जा रहा था, वो दुनियाँ, वो थी ही नहीं, जिसे इस दिमाग ने बचपन से देखना और समझना शुरू किया था। जिन्हें योद्धा और खिलाडी कहा जा रहा था, उनकी जगह, मुझे सिर्फ और सिर्फ, चाल चलते, घात लगाते, checkmate करते, जुआरी और शिकारी नजर आ रहे थे। उस ऑफिस और कैंपस में, मैंने इन कोडों को समझने के लिए ही, बेवजह बंद पड़े स्टोरों और लैबों के ताले तोड़ उन्हें खोलना शुरू कर दिया था। तब तक भी मालुम नहीं था की वो सिर्फ academics वाले ऑफिस की राजनीती की वजह से बंद नहीं थे, बल्की उनके पीछे तो उससे कहीं बड़ी राजनीती थी। धीरे-धीरे वो भी समझ आने लगा था। उसके बाद 2018 में ही VC ऑफिस में एक खास मीटिंग के बाद, मेरा Psycho पहुंचना, वो इंजेक्शन और वो हिमाचल में चैल के स्कूल का विजिट। किसी ऐसे स्कूल का, भला एक यूनिवर्सिटी में टीचर से क्या लेना-देना? और मेरा वहाँ से नौ, दो, ग्यारह होना।   

उसके बाद की चालें, यूनिवर्सिटी घर छोड़ो। मेरा ओमेक्स में किराए पे घर लेना। 2-महीने किराया भी देना, मगर चालों को समझते हुए शिफ्ट न करना। क्युंकि ड्रामे हर कदम पर बहुत कुछ कह रहे थे। 

अब इलाज तो होना ही था। आखिर चिड़िया पिंजरा तोड़ कहाँ तक उड़ेगी? और 2019 की कैंपस मार-पिटाई! अब तो इस दुनियाँ को जानना और जरूरी हो गया था। नहीं?             

Monday, July 17, 2023

मंदिर-मस्जिद और ?

मंदिर-मस्जिद और विवाद की जगह?

मंदिर-मस्जिद और फैसले कोर्ट के अधीन?  

मंदिर-मस्जिद और डरावों की वजह?

मंदिर-मस्जिद और भूत-प्रेतों की जगह या वजह?

मंदिर-मस्जिद और अन्धविश्वाशों की वजह? 

मंदिर-मस्जिद और षडयंत्रों की जगह?

मंदिर मस्जिद और राजनीती का मुद्दा?

या 

मंदिर-मस्जिद और शांति की जगह?

मंदिर-मस्जिद और विचारों का आदान प्रदान?

मंदिर-मस्जिद और संवाद की वजह?

या मंदिर-मस्जिद और लठैतों की जगह?

मंदिर-मस्जिद और कानफोड़ू स्पीकर्स? 

मंदिर-मस्जिद लड़ाई-झगड़े और फसादों की वजह?    


किसी बच्चे को जब आप मंदिर या मस्जिद के बारे में बताते हो तो क्या बताते हो? हकीकत क्या है, इन मंदिर-मस्जिदों की? 

किसी भी तरह के धंधे के अड्डे?  

लड़ाई-झगडे या फसाद की जड़?

बाज़ारू ताकतों या राजनीतिक ताजों के अधीन?

झूठ, मक्कारी के अड्डे?  

या? इसके विपरीत?

यहाँ मंदिर-मस्जिद से मतलब कोई भी धर्म। बाकी सब अपने आप जोड़ लेना। 

चालें, घातें और राजनीती?

चलो पहले थोड़ा पीछे चलते हैं 

मैं आपके पास सो जाऊँ?

सो जाओ।  

अगले दिन, फिर दिन में वहीँ बुआ के पास खेलना, थोड़ा बहुत काम करना, खाना-पीना और रात होते-होते, मैं आपके पास सो जाऊँ?    

सो जाना, मगर पहले घर बोलके आओ। 

मम्मी को बोल आई। 

झूठा बच्चा। आप घर गए ही कब?

अरे गई थी ना। बच्चे कितनी मासूमियत से पेश आते हैं ना? 

अच्छा। जाओ एक बार असलियत में जा आओ। नहीं तो मम्मी या पापा आएँगे लेने। 

आ जाएँगे तो यहीं से बोल दुंगी। 

बहुत आलसी हो गए आप। जाके बोलके आओ। 

भगा रहे हो ? अब मैं पुरे बैड पे नहीं फैलती। सीधा सोती हूँ। और लात भी नहीं मारती। 

अच्छा! मुझे तो पता ही नहीं था। फिर भी घर तो बता ही आना चाहिए। 

ठीक है। और बेमन जैसे वो जाके, थोड़ी बाद फिर से वापस आ गयी। मेरे कमरे में यहाँ एक ही सिंगल बैड था। और बहुत बार ऐसा ही होता था। कभी गर्मी ज्यादा होती या मच्छर होते तो नीचे दादी के पास सो जाती। 

भाभी के जाने के बाद मुझे लगा दूसरा बैड मुझे अपने कमरे में डाल लेना चाहिए। क्युंकि मेरे हिसाब से तो अब वो यहीं सोने वाली थी। अब उसे बुआ की ज्यादा जरूरत थी। और मैंने दुसरे कमरे से एक और सिंगल बैड अपने कमरे में करवा लिया था। मगर श्याम को जब मैं उस टूशन वाली लड़की के यहाँ दूध लेने गई तो कुछ अजीब हुआ। 

उस औरत (टूशन वाली लड़की की माँ) ने बोला, की गुड़िया अब तुम्हारे पास सोएगी या अपने घर? 

मुझे पहले ही उनकी कई बेतुकी बातों पे गुस्सा आया हुआ था। 

जैसे, "फीस कम होगी तो दो पैसे बचेंगे, काम आएंगे।" 

बच्चे की फीस में पैसे बचाना और वो भी उस बच्चे की माँ के जाने के बाद? ऐसी भी क्या मजबुरी हो सकती है? या कुछ लोगों का लालच, कुछ की राजनीती और कुछ का बेदिमाग होना?   

-- और मैंने गुस्से में ही बोला, नहीं मौसी के यहाँ। क्युंकि कुछ लोगों के अनुसार, अब वो मौसी के यहाँ जाने वाली थी। कुछ इधर-उधर और बाहर के लोगों के अनुसार। मेरा बच्चे की मौसी से कोई झगड़ा नहीं था, बल्की ठीक-ठाक बोलचाल था। नार्मल केसों में, जैसा होता है। मगर यहाँ वक़्त के साथ ये समझ आया की वहाँ भी दरारें पैदा करने की कोशिश हो रही थी। मतलब, ऐसे माहौल में और ऐसी परिस्थिति में बच्चे का भला कहाँ है, ये तो फोकस था ही नहीं। आसपास में हर किसी के अपने-अपने, छोटे-मोटे स्वार्थ, वो भी जुए वाली राजनीती के पैदा किये हुए।     

पता नहीं क्यों मुझे उनकी ज्यादातर बातें बेतुकी, और हद से ज्यादा दखल देनी वाली लग रही थी। हर बात पे ऐसे लग रहा था, जैसे बच्चे को जबरदस्ती घर से बाहर निकाला जा रहा हो। 

तेहरवीं पे जब गुड़िया वापस आयी तो उसकी बहुत-सी बातों और व्यवहार में बदलाव था। मुझे लगा स्वाभाविक ही है, क्युंकि बच्चे के लिए माँ का जाना, जैसे दुनियाँ का उलट-पुलट हो जाना। शायद उसे अब घर वालों की ज्यादा जरुरत थी। 

मगर यहाँ तो एक भद्दा ड्रामा शुरू हो चुका था । ड्रामा, जो चल तो पहले से ही रहा था, मगर अब तो जैसे सबकुछ उनके हवाले था। मगर किनके?       

"3-4 साल से टूशन पढ़ाती है।"

और बच्चा कह रहा है, "कल तो पढ़ाने लगी है, मम्मी के जाने के बाद। पहले तो मम्मी ही पढ़ाते थे।" 

मुझे भी यही मालुम था। 

"तुम्हें छोटे बच्चो को पढ़ाना नहीं आता। बड़े बच्चों को पढ़ाते हो ना।"  

कल तक तो शायद आता था। खासकर अपने घर के बच्चे को पढ़ाना। बच्चे की माँ के जाते ही ऐसा क्या हो गया था? 31 जनवरी तक भी वो मेरे पास ही खेल रही थी। एक फरवरी को माँ गयी और तरह-तरह के बंधे क्यों? जबकि अब तो उसे बुआ की ज्यादा जरूरत है।     

4th क्लास परीक्षाएं और दिन-रात घर से बाहर (कोड 4th क्लास की परीक्षाएँ)। डरावने ये ड्रामे न लगें तो क्या लगे? 

बाप फैसला लेगा, पड़ोसी उवाच और अंदर ही अंदर काफी कुछ बदला जाना। 

बुआ को हर बात से, हर फैसले से निकाल फेंकना। अब बाप है तो हक तो है, चाहे वो कुछ भी करे? बुआ कौन होती है? या कुछ खास केसों में बुआ, बुआ होती है? माँ के जाने के बाद वो बच्चे की जिम्मेवारी ले सकती है। खासकर जब माँ के जाने के बाद दूसरे ही दिन, कोई बाप की शादी के चरचे वाले पहुँच जाएँ। उसपे वक़्त के साथ लड़की को घर से बाहर निकालने की कोशिशें। कैसे षड़यत्र हैं ये?      

