Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Thursday, August 31, 2023

और भी जहाँ हैं

और भी जहाँ हैं शायद इन चिंटुओं-पिंटुओं से आगे।   

आम-आदमी इतना आम है, की उसे फुर्सत ही कहाँ है, अपनी जरूरतों से आगे सोचने की? अलग-अलग तरह के आम-आदमियों की जरूरतें भी अलग-अलग हैं। बस, उन्हीं को पाने के लिए, वो पूरी ज़िंदगी इस चिंटू-पिंटु वाली मानसिकता से ही नहीं निकल पाता। 

छोटे-मोटे चिंटू-पिंटु, छोटी मोटी जरूरतें। थोड़े बड़े  चिंटू-पिंटु, थोड़ी बड़ी जरूरतें। और बड़े चिंटू-पिंटु, और बड़ी जरूरतें। कितने बड़े चिंटू-पिंटु, कितनी बड़ी जरूरतें? 

काफी कुछ लिखा जा सकता है इसपे। नहीं?

धर्मांधों के राजनीतिक गुच्छे

नास्तिक को आस्तिक बताना 

आस्तिक को बनाना नास्तिक 

धर्मांधों के राजनीतिक गुच्छे 

हो सकते हैं, कितने भी अनोखे! 


शुभ-अशुभ मुहूर्त होते हैं राजनीतिक 

उत्सवों की तारीखें राजनीतिक 

पढ़ना अपने कैलेंडर कभी ध्यान से 

पता चलेगा कांग्रेस के वक़्त 

उत्सवों की तारीखें क्या थी? 

और भाजपा के वक़्त में क्या रही?


एक राज्य और दुसरे राज्य की 

राजनीतिक सत्ता अलग, का मतलब 

उत्सवों और शुभ मुहूर्तों की 

तारीखें भी हो सकती हैं, अलग-अलग 

या शायद शुभ मुहर्त भी हो सकते हैं दो-दो

आज का दिन भी मुहर्त और कल का भी शुभ। 

आज का बड़े वालों का हो सकता है 

तो कल का, राज्य वालों का।      


मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, चर्चों से 

चलती हैं, राजनीती की दिमागी प्रणाली 

आम-आदमी को अपने अधीन करने की 

आम-आदमी जाता इन स्थानों पे 

सोच के इन्हें पवित्र, श्रद्धा से औत-प्रोत 

और बन जाता है अज्ञानता में,  

मानव रोबोट बनाने की प्रकिर्या के जालों का, 

इन श्रद्धा की अंधी फैक्ट्रियों का, उत्पाद मात्र। 


ज्यादातर कम पढ़े-लिखे बैठे होते हैं 

इन स्थलों पर 

पुजारियों, मौलवियों, गुरुओं, पादरियों के पदों पर 

जिनकी धार्मिक पढ़ाई चलती है 

ऊपर से फैंकी हुई, धार्मिक-सामग्री पर

धार्मिक सामग्री जो बताती है  

क्या शुभ है और क्या अशुभ है 

क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है 

कैसे और कब करना है 

धार्मिक-सामग्री भी इस पार्टी की, उस पार्टी की 

तो मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर भी

इस पार्टी के, या उस पार्टी के 

और ना जाने कौन-कौन सी पार्टी के! 

Thursday, August 24, 2023

Smart Craft and Draft?

 आओ छुपम-छुपाई खेलें --

यूनिवर्सिटी या शायद कहना चाहिए की कोई एक पार्टी, हाथ धो के पीछे पड़ी हुई थी, कैंपस हाउस की चाबी दो और यहाँ से निकलो। 
Regination के 6 महीने बाद यूनिवर्सिटी के लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, अगर उस फैकल्टी का सामान कैंपस हाउस में रखा है और वो छोड़ नहीं रहा तो सामान उठवा के किसी स्टोर में चलता कर दें। और उसकी saving उसे देकर चलता करें। मगर यहाँ ऐसा नहीं हुआ। क्यों ? मामला, लूट, कूट, पिट के Enforce कर के Regination लेने का है। उसपे, टेढ़ी पॉलिटिक्स है।  

जो भी था Regination के लगभग दो साल बाद, हालातों के मध्यनजर, मैंने मई 2023 में घर की चाबी भी दे दी।  मगर आज तक कोई जवाब नहीं। कोई पूछे क्यों? अब क्यों अटकाए बैठे हैं? 20 जून को एक mail किया था authorities को। तकरीबन एक महीना पहले, 24 या 25 को शायद, इसीलिए रजिस्ट्रार से भी मिली थी। और रजिस्ट्रार सर ने बोला था, "मैडम, 5-7 दिन और लगेंगे।" एक महीने से भी ऊप्पर हो गया उस बात को भी। 11-अगस्त को फिरसे ईमेल किया था, मगर कोई जवाब नहीं। आखिर चाहते क्या हैं ये लोग और चल क्या रहा है?

इस दौरान कुछ अजीबोगरीब इमेल्स मिली। एक, ऐसा लग रहा था जैसे डायरेक्टर ने की हो। बाद में जब अजीबोगरीब जवाब पढ़ा और ध्यान से ईमेल id देखी तो समझ आया की ये तो fraud id है, जो डायरेक्टर का नाम और designation प्रयोग कर रहे हैं। 

फिर एक ईमेल VC ऑफिस से मिली। वही कोढ़-सा मामला। उसके बाद, कहीं से, जहाँ मैंने दो-एक साल पहले अप्लाई किया था। जिसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर, पता नहीं क्यों 
 
      
 
अभी के लिए इतना ही। बाकी फिर कभी। 

Chandrayan-3 वाले चाँदनाथ (Moon Landing)

आप क्या देख-सुन रहे हैं आजकल खबरों में?

32607 

32608 

32611 

सोचने  लगे की ये क्या हैं? कोढ़ है। सिस्टम का कोड (कोढ़)। 

पिन कोड है कहीं का। University of Florida, Gainsville, USA, University Campuses, वाली पोस्ट पढ़ी क्या, 23 अगस्त को पोस्ट की हुई है? ये Chandrayan-3 वाले चाँदनाथ (Moon Landing) की खबरें उसके बाद ही शुरू हुई लगती है। नहीं ? मुझे तो ये कोई R-State वाले लग रहे हैं, शायद। जहाँ देखो, वहाँ अड़ के खड़े हो जाते हैं। वैसे आप किसी चाँदनाथ को भी जानते हैं क्या? कुछ भी कहीं से तोड़ो, जोड़ो, मरोड़ो और पेल दो। क्या जाता है?


जाता भी है शायद। बहुत कुछ। ये राजनीतिक पार्टियाँ और ये मीडिया हमें कहाँ उलझाए रखता है? हमें कहाँ व्यस्त होना चाहिए? क्या देखना, सुनना, पढ़ना या करना चाहिए? यही की ये राजनीतिक पार्टियाँ और ये मीडिया हमें कहाँ उलझाए रखता है? जब वो ऐसे ध्यान भटकाने की कोशिश करता है, तो उसके पीछे छुपाता क्या-क्या है? क्युंकि, खबर वो नहीं होती, जो ज्यादातर मीडिया दिखाता या सुनाता है, बल्की वो होती है, जो उसके पीछे छुपाता है। 


इस University Campuses वाली पोस्ट के इलावा भी पोस्ट हैं या थी। उनपे भी कोई हो-हल्ला हुआ क्या?    

सबसे बड़ी बात, इसी पोस्ट को एक आम-आदमी कैसे पढ़ेगा? यही फर्क है कोढ़ वाली दुनियाँ में और आम आदमी वाली दुनियाँ में। 

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ, झाँकी इस संसार की

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ, झाँकी हिंदुस्तान की 

अरे नहीं ये तो पुराना हो गया ना?

तो आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ, झाँकी इस संसार की 

वैज्ञानिक ले जाएंगे तुम्हें, Stand up commedy शो में 

और बताएँगे 

वो देखो कैसे M A N M O H A N बने PM 

और K A L A M बने राष्ट्पति कैसे? 

एक के पास थे, सोनिया-राहु 

तो दुजे के पास?

मिसाइल-रॉकेट !

मगर कौन से वाले? 

कैसे बने O B A M A, US के राष्ट्र पति?  

और पुतिन टिके हुए हैं कैसे R U S S I A की गद्दी पे --

यूँ सालों-साल?  


आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ, झाँकी इस संसार की

कैसे मिली M O D I को 2014 में 

और फिर से 2019 में PM की कुर्सी ?

और कैसे बने RAM NATH KOVIND या MURMU DRAUPDI राष्ट्र- पति?

ये DONALD TRUMP या BI D EN कौन हैं ?

कौन हैं ये SUNAK RISHI?

क्या कोई लेना देना है इनका, MDU की कुछ फाइल्स से?

कैसे घुमता है सिस्टम का ये पहिया --

यूँ देश-विदेश में?

कौन और कैसे घुमाते हैं इन्हें, भला ऐसे?     


कैसे होते हैं ये Elections?

कैसे हैं ये states और democracies?

क्या हैं ये ballot papers?

और क्या हैं elctronic voting?

कैसी हैं, ये लोकसभा और राज्यसभाएँ ?

कैसे हैं इनके सदस्यों के हिसाब-किताब की सीटें ?

कैसी-कैसी हैं ये पार्टियाँ?

करती हैं क्या-कुछ भला ये?


कहाँ-कहाँ से मिलता है, इन पार्टियों को पैसा? 

और कहाँ-कहाँ होता है खर्च वो?

कैसे चुनती हैं, ये अपने उम्मीदवार?

और कैसे जितते या हारते हैं वो?


कैसे लेते हैं ये नीतिगत निर्णय (Policy Decisions)?

और कैसे होते हैं, अमल उनपे (Implemetations)?

क्यों रहते हैं कुछ इलाके, राज्य या देश पिछड़े --

इतनी प्रद्यौगिक उन्नति के बावजुद?

क्यों कुंडली मारे रहते हैं, कुछ घराने, कुछ समुदाय 

बेवजह, बेहिसाब-किताब के फालतु संसाधनों पर ?

क्या आज भी राज है, राजे-महाराजों का?

या सच में जो इन किताबों में पढ़ाया जाता है, है सच वही?

आम आदमी का राज, 

आम आदमी द्वारा, 

और आम आदमी के लिए?


किताबें ही हों अगर झूठी 

तो किसलिए ये बच्चों के भार से भी, भारी बैग? 

और बेहिसाब-सी इतनी सारी किताबें ?

क्या देती हैं वो उन्हें अच्छी ज़िंदगी?

या साथ-साथ परोसती जाती हैं, 

झूठ, धोखा और फरेब?

और छुपा जाती हैं, हकीकत कहीं गुप्त?

और बना देती हैं,

हल्की-फुलकी-सी ज़िंदगियाँ इतनी भारी?