जब ऐसा संभव न हो पाए तो खासमखास देखरेख प्रोग्राम। बाप ही नहलायेगा-धुलायेगा, वहीँ सोएगी। जो काम, वो अपने-आप करने लगी थी, वो भी अब वही करवाएगा। 6th तक या 7th तक, स्पेशल इंस्ट्रक्शंस! कहने को तो कुछ खास नहीं था। मगर जिस हिसाब से कह-कह के करवाया जा रहा था, और बुआ और दादी को अजीबोगरीब ढंग से बाहर का रास्ता दिखाने की कोशिशें हो रही थी, वो न सिर्फ हैरान करने वाला था, बल्की जिसे सामान्तर केस समझ आने लगे थे, उसके लिए तो सिर्फ किसी तरह का शक पैदा करने वाला नहीं, बल्की डरावना था।      

5th क्लास स्कूल बदलना। गाँव के स्कूल से, दूसरे गाँव के स्कूल! वो भी कोई अच्छा स्कूल नहीं। लड़कियों को धंधे में धकेलने वालों के लिंक वाला स्कूल? वही स्कूल, जिससे बच्चे की माँ खुद परेशान थी और छोड़ना चाहती थी! वही स्कूल, जिसमें वो अपने बच्चे को खुद वहां एक टीचर होते हुए नहीं लेकर गई? चलो बाप ने तो फैसला ले लिया हो, जिस किसी वजह से, मगर इन कुछ आसपास के, अपनों और पड़ोसियों के, यहाँ क्या और किस तरह के स्वार्थ हो सकते हैं? क्या इन्हें मालुम भी था या है, की ये किस तरह की सामान्तर घड़ाई चल रही है? वो भी भाभी के जाते ही? क्या लोग सच में इतने भोले हैं? या कैसे-कैसे स्वार्थ या लालच हो सकते हैं?      

टूशन लड़की का उसी स्कूल में टीचर ज्वाइन करना? 

टूशन लड़की और BYJU स्पेशल फोन बातचीत?  

लड़की छुपाना। वो भी कुछ अपने कहे जाने वाले लोगों द्वारा और आसपास के लोगों का शामिल होना।  

बुआ द्वारा बनाया खाना बंद करवा देना। 

बच्चे का दादी वाले घर ही आना बंद करवा देना। आजकल मैं यहीं रहती हूँ। पता नहीं कौन-सा और कैसा कोड है "राहुल माँ के घर रहता है?" कब आपके आसपास मोदी कोड मंडराने लगता है, कब केजरीवाल और कब राहुल गाँधी? बहुत ही अजीब किस्म का जुआ है। आम आदमी कैसे समझे इसे?   

बच्चे से बात ही बंद करवा देना। वो बच्चा बुआ से सब शेयर करता है। शायद किसी और के इतने पास नहीं है? फिर जबरदस्ती दूर करने का मतलब?  

बच्चे का डर में, इशारों में बातें करना। 

और आपका परिस्थिति अनुसार शिकायत करना -- "संभाल लो, संभाल सकते हो तो। फिर मत कहना बताया नहीं। पानी सिर के उप्पर से जा रहा है।" अब सब तो यहाँ लिखा नहीं जा सकता। 

और लो जी हो गयी सहायता, "दादी-पोती का अंदर से कुण्डी तक लगाना शुरू कर देना।" 

"मत बात करो, आपपे नहीं, हमपे असर होता है।" यहाँ जैसा मुझे समझ आया, कई तरह के डरावे और कुछ अपने कहे जाने वालों द्वारा खास तरह की टिक्का-टिपण्णी और ड्रामे भी थे। जब सीधे-सीधे बच्चे को दूर न कर पाओ, तो उलटे-सीधे तरीके अपनाना।  

कैसा और क्यों? आखिर कौन हैं ये डरावे? और क्या चाहते हैं, जो बुजर्गों और बच्चों तक को नहीं बक्शते?  

फिर से उन्हीं  गुंडों का जाल और चालें और वही गुंडों का स्कूल या लिंक? Filthy D-Graders?  

वही गुंडे जो बुआ का special rape, जिसे वो बैंक-अकाउंट ओपनिंग या शायद आधार भी बोलते हैं, करने या करवाने में नाकाम रहे। अब उन्हें उसपे कोई special विडियो भी बनाना था। 2018 में, 2010 के कामनवेल्थ के बेस पे? वैसे ये कामनवेल्थ क्या होता है? वो भी academics को तकरीबन खत्म कर, Psycho का स्पेशल इंजेक्शन लगा और उसके बाद हिमाचल के किसी स्कूल का स्पेशल विजिट (2018)? पर ये तो मैं खुद गयी थी ना घुमने? ऐसी स्थिति में, जब डॉक्टर ने कोई भी heavy machine चलाने से मना कर दिया हो? कैसे कोड थे ये?  

मगर ये क्या, ये कौन लोग थे जो चेतवानी वाला सिगनल दे रहे थे? "संभल कर, क्युँकि आप जहाँ जा रहे हैं वो दुनियाँ का सबसे ऊँचा क्रिकेट ग्राउंड है।" और मुझे तो किसी भी तरह के खेलों से ही नफरत हो चुकी थी। ये कैसे खेल, जो लोगों की, खासकर लड़कियों की ज़िंदगियाँ ही बर्बाद करके रख देते हैं? क्या आम-आदमी को भी ऐसे-ऐसे खेलों का हिस्सा होना चाहिए? ये सब क्या चल रहा था? थोड़ा समझ आते ही चिड़िया पिंजरा तोड़ उड़ चुकी थी। उसके बाद उसका खास इलाज हुआ 2019 में, एक और सामान्तर घड़ाई, मार-पिटाई, (यूनिवर्सिटी छोड़)।      

कैसे-कैसे डर और लालच? या कहना चाहिए की गँवारपठ्ठों को मानव-रोबोट बनाना बहुत आसान है? उन्हें कहा कुछ जाता है, और चल कुछ और ही रहा होता है। ऐसा ही कुछ। Persuasion-Politics को समझना बहुत जरूरी है, ऐसे-ऐसे जालों से बाहर निकलने के लिए।  

इतना कुछ लिखने के बाद, मेरी अपनी जान के खतरे बढ़ जाते हैं। सोचो मैं कैसे माहौल में धकेल दी गयी हूँ? जहाँ बेहुदा-राजनीती वालों के लिए खेलना बहुत आसान है। कम पढ़ा-लिखा, गाँव का इंसान, जल्दी बहकावे में आता है।और खतरे मेरे लिए ही नहीं, आगे वाली पीढ़ी के लिए भी। सामान्तर केसों से बच पाएंगे, इस पीढ़ी के बच्चे? कोई है जिम्मेदार? जिम्मेदार तो तब होंगे ना, जब बेहुदा राजनीती को समझ पाएंगे। 

आसपास के खास जिम्मेदार लोग और टिक्का-टिपणियां --

"तुझे तो नौकरी करनी है। अकेली औरत कैसे संभालेंगी बच्चे को?" और अकेली क्यों? यहाँ तो माँ-भाई भी हैं। वो साथ रह लेंगे। नहीं? 

दुनियाँ भर में कितनी ही औरतें अकेले बच्चे भी पाल रही हैं और नौकरी भी कर रही हैं। औरत अकेली है तो क्या उसके सब तरह के अधिकार खत्म हो जाते हैं? क्या हमारे समाज में गॉर्डस के बिना, अकेली औरतों और या कमजोर तबके का आम ज़िंदगी जीना भी आसान नहीं? तो कोई क्यों रहे ऐसे समाज में? क्यों नहीं बाहर निकलने दिया जाए उसे वहाँ से? या फिर ऐसा माहौल दो, की वो टिक सकें वहाँ।    

जिनकी अपनी लड़की ससुराल से अलग बैठी हो बच्चे के साथ, और नौकरी भी कर रही हो। क्या वो भी ऐसा बोल सकते हैं? 

"ये तो मर्द-माणसा के काम सैं, औरत कैसे करेगी?" मगर बोलने के बाद खुद ही झेंप गए। इनके यहाँ सारे काम औरतें ही करती हैं। इसमें बुरा क्या है? कहीं-कहीं ऐसे भी केस हैं, जहाँ किसी भी परिस्थितिवश ये so-called मर्द-मानस हैं ही नहीं। तो क्या वो जीना ही छोड़ दें? ये तो खुद्दारी है। परिस्थितिवश, ज़िंदगी को आगे बढ़ाना, रो-धोके वहीं बैठ जाने की बजाय। 

और भी ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे नमुने हैं, जो बोलने से पहले ये भी नहीं सोचते की ऐसा कुछ कहीं तुम्हारे अपने यहाँ या आसपास भी तो नहीं है? सब लिखना सही नहीं होता शायद।   

Saturday, July 15, 2023

आभासी दुनियाँ को बढ़ाना, चढ़ाना, तोडना, मरोड़ना

 Manipulations and Manifestations

आभासी दुनियाँ को बढ़ाना, चढ़ाना, तोडना, मरोड़ना     


राजनीती रे राजनीती तेरा रंग कैसा?

या कहें मीडिया रे मीडिया तेरा रंग कैसा?

  

डेंगू, मलेरिया, कैंसर, शुगर, पिलिया 

और कोरोना जैसी बीमारियां देखी 

 देख लिए BIPERJOY से चक्रवात 

जोशी मठ और दिल्ली के भूकंप देखे 

कैसी-कैसी बरसातें और सुनामी देखे


45 साल बाद दिल्ली का यूँ डुबना?

वो भी एक ordinance से?

ICICI ने जैसे ही पानी छोड़ा 

Errr PPF रिलीज़ किया   

हरियाणा ने सुना, दिल्ली को डुबो दिया?  

और हिमाचल के पानी को UP की बजाय 

दिल्ली-यमुना की तरफ मोड़ दिया?


सोचा चलो PPF तो मिल गया 

जिनका जो था, वो उनके पास गया 

यूनिवर्सिटी वाली फाइल कहाँ पहुंची? 

उसका भी हाल जान लें, भारद्वाज ma'am से?

Friday, July 14, 2023

Cult Politics (लगान-राजनीती?)

Cult Politics हिंदी में उचित शब्द क्या होगा इसके लिए? लगान-राजनीती? कभी गोरों की, तो कभी कालों की? या यूँ कहें की कभी गैरों की, तो कभी अपनों की?    

14.07.2023 (Around/After 4.00 PM) शिव मुर्ति स्थापना और मंदिर वही होलिका दहन (7.3.2023) वाला? पहली बार देखा गया अजीबोगरीब और डरावना-सा-होलिका-दहन। गुप्त कोड हैं क्या किसी पार्टी के, ऐसे-ऐसे धर्मों के प्रचार-प्रसार में? आप क्या कहते हैं?     

आभासी दुनियाँ पे राजनीती के तड़के: भगवानों की हकीकत बस इतनी-सी है? आप सोचिए। इस विषय पर आने से पहले ये पढ़िए:     

तिकोने लाल रंग के झंडे और पीला उसके बहार। हरयाणवी नाच-गाना। गाने के बोल-- तु राजा की राजदुलारी --

उसके पीछे-पीछे दूसरा ट्रेक्टर, झंडा नारंगी। 

शिव मूर्ति स्थापना?        

पहली बार कब सुना था ये गाना? 2009? FB वाल Y-D 

शायद ये?   


और आज का राज? 
नीचे बोलती तस्वीर और गाना?
बड़ा ही उलझ-पुलझ 
खेल काफी पुराना।   

"धुम्मां ठा दिया कती" 
नीचे जो शिव के अवतार की फोटो है--
"धुम्मां ठा दिया कती" इसी को कहते हैं क्या?
सोचो, कैसे-कैसे तो भगवान पाल रखे हैं हमने?
इनकी मुर्तियाँ दूध भी पी जाती हैं?

चाहे छोटे-छोटे गरीब बच्चों तक को देने को दूध ना हो, ऐसे भगतों के पास! अपनी या किसी अपने की लगा के देखो न एक-आध मूर्ति, क्या पता वो भी पीती हो दूध? और दूध ही क्यों? पानी, चाय, लस्सी, नीम्बू-पानी, कॉफ़ी, शरबत और भी पता नहीं कितनी ही तरह के जलपान। पिला के तो देखो। 
मुर्ति-पूजा पे इतना सांग और इतना खर्च? ये सब किसी गरीब को दो तो शायद ज्यादा भला होगा। उसपे मंदिरों के चढ़ावों पे पुजारियों के जूत बजने भी कम हो जाएंगेनहीं?
      

ऐसे-ऐसे भक्तों की भी कमी नहीं मिलेगी, जिन्हें इंसानों से कैसे व्यवहार करते हैं, चाहे ये तक न पता हो। मगर ऐसे-वैसे, कैसे-कैसे भक्त बने जरूर घुम रहे होंगे। या ज्यादातर ऐसे ही लोग भक्त होते हैं?

राजनीती के भगवानों के उप्पर अगर घर के भगवानों को रख दें, तो शायद कुछ दब जाएँ ये ताँडव-वाले?
राजनीतिक-भगवान? 
भगवान और ताँडव?  
भगवान और धुआँ-धुआँ?
भगवान और भाँग? 
और भी पता नहीं क्या-क्या!     
ये सामंती-व्यवस्था, गरीबों के किस काम की?
और सबसे ज्यादा भक्त भी गरीबों और कम पढ़े-लिखों में ही मिलेंगें। 

थोड़ा भी पढ़ा-लिखा और इन ऐसे-ऐसे भगवानों का जानकार व्यक्ति, शायद यही कहेगा,
 मोदी जेलर, यहाँ तो विकल्प है -- अंगुठा या हस्ताक्षर। 
आप जबरदस्ती उठा के जेल में रोक के उंगलिमाल या अँगूठामाल बनना चाहते हो क्या? 
थोड़ी बहुत तो शर्म करलो आदमखोरो। जेल भेझेंगे क्या सच लिखने या बोलने पर भी? कितनी बार?    
   

आभासी या थोपे हुए लॉर्ड्स पे या बुत्तों वाली मूर्तियों पे, हमने तो अपने भगवान धर दिए, अपने वाले मंदिर में।  
इनके भगवानों की ये जाने। समझ अपनी-अपनी और भगवान भी अपने-अपने।

कुछ-कुछ ऐसा ही पहले भी लिख चुकी शायद?
पढ़ने के लिए दिए गए लिंक को चैक करें  पथ्थरों में भगवान या मंदिर?

Monday, July 10, 2023

ICICI Bank Trading? And University?

 Are banks involved in women trading?

Yes. They are. Some banks are behaving like agents of women traders. On the name of PPF withdrawal, ICICI bank has made so many excuses and so much bakwas that one feels like beware in future

PEOPLE DON'T NEED BANKS. Not at least like this ICICI DHADHEBAAZS. They are behaving like KOTHAS OF FLESH TRADERS.

People save money, so that it can be utilized in need. They are behaving like one is begging them for their money. From 2-minutes, 20-minutes, 2-hours, 2-3days, next week, on vacations, one week. Now do this, do that. Ufff! 

Not just this, earlier some stocks have been purchased even without my click on that option. I was just trying to check how this stock market works? And this ICICI directed website clicked automatically this Nippon option and then another one. I had to close that account out of fear, the way things were happening. Some fraudsters were purchasing some stocks on my behalf. Stocks, I did not even like and that was also without my permission, from my account and it was looking like I did that! 

Then another interesting thing happened. My ICICI account had money and one day it showed zero balance! On that it's occasionally showing account opening dates differences, amount difference by one digit. 





But by then, I had realized that many such things were also happening with the foreign universities websites information. 

It was clear cut indication that my internet was not just highly blocked but was presenting something which was not true. Especially some dates information of some bridge kinda or professional development kinda programs, their syllabi and even some postdoc positions, I guess. How one could work in such an environment? I realized, that it was happening since I started applying abroad in late 2021 or 2022 start. All these tactics are in place, just to stop me to leave India either by hook or crook. 

Few days back, it happened with ICICI bank PPF account. Yesterday again, it showed zero balance and almost at the same time, I got a message on my mobile that your account has been activated! What kinda account activation was that? Today again it showed the PPF amount but one digit less! Just yesterday, this lady dealing with my PPF account said that my withdrawal request has been accepted and I will get money by tomorrow evening or next day morning. Though, I was not sure as they had made fool like this many times earlier also. And today again her bakwaas started! How much time money withdrawal will take? 5-10 minutes? Or in case of some technical fault, max. 1-2 days?

Till now even University savings must had been available to me. What happened to that? What's going on there? If anyone can give any information? What else they need now? During this time period, some people or should say party, tried hard that I must join back. One day out of some fears, I even gave back that joining. But question is where are the safety measures and academic environment one needs to grow? I think, I can do better beyond this university's files-fight and political gambling of parties. 

And important question, why these political parties cannot come out of this gamble? Whom they are serving by that? What kinda society this gambling has created? 

Saturday, July 8, 2023

समृद्ध देश या पिछड़े हुए देश?