गुप्त है ये सिस्टम 

गुप्त इसके तौर-तरीके 

जो पढ़ते-लिखते हो, वो सच भी है 

मगर गुप्त तरीके से, गुप्त अर्थों के साथ 

ना की उस अर्थ में, जो समझता है आम-आदमी 

ज्यादातर उसके विपरीत अर्थ में, विपरीत दिशा में 

आम-आदमी के अर्थ का अनर्थ करते हुए।  


आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ, झाँकी इस संसार की 

मुझे तो फिर भी कम मालूम है 

आओ कुछ पते दे दूँ तुम्हें 

जिन्हें मालुम तो काफी है 

मगर छिपाए हुए हैं ऐसे, जैसे --

उनके बाप, दादाओं, पड़दादाओं, सड़दादाओं 

और पता नहीं कैसे-कैसे, बुजर्गों के गुप्त नुक्से जैसे 

दुनियाँ पे राज करने के, इस पहिए के घुमाव के। 

Wednesday, August 23, 2023

जीवों पर निर्जीवों के प्रभाव

जीवों को सिर्फ जीव ही नहीं, निर्जीव भी प्रभावित करते हैं। कहीं-कहीं, तो जीवों से कहीं ज्यादा। जैसे एक आप जेल में हों और एक जेल से बाहर। एक आप एक झुग्गी-झोपड़ी में हों और एक ठीक-ठाक मकान और सोसाइटी में। एक जहाँ धुप-हवा तक ना आती हो और एक जहाँ इनकी कोई कमी ना हो। एक जहाँ पानी-बिजली की भी किल्लत हो और एक जहाँ इनकी भी कमी हो सकती है क्या, जैसी जगह हों। एक जहाँ, घुमने-फिरने को अच्छी खासी जगह हों और एक जहाँ छोटे-छोटे घरों में जैसे दिन-रात बंद हों, कुछ-कुछ जेल की ही तरह। एक जहाँ, अच्छे पढ़ाई-लिखाई और स्वास्थ्य के संसाधन आसपास हों और एक जहाँ ऐसी बुनियादी सुविधाएँ तक भी ना हों।   

किसी एक जगह पे एक इंसान के बांटे कितनी शुद्ध हवा, पानी, सुरज की रौशनी, रहने, घुमने-फिरने या आगे बढ़ने को जमीन आती है? ये सब निर्जीव होकर भी जीवनदाता हैं। उसके बाद आता है, कृत्रिम रौशनी (बिजली), स्वास्थ्य और पढ़ाई-लिखाई के संसाधन। इन सबके साथ आता है, साफ-सफाई और कूड़े-कचरे के बंदोबस्त। वो चाहे फिर हवा हो, पानी हो या जमीन। और आने-जाने की सुख-सुविधाएँ -- परिवहन के संसाधन। वो फिर जमीन, पानी या हवा के वाहन हों या इनके गंतव्य के माध्यम। और भी ऐसा ही बहुत कुछ, शायद। 

यही सब वजहें, इंसान को झुग्गी-झोपड़ियों से गाँवों, गाँवों से कस्बों, शहरों और मैट्रो, कम विकसित देशों से विकसित देशों की तरफ जाने को प्रेरित करते हैं। मगर इस ऊप्पर जाने वाली सीढ़ी (Upward Scaling) में दोष है। इसमें श्रेणी व्यवस्था (hierarchy) में जितना ज्यादा अंतर है, उन समाजों की समस्याएँ भी उतनी ही ज्यादा गंभीर हैं। जैसे, जितनी कम सुविधाएँ गावों में होंगी, वहाँ से विस्थापन, उतना ही ज्यादा होगा। शहरों में जितनी ज्यादा भीड़ होगी और जितना ज्यादा आगे बढ़ने का लालच, मतलब उतना ही ज्यादा भेड़चाल और चुहादौड़ बढ़ेगी। दोनों तरफ संतुलन खराब। 

मतलब, गाँवों और शहरों में उतनी ही ज्यादा बीमारियाँ भी बढ़ेंगी और ज़िंदगी की दूसरी दिक्क्तें भी। तो जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत ज्यादा जरूरी है गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों का ज्यादा विकास हो। बड़े शहरों के जनसँख्या के घनत्व पर लगाम होनी चाहिए। जिससे आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पे बढ़ते प्रभाव पर लगाम लग सके। कोई सीमा होनी चाहिए की कितने एरिया में कितनी से ज्यादा आबादी नहीं रह सकती। वो फिर चाहे गाँव हों, शहर हों या मैट्रो। जहाँ पे जमीन-पानी जैसे संसाधन तक आपके अपने गाँव या शहर के नहीं, वहाँ आपका अपना कैसा अस्तित्व? दूसरों के संसाधनों के दोहन में आपका दुष्प्रभाव उतना ही ज्यादा होगा। आप जितने ज्यादा इस दुस्प्रभाव में शामिल होंगे, उतना ही ज्यादा कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में दुस्प्रभाव, शायद, आपपे या आसपास पे भी बढ़ता जाएगा। 

ये तो थी, थोड़ी बड़ी-बड़ी, थोड़े बड़े स्तर की, मगर बहुत ही आम-सी बातें, जीवों पर निर्जीवों के प्रभाव की। ऐसे ही या इससे भी ज्यादा अहमियत रखती हैं, बहुत ही छोटी-छोटी सी बातें, जीवों पर निर्जीवों के प्रभाव की। जानते हैं, उनके बारे में भी, किसी अगली पोस्ट में। 

University Campuses

Village? Town? City? Metro Cities? What we look for while looking for some degree? 

Degree? Campus? Facilities? Success rate? Failure rate? Aesthetic Value? Spaces? 

Much more than that? Or perhaps, just to get some place somewhere to be part of some rat race? Biggest problem with our education system is that it has already become a harsh rat race. Primary school students started becoming part of that rat race by forgetting the luxury of having enough time for play and relaxation and in turn learning. This system has started making them robots, kinda by birth. At primary school level, they carry weight of bag and books, more than their own weights. Among middle and lower middle class, it's worst. They wanna make their chidren competitive enough to take on those children, whose parents are highly educated and having resources. Those parents whose children learn so much without making any afforts as they have environment. 

Now think about such middle class parents situation, when their children reach at University level? What kinda competition they wanna enforce on their children and by what kinda ways? Fact is in the process, by their harsh ways, they take away from them the essentials of life ingredients itself. Just to satisfy their own egos, or for the benefit of their children? Maybe, discussion for some other post.

Different people may have different choices. But given options, probably most will feel like:

High rises chock me

Crowdy places repel

Concrete feels like poison.

Wonder at times --

So much earth and resources are available for human dwelling. Then why this system creates places like that?

Campuses which empower rather than focussing on reservation. Reservation, which creates further divisions of creamy layers and poor bases. Reservations, which have no end, but continuity beyond logic.

Campuses which believe in adoptions of ideas, people and places to make them sustainable and renewal. Places, having non toxic water, land and air. Places having some aesthetic values.


What world needs? 

More village campuses, town campuses, tribal area campuses, campuses off cities, campus far away from big cities or metro cities. Not high rise and crowdy campuses or surrounded by such spaces. But campuses having breathable spaces, walkable sapces, cycle spaces, renewable spaces, sustainable spaces. Not just plain areas, for some high rise buildings but having some water spaces, some desert spaces, some snowy spaces, some forest spaces. Spaces, which provide natural instinct explorations and care for mixed races, cultures, people of diverse background. Not just mechanical spaces, which run after money and honey at any cost. Solutions of financial problems should not be like creating more problems. Like making humans robots and part of full of stress rat race. Such a race, which takes away life's essential ingredients itself. Where people forget what life is. Today's most diseases are part of this rat race and lifestyle, - -system

I have not seen many university campuses, though have visited many online. Among a few, I have seen or visited till now, University of Florida, Gainsville, USA, is my type of choice campus. Vast area, full of nature, open spaces, having good infrastructure and people of diverse background, respecting and caring for each other. Competitive, yet stress free environment. Where one can watch aligators even on a campus lake. And lots of bats fying away from a bathouse, along some green space. And one can only wonder, what type of campus is this? Campus and aligators and bats and agriculture spaces also? Campus and military people on campus? On that, beautiful buildings having so much spaces all around and people from so many countries. Wonder, why India does not have even a single campus like that? 

Saturday, August 19, 2023

राम सिंह हवेली, उजला ताला, कोरोना और रौशनी?

राम सिंह हवेली, उजला ताला बड़े दादा वाले हिस्से पर, कोरोना-कोविद और रौशनी? भला इन सबका आपस में क्या लेना-देना?  

राम सिंह (पड़दादा) की हवेली वाली पोस्ट में, मैंने उजला ताले पे फ़ोकस क्यों किया? 

यूनिवर्सिटी की भारती-उजला-फाइल्स और केस पे चलें क्या? या शायद Kidnapped by Police वाले केस पे? शायद, रौशनी या रोशनलाल से कुछ समझ आए? रौशनी बुआ थी, बड़े वाला दादा की बेटी। एक तरफ, कोई रोशनलाल और संतोष वाली टीम, मुझे सुनारियाँ जेल लेकर जा रही थी। तो दूसरी तरफ, कोई रौशनी, कोरोना काल में अपनी आखिरी साँसें ले रही थी। मेरा कसुर यही था, की मैं सच बोल रही थी, की कोरोना, कोविद कोई बीमारी नहीं, बल्की राजनीतिक षड्यंत्र है, -- हाँ। कोविद नाम-सा कोई राष्ट्पति जरूर रहा है शायद? और मेरा फ़ोन छीनकर, मुझे  PGI, ATM, VC Backside Office gate से उठा लिया गया था। उस वक़्त पुलिस की जो मैंने रिकॉर्डिंग की थी, उसे भी delete कर दिया था। उसी वक़्त के आसपास, उस घर से दो इंसान और उठे थे। एक ताऊ रणबीर और एक रौशनी बुआ के बेटे की बहु। काँड छोटे दादा के इधर भी और बड़े होने थे। क्युंकि यहाँ भी मुझे कोरोना हो गया। मुझे भी कोरोना हो गया, फैला दिया गया था। मगर शायद, बच गए। वक़्त पर इधर-उधर से सही जानकारी और सावधान करने की वजह से ? लेकिन शायद, उतना भी नहीं बचे। भाभी की मौत ने तो जैसे घुमा ही दिया था। और उससे भी अजीबोगरीब खतरा, उससे आगे खड़ा था, या शायद है ? उसके बाद के रोज-रोज के ड्रामे, खासकर गुड़िया के केस में। 

बहुत से लोगों ने लिखा, की मैंने बचे हुए कैंपस केस सीरीज के पब्लिकेशन्स पे पाबंदी क्यूँ लगा दी ? पाबंदी तो नहीं शायद, क्युंकि तकरीबन सारा मैं ऑनलाइन, किसी न किसी फॉर्म में रख ही चुकी। जो अभी तक भी आमजन के बीच नहीं है, वो या तो mails में है और इधर उधर जा चुका। या शायद बहुत ज्यादा अहमियत नहीं रखता। पाबन्दी की बजाए, किसी तरह का hold-on जरूर है। शायद कुछ को पता था, इसलिए पूछ रहे थे? तो कुछ को शायद समझ आने लगा था, की चल क्या रहा है? जिन्होंने भी कोरोना काल को पास से देखा है, या जिन्हे भी उसके अंदर के सिस्टम के रहस्यों की खबर है, वो लोग ऐसे चुप कैसे रह लेते हैं? क्या दम नहीं घुटता कभी? खासकर, उन लोगों का, जिन्होंने इतनी सारी लाशों को सिर्फ किसी राजनीतिक ड्रामे का हिस्सा होते देखा है? या इतने सारे संसार की आबादी को डरे-सहमे या बंदी-सा बना देखा है? क्या उन्हें कभी नहीं लगता, की इंसानों का बनाया सिस्टम, भला इतना निर्दयी और क्रूर कैसे हो सकता है? और ऐसे मीडिया के बारे में तो क्या ही कहा जाए, जो ऐसे वक़्त में भी, ऐसी घटनाओं का हिस्सा भर होता है? या फिर मीडिया का कोई ऐसा हिस्सा भी होता है, जो सच लिखता है और जिसे शायद दबा दिया जाता है?   