समृद्ध देश या पिछड़े हुए देश? समृद्ध कॉलोनी या पिछड़ी हुई कॉलोनी? समृद्ध देश के लोग या कम समृद्ध या पिछड़े हुए देश के लोग? क्या हम उन्हें सिर्फ कुत्तों के हालात जानकार जान सकते हैं? या कोई और पालतु जानवर या पेड़-पौधों से तुलना कर? शायद कुछ हद तक। क्युंकि, समृद्ध कॉलोनी या देश में ज्यादातर जीव या निर्जीव चीज़ें, थोड़ा अच्छे से फलते-फूलते हैं। कम समृद्ध कॉलोनी या देश मतलब ज्यादातर जीव या निर्जीव चीज़ें, कम संसाधनों में पलते हैं, तो फलते-फूलते भी कम ही हैं। मगर जीवन भर संघर्ष ज्यादा करते हैं।      

हमारी ज़िंदगी का हर कदम, सीधे-सीधे या उलटे-सीधे, किसी भी जगह की राजनीति से बहुत ज़्यादा प्रभावित होता है। उस जगह की राजनीति में छिपे होते हैं, वो गुप्त रहस्य, जो ज़िंदगियों को इधर या उधर धकलते हैं। जैसे राजनीति निरंतर चलती रहती है, ऐसे ही इन गुप्त कोडों की उठा-पटक। आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, क्या पहनते हैं, कहाँ रहते हैं, कहाँ पढ़ते हैं या क्या काम करते हैं, ये सब यही राजनीतिक पार्टियों की गुप्त CODON की उठापटक का संघर्ष बताता है। इसमें कौन-सी पार्टी के कोड आपके लिए सही हैं या नहीं है, ये आपको पता ही नहीं होता। या यूँ कहें की ये गुप्त-कोड आम-आदमी के भले के लिए नहीं, बल्कि इन पार्टियों के अपने निहित-स्वार्थों के लिए बनाये जाते हैं। उन्हें लागू करने के लिए, ये आपको थोड़ा बहुत लालच देकर, अपना कुत्ता तो बना सकते हैं। मगर अगर आप ये सोचने लग जाएँ की ये पार्टियाँ आपके लिए काम करती हैं, तो ये भरम के जाले उतार दो। ये कुत्तों को टुकड़े डालने जैसा-सा लालच ही फुट डालो, राज करो, में काम आता है। कुछ कुत्ते ये राजनीतिक पार्टी पाल लेती है, तो कुछ दूसरे वाली। अब अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों को ये अपने-अपने कुत्तों के जरिए सँभालते हैं। इसे हम लड़ाई के जरिए समझ सकते हैं। बहुत कम होता है की कुत्ते रखने वाले आपस में सीधा-सीधा लड़ें। ज्यादातर उनके कुत्तों को जरूर लड़ते या एक दूसरे को भोंकते देखा होगा। ऐसे ही राजनीतिक नेताओं को शायद ही कभी आपस में हाथापाई करते या सिर फुड़वाते या टूटते-फूटते देखा हो। हाँ! जुबानी तो वो लड़ते-भिड़ते ही रहते हैं। मगर सीधा-सीधा युद्ध, उनके लिए उनके आदमी लड़ते-भिड़ते हैं। अगर वो उनके कुत्ते नहीं है, तो क्या हैं? ऐसे ही कभी इन बड़े आदमियों के बच्चों को ऐसे लड़ते-झगड़ते देखा है? शायद इनके पाले हुए कुत्तों के बच्चों को जरूर देखा होगा? ऐसा नहीं की बड़े लोग लड़ते नहीं। सारी महाभारतों के रचियता ही वही होते हैं। मगर वो सबसे आखिर में मरते हैं, अगर ऐसी नौबत आए भी तो। नहीं तो उनके आदमी, उनकी सेनाएँ ही मरती-कटती हैं।  

अब रचियेता खुद कहाँ झगड़ते हैं? उनके लिए लोग लड़ते-मरते हैं। जैसे राजा-महाराजाओं के लिए सेनाएँ। राजे-महाराजे सेनाएँ रखते हैं, जो उनके लिए मरती-कटती रहें। या यूँ कहो, उनके कुछ टुकड़ों के लिए। राजाओं-महाराजाओं के थोड़े-से टुकड़ों के लिए मरने-कटने की बजाय, ये लोग खुद क्यों नहीं कमाना सीख लेते वो टुकड़े? उसके लिए शायद थोड़ा खुद्दार और थोड़ा पढ़ा-लिखा होना जरूरी है? आपस में कुत्तों की तरह झगड़ने की बजाय शायद मिलजुल कर रहना जरूरी है? राजे-महाराजे ऐसा क्यों चाहेंगे भला ये सब? इसलिए ऐसे राजे-महाराजे अपनी जनता को न सिर्फ आपस में भिड़वाते रहते हैं, बल्कि आगे भी नहीं बढ़ने देते। 

राजे-महाराजाओं के बच्चे ज्यादातर बाहर पढ़ते हैं। क्यों? पैसा ज्यादा है, कहीं भी पढ़े? नहीं। कम पैसे वाले भी बाहर पढ़ सकते हैं। अगर आप अपने बच्चों की स्कूली पढ़ाई पे, अपने ही देश में भी थोड़ा पैसा बच जाएगा, के चक्कर में, किसी भी कारणवश स्कूल बदलवा देते हैं। या ऐसा करवाने वालों के बीच हैं। तो मान के चलो, आप आगे नहीं बढ़ रहे। अपने बच्चो को भी पीछे धकेल रहे हैं। उप्पर बैठे ऐसे लोग, शातिर-चालबाज़ हैं। ये वो लोग हैं, जिनके लिए आप जैसे लोगों का कोई भी नई भाषा सीखना सही नहीं है। लैपटॉप सीखना सही नहीं है। पढ़ना-लिखना तो बिलकुल ही नहीं है। ऐसा हुआ तो आपको पता नहीं चल जाएगा की वो क्या-क्या खेलते हैं, आपके साथ, आपके अपनों के साथ? और अगर किसी ने कोई छोटा-सा स्कूल तक खोलने की सोच ली, तो वो ऐसी सोच को ही या शायद इंसान को ही खत्म कर देंगे। ऐसे राजे-महाराजे अपनी जनता के हितैषी कैसे हो सकते हैं? ऐसे राजे-महाराजों को तो ज़िंदा गाड़ देना चाहिए। ऐसे लोग अपनी ही जनता के दुश्मन हैं। गाड़ना, मार-पिटाई या कुटाई से नहीं। ये सब पिछड़ेपन की निशानी हैं। खुद को और अपने आसपास को आगे उठाकर और ऐसे-ऐसे राजे महाराजों का अघोषित शौषण और छलावा खत्म। यही मुश्किल है? न वो ऐसा होने देंगे और न आप इसके काबिल? अगर आप खुद को काबिल मानते हैं, तो काबिल हैं। नहीं तो नहीं। सब सोच पर है। और ऐसा नहीं है, की ये राजे-महाराजे किसी एक पार्टी में हैं। ये राजे-महाराजे हर पार्टी में हैं। और इनकी सेनाएँ आम आदमी।      

पॉश कॉलोनियों में कुत्ते घर में पाले जाते हैं तो अधिकार भी ज्यादा रखते हैं। थोड़ी कम पॉश कॉलोनियों में घर के साथ-साथ बाहर भी पलते हैं। और बाकी संसार में ज्यादातर बाहर ही पलते हैं। जिनके घर में पलते हैं, मतलब थोड़ा बहुत तो जरूर उन्हें ढंग से रखते होंगे। उनके पास उनको खाने-पीने, रहने, घुमाने लायक संसांधन तो होंगे ही। जिनके बाहर पलते हैं, वो या तो घर के अंदर रखना पसंद नहीं करते या शायद इतने संसाधन न हों। अब इन घर में और बाहर पलने या पालने वालों की तुलना, हम पॉश कॉलोनी या कम पॉश कॉलोनी, समृद्ध देश या पिछड़े हुए देशों से भी कर सकते हैं। 

अगर आप समृद्ध होना चाहते हैं, तो समृद्ध और पिछड़े के बीच तुलना करके जाने, दोनों में फर्क क्या-क्या हैं? समर्द्ध लोग या देश ऐसा क्या करते हैं, जो पिछड़े नहीं करते? या शायद उल्टा करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं की समृद्ध लोगों की बुराईयां तो सब नकल कर ली, मगर अच्छाईयों का पता तक नहीं। या शायद वो सब, जो शायद बहुत अच्छा भी न हो मगर समृद्ध बनाता हो। आते हैं इसपे भी, किसी अगली पोस्ट में। 

Friday, July 7, 2023

Luggage वाला Baggage?

Luggage वाला Baggage?
या Baggage वाला Luggage?

या फिर किताबों वाला भार? कम करो यार। इससे पहले, ऐसी-सी सफाई कब हुई थी? 2008, वो ड्रीम USA फ्लाइट से पहले। 12th तक वाली वो NCERT वाली किताबें। वो 11th से M.Sc. तक की मोटी-मोटी, फैलाना-धमकाना, लेखकों वाली किताबें। और वो पीएचडी वाला ये पेपर, वो पेपर वाला कबाड़। तकरीबन-तकरीबन सब साफ कर दिआ था। इत्ते सालों इकट्टा करते जाओ, करते जाओ और फिर एक दिन जाने क्या सोच शुरू हो जाओ --तु भी निकल, तु भी निकल और तु भी। और एक-एक करके तकरीबन सब चलता कर दो। कितना हल्का-हल्का महसूस होता है ना? करके देखा है कभी? कभी-कभी, ऐसा कुछ भी होना चाहिए ना? 

वैसे तो सफाई अभियान मेरी आदत का अहम् हिस्सा है। इस या उस बहाने होता ही रहता है। मगर फिर भी कितना कुछ बचा कर रख लेते हैं हम। पिछले कुछ सालों से ये हाल फाइल्स का है। कितनी ही फाइल्स साफ़ हो चुकी। मगर कुछ फिर भी लाइन में लगी ही रह जाती हैं। फाइल्स के अलावा जो खास अबकी बार इस सफाई वाली लाइन में लगा है, वो है बायोटेक की किताबें। इस पेपर की किताबें, उस पेपर की किताबें। कुछ Basic, कुछ Advanced या New Additions। 2008 में इस teaching वाली joining के साथ ही शुरू हो गयी थी इकट्टा होना। आखिर इनका भी दिन आ ही गया, उसी पीछे वाले स्टोर में पहुँचने का। और भी बहुत-सी ऐसी किताबें, जो पिछले कई सालों में खरीदी, ये जानने के लिए या वो समझने के लिए। राजनीति, गुप्त सिस्टम (Cryptic System) या ऐसे ही कुछ आत्मकथाएँ (Autobiographies) या सामान्तर केस (Parallel cases)।  

तो बच क्या गया? वो जो अब पढ़ना या समझना या लिखना है। ऐसी कुछ किताबें, पिछले कुछ सालों में खरीदी जरूर, मगर कोई खास पढ़ी नहीं। VR, AR, IoT, AI -- थोड़ा कम्प्युटर, थोड़ा mixed technology, थोड़ा बहुत पत्रकारिता और थोड़ी भड़ास। इनके अलावा बच्चों की किताबें और एक छोटी-सी लाइब्रेरी बनाने की योजना। 

Luggage वाला Baggage? या Baggage वाला Luggage? 
ये क्या होता है? ये तो वैसे ही लाइन पार हो रखा है :) 

वैसे सोचा है की जिनके पास पढ़ने को कोई किताबें नहीं होती या जिस घर में ऐसा कुछ नहीं दिखता, वो घर और वहाँ के आदमी कैसे होते होंगे? हम जैसों को आदत हो जाती है ना की जहाँ जाओ, वहाँ ऐसा कुछ तो दिखेगा ही दिखेगा। कईयों के घर जाके तो चारों तरफ जैसे लाइब्रेरी-सा अनुभव होने लगे। शायद कुछ ऐसा अनुभव होने लगे की आप तो कुछ पढ़ते-लिखते ही ना हों? 

दुसरी तरफ एक ऐसा जहाँ, ऐसा लगने लगे की आप कुछ ज्यादा ही किताबों की दुनियाँ से घिरे रहते हैं। ये देखो, ये भी जीवन हैं, जहाँ किताबों से कोई नाता ही नहीं होता। तो क्या होता है वहाँ? 

किताबों का समृद्धि और शांति से कोई लेना-देना है क्या? शायद ?  

Wednesday, July 5, 2023

Mind, Matter and Music err Edit!

सबसे ज्यादा वक़्त आप कहाँ बिताते हैं ?

अपने आसपास के लोगों के बीच ? कौन हैं वो आपके आसपास के लोग ? 

उसके इलावा ?

संगीत, अख़बार, टीवी, इंटरनेट या सोशल मीडिया ?

आपके दिमाग पे कितना प्रभाव डालता है ?

आपकी ज़िंदगी उन्हीं सब का आईना है।  आपके परिवार और बच्चों का भी। 

संगीत से शुरू करें? क्या संगीत के द्वारा भी किसी तरह की Mind Programming या Editing संभव है? पिछले कुछ सालों से कई सारे छोटे-बड़े home appliances को खोल या उधेड़ डाला। पता नहीं क्या जानने के लिए। इंसानों को खोलने या उधेड़ने से तो अच्छा है ना? लैपटॉप पे वो काम अभी तक Registry Edit नोटिस करने तक ही रहा। ऐसा ही थोड़ा बहुत फ़ोन का। 

सोचो कोई किसी बुजर्ग को कोई फ़ोन लाके दे जिसमें कुछ भजन वैगैरह भी हों। इससे पहले उस तरह के भजन सुनते मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। हाँ। संगीत सुनने के शौक़ीन जरूर रहे हैं मगर ज्यादातर पुराने बॉलीवुड गाने या स्कूल के प्रार्थना टाइप गाने। 

पता नहीं क्यों मुझे कुछ अजीब लग रहे थे उनमें कुछ भजन। और एक दिन ऐसे ही जब जिज्ञासा वश फ़ोन देखा तो शायद मेरा संदेह सही जा रहा था। उस फ़ोन में फोटो देखने की सुविधा है ही नहीं। और ये कौन महाराज या साध्वी, जिनकी फोटो गानों के साथ उस फोल्डर में डाल दी गयी थी? और कुछ खास सीरीज या फोल्डर भी? ऐसे भी कोई Editing या Mind Programming संभव है? और कुछ नहीं तो एक ठप्पा या अपनी किस्म की मोहर लगाने जैसा जरूर लगा। हो सकता है जिसने वो फोन या चिप दी हो उसे भी ना पता हो, जैसा की ज्यादातर ऐसे केसों में होता है। मगर उसके उप्पर ये सब पहुँचाने वाली कड़ी या कड़ियों को तो जरूर पता होगा? ये बाबे-साबे, महाराज- वहाराज, मुझे तो वैसे भी सही नहीं लगते। उसपे उनके आशीर्वाद देने या बैठने के पोज़। कैसे गुरु, कैसी भक्ति और कैसा भक्ति संगीत?  

Cult Politics -- interesting subject, having interesting designs of so many types .       

Mind Programming and Editing Tricks? 3 (Distance, Emotional Abuse)

Self Studies, Home Work Vs Tuition

ट्यूशन कौन जाता है?
वो बच्चे जिनके घर में कोई भी पढ़ाने वाला नहीं होता। ज्यादातर हरियाणा के या ऐसे ही स्कूलों के बच्चे?

अच्छे स्कूल अपने विधार्थियों को ट्यूशन पे नहीं जाने देंगे। और वो माँ-बाप तो कभी नहीं, जिन्हें मालुम है की स्कूल के होम वर्क का बोझ ही काफी होता है, आजकल बच्चों पे। ऐसे में वो ट्यूशन को भी कैसे झेलेंगे? या फिर वो माँ-बाप, जो अपने बच्चों के लिए "वक़्त नहीं निकाल पाते", का बहाना लिए होते हैं। और भी कैसे-कैसे बहाने हो सकते हैं दुनियाँ में? 

एक तो स्कूलों ने बच्चों का बचपन वैसे ही छीन लिया है। उसपे एक यही कमी रह जाती है, बच्चों को चूहा-रेस का हिस्सा बना देने की। ट्यूशन के चक्कर में अक्सर वो माँ-बाप फंसते हैं जो आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में असुरक्षित महसुस करते हैं। क्युंकि उन्हें बहकाना आसान होता है। उन्हें लगता है की वो अच्छे से न पढ़ पाए तो क्या, उनके बच्चे तो पढ़ लेंगे। BYJU जैसी कंपनियों को तो वैसे भी बैन कर देना चाहिए। ऐसे लोगों ने शिक्षा को पैसे ऐंठने का धंधा बना लिया है। शिक्षा और पैसे ऐंठने की मशीने या कम्पनियाँ? हज़म हो रहा है क्या? वो भी प्राइमरी लेवल पे ही शुरू हो गए? शिक्षा देने के अलावा भी कोई बहाना हो सकता है, ऐसी कंपनियों के पास बच्चे को लुभाने का?    


चालें चलना (Tricks), कोई जादु नहीं है। क्युंकि, इनमें आमजन को जो दिखाया या सुनाया जाता है, हकीकत उसके परे होती है। गुप्त होती है।
जहाँ फुट डालो राज करो में, न जाने कैसा-कैसा भूसा, लोगों के दिमागों में डाला जाता है। ऐसा ही कुछ, यहाँ-वहां की कहानियाँ हैं। 

सोचो ऊपर वाले केस में Mind Programming क्या हो सकती है? कम्पनियाँ अपने उत्पाद कैसे बेचती हैं ? कैसे लोगों को आसानी से अपने जाल में फँसा सकती हैं, खासकर जहाँ जरूरत भी न हो ऐसा सामान खरीदने के लिए ?  
शिक्षा का ही एक उदाहरण लेते हैं 
कंपनी के लोगों के पास थोड़ा-बहुत दिमाग है और ऐसे असुरक्षित अभिभावक भी, जो आज की प्रतिस्पर्धा के वातावरण में अपने बच्चों को चूहा-रेस का हिस्सा बनाने से भी नहीं हिचकिचाएंगे? तो उन्हें एक कंपनी के नाम का लैपटॉप या टेबलेट पकड़ाओ और ऑनलाइन पढाने के नाम पे पैसे कमाओ। भला बुराई क्या है ? पैसे भी तो दिमाग वाले ही कुटेंगे ना? 