जब आपने अपनी जिंदगी का कुछ वक़्त, एक ऐसे काल में या समय में बीता दिया हो, जहाँ लगे, जैसे आप किसी संसार जितने बड़े मुर्दाघर में हैं। और चारों तरफ लाशें ही लाशें, तो ज़िंदगी के मायने, जाने किस-किस रूप में बदल जाते हैं। उसके बाद, ऐसी राजनीतिक बीमारियों को जानने, समझने और आम आदमी को उससे बचने या होने के बाद, उनके प्रभावों से जितना हो सके, बचाने में रुचि ज्यादा बढ़ जाती है। बस ज़िंदगी में वही अहम है और वही चल रहा है। कुछ लिखाई-पढ़ाई और रिसर्च आप Educational Institutes में कम, ज़िंदगी की जद्दो-जहद से गुजरते हुए ज्यादा करते हैं, शायद।  

राम सिंह (पड़दादा) की हवेली

कोई छोटी-सी हवेली, जिसमें पता ही नहीं, कौन-कौन पैदा हुए। कहाँ-कहाँ से, वहां रहने के लिए आए या रुके। कुछ वक़्त पढ़ाई के लिए। या नौकरी करते हुए, किसी आसपास की पोस्टिंग के दौरान। किसी बुआ, दादा या फूफा, मामा या मामी के घर शायद। जिन्होंने वो हवेली बनाई, वो दशकों पहले, इस घर को ही नहीं, बल्की दुनियाँ को ही अलविदा कह चुके। अपने जीते जी वो इस हवेली को छोड़, पास में ही, अपने छोटे बेटे (मेरे दादा) के बनाए घर में रहने लगे थे। अपने दो बेटों के बटवारे में, पड़दादा ने इसे आधा-आधा कर दिया था। एक तरफ का हिस्सा, बड़े दादा का। तो दूसरी तरफ का हिस्सा, छोटे दादा का। 

पड़दादा के इस हवेली को छोड़ने के बावजूद, ये शायद ही कभी, बहुत ज्यादा वक़्त तक खाली रही हो। धर्मशाला जैसे कोई, या सराय शायद? जाने किस-किस को पनाह देती ही रही है। कभी लोगों के भले वक़्त में, तो कभी बुरे वक़्त में। खाली पड़ी हवेली, कभी उनके छोटे पोते के बहु-बेटे (चाचा-चाची) का हनीमून पीरियड रही, जहाँ वो सिर्फ सोने आते थे। तो फिर यही हवेली, बड़े पोते की विधवा (मेरी माँ) का घर बनी, संयुक्त परिवार से अलग होने के बाद। इसी हवेली ने छोटे पड़पोते की बहु (भाभी, जो अब दुनियाँ में ही नहीं हैं) को शुरू में पनाह दी। जाने किस अजीबोगरीब डर से, जब कोर्ट से प्रेम विवाह कर, वो इस घर की दहलीज पर आई थी। तो यही हवेली, फिर, कोरोना काल के आदमखोर वक़्त में, पड़ पोती की सुरक्षित छत बनी, कुछ वक़्त के ठहराव के लिए। आज ये सब उसी हवेली के उप्पर वाले कमरे से ही लिख रही हूँ। वैसे मेरा खुद का जन्म इसी हवेली का है। बचपन का कुछ हिस्सा, यहीं गुजरा है। कोरोना जैसा डरावना-काल तो फिर भुलने ही कहाँ देगा। 

बड़े दादा के बेटे भी, इस हवेली को काफी पहले छोड़ चुके, जब मैं शायद स्कूल में ही थी। उसके बाद, उनके छोटे पोते, अपने वाले हिस्से में, कुछ सालों पढ़ाई के दौरान ज्यादातर यहीं रहते थे। जब उन्होंने भी यहाँ आना छोड़ दिया था तो एक दिन मैंने इसकी ऊप्पर छत वाली दिवार तोड़ दी, कोई दो दशक से भी पहले शायद। तब से, ये इसका ऊप्पर वाला हिस्सा एक है। मगर नीचे, अभी भी इसे दो हिस्सों में बांटती, इसी के हालातों जैसी, टूटी-फूटी-सी दिवार है। छोटे दादा वाला हिस्सा, खुला रहता है। क्यूंकि पहले माँ यहाँ रहती थी। और अब मैं, जाने और कब तक? तो साथ वाले बड़े दादा के टूटे-फूटे (हमसे थोड़ा ज्यादा टुटा-फुटा) वाले हिस्से पे, नाममात्र का, एक बहुत पुराना जंग खाया, उजला-वाला-ताला लटकता है। उसके अंदर भी, ये उजला कोड जैसा-सा ही, फालतु-सा सामान पड़ा है। कड़ियाँ और घर का लकड़ी का सामान। दादा के बनाए घर के, पीछे वाले हिस्से का सामान। एक बार फिरसे कोड वाला सामान? जो चाचा की मौत के कई साल बाद, चाची ने तोड़कर नया बनाया था। और बचा हुआ सामान, इस खंडहर में स्टोर कर दिया था। मगर जब ये सामान यहाँ रखा गया था या जब ये ताला लगा था, तो क्या इन कोडों की जानकारी इन लोगों को थी? नहीं। ये कोड तो अभी पिछले कुछ सालों से गुप्त गुफाओं से बाहर आए हैं। या कहना चाहिए, की निकाले गए हैं। और ऐसा नहीं है की ऐसा सिर्फ यहाँ है। हर जगह, ऐसा-ही है। क्युंकि, सिस्टम ऐसा है। ऐसे ही चलता है। आपको अगर इन्हें एक बार पढ़ना आ गया तो अपने आसपास का भी बहुत कुछ समझ आना शुरू हो जाएगा। 

Friday, August 18, 2023

सिस्टम को समझना जरूरी ही नहीं, बहुत जरूरी है।

सिस्टम को समझना जरूरी ही नहीं बहुत जरूरी है -- खासकर अगर आपको लग रहा है, की आप उस सिस्टम की वजह से भुगत रहे हैं। नहीं लग रहा है और परिस्थितियाँ सही नहीं है, खासकर लम्बे वक़्त से, तब तो और भी ज्यादा जरूरी है। 

सिस्टम को कैसे समझे? चलो आसपास से ही शुरू करते हैं। सिस्टम कोड वाले कोढ़ को समझ आने में वक़्त लग सकता है। मगर आसपास की छोटी-मोटी जानकारी को समझने में उतना वक़्त नहीं लगना। जैसे --

आपके आसपास से कौन-कौन, कहाँ-कहाँ गया है? नौकरी करने या फिर स्थायी रूप से वहीं पे बसने? 

एक शहर से दूसरे शहर? एक राज्य से दूसरे राज्य? या एक देश से दूसरे देश? देखो और समझो, थोड़ा सा ध्यान देकर। ये भी, की कैसी नौकरी और कौन से राज्य या देश और कब (कौन से साल या महीने) ? आपको क्या लगता है, की ये विस्थापन (Migration) अपने आप हुआ है ? या किया हुआ है ? किसका किया हुआ ? 

आपके यहाँ कौन-कौन और कहाँ-कहाँ से आया है ? कोई भी काम करने या ऐसे ही अपने किसी रिस्तेदार के रहने? कैसा काम करने ? उसका नाम, पता क्या है ? कहाँ-कहाँ से होके आया है ? और कब ?अपने आप आया है, या लाया गया है ? कौन लाया है, या लाए हैं ?

आपके आसपास कौन कितना पढ़ा-लिखा है ? कहाँ-कहाँ पढ़ा है ? क्या पढ़ा है और कब पढ़ा है ? कौन-कौन कम पढ़ा-लिखा है या पढ़ा ही नहीं ? ठीक-ठाक, चलते-चलते, अचानक कहीं और मुड़ गया? और ज़िंदगी की दिशा ही बदल गई? 

किस-किस की शादी हो रखी है? कब हुई ? कहाँ और कैसे हुई? कब तक रही ?  किस-किस की नहीं हुई? क्या कारण हो सकते हैं ? किस-किस के कितने बच्चे हैं ? कब हुए ? कहाँ और कैसे हुए ? किस-किस को क्या बीमारी है? कब से है ? कैसे हुई, अगर जानकारी हो तो? कब किसकी मौत हुई? कैसे और कहाँ हुई ? ये सब आप कैसे सिस्टम में रह रहे हैं, उसके बारे में बहुत कुछ बताता है, अगर वो सब पढ़ना और समझना आ गया तो। और काफी हद तक, अपनी और आसपास वालों की ज़िंदगी की दिशा और दशा भी बदल सकता है। 

आपकी जितनी भी ID हैं, वो सरकारी हों या प्राइवेट संस्थानों की, आपको सिस्टम के कोड का (कोढ़ का), हिस्सा बनाती हैं। उनमें हेरफेर मतलब, systematic code wheel पे आपकी दशा और दिशा में बदलाव। जैसे जुए पे रखी, गोटियों में बदलाव या चाल चलना, इस पार्टी द्वारा या उस पार्टी द्वारा। मतलब, हम सब इस सिस्टम की चलती फिरती गोटियाँ हैं। अहम, उन्हें कौन चलता है ? ज्यादातर को तो पता ही नहीं की ऐसा भी कुछ है। मतलब, तुम्हें कोई चल गया, जुए पे रखी गोटी की तरह। और तुम्हें खबर ही नहीं ? मानव रोबोट।  ये चाल किसी एक आदमी पे भी हो सकती है। एक समूह, गाँव या शहर, राज्य या देश या देशों पर भी। धीरे-धीरे जानने की कोशिश करेंगे, इस  systematic code wheel को।  

क्या आप आज़ाद हैं?

क्या आप आज़ाद हैं?

या है ये एक छलावा-सा,

अहसास मात्र? 

क्युँकि, आपको मालुम ही नहीं, की आप 

ओरवेलियन (Orwellian) संसार में हैं। 

एक ऐसा संसार, जहाँ लगता ऐसा है 

की जो कर रहे हैं वो आप खुद कर रहे हैं 

मगर जिसकी हकीकत ये है --

की बहुत कुछ आप नहीं कर रहे 

आपसे बस करवाया जा रहा है। 

ऐसा कुछ, जो खुद आपके हित में नहीं है 

आपके अपनों के हित में नहीं है 

आमजन के हित में नहीं है 

फिर किसके हित में है? 