कैसे माँ-बाप ऐसी कंपनियों के जालों में आएंगे?
जो खुद पढ़े लिखे हैं और अपने बच्चों को खुद पढ़ाने और सेल्फ स्टडी करवाने में विश्वास रखते हैं? या जो माँ-बाप ना तो खुद इतने पढ़े-लिखे और प्राइवेट स्कूलों को ज्यादा पैसे लेते हैं, के लिए कोसते मिलेंगे? अगर कोई उनके पास मुफ्त में पढ़ाने वाला हो, और वो भी इन धंधा बाज़ुरू शिक्षा बेचने वालों से अच्छा? तो कहाँ पढ़ाएंगे वो? यहाँ पे अहम् ये नहीं है की अच्छा कौन पढ़ायेगा या ज्यादा वक़्त कौन दे पाएगा, बल्कि शिक्षा भी एक उत्पाद है और उसे बेचने में माहिर कौन है? ना की पढ़ाने में। इसके इलावा कुछ और भी खास हो सकता है किसी केस में।  

BYJU का ही उदाहरण लो। एक कंपनी, जिनके एक बैच में 40 से 50 के बीच विद्यार्थी हों, मतलब स्कूल क्लास से भी ज्यादा। अच्छे स्कूल, टीचर और स्टूडेंट के अनुपात का ध्यान रखते हैं। छोटे बच्चों की इतनी बड़ी क्लास? एक बच्चे पे कितना फोकस होगा, पढ़ाने वाले टीचर का? उसपे वो प्रैक्टिकल टीचिंग का भी दावा करते हों? शायद यूनिवर्सिटी लेवल पे भी एक प्रैक्टिकल ग्रुप में 15 -20 से ज्यादा स्टूडेंट्स नहीं होते। ये तो फिर primary लेवल पे ही शुरू हो गए।
 
कमी कहाँ है? गवर्नेंस और सिस्टम में। एक ऐसा सिस्टम जो समाज के उस आखिरी तबके तक अच्छी शिक्षा तक उपलब्ध ना करा पाए।  
समाधान क्या है? वो लोग जो फ्री में पढ़ा सकें या कम से कम ऐसे केसों में कुछ तो सहायता कर सकें। फ्री में तो ऑनलाइन ही बहुत कुछ है। फिर BYJU जैसी कंपनियों को क्यों पैसे देना? करते हैं शुरू, एक ऐसा लिंक जो फ्री का ज्ञान, दुनियाँ भर से उठाकर, छांटकर, किसी एक लिंक पे उपलब्ध करा सके। वो भी हर क्लास के सिलेबस के अनुसार। सुना है दिल्ली के स्कूल अच्छे हैं और ज्यादातर प्राइवेट स्कूल सीबीएसई affiliated  तो दिल्ली वाले ही क्यों नहीं शुरू करते ऐसा कुछ? हाँ ! अगर मेरे जैसों की नॉलेज में न हो तो थोड़ा प्रचार-प्रसार करो ना उसका। वैसे तो आजकल ज्यादातर अच्छी स्कूली किताबें, ऐसा material ऑनलाइन देती हैं। मगर शायद सबके लिए फ्री नहीं।  

आह ! फुट डालो राज करो?  
दूसरा केस लेते हैं 

कुछ बच्चे हैं जिनमें कोई किसी की बुआ तो किसी की मौसी। 
जिसकी बुआ है उस बच्चे को बोला जाता है, आप किसी खास पड़ोस में खेलो-कूदो और ट्यूशन पढ़ो। मगर, जिनकी मौसी है उन्हें बोला जाता है, मौसी के पास जाओ। 
बुआ कहने वाला बच्चा ज्यादा लगाव रखता है और अधिकार भी। वो चाहे कहीं खेले या पढ़े, मगर उसे ये मौसी वाले यूँ हक़ जताते बिलकुल पसंद नहीं। बुआ कहने वाले से तो जबरदस्ती दूर किया जा रहा है, जो तक़रीबन असंभव-सा है। पर हमारी खुरापाती आर्मी फाॅर्स कह रही है की देखो, असंभव को हम संभव कैसे बनाते हैं। हमने कैसे-कैसे, असंभव, संभव बना दिए। अब आर्मी भी कैसी-कैसी हो सकती हैं? ये पिछले कुछ महीनों में समझ आया। सुना है, ये वाली आर्मी एक तीर से दो या शायद कई शिकार के चक्र में है? सुना है कहीं जैसे को तैसा हो रहा है? अब ये जैसे को तैसे का राज थोड़ा उलझ-पुलझ है। वैसे ही जैसे और सामांतर केसों की घड़ाईयां। और फिर बच्चे ने किसी का क्या बिगाड़ा होगा? इतना मानसिक अत्याचार? जिन्हें समझ आना चाहिए उन्हें शायद यहाँ भी कुछ नहीं समझ आना? 
 
बुआ वाला बच्चा पहले ही किसी तरह के मानसिक अत्याचार, कोई खास कमी से गुजर रहा है, उसमें आप तो हिस्सा न बने -- सोचकर आप मौसी वालों से भी दूरी बनाने लगते हैं। ताकि बच्चे को महसूस न हो। और लो, आपका बॉयकॉट शुरू। कुछ महान तो हाय-हैलो ही कहना बंद कर देते हैं। और कुछ ग्रेट, उससे थोड़ा आगे निकलके "निकलो इस घर से"! खामखाँ, मौसी का लेक्चर सुनने के लिए।  
 
क्या Mind Programming हो सकती है यहाँ?  
चालों में या यूँ कहें की Tricks में ज्यादातर, बहुत ही छोटी-छोटी सी चीज़ें और हेरफेर होते हैं, जो धीरे-धीरे बड़े होते जाते हैं। इतने छोटे की आम आदमी वक़्त रहते उन्हें पकड़ ही नहीं पाता। जिसका फायदा कुछ अपने कहे जाने वाले लोग भी उठाने लगते हैं। अनजाने में, भरम में, गलतफहमी में, या शायद खुद को कुछ ज्यादा समझदार सोचकर?    

Tricks  
Keep this one close, move that one away, either by hook or crook.   
Trap on emotional imbalance or some tragedy. Works mostly on emotionally weak people especially child.    

चालाक लोगों के पास कितने ही तरह के तरीके हो सकते हैं, रिश्तों में या कहीं भी जोड़, तोड़, मरोड़ के। आम आदमी, जब तक मार न खा ले, तब तक कहाँ समझ पाता है की ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें भी Mind Programming का हिस्सा हो सकती है ? या यूँ कहो मार खाने के बाद भी कम ही समझ पाता है जब तक बताया ना जाए की Mind Programming जैसा भी कुछ होता है। जैसे राशि (Horoscope). नीचे दिए गए लिंक को चैक करें  

Tuesday, July 4, 2023

Two Years of Writing?

The first year of writing since an enforced resignation in June 2021, was good from the point of publishing "Campus Crime Series Cases". I wrote a post on the same last year also. Check the given link:

How was the writing break?

How was this year from that point of view?

This year was more than a writing year. It was the year, when I started shifting from university campus house to my home in village. Any shift takes time in adjustment. On that, when you don't know for how long you would be there. And what would be the next destination. My choice, since almost a decade is Europe. But leaving India, especially after corona pandemic seems a bit difficult task. Rather should say, I am nomore that much travel loving person as I used be earlier. Or probably, it's true about most people after corona? I have become suspicious of so many things. Just wanna have a base somewhere along with India and wanna write and write. 

Though first choice is Europe but things seem interesting elsewhere also. Writing, editing, journalism and science communication in the form of what they started calling story telling? And issues of importance are governance, system and impact on human beings. How media plays its role in that?  

To some extent, I have already started Social Case Studies. But unlike Campus Case Series, it's a bit difficult to write about them. These are not straight forward official documents that one can collect, analyze and convert into a case study book. I guess, I also need to learn how to hide people's and places identities, without loosing the essence of fact files. Some personal losses during this time period made me more determined to do whatever I am doing. It's important for common people, for any welfare society. Publications have been stopped for a while or should I say got delayed due to many factors. By next year, when I will be writing some post like this, hope I will have something better.

Monday, July 3, 2023

दोहरी मार

अनपढ़ गंवारों, -- भोले-लोग बोलना चाहिए शायद, जिन्हें आसानी से बहकाया या इधर या उधर किया जा सकता है, की कहानियाँ तो बहुत सुनी होगी आपने? कैसे बाबे, भोले लोगों को अपने जाल में फँसाते हैं? उनकी औरतों का शोषण करते हैं और एक-आध आदमी को घर से भी उठा देते हैं। कभी-कभी तो दुनियाँ से ही। यही नहीं, इसका जिम्मेदार भी वो, घर के ही किसी आदमी को ही ठहरवा देते हैं। इसे बोलते हैं, एक तीर से दो वार। पीछे की किसी तंत्रिक-विद्या या तंत्र का अर्थ कुछ लोगों ने, कुछ अजीबोगरीब बाबाओं से जोड़ दिया शायद। घोरी, अघोरी और पता नहीं क्या-क्या बकवास। यहाँ विज्ञान, तर्क और संवाद की बात मिलेगी। जो ऐसे-ऐसे बाबाओं से बिलकुल उल्टा है। या यूँ कहो की ऐसे-ऐसे लोगों की पोलपट्टी खोलने का काम करता है। ठीक वैसे ही, जैसे टोने-टोटके और उनके पीछे छिपे जुर्म या राजनीतिक रंगमंच के Show, Don't Tell की कहानियाँ। चालें चलना (Tricks), कोई जादु नहीं है। क्युंकि, इनमें आमजन को जो दिखाया या सुनाया जाता है, हकीकत उसके परे होती है। गुप्त होती है।
    
जहाँ फुट डालो राज करो में, न जाने कैसा-कैसा भूसा, लोगों के दिमागों में डाला जाता है। ऐसा ही कुछ, यहाँ-वहां की कहानियाँ हैं। 

कोई कहे की लड़कियां दो हैं और लड़का एक। शादी तो एक की ही हो सकती है। 
चलो कोई नहीं। दूसरी की कहीं और हो जाएगी या न होगी तो भी चलेगा। सारी दुनियाँ कहाँ शादी करती है? फिर बच्चे तो गोद भी लिए जा सकते हैं। उससे अच्छी फॅमिली क्या होगी, जहाँ जरूरतमंद बच्चों की मदद भी हो सके और बेवज़ह लोगों से बचा भी जा सके।  
ना। दूसरी की भी तब होगी, जब एक की ऐसी-तैसी होगी। और बच्चे आपको गोद लेने नहीं दिए जाएंगे। यहाँ किसी बच्चे को भी सामान्तर केस घड़ाई में धकेला जाएगा। वो भी उसके अपने और आसपास के गवाँरपट्ठों को शामिल करके। 
ये कैसे लोग हैं? और कैसी शादी? बेहुदा लोग बच्चों तक को नहीं बक्शते? 

बाबाओं के जालों में फंसे हुए अनपढ़-गँवार (अंजान, अनभिज्ञ) लोग? अरे नहीं, इनमें पढ़े-लिखे बाबाओं के जाल में फँसे, पढ़े-लिखे गँवार भी मिल जाएंगे। फिर कम पढ़े लिखे लोगों को क्या बोलें?   

लड़कियाँ दो हों। एक की शादी हो रखी हो। मगर अपने मायके बैठी हो। जिस किसी भी वजह से या झगडे से। या आपस में बनती न हो। जो सिंगल हो अगर उसे बोला जाए, की तू अपनी ऐसी-तैसी करवा, उसकी गृहस्थी सही तब चलेगी। 
ये कैसी गृहस्थी? और ये कौन लोग हैं ये सब बोलने वाले? ऐसे लोग अपने हो सकते हैं क्या? या गँवार ही कुछ ज्यादा है? उसपे अपने को समझदार होने का ढिंढोरा भी पीट रहे हों?   

लड़के की बीवी, बच्चे समेत घर बैठी हो। और किसी पड़ौसी की लड़की को बोला जाए की तू इसका जुठा बल्ला- बल्ला खा ले, तो वो वापस ससुराल आ जाएगी। या पड़ोस की विधवा औरत को कुछ और अनाप-सनाप। 

इनके लड़की हो गयी। लो भई हो गया 50-50 
इनके लड़का। ये हुआ ना अब 100 % 

आम आदमी को तो शायद यही समझ आएगा की कैसे बेहुदा गँवार लोग है। नहीं ? मगर इन इतनी महान सोच के लोगों को कैसे समझ आता होगा ये सब ? या इनके दिमाग में ऐसी खरपतवार कहाँ से आती होगी? उसपे कुछ लोगों को ये भी समझ आ रहा हो की कहाँ और कैसे जाहिलों के बीच फंसे हो, निकलो वहाँ से।   

गुफाओं को टटोलें और इन सबके तार कुछ महान, इधर या उधर के राजनीतिक घरानों या उनके आसपास के जंजालों के आसपास मिलेंगे। जो दिमागों की Programming में माहिर है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, अपने उत्पाद बेचने में। आदमी भी ऐसे लोगों के लिए किसी उत्पाद से ज्यादा नहीं है। ऐसे जालों की सबसे खास बात, की अगर इनके कोई पढ़ा-लिखा, तर्क करने वाला इंसान पल्ले पड़ गया या पड़ गई, तो सोचो क्या होगा? शायद उस इंसान की अब खैर नहीं?    

दिमागों की Programming को कैसे समझा जाए? संपादन (Editing), खासकर Registry Editing से जो समझ आया। इनके जानकार, शायद मुझसे कहीं ज्यादा बता पाएं। पर जितना अब तक मेरी समझ आया वो तो आमजन से सांझा किया ही जा सकता है। आगे की पोस्ट्स में। 

Saturday, July 1, 2023

सम्पादन (Editing, Registry Edit )

एक विडिओ सामने आया -- सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का। रजिस्ट्री से सम्बंधित कुछ था, उसमें। क्या खास है? मुझे लगा शायद कुछ था। 

पिछले कुछ साल से थोड़ा बहुत Registry Edit को समझने की कोशिश कर रही थी। अलग-अलग लैपटॉप पे कुछ-कुछ अलग है। ब्रांड, कॉन्फिग्रेशन, रंग के साथ-साथ और क्या-क्या गाते हैं, ये लैपटॉप? वो सब किसी और पोस्ट में। कोई बोले, ये लैपटॉप आप इसे नहीं दे सकते। वो, उसे नहीं दे सकते। क्यों, मेरे लैपटॉप, मेरी मर्जी मैं जिसे दूँ। नहीं दे सकते। ये इसे नहीं देने देंगे। और वो उसे। अजीब नहीं है? आम आदमी के हिसाब से तो कुछ ज्यादा ही अजीब। गुंडागर्दी है ये तो। 

चलो ये तो लैपटॉप है। किसी ने किसी गाडी के बारे में बोला, इसे शहर से बाहर मत ले जाना। क्यों? मेरी गाडी, मैं जहाँ ले जाऊँ। शहर से बाहर जाना होगा तो क्या बस से जाना पड़ेगा? और लो भुगतो, एक्सीडेंट ड्रामा 2018 । खैर, उसके बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ। शायद वो ड्रामा ये बताने को ही था की क्यों नहीं?  या पार्टियों को सामान्तर केस घड़ाई से मतलब। इनसे किसी तरह के नंबर बनते हों शायद उनके। मगर कहीं-कहीं तो जाने कैसे-कैसे राजनीतिक ड्रामे इंसान को ही ले जाते हैं। लोगों को समझाने की कोशिश करो, की तुम गलत कर रहे हो। ये उस इंसान या इंसानों के लिए सही नहीं है। तो कहीं-कहीं, तो शायद तुम्हारा ही बॉयकॉट होने लग जाए। उन लोगों को शायद मालूम ही नहीं, की कुछ चीजें लोगों को कुछ और कहके कराई जाती हैं, मगर उनके परिणाम कुछ और ही होते हैं। खैर, आएंगे इसपे भी। फिलहाल Editing -- Registry Editing।    

भाभी के जाने के बाद काफी कुछ बदला। बहुत कुछ जैसे बदला या समझ आया, वो या तो सही नहीं था या मुझे शायद कुछ ज्यादा समझ आने लगा था। आमजन से थोड़ा ज्यादा, --एक्सपर्ट्स से ज्यादा नहीं। इंसानों का व्यवहार। उसमें कितनी Editing हो सकती है? और कैसे-कैसे? जिनपे वो Editing हो रही थी या हो रही है, उन्हें कुछ अंदाजा भी है, की क्या और क्यों हो रहा है? शायद, जिसे समझ आने लगा था, उसे जरूर दूर भगाने की कोशिशें हुई। मगर एक बच्चे का सवाल भी है यहाँ। तो दूर जाने का तो मतलब ही नहीं था, वो भी बेवकूफों के भगाने की कोशिशों पे।     

क्या है Editing (संपादन) ?  

गूगल बाबा के अनुसार, सम्पादन का अर्थ :

'सम्पादन' का शाब्दिक अर्थ है- किसी काम को अच्छी और ठीक तरह से पूरा करना या प्रस्तुत करना। किसी पुस्तक का विषय या सामयिक पत्र के लेख आदि अच्छी तरह देखकर उनकी त्रुटियां आदि दूर करके, उन्हें प्रकाशन के योग्य बनाना। 

मगर यहाँ शाब्दिक अर्थ की नहीं, इंसान के व्यवहार को Edit करने की कोशिशों की बात है। मतलब, गुप्त मतलब। कितने तरीके हो सकते हैं, इसके? कहाँ-कहाँ प्रयोग या दुरूपयोग हो सकता है, इसका? कोई editing के नाम पे molest या रेप कर सकता है? बच्चे को अपने घर से निकाल सकता है? अपनों से दूर कर सकता है? किसी को दुनियाँ से ही उठा सकता है? कुछ भी संभव है, इस अनोखी editing में। इस ज्ञान से सम्बंधित कोई किताबें भी हैं, क्या? होंगी जरूर, पर शायद interdisciplinary form में। I would like to know more on such specializations.       

दुरूपयोग, रिश्तों के तोड़, जोड़, मरोड़, बदलने या खत्म करने में। 

इंसानों को, अपने ही खिलाफ प्रयोग करने में। या अपनों के खिलाफ प्रयोग करने में, असली जानकारी छुपाकर या उलटी-सीधी जानकारी देकर। मतलब, गुमराह करने में। Brainwash, इसी को कहते हैं क्या?

राजनीतिक षड्यंत्रों में। किसी भी तरह के विरोधियों के खिलाफ। 

उपयोग किसी भी लत को छुड़वाने में?