उनके हित में --

जो ये सब आपसे करवा रहे हैं। 

और आपको खबर तक नहीं है।  

अहम है यहाँ 

की आपको खबर तक नहीं है!

क्युंकि, जिस दिन वो खबर होगी 

आप वो सब भूल जाएंगे, की  

जिसे इतने दिलो-जान से चाहते हैं 

जिसके लिए मरने-कटने तक को तैयार हैं 

जिसे आप देश और देशभक्ति कहते हैं 

उस अहसास के बाद, 

आप इस देश्भक्ती को, देश के अहसास को 

कुछ स्वार्थी गुंडों के कबीले कहना शुरू कर देंगे। 

क्युंकि इन देशों की हकीकत यही है। 


शायद आगे वाली कुछ पोस्ट बता पाएं की ऐसा कैसे संभव है? या संभव ही नहीं है, बल्की हो रहा है।  

Wednesday, August 16, 2023

छोटे-बड़े-से-कबीले!

छोटे-बड़े-से-कबीले! 

थोड़े कम पढ़े-लिखे 

तो थोड़े ज्यादा पढ़े-लिखे कबीले 

अजीबोग़रीब रस्मों, मान्यताओं की 

जकड़न में जकड़े कबीले। 


शदियों पुराने ठहरे-से, 

ठहराव में जकड़े कबीले।  

गुप्त, छदम-युद्धों में पारांगत 

इनके पढ़े-लिखे योद्धा। 

(योद्धा? या शातिर धूर्त लोग?) 


एक तरफ --

आज भी अंधे-बहरे होकर जैसे 

अपने राजे-महाराजाओं को मानते 

थोड़े कम पढ़े-लिखे और  

थोड़े गरीब और मजबूर जैसे 

मरने, कटने, काटने तक को तैयार 

इनके ज्यादातर, अनभिज्ञ, अज्ञान, 

भीड़ों के समुह। 

कुछ इधर के समुह,

तो कुछ उधर के समुह  

छोटे-बड़े-से ये कबीले। 


तो दूसरी तरफ -- 

अंधविश्वासों, कुरीतियों के जालों में 

पढ़े-लिखे शातिरों द्वारा उलझाए हुए 

गुप्त सुरंगों के रस्ते 

आमजन की ज़िंदगी के 

हर छोटे-बड़े फैसले लेते 

उन्हें तोड़ते, जोड़ते, मरोड़ते 

मनचाही दिशा देते 

मानव रोबोट घड़ते, पढ़े-लिखे चालबाज़।  


भला क्यों चाहेंगे वो, पढ़े-लिखे जालों वाले शातिर

की इनकी ये कीड़े, मकोड़ों-सी 

मानव रोबोटों की सेनाएं 

पढ़-लिख जाएँ ऐसे 

रहें ना इतना अनभिज्ञ और अज्ञान 

अब तक रही हैं जैसे?  


देश के नाम पे भड़काते 

मगर ये ना बताते 

ये कैसे देश हैं? 

और कौन-से देश हैं? 

किनके लिए ये देश हैं? 

अन्धभक्ति का राग अलपवाते 

(देशभक्ती बोलो, नहीं तो मारे जाओगे!)


अपने कहे जाने वाले लोगों को ही 

गरीबी और गुलामी की ज़ंजीरें परोसते 

कैसे-कैसे देश ये?

और कैसी-कैसी इनकी सेनाएँ? 

और 

कैसे-कैसे लोकतंत्र इनके? 

देशों के खोल में --  ये छोटे-बड़े-से-कबीले!   

Monday, August 14, 2023

अर्थशास्त्र: कितना जरूरी या गैरजरूरी?

आदमी को क्या चाहिए, जीने के लिए? थोड़ा-सा ढंग से जीने के लिए? रोटी, कपडा और मकान? उभरते भारत में, मोदी के आगे बढ़ते भारत में, कितनों के पास आज भी वो नहीं है। कैसे होगा? वो इंदिरा से लेके मोदी तक, सबके सब, लोगों के रिश्तों के ही जोड़तोड़ में लगे हैं क्या? जिनके पास ये सब सही हो, उनके रिश्तों के जोड़तोड़ की जरुरत नहीं पड़ती। उनका बाकी सब खुद-ब-खुद चल निकलता है? ये सच है क्या? अर्थ के अनर्थ और अनर्थ के अर्थ। 

अर्थ से मिलाजुला शब्द अर्थशास्त्र। धन, दौलत या शायद जमीन-जायदाद भी? या शायद अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पुरा करने के लिए पैसा या इस तरह का कोई लेनदेन जरूर चाहिए, हम इंसानों के समाज में। संसाधन कह सकते हैं। क्या हम सब उसी के लिए काम करते हैं? पढ़ाई भी? डिग्री पे डिग्रीयाँ भी? नौकरी भी? क्या उसके लिए पुरखों की जमीन-जायदाद का होना जरूरी है? या उसके बैगर भी काम चल सकता है?  

वैसे इन्सानों में और बाकी जीव-जंतुओं में फर्क क्या है? खाना और घर तो जैसे-तैसे वो भी बना ही लेते हैं। कपड़ों की उन्हें जरूरत ही नहीं होती। तो क्या इंसान पढ़ लिखकर भी इतना तक नहीं कर सकता? ये सब तो स्कूल तक ही हो जाना चाहिए। आगे की डिग्रीयाँ भी मात्र ये सब अर्जित करने के लिए? मतलब, हमारी पढ़ाई-लिखाई में ही कहीं न कहीं कमी है। या शायद पुरे सिस्टम में ही? शायद हमें एक ऐसा स्कूल सिस्टम चाहिए जो सबसे पहले यही सिखाए। बाकी सब बाद में। लोगों के घरों की जरूरतों को पुरा करना है तो House Development Societies की जरूरत नहीं है, बल्की ऐसे प्रैक्टिकल स्कूल और कॉलेजों की जो ये सब सिखाएँ और करें, हर शहर और गाँव में। वैसे ही जैसे सिर्फ डिग्रीधारी कॉलेजों या यूनिवर्सिटीयों की जरूरत नहीं है, बल्की एग्रीकल्चर कॉलेज और यूनिवर्सिटीयों की, जो सिर्फ यूनिवर्सिटीयों के कैंपस तक सिमित न रहें। बल्की फील्ड और साइट पर हों। ऐसे ही शायद Food Tech कॉलेज और यूनिवर्सिटीयों की। ऐसे ही जो गवर्नेंस सिस्टम चल रहा है, उसकी भी जरूरत कहाँ है? 

हम पढ़ते हैं, लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों से। मगर इसकी हकीकत? जुआरियों द्वारा, जुआरियों से और बस जुआरियों के लिए? एक ऐसा Alternative Governannce System की किसी एरिया के विकास के लिए कितना पैसा आएगा ये कोई पार्टी या गवर्नमेंट तय न करे। बल्की वहाँ के प्रतिनिधि तय करें। उनमें इतनी प्रतिभा हो की वो अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए, ज्यादा से ज्यादा पैसा या कहना चाहिए संसाधन इक्क्ठा कर सकें। बहाना ही ना रहे की सरकार ने पैसा नहीं दिया, तो काम कैसे करते। पार्टियों के संगठन जीतने के लिए पैसा जुटाते फिरें। जीतने के लिए ही भाषणबाजी। जीतने के लिए ही रैली। जीतने के लिए ही प्रचार और विज्ञापनों पे खर्च। इसकी बजाय, उनका संगठन ऐसा क्यों नहीं हो की वो संसाधन जुटाने काबिल हों, अपने-अपने क्षेत्र के लिए। जहाँ किसी राजनीतिक पार्टी के पास एकाधिक्कार न रहे और विपक्ष को ये न कहना पड़े की पैसे ही नहीं मिले गवर्नमेंट से, तो काम कहाँ से करवाते? अर्थ का अनर्थ शायद हमने कुछ ऐसे कर दिया है की जिनकी जरूरत ही नहीं है, वक़्त और संसाधन उनपे खर्च हो रहे हैं। 

स्कूल-कॉलेजो, यूनिवर्सिटियों में झूठ बोलना, चोरी करना, सामान्तर केस घड़ना टीचर, डायरेक्टर सिखाते हैं। उसी झूठ को कोर्ट्स में पक्ष और विपक्ष के वकील पेलते हैं। जज सब कुछ हकीकत सुन-देखकर, जानकार भी, ड्रामों पे अपना निर्णय देते हैं। डॉक्टर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक बीमारियाँ रचते हैं या उनकी हकीकत पर चुप रहते हैं। या जानते-भुझते हुए भी झूठ बोलते हैं। बड़े-बड़े जज तक crypts में बताते हैं की ये बीमारी क्यों हुई या राजनीतिक बीमारी  है। मतलब, अर्थ के अनर्थ और अनर्थ के अर्थ।                         

पक्ष? विपक्ष? आम आदमी कहाँ है?

जर, जोरू और जमीन। क्या यही होती है इंसान के झगड़ों की वजह?

या किसी भी तरह का लालच और अहंकार, शायद?

पहले ज्यादातर के कई कई बच्चे होते थे। जब तक कम से कम एक लड़का न हो, तब तक तो स्टॉप लगता ही नहीं था। और जमीन-जायदाद होती थी लड़के की। लड़कियाँ तो खुद जमीन-जायदाद होती हैं, इस समाज में। उस जमीन-जायदाद को तो कहीं आगे जाना है। माँ बाप उन्हें किसी को सौंपने के लिए ही तो पैदा करते हैं। मतलब, जमीन-जायदाद भी movable, न की  immovable। तो भला जमीन-जायदाद की भी अपनी कोई जमीन-जायदाद हो सकती है? 