और भी कितनी ही तरह के प्रयोग या दुरूपयोग हो सकते हैं।  

थोड़ा बहुत समझ आया जब Kidnapped by police केस की किताब मैंने editing के लिए दे दी -- पता नहीं क्या सोच के। और उसे फिर से खुद एडिट करना पड़ा। संपादक ने पता नहीं, क्या का क्या बना दिया था, सिर्फ कुछ शब्दों के हेरफेर से।  

राजनीतिक रंगमंच के जालों से बचें

राजनीतिक रंगमंच के जालों से बचें, क्यूंकि इनमें ज्यादातर बुरा ही बुरा होता है। भला शायद ही किसी का हो। ये राजनीति करने वालों के लिए तो सही हो सकते हैं। मगर आमजन के लिए नहीं। 

जब जाले ही हैं तो बचें कैसे?

हर घर कुछ कहता है। वैसे ही हर गली-मोहल्ला। हर रोड, हर गाँव-शहर। मगर क्या कहता है?  

Show, Don't Tell --सामांतर केसों की घड़ाई। ज्यादातर में आमजन को पता नहीं होता की ऐसा वो खुद नहीं कर रहे, बल्की उनसे करवाया जा रहा है। करवाने के भी तरीके हैं। 

कैसे? 

क्या ऐसा संभव है की कहीं किन्ही फाइल्स में किन्ही कोड्स में Carrot and Stick or Reward and Punishment का cryptic जिक्र हो और --

वो कहीं और प्रत्यक्ष रूप में चल रहा हो?

एक तरफ फाइल्स हैं और ज्यादातर सॉफ्ट लेवल पे ही रहना है। मगर दूसरी तरफ, जैसे पुलिसआ डंडा। 

राजनीतिक पार्टियों को उसे फाइल्स से आगे Show, Don't Tell वाले अवतार में लाना है। सभी राजनीतिक पार्टियों की पहुँच के अपने अलग-अलग बंदोबस्त है -- उस आखिरी आमजन तक। इनमें आपके आसपास के नौकरी करने वाले बन्दों से लेकर, खेत-खलियान में काम करने वाले किसान तक, बागबानी करने वाले माली से लेकर, आपके घरों में काम करने वाले लोगों तक, यूनिवर्सिटी-कॉलेज पढ़ने वाले विधार्थियों से लेकर, स्कूल के बच्चों तक। उसपे यहाँ-वहाँ लगे कैमरों से लेकर, आपके मोबाइल तक के कैमरे और माइक्रोफोन तक की पहुँच भी अहम् है। आपकी गाडी से लेकर, आपके घर के AC, TV तक। आपके लैपटॉप, कम्प्युटर से लेकर उस नन्हे से LED बल्ब तक।        

लोगों ने सॉफ्ट लेवल को किताब-कम्प्युटर तक सिमित कर दिया है। और हार्ड लेवल अलग ही तरह की युद्ध कला है। या कहो कुछ ज्यादा ही ओछी राजनीति है। जहाँ-जहाँ, किताबें-कम्प्युटर पहुँचेगा, वहाँ-वहाँ, कम से कम कुछ अच्छा पहुँचने की संभानाएं तो है।  मगर ये हार्ड लेवल? जहाँ-जहाँ, अच्छी किताबें और कम्प्युटर का उपयोग होगा, वहाँ-वहाँ शायद, शांति और समृद्धि पहुँचेगी। मगर खुरापाती लोग यहाँ भी गड़बड़ घोटाले करने लग जाएँ तो? राजनीतिक Show, Don't Tell  पटल पर वो भी शायद सोडा या हुक्का से ज्यादा न रहे। अब आपको Show, Don't Tell का राजनीतिक मोहरा भर रहना है या उससे अलग अपना कुछ करना है? ये तो आप पर निर्भर है।    

डंडा-युद्ध, पिस्तौल युद्ध (Stick Violence, Gun Violence)

कितनी आकार का डंडा युद्ध हो सकता है? एक बड़ा डंडा और उसके साथ एक छोटा, उल्टा ?  यहाँ एक डंडा। यहाँ दूसरा। यहाँ तीसरा। कोई गिनती ही नहीं है शायद। इतने डंडे यहाँ-वहाँ? बन्दर आते हैं? या बहुत ज्यादा कुत्ते हैं गली में ? अरे उनका इलाज करो न। अपने घरों में क्यों मार-पिटाई का माहौल बना रहे हो?  ये एक तरह से वहाँ रहने वाले, दिमागों की PROGRAMMING है। ऐसे घरों में ज्यादातर नोंक-झोंक और मार-पिटाई ज्यादा देखने को मिलेगी। ये किसी एक जगह की बात नहीं हो रही। गाँव-शहर कई जगह ऐसा कुछ देखने को मिला। 

यहाँ छोटे-बड़े, बच्चों को खासकर, भड़ाम-भड़ाम करने में बड़ा मजा आता है। कोई नकली में खुश हो लेते हैं। तो कोई देसी कट्टे जैसा कुछ या असली के साथ फोटो करवा के। हरियान्वी में बोलें तो शायद, "घणा अमरीकन होया हांडे सै?" वहाँ ज्यादा होता है क्या gun violence? या शायद UP कट्टा किसने नहीं सुना होगा? कट्टा है मेरै धौरे, बचके रहिए या फलां-फलां जगह का हूँ, अर भुण्डे मार दिया करूँ। ऐसा कुछ सुना है क्या कहीं ? पहुँचने वाले कैसे पहुँचे होंगे इन सब तक? कहीं ये सब शायद फोटो, विडियो तक सिमित रहा हो। और कहीं? Show, Don't Tell? ठीक वैसे ही, जैसे कहीं सिर्फ फाइल्स में Carrot and Stick or Reward and Punishment का cryptic जिक्र हो और -- वो कहीं और प्रत्यक्ष रूप में चल रहा हो? आपको क्या लगा था, की आपसे जो कुछ भी करवाया जा रहा है, वो आपके या आपके अपनों के हित के लिए है? 

Proxy War (जैसे दूसरे की जगह हाज़िरी लगाना, परीक्षा देना, या दूसरे के नाम पे लड़ना या लड़वाना )  

शैतान बच्चे, जैसे क्लास में किसी और की हाजिरी लगवा जाएं। युद्ध में भी ऐसा संभव है क्या? जुए में, cards गेम्स में शायद? कहीं-कहीं तो सुना है, परीक्षाओं में भी? ऐसे बच्चे कैसा तो माहौल बनाएंगे और कैसी डिग्री लेकर नौकरी पाएंगे? जो नौकरी मिल भी गयी तो ज़िंदगी भर आकाओं की गुलामी करेंगे। अब उन्होंने कोई सामाजिक सेवा का ठेका थोड़े ही लिया है? जिनकी सोच ऐसी हो, मान के चलिए, ठेका उन्होंने अपने घर का या अपनों का भी नहीं लिया हुआ। ऐसी सोच मिलजुलकर एक स्वार्थी तबके या समाज से ज्यादा कुछ नहीं बना सकती। 

जुआ और युद्ध

घरों और समाज की बर्बादी। जुए के नाम पे क्या याद आता है? महाभारत? इससे अच्छा उदाहरण, इसके भद्दे और विपरीत प्रभावों का शायद और कोई हो ही नहीं सकता। आपके आसपास जुआ खेलने वाले कुछ घर या शायद इंसान तो जरूर होंगे? हैं, तो संभल जाइये। या शायद उनके आसपास के हालात जानने की कोशिश कीजिए। कम से कम, कुछ बर्बाद घर तो जरूर मिलेंगे। राजनीति के राजे-महाराजों के जुए, समाज के जब आखिरी छोर पे पहुँचते हैं, तो शायद अपने सबसे निर्दयी और क्रूर रूप में होते हैं। क्युंकि वहाँ उन्हें बचाने वाले न तो सिपाही, गार्ड्स होते। न इतना दिमाग और न पैसा। वो सबसे पहले बलि चढ़ते हैं। यहाँ भी फाइल्स और प्रत्यक्ष रूप के भेद जैसी-सी कहानियाँ मिलेंगी। एक तरफ बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ या पार्टियाँ दुनियाँ के पटल पर स्टॉक-मार्किट की उठा-पटक में अभ्यस्त हों और दुसरी तरफ? छोटे से स्तर पर ज्यादातर कम पढ़े लिखे, बेरोजगारों के छोटे-छोटे से स्तर के जुआ अड्डे। बड़े स्तर के सट्टा बाजार मार भी आसानी से झेल जाते हैं। क्यूंकि वो अपने गुजारे-भत्ते के लिए नहीं खेल रहे होते, बल्कि राजपाट और वर्चस्व के लिए खेल रहे होते हैं। मगर छोटे स्तर के ये खिलाड़ी समझ ही नहीं पाते की इनके इस खेल में फायदे से ज्यादा मार है, हर तरह से। ये खेल गुजारे-भत्ते के साधन नहीं हो सकते। आसपास के वातावरण को हर तरह से खराब करने के जरूर होते हैं।             

मतलब ये की Show, Don't Tell --सामांतर केसों की घड़ाई में अच्छा शायद ही कुछ मिलेगा। खासकर, जब आप समाज का सबसे कमजोर और गरीब तबका हों। वो फिर चाहे शहरों की ज्यादातर बाहरी और अनाधिकृत कॉलोनियाँ हों या गाँव। स्लम-एरिया की तो फिर कहानियाँ ही क्या होंगी?