हाँ। अगर लड़कियों को भी इंसान मानने लगें, बजाय की जमीन-जायदाद समझने के, तब तो जमीन-जायदाद उनकी भी होगी। ऐसे ही, जैसे लड़कों की होती है। आजकल जब ज्यादातर के एक या दो से ज्यादा बच्चे नहीं होते, तो बहुतों के तो शायद लड़कियाँ ही होंगी। हो सकता है लड़का हो ही ना। फिर? वो अपनी जमीन-जायदाद अपने दुसरे भाइयों को दे दें? या लड़कियों का हक़ है? वो भी इंसान हैं? न की कोई जमीन-जायदाद? हाँ ! जिनको लगता है की मेरे पास मेरे लायक है, या बहुत है, तो अपनी मर्जी से वो चाहे जिसे दें। वहाँ जबरदस्ती नहीं। 

एक पक्ष 

कुछ केसों में ऐसा भी हो सकता है की किसी भी वजह से किसी की पत्नी की जल्दी मृत्यु हो गई और सिर्फ लड़की है। तो इस चक्कर में की सारा उस लड़की का ही हो, किसी की शादी ही ना होने दी जाए? कुछ अडोसी-पड़ोसी और रिस्तेदार इस चक्कर में लग जाएँ। तो कुछ लड़की को ही घर से बाहर निकालने में। या शायद दिखाई अडोसी-पडोसी या कुछ रिस्तेदार नज़र आ रहे हों। मगर, हकीकत में राजनीती के तड़के हों। कोई सामान्तर घड़ने की कोशिश? ये पार्टी इस तरह का और वो पार्टी उस तरह का। और ये भी हो सकता है की राजनीती की कहानी की हकीकत कुछ और ही हो। वहाँ सिर्फ किसी राजनीतिक ड्रामे में कोई किरदार मरा हो। न की हकीकत में। तुम्हारे ड्रामे और किसी की ज़िंदगी। और भी बहुत तरह के लालच और पेचीदगियाँ हो सकती हैं। तो एक में हकीकत में कोई इंसान गया है और दूसरे में आभाषी (ड्रामे में)। केस अलग, इंसान अलग, जगह अलग, परिस्थितियाँ अलग, तो समाधान एक कैसे हो सकता है? और कहीं किन्हीं फाइल्स से या राजनीतिक ड्रामों से, दूर कहीं किन्हीं ज़िंदगियों की हकीकत कैसे बदल जाती हैं? चाहे वो फिर रिश्ते हों या बीमारियाँ। मतलब, इंसान नहीं, सिस्टम बीमार है। अब उस सिस्टम को कौन सुधरेगा? फाइलों वाले पढ़े-लिखे या आम-आदमी? या शायद सब मिलकर?     

Numerology की राजनीति 

किसी एक पक्ष के पास 8 है तो किसी के पास 9 । 8 मतलब, बच्चा पैदा कर सकते हैं। 9 मतलब, रुकावट है। या शायद, 8 मतलब, काँड रच सकते हैं। 9 मतलब, किसी बाधा को पार करना है। कोड के मतलब, आप किस पार्टी में हैं, उसके हिसाब से अलग-अलग होते हैं। यहाँ जिसकी पत्नी किसी भी कारणवश दुनियाँ में नहीं रही, उसे बोला जाए की 8 ले। 8 भी ऐसा, जिसपे एक ने 9 लगा रखा हो, मतलब रुकावट। जैसे एक पे रुकावट, 19 लगा रखा हो। 19 18 19 28 19 38 और भी कुछ हो सकता है। जैसे 2 पे, 3 पे, 4 पे, 5 पे या किसी और नंबर पे। अब 8 का मतलब शादी तो है नहीं। फिर ऐसे राजनीतिक तड़के लगाने का मतलब? काँड? जो बचा है उसे भी खत्म करने की कोशिश? राजनीति संभानाओं का खेल है। खेलते रहो, राजनीतिक खिलड़ियों के साथ। और बच्चों तक को ऐसी घटिया राजनीती का मोहरा बनाने वालों को तो कहें ही क्या? 

एक और पक्ष है 

या तो तलाक हो रखा है। या केस चल रहा है। या जिस किसी वजह से अलग हैं। और पहले केस में बच्चा या बच्चे भी हैं। अब लड़की वाले चाहें की लड़के की दूसरी शादी न होने दें। या कम से कम तब तक रोक के रखें की आने वाली के बच्चे न हों। हक़? जमीन जायदाद? या वर्चस्व के लड़ाई-झगड़े? अलग-अलग केसों की अलग-अलग हकीकतें हैं। मगर, राजनीतिक पार्टियाँ उन्हें एक लाठी से और अपने-अपने, हिसाब-किताब से हांकने की कोशिश करती हैं। जबकि सबकी हकीकत बहुत ज्यादा अलग-अलग हैं। अहम, ये रिश्ते करवाने वाले भी कहीं न कहीं ये राजनीतिक तड़के हैं। तो शायद तुड़वाने में भी यही होंगे? सोचो, हम कैसे सिस्टम में रह रहे हैं? जहाँ राजनीतिक पार्टियों को अपनी जनता की भौतिक जरूरतों की चिंता नहीं है। बल्की, चिंता ये हैं की किसके रिश्ते जुड़वाने हैं और किसके तुड़वाने हैं। किसके बच्चे पैदा करवाने हैं और किसके नहीं। किसके घर से भगाने हैं और किसके लाने हैं।   

सरकार मानो आपको कह रही हो 

रोटी, कपडा, मकान, साफ खाना, पानी, हवा, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य इसकी चिंता नागरिक अपने आप करें। क्युंकि, आपके रिश्ते-नाते, तोड़ने-जोड़ने के लिए ही तो आपने हमें चुना है।      

टोना-टोटका, राजनीतिक-खोटका

गुदड़ी के लाल 

तेरा जन्मदिन 

कौथ की चौथ सै?

 

अखबार आले सिपाही,

सौड़ आले फौजी ते 

तेरा के झगड़ा सै?


चौराहे पे आपणा जिसा गेल खड़ा हो, हरामी 

आती-जाती छोरियाँ ने नु कह सै 

देख, तैरी भाभी चाली जा 


बस? 

तने वें ना सुने के 

जो बालकां के पैदा होते ऐ कहन लाग जा सैं 

फलाना-धमकाना का खसम पैदा हौगा

फलाना-धमकाना की लुगाई पैदा होगी  


अच्छा, अर थामने वो सुना? 

शुगर होरी सै 

ना डायबिटीज बताई। 

अरे, यो तो एक ए बात सै 

लकवा मार रहा सै 

नस रुकी बताई 

कैंसर होगी? 

ना पिलिया हो रहा बताया। 

दस्त लाग रे सैं 

ना कब्जी होई बताई 


आस्थमा 

गला खराब 

चौराहै पे पाँ आगा 

माता-धोकन जावां सां 

राजनीतिक तड़के या बीमारियाँ? 


राजनीति के इन खोतों के डॉक्टर भी बंट रहै सैं 

इनके खेड़ी की दवाई लागय सै 

अर, उनकै क सांघी आले की लागय सै 

माहरै ते खाटू की धोक लाग्या करय 

माहरै श्याम जी की 

भाई माहरै तै, बालाजी का प्रसाद बटा करे 

माहरै काली की धोक 

अच्छा रै? माहरै ते हरे कृष्णा गाया करै 

मैं ते पाठसाला आले मंदिर जाया करूँ 

मैं ते कदे ते पंजाबियाँ आले 


और घरां पे वें झंडे देखे?

तने छातां पे सोलर देखे?

राजनीतिक तड़को और फडकों की ये दुनियाँ 

सच में कितनी अजब-गजब है!


शायद टोने-टोटकों को और ऐसे-ऐसे, राजनीतिक-खोटकों को जानना बहुत जरूरी है। अगर इन राजनीतिक तड़कों वाली बीमारियों से बचना है तो। धीरे-धीरे आएंगे इन सब पर भी। ऊपर जो कुछ लिखा है, या तो कहीं सुना है, या पढ़ा है। 

वैसे टोने-टोटकों पे पीछे कोई गीत भी आया था शायद। मैं भूल गई, कोई याद दिला सके तो?   

अलग-अलग समस्या, अलग-अलग समाधान।

अलग-अलग समस्या का मतलब है की समाधान भी अलग-अलग ही होगा। मगर सामान्तर केसों का मतलब है, अलग-अलग तरह के केसों को एक जैसा दिखाना। जितना ज्यादा एक जैसा-सा दिखाया जा सके, उतना बढ़िया। तो समाधान भी, वो एक जैसा सा ही दिखाने (करने?) की कोशिश करते हैं। इसीलिए हकीकत के तथ्यों की छुपम-छुपायी चलती है। राजनीती के लिए तो ये सही है। मगर आमजन के लिए? आमजन के लिए ये मकड़ी का वो जाला है, जिसमें आमजन को फँसा दिया गया है। जिससे, उसे बाहर निकलने की जरूरत है। 

आईये कुछ आमजन की समस्यायों और उन पर राजनीतिक तड़कों की मार देखें 

मान लो घर के किन्हीं दो बन्दों में कोई कहासुनी हो गई। ज्यादातर घरों में होती है। तकरीबन सब रिश्तों में होती है। बस, फर्क थोड़ा-सा समझ का होता है। कहीं ये सब सिर्फ विचारों के ना मिलने से उपजे मामुली वाद-विवाद होते हैं। तो कहीं अपने विचार सामने वाले पे थोपने की कोशिश। जितना ज्यादा अपपरिपक़्व व्यक्ति या तानाशाह शक्शियत होगी, ये थोंपने वाला तरीका बढ़ता जाएगा। क्युँकि, ऐसे लोगों में मिल-बैठकर, सुनने-समझने की क्षमता नहीं होती। सिर्फ मैं और मैं होता है। तो सीधी-सी बात, विवाद भी ज्यादा होते हैं। मगर जहाँ विचारों में विभिन्नता के बावजूद, एक-दूसरे को सुनने-समझने की क्षमता होती है, वहाँ ज्यादा देर कहासुनी या झगड़े नहीं टिकते। जैसा की अक्सर बहन-भाईयों, माँ-बेटी, माँ-बेटा, बाप-बेटी या अन्य रिश्तों में होता है। क्या हो, अगर घर में किन्हीं दो बन्दों की कोई कहासुनी हो गई या झगड़ा हो गया? शाम तक या शायद अगले दिन तक वो फिरसे बोलते और मिलजुलकर काम करते मिलेंगे। 

मगर, अगर ऐसे रिश्तों में राजनीतिक तड़के लगने लग जाएँ, तो? अरे कल तो तू-तू, मैं-मैं हो रखी थी, आज एक दूसरे के जन्मदिन याद आ रहे हैं ! अरे कल तो झगड़ रहे थे, आज एक भी हो गए? थोड़ा और बढ़ाना हो तो? तू अपना हिस्सा ले ले। लड़कियों के क्या अधिकार नहीं होते? आप किसी का भला करने चले हों और कुछ वक़्त बाद सुनाई दें, कुछ ऐसी जुबाने, "वो तुम्हारी जमीन खा जाएगी।" कौन? उन्हें मालूम है वो किसके बारे में बोल रहे हैं? वो उस घर को नहीं जानते। मगर, किसी एक पार्टी की तरफ के तड़के शुरू हो गए। यही नहीं। ऐसे लोग, ये कहने से भी नहीं चुकते, की जितना उन्हें उस घर के बारे में पता है, उतना तो उस घर वालों को भी नहीं पता। कुछ-कुछ, वैसे ही, जैसे मोदी के आने से पहले दुनियाँ थी ही नहीं। कुछ लोग तो किसी घर में घुसे ही उसके भी बाद हैं। मगर, कोशिशें ऐसी की बस करता-धरता सब वही हैं। अब यहाँ पे सामान्तर राजनीतिक घड़ाई की सच्चाई और हकीकत नहीं मिलती। मतलब, समाधान भी राजनीतिक नहीं हो सकता।  

एक पक्ष, फिरसे राजनीतिक तड़का। कोई बहुत अपना और समझदार इंसान कहे, की वो माँ-बेटी तो जमीन बेचकर दिल्ली चली जाएँगी। किसी राजनीतीक पार्टी का ये कोई कोड है। मगर आम आदमी इसे हकीकत मान बैठे? और आप सोचें, ये हो क्या रहा है? राजनीतिक कहानी को हकीकत बनाने की कोशिश। राजनीती के ड्रामे की माँ-बहन और हकीकत की माँ-बहन अलग हैं। हकीकत में, उनमें कुछ नहीं मिलता। और उस बेटी को दिल्ली सच में इतनी पसंद है क्या? माँ तो है ही गाँव का प्राणी। हकीकत ये है की जब राजनीती की गिरी हुई नीचता के तड़के समझ आने लगे, तो मैंने अपनी जमीन खरीदना सही समझा। क्युंकि पुरखों की जमीन इतनी है ही नहीं, की उसे वाद-विवाद का विषय बनाया जाए। वो जिनके नाम है, वहाँ सही है। कम सही, मगर राजनीतिक तड़कों से दूर, अपनी जमीन। और ये भी शायद कम को ही पता है की जबसे ये जुआरी सांग समझ आने लगा है, कुछ पसंदीदा लोग तो नजरों से ही गिर चुके हैं। आगे क्या होना जाना है? शायद कोई इन सबसे दूर रहना चाहता है। ना इधर के जुआरी पसंद, ना उधर के। शायद बहुत पहले लिख चुकी ऐसा कुछ। Life Funda is अकेला चलो रे। To hell with gamblers and predators!    

दूसरा पक्ष, भालोट ले ले। माउंट आबू ले ले। या कुछ और बढ़िया गाँव बता देंगे। बिना सामने वाले का पक्ष जाने। या ये जाने बैगर की क्या पसंद है और क्या नहीं है। सबसे बड़ी बात, जरूरत किस काम के लिए है। 

किसी को राजनीतिक जमीन चाहिए या शुकुन की जिंदगी? राजनीतिक जमीन मतलब, इधर और उधर के सांडों की लड़ाई के बीच फंसना। भला राजनीती से बाहर जमीन कहाँ है? वही तो। लोगों की जमीन उनकी अपनी क्यों नहीं है? सरकारी जमीन हो या प्राइवेट, उन्होंने या इन्होने कहा, ये हमारी, तो हमारी। जैसे यूनिवर्सिटी के घर! ये नंबर इस पार्टी का और वो नंबर उस पार्टी का। क्यों?    

कितने ही पक्ष, वो तिकोना है ना हाईवे और गाँव के बीच, वो ले ले। अरे, वो रेडियो स्टेशन के साथ वाली जमीन कैसी है? वो गाँव से बाहर गड्डे वाली जमीन। अब आपने पूछा है तो लोग तो बताएँगे। इतनी सी तो मदद कर ही सकते हैं। मगर इस जमीन देखने के चक्कर ने और भी काफी कुछ समझाया। वो किसी और पोस्ट में।    

ये खुद के साथ हुई कहानी है, जो अभी तक चल ही रही है। इसलिए लिख दी। मगर यहाँ आसपास ऐसा ही कुछ बहुत-सी जिंदगियों में चल रहा है। अब दूसरों की ज़िंदगियों की समस्याएँ तो ऐसे खुलकर नहीं लिखी जा सकती। मैं औरतों के अधिकारों की हमेशा आवाज रही हूँ। जहाँ तक हो सके, उनके साथ रहने की कोशिश होती है। मगर, किसी भी राजनीतिक तड़कों की मददगार नहीं हूँ। और ये सब पार्टियों के लिए है। कोई अपना अगर मिलने आए या बात करे तो अपना रहकर ही करे तो ही सही है। किसी भी राजनीतिक पार्टी का संदेशवाहक, मतलब अपनापन खत्म। क्युंकि आपको मालुम ही नहीं की हकीकत क्या है और राजनीति क्या। 

हकीकत: बच्चा माँ के जाते ही घर से बाहर रहने लगा। जैसे अपहरण हो गया हो। किसी अपने बड़े को बोला। असर, बच्चा वापस घर और काफी हद तक नार्मल। 

राजनीतिक तड़का: ये तो बात नहीं बनी। और किसी राजनीती ने उस अपने को आपके और शायद आपके घर के ही खिलाफ भड़का दिया। बच्चा, अपहरण के बाद जैसे किसी जेल में। 

और भी कैसे-कैसे किस्से हैं यहाँ। जिधर देखो उधर राजनीतिक तड़के। शायद दुनियाँ में हर जगह यही हो रहा है। कोरोना ने तो ऐसा ही कुछ समझाया। 

बहुत-सी चीज़ें समझ आई, इस थोड़े से वक्त में। इतने कम वक्त में, किसी बच्चे या बड़े के व्यवहार में इतना फर्क कैसे लाया जा सकता है? व्यवहार को बदलना। यही है मानव रोबोट बनाना। किसका फायदा हो रहा है, इस सबमें? जिनका आप चाहते हैं, उनका हो रहा है क्या? भोले और हकीकत से अनजान लोगों के साथ दिक्कत यही होती है की उन्हें फुसलाना बहुत आसान होता है। दिल में कोई द्वेष न होते हुए मार खाते हैं। और उसके लिए तड़के का काम करता है, आपस में मिल बैठकर बात करने की बजाय, दूसरों से हकीकत जानने की कोशिश करना। 

Artificial Intelligence (AI) और ऐसी-ऐसी टेक्नोलॉजी के तड़के, आम आदमी की जिंदगियों में जानोगे तो दिमाग ही घुम जाएगा की हम किस दुनियाँ में रहते हैं। और आम-आदमी उससे कैसे निपट सकता है?  

Saturday, August 12, 2023

राजनीतिक कोड और इस कोढ़ की गुलामी !

मानो आपकी ज़िंदगी में कोई रिस्ता सही नहीं गया? वो किसी लड़के का भी हो सकता है और लड़की का केस भी। अलग हो गए या तलाक हो गया। तो अब ज़िंदगी से उम्मीद क्या होगी की आगे कोई रिस्ता हो तो सही जाए। शुरू-शुरू में सब सही चल रहा है, मगर कुछ वक़्त बाद यहाँ किसी और तरह की समस्या शुरू हो गई। अब आप थोड़ा पीछे ज़िंदगी को निहारेंगे तो समझ आएगा की समस्या अभी तक ये पीछे वाला रिस्ता ही है? या शायद आपका अपना व्यवहार, जो हंसी-मजाक में या शायद जानभुझकर किसी नौटंकी से शुरू हुआ? शायद कुछ ऐसे शब्द या हावभाव आपके व्यवहार में घुलमिल से गए, जो आप या तो किसी और के कहने पे कर रहे थे? या किसी को चिढ़ाने के लिए? सामने वाले के लिए उनका कोई अर्थ हो या ना हो। मगर आपके दिमाग की ट्रैनिंग खुद आपने शुरू की। जाने या अनजाने। तो समस्या, किसको होनी थी? उसपे अगर वो राजनीतिक कोढ़ है तो जिस पार्टी ने रचा है वो तो आग में घी का काम करेगी ही करेगी। 

कहीं-कहीं तो सिर्फ अपनी ही नहीं, अपने बच्चों या बड़ों की भी ऐसी ट्रैनिंग शुरू की हुई है। अब ये पार्टी और वो पार्टी, ये सब बड़े पास से देखसुन रहे हैं। उनके पास संसाधन हैं, वो सब करने के। तो आपके व्यवहार को अचानक कोई मोड़ देना या तोड़-मरोड़ देना, बहुत मुश्किल नहीं है उनके लिए। तो आप 90-10 वाले हैं? 80-20 वाले? 70-30 वाले? 60-40 वाले ? 50-50 वाले ? 45-55 वाले ? इस पार्टी वाले या उस पार्टी वाले ? यही सब खेल रहे हैं ना? या कहना चाहिए की जबरदस्ती (Enforce, Force) करने की कोशिश कर रहे हैं ? वो भी किसी और पे ? मगर हो रहा है खुद आपके साथ? जब ये सब हो रहा होता है तो कम ही समझ आता है। ये सब होने के बाद थोड़ा आसानी से समझ आता है। जिनके लड़कों के साथ हुआ है, वो इनके लड़कों के साथ वैसा ही या उससे भी बुरा रच रहे हैं? और जिनकी लड़कियों के साथ हुआ है, वो दुसरों की लड़कियों के साथ? या जिनके साथ हुआ है वो ज्यादातर कुछ रचने लायक हैं ही नहीं। ये सब, ये राजनीतिक पार्टियाँ रच रही हैं? जिनके पास संसाधन और दिमाग दोनों हों वही रच सकते हैं। जो सिर्फ पेट-भराई के जुगाड़ में हों, वो नहीं। मतलब, जो जितना ज्यादा नासमझ, भोला या अनजान है, वो उतना ही ज्यादा भुगतान करता है। 

तो अगर आपको रिश्ते पुरे चाहिएं तो इन बाज़ार वाले, इतने परसेंटेज या उतने परसेंटेज discount से बाहर निकलो। अपने भेजों को उसकी ट्रैनिंग देना बंद करें। नहीं तो, आपके रिश्ते पुरे होते हुए भी, अधुरे होने लगेंगे। आसपास के कुछ रिश्तों की कहानियाँ कुछ-कुछ, ऐसी-सी ही हैं। ये राजनीतिक पार्टियाँ, पहले रिश्ते जुड़वाती हैं, फिर तुड़वाती हैं। फिर कोर्ट भी इन्हीं के हैं। इनके या उनके वकीलों के धक्के आप खाते हैं और शायद अच्छा खासा उन्हें पूज के भी आते हैं। ज़िंदगियाँ खाली और घर भी खाली? कुछ-कुछ ऐसा सा ही लग रहा है ना? चलो कुछ वक्त बाद, कोई और रिश्ता हो गया और फिरसे जैसे ज़िंदगी चलने लगी। मगर ये क्या? आप अभी तक बाजार खड़े हैं? कितने परसेंटेज वाले बाजार में? तो आगे क्या उम्मीद रखते हैं? क्या कर रहे हैं, अपनी खुद की ज़िंदगी के साथ? या अपनों की ज़िंदगी के साथ?

ऐसा क्यों है की कहीं किन्हीं राजनीतिक कहानियों में जो हो रहा है, आपको लग रहा है की वैसा-वैसा कुछ मेरी ज़िंदगी में भी हो रहा है ? Copy या Clone बनाना पता है क्या होता है ? और कैसे होता है ? बस आपके साथ वही हो रहा है। और आप खुद उस Process और Programming का हिस्सा बने हुए हैं -- जाने या अनजाने। 

यही नहीं, कहीं न कहीं अपने बच्चों और बड़ों को भी बना रहे हैं -- जाने या अनजाने। 

कैसे ? जानते हैं, अगली पोस्ट में। 

Friday, August 11, 2023

कोड नहीं, राजनीतिक कोढ़ है ये।

आपका जन्मदिन क्या है?

5 - 1 ? JA NU ARY? या JAN UARY?  

29 - 2 ? FEB R UA RY?

1 - 3 ? MA R CH?

1 - 4 ? AP R IL? 

1 - 5 ? M AY ? या MA Y? 

6 - 6 ? JU NE? 

19 - 7 ? JU LY ?

7 - 8 ? AU GU ST या AUG UST ?

1 - 9 ? SE PT EM BER या 

2 - 10 ? OCT OMB ER? 

16 - 10 ? OCT OMB ER?

4 - 11 ? NO VE MB ER? या NOV EM BER?

22 - 11 ?  NO VE MB ER? या NOV EM BER?

8 - 12 ? DE CE MB ER 

10 - 12 ? DE CE MB ER 

ऐसे ही साल हैं। जैसे 19 22, 19 62, 19 52, 19 77, 20 02, 20 06, 20 09, 20 14, 20 16, 20 20, 20 22           

वैसे क्या फर्क पड़ता है की आपका जन्मदिन क्या है ? मान लो आपका 14 है। आपको पसंद नहीं, किसी भी वजह से। शायद 24 पसंद हो या 4 पसंद हो।  तो अगर कोई 14 को जन्मदिन मुबारक बोले, आप 4 को या 24 को धन्यवाद कर दो। THANK u. अर्रे ये कैसा THANK u. ? या तो ऐसे लिखो THANK YOU या Thank You या Thank you. नहीं ?

कोड बड़ा कोढ़ है। इसके मानने ना मानने से भी बहुत फर्क पड़ता है। मान लेना, मतलब दिमाग की प्रोग्रामिंग शुरू। ना मानना, मतलब बकते रहो। मुझपे तो असर पड़ता नहीं। पर शायद ऐसा कोडने, मतलब कोड को स्टीकर की तरह हमपे चिपकाने वाले पे जरूर पड़ता होगा? 

देखें कैसे?

90 - 10 ?

80 - 20 ?

70 - 30 ?

60 - 40 ?

50 - 50 ?

45 - 55 ?

65 - 35 ?

75 - 25 ?

ये सब पढ़ के क्या याद आ रहा है ?

अगर टीचर या स्टूडेंट हैं, तो शायद paper marks distribution?

shopping करने पहुंचे हुए हैं तो ? Sale? 

कुछ और भी हो सकता है। अगर cryptic system कोड को समझना है तो? 

डिग्री का नाम ? M.Tech, Ph.D? Biotechnology?    

पेपर का नाम?  Genetic Engineering या Genomics and Proteomics 

पेपर कोड ? 16 ME Or 21 TB  

Marks distribution?  Practical and Theory? 75 - 25 ? 80 - 20? 

और आप कहीं अटक जाएं। ये अजीबोगरीब कोड क्यों? सीधे-साधे क्यों नहीं ? 16, 21, 23 या ऐसा ही कुछ अटपटा-सा क्यों? आप लिखते रहो या करते रहो objection, उन्हें कौन-सा सुनना है? ये इस पार्टी के हैं और वो उसके। इनके ये कोड हैं और उनके वो। मतलब राजनीतिक कोढ़ है ये।   

और लो घुम गया दिमाग। सिलेबस निकालो joining से आज तक, इस इंस्टिट्यूट के सब कोर्सेज और सब पेपर? वैसे ही जैसे chemicals lists में या instruments lists में serial numbers series random हो या alphabets series आगे-पीछे हो। 

या किसी मीटिंग रजिस्टर पे हस्ताक्षर करने हों और आपसे पहले कोई कई सारी लाइन छोड़के, किसी खास नंबर पे करदे और आपको बोले मैडम, आप इस नंबर पे कर दो। क्या फर्क पड़ जाएगा? मीटिंग टॉपिक discussion agenda, time, date, कौन आया, कौन नहीं आया या आयी और कब?

ऐसे ही लोगों को यहाँ घुमाया हुआ है, इन राजनीतिक कलाकारों ने। इस पार्टी के कलाकारों ने, तो उस पार्टी के कलाकारों ने। मगर यहाँ सिर्फ घुमाना नहीं है। ये मानव रोबोट बनाना है। इसीलिए इन ज़िंदगियों पे असर बहुत ज्यादा है। कैसे?     

ये पोस्ट थोड़ी बड़ी हो गई। उसके लिए अगली पोस्ट। 

Thursday, August 10, 2023

देख रै रामफल चाल्या जा

आज थोड़ा हरियान्वी पुलिसया स्टाइल में लिखने की कोशिश :)

देख रै रामफल चाल्या जा 

HR 39D, बोले तो Verma G, गाँय अर बाछी और बाछा? 

और अगर किसी पौधे की बात हो तो?

Annona Reticulata, also known as Custard Apple, Sweetsop can be wild as well as domesticated. 

कैसा-सा दिखता है?



ईब रामफल है तो सीताफल भी होगा। नहीं? होता है ना। कैसा सा दिखता है? 


स्क्रीनशॉट गूगल बाबा सर्च इंजन से लिए हुए हैं। कहीं कुछ गड़बड़ है शायद? मुझे ऐसा लगा और आपको? देखो फिर से ध्यान से। आभाषी दुनियाँ सी कहानी या कुछ हकीकत भी? 
ये रामफल और सीताफल, गुगल की AI (Artificial Intelligence)  गुगली हैं क्या? शायद? अभी AI पे पोस्ट का वक़्त नहीं आया। आएंगे, उसपे भी कभी। 
वैसे सीताफल को शरीफा (खलीफा मत पढ़ जाना), Sugar Apple, Anonna Squamosa भी कहते हैं। इसका शुगर से कोई रिस्ता है क्या? शायद, राजनीति वाली शुगर बिमारी से?

तरो-ताजा सामान्तर घढ़ाईयाँ (और Numerology)

सामान्तर घड़ाईयाँ (आभाषी ज्यादा, हकीकत कम) पोस्ट 1 अगस्त 2023  

अगर आप ये ब्लॉग लगातार पढ़ रहे हैं तो ये भी पढ़ चुके होंगे? 

सामान्तर केसों का अगर आप अध्ययन करेंगे तो समझ आएगा की तथ्यों को रखने में बहुत ज्यादा हेरफेर है। हर पार्टी अपनी-अपनी तरह के तथ्य घड़ने की कोशिश करती है। और उन तथ्यों को पेश करने में वो सामने वाले को किसी भी हद तक चौंधिया सकती है, बेवकूफ बना सकती है। इस तरह की हेराफेरियाँ कैंपस क्राइम केसों में आसानी से देखी-समझी जा सकती हैं। क्युंकि वहाँ सिर्फ लोगों की कही गयी जुबानी बातें नहीं है, बल्की official documents है, जो कहानी खुद-ब-खुद गा रहे हैं। जैसे हस्ताक्षर करने वाले विधार्थी उस दिन उस शहर में ही न हों। या छुट्टी वाले दिन (जिस दिन हरियाणा बंद हो) टीचर ने नहीं पढ़ाया, की लिखित में कम्प्लेन हो। दिवाली पे हॉस्टल बंद हो और लिखित में टीचर की कम्प्लेन हो, क्लास नहीं ली। एक-दो को छोड़, बाकी विधार्थियों के हस्ताक्षर उन एक-दो ने ही कर दिए हों। 54 Days Earned Leave Case  

ऑफिस के बाद ताला खोल, लैब से dissertation चुरा लें और अगले ही दिन final viva भी हो जाए। वो भी जब वो टीचर, किसी केस की तारीख पे कोर्ट में बुला लिया हो (Neem केस) और officially छुट्टी पे हो और डिपार्टमेंट कोऑर्डिनेटर खुद छुट्टी पे हो। भारती उजला dissertation केस।  

ये सब आप कभी भी साबित कर सकते हैं। 

मगर जहाँ सिर्फ कहे सुने गए तथ्योँ के आधार पे कहानियाँ घड़ी जाएँ, वहाँ तो क्या कुछ तो सम्भव नहीं है?    

 आओ ऐसी ही एक तरो ताजा सामान्तर घड़ाई के केस को देखते हैं 

एक पक्ष, की इस सामान्तर घड़ाई का, 

राघव चड्डा, MP, AAP  के बारे में हाल की Breaking News क्या है?  

54 Days Earned Leave Case से कोई लेना-देना हो सकता है क्या? 

एक और Breaking News क्या है? 

Delhi Ordinance Service Bill, AAP और BJP का इसपे वाद-विवाद क्या है?  

दुसरा पक्ष,

गृह मंत्री, अमित शाह का हाल का पार्लियामेंट में भाषण 


यहाँ गौर करने लायक है हाल ही में 45 साल बाद दिल्ली का डुबना।  मतलब आभासी दुनियाँ को बढ़ाना, चढ़ाना, तोडना, मरोड़ना (पोस्ट, 15 जुलाई 2023) 
ये 4 और 5 Numerology कोड में कुछ खास है क्या?  

जब हम कोड की बात करते हैं तो अहम है, तारीख और वक्त। जैसे लोकसभा या राज्यसभा में किस दिन, किस का भाषण है, कितने बजे है, कितनी देर बोलने को वक्त मिला है। 
ऐसे ही जैसे किस दिन इलेक्शन होते हैं? कौन-कौन सी सीट पे एक बार या एक दिन या एक फेज में? किसी लोकसभा या राज्यसभा में कितनी सीट हैं? और कितनी पे इलेक्शन होने हैं? कौन-सी पार्टी, कितनी सीट पे लड़ेगी या कौन-सी पार्टी से गठजोड़ करेगी? ये पढ़े लिखों की Numerology है। ये पढ़े लिखों की Numerology आम-आदमी तक इन पार्टियों द्वारा बनाये हुए गुप्त रस्तों से आम-आदमी की ज़िंदगी में पहुँचती है। इस Numerology के नंबर हर पार्टी के अपने-अपने हिसाब-किताब से हैं, जो उसे ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुँचा सकें। पार्टियाँ वो फायदा लेने के लिए इंसानों को अपना गुलाम बनाना शुरू कर देती हैं, बचपन से ही। या आज के युग में तो पैदा होने की तारीख से ही। या शायद कहना चाहिए की कौन पैदा होगा या नहीं होगा, ये भी, ये पार्टियाँ कोशिश करती हैं की अपने हिसाब से तय कर सकें। इस सबके पीछे विज्ञान है, कोई चमत्कार नहीं। ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक बिमारियों के पीछे। इस तरह से हमारा सिस्टम Automation से Semiautomation और Semi से Enforced की तरफ उतना ही बढ़ता जाता है, जितना ये पार्टियाँ आम आदमी की जिंदगी के ऐसे-ऐसे पहलुओं पे भी अपनी घुसपैठ करने की कोशिश करती हैं। इसलिए जितना आप किसी भी पार्टी को मानना शुरू कर दोगे, उतना ही उस पार्टी के मानव रोबोट बनते जाओगे। और आपको खबर भी नहीं होगी की ऐसा हो रहा है।मतलब जितना ज्यादा इस तरह का Enforcement बढ़ता जाता है, उतना ही ज्यादा समाज में जुर्म। इसीलिए मोदी युग, सिर्फ तानाशाही का युग नहीं है, बल्की जुर्म की हदों का भी युग है। महामारी के नाम पे 2-साल तक दुनियाँ को बंधक बना, इतनी सारी हत्यायों के रचयिता होना? मतलब, दुनियाँ में सिर्फ यही एक तानाशाह नहीं है। इसके बड़े-बड़े बाप/आका भी है।      

आम आदमी के लिए जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत ज्यादा जरूरी है, इस बाहरी दखल को अपनी ज़िंदगी से दूर रखना। राजनीतिक दखल। जुआरियों और शिकारियों वाली राजनीती वाला दखल। ये दखल इंसानों की ज़िंदगी में सीधे-सीधे हस्तक्षेप के रूप में भी है। और उलटे-सीधे, टेड़े-मेढ़े बुने हुए जालों, सुरँगों के रस्ते भी। उन रस्तों और उनके द्वारा बनाए गए गुलामों या कहो मानव रोबोटों का जिक्र आगे किसी और केस के या कहो केसों के अध्ययन के साथ। 
कोशिश रहेगी नाम, जगह की बजाय सिर्फ केसों को घड़ने के तरीकों और उनके उन ज़िंदगियों पर प्रभावों तक सिमित रहे। यहाँ आमजन को सिर्फ ये बताने की कोशिश रहेगी की इस राजनीति को आपके पुरखे भुगत चुके। अब आप भी भुगत रहे हैं। तो क्या आप चाहते हैं की आप अपनी अगली पीढ़ियों से भी वो भुगतान करवाएँ? अगर नहीं तो इस राजनीतिक रंगमंच को, इससे थोड़ा दूर रहकर, सिर्फ समझने की कोशिश करें। ना की अंधे, बहरे होकर उसका हिस्सा बनने की। ज्यादातर वो हिस्सा अनजाने में है। मगर कुछ शायद जानबुझकर भी।     

Wednesday, August 9, 2023

Tired or Retired?

There is no question of tired or retired. I am doing better after leaving that place. I am on my way, the direction, I wanna head. It's not the stage or age to retire. But for sure, I would not work in that toxic, violent and abusive every possible way environment. I have left that place for good. Yes, some party tried hard during this time period that I must join back. Some maybe out of some fears and for my own good. But for others, it maybe good for their own vested interests. But fact is it's no more in any interest to me or my people under the given circumstances. These vested interests people have kinda kidnapped my people in different ways. Harmed them the worst way possible they could. 

Subtle and insidious designs. Ignorance, too local mindset and to some extent being not so literate and some strange kinda created poverty in the surrounding added fuel to that. And these very factors of insecurity seem their fear factors. But I am done. Any kinda fears cannot lead me back to that hell. I have already left that campus house in May last week. I have already given even keys of that home. Wonder, that till now even after more than two months, there is no official response to that. Though, there is no ill will or any bad feeling towards that institute or majority of people there, as any institute is bigger for some small minds and harmful designs. People will come, people will go. But institutes must work and run towards the betterment of society, the purpose they are made for. Rather than for gamblers or some specific political parties. 

Yes, there were times when mind was so toxic that I used to wake up in morning with the feelings not to go to some office but who's who must be finished there. Some tucha-pucha neta was first on that list, along with some chairs. That was the time, when I resigned again for my own good and for the good of people at large. Rest is history, how different parties tried to enforce in different directions.

This village for me was a temporary place for security reasons from some dangers. In the process, have also become some strange kinda study place. It will be a place for my occasional shift dwellings or some understandings of this world and its problems. A world, we so-called literates isolate ourselves or feel isolated with time or circumstances for a better world and opportunities. And in the process, are also ignorant of so many, not so good realities, created by this literate world to this not so literate world. 

While living away, you cannot even notice this making of human robots by so subtle and insidious designs by some vested interests. Most such vested interests lead sufferings to ignorant people. And interestingly, these people don't even wanna believe that people who are leading them are harmful and causes of their miseries.

Monday, August 7, 2023

रसायनिक छिड़काव (मतलब जहर)

जहरीले लोग, जहरीला खाना, जहरीला पानी और जहरीली हवा? क्या बस यही बच गया है, हमारे लिए या हमारी आगे की पीढ़ियों के लिए? 

"मोदी रोग और अमेरिकन शल्य चिकित्सा भोग"  Ki (Or Kia-- IA or AI?) and Operation War P SPEED? शायद कुछ-कुछ ऐसा ही? 

CORONA COVID PANDAMIC का असली नाम शायद यही है। G! जी (Ji?), सही सुना आपने। इस एक बीमारी ने या कहो महामारी ने दुनियाँ को बहुत कुछ सिखाया है। शायद ही कोई बचा हो, जिसने इसके असर को नहीं भुगता हो। बिमारी तो कोई थी ही नहीं, बस जहर था, चारों तरफ! झूठ का, धोखाधड़ी का, लालच का, इंसानों के दिमागों में। और उन्होंने फैला दिया या कहो परोस दिया वो जहर, हवा में, पानी में और खाने-पीने में। धरती में और शायद आसमान में भी।    

OXY 

GEN 

की हो गई कमी?

OXYGEN Cylinders हो गए गुल, कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे प्याज, टमाटर हो जाते हैं, बाज़ार से खत्म। और बढ़ जाती हैं, कीमतें। सरकारों को गिराने और बनाने के लिए? खासकर गरीब देशों में। ये तो हुई राजनीति।आम आदमी ऐसे में खुद को कैसे बचाए? अपने आपको ज्यादा नहीं तो थोड़ा सा जागरूक करके। 

जहाँ-जहाँ जितना हवा, पानी और धरती में जहर है, मान के चलो वहाँ के उतने ही आदमी जहरीले हैं। सभी तो नहीं होते, कुछ हों तो ही बहुत कुछ हो जाता है। उस जहर को कम करने का तरीका क्या है? 

साफ खाना, पानी, हवा, हम सब अपने-अपने घर या आसपास ही ऊगा सकते हैं। हमारे अपने घरों या आसपास में कितनी ही तो जगह होती हैं, जहाँ हम ये सब कर सकते हैं। पहले गाँवों में तो ज्यादातर घरों में रसोई-वाटिका (Kitchen Garden) होती थी। अब भी हैं क्या? और कुछ नहीं तो खेतों से ही इतनी सारी सब्जियाँ या फल आते थे, बड़े बुजर्गों से सुनने को मिलता है। गिना सकते हैं उनमें से कुछ एक के नाम आप? शायद उन्होंने भी शहरों का रूख कर लिया है। वहाँ लोगों में रसायनिक छिड़काव (जहर) वाले खाने-पीने और उनके प्रभावों के प्रति जानकारी बढ़ रही है। हमारी आज की ज्यादातर बिमारियों की वजह या तो हमारा रहने-सहने का तरीका है या खानपान और हवा, पानी का संक्रमित होना। उसके बाद हॉस्पिटल पहुँच जाओ, बाकी कमी वो पुरा कर देंगे। टैस्ट के नाम पे ही धोखा धड़ी शुरू हो जाती है, उसके बाद तो पता नहीं क्या-क्या होता है। इसलिए खुद को हॉस्पिटल जाने से बचाना भी अहम है। गाँवों में ये जागरूकता अभी भी उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिय। तो शुरू करें, जहर का असर कुछ कम, अपने खाने से? अपने घर, छत या आसपास में ही बड़ी नहीं तो कम से कम छोटी-छोटी सी रसोई-वाटिका बनाकर, मगर बिना रसायनों के छिड़काव के?     

Thursday, August 3, 2023

हेराफेरी संसाधनों की

क्या कोई आपको मानव, जीवों और निर्जीवों के संसाधनों के दुरूपयोग की तरफ धकेल सकता है? वो भी ऐसे, की आपको खबर भी न हो और वो अपना काम कर जाय या कर रहे हों?

आपके चारों तरफ राजनीतिक पार्टियां हैं। आप उनसे लगातार घिरे हैं। इनमें कुछ थोड़ा शातिर भुमिका में हैं, और बहुत ही आसपास हैं। भला किसी को नुक्सान कर किसी का क्या फायदा हो सकता है? शुरू में तो मुझे भी समझ नहीं आया। फिर समझ आया, लोगों के अपने छोटे-मोटे लालच। लालच भी अजीबोगरीब। भला अपने बच्चों के घरों को बसाने के लिए लोगबाग क्या-क्या तो नहीं करते? बस ज्यादा कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ लालच और वो भी बिना सोचे-समझे। मतलब, भेझे से पैदल होकर।  किसी की लड़की ससुराल से आकर घर बैठी हो या कहना चाहिए, इधर-उधर की लड़कियां घर बैठी हों। कोई आसपास और कोई थोड़ा दूर। और कोई कहदे, ये पड़ोस में जो सिंगल है ना, जब तक इसकी ऐसी-तैसी नहीं होगी, तब तक तुम्हारी लड़की का कुछ न होना। शायद किसी एक पार्टी की आभाषी कहानी ने ऐसा ही घड़ा हुआ है, अपनी कहानी में। अब वो सिंगल, अपने आपको ऐसे गुंडों से बचाती घुमे। और उन गुंडों ने पीछे लगा दिए, तुम्हारा भला तब होगा, जब ऐसा होगा वाले -- भुतिया दिमाग। जब तक वो कोई अच्छी खासी डांट-डपट न खा लें यहाँ-वहाँ से, और बढ़िया वाली झंड न करा लें, तक तक तो मानने से रहे। 

फिर होंगे कुछ छोटे-मोटे हादसे, इधर या उधर। उनका सच हकीकत के इंसान जाने। मगर इधर-उधर की सुनकर जो समझ आया वो ये की राजनीतिक पार्टियां और मीडिया को बखुबी आता है, राई का पहाड़ बनाना और पहाड़ की राई। बचो इनसे बचा जा सके तो। ऐसे में दुश्मन ये पार्टी भी हो सकती है और वो भी। और किसी को बेवजह भी कोई खुंदक या लालच हो सकता है।  किसी से या कहें किन्ही से कुछ चीजें कोई बेवजह के डर पैदा कर भी करवाई जा सकती हैं। आभाषी डर, जरूरी नहीं हकीकत भी हों। विक्की कौशल का कुछ होगा तो तुम्हारा कुछ होगा। अब फिल्मी दुनिया वाले विक्की कौशल का तो शायद हो गया।  मगर ये हकीकत की दुनियाँ वाले विक्की कौशल, फ्लॉप हो गए क्या? या शायद जैसा चाहा, वैसा न हुआ? अब हकीकत की दुनियाँ और आभाषी दुनियाँ में फर्क तो है ना?

इन सबमें संसांधनों की हेराफेरी अहम है। वो फिर इंसान हों या भौतिक चीजें। वक़्त के साथ जो समझ आया वो था या है, पैसा। मैंने पैसे को कभी कोई खास तव्वजो न दी। हाथ के मैल से ज्यादा शायद कुछ समझा ही नहीं। आज भी कोई खास अहमियत नहीं है। मगर भाभी की मौत के बाद गुड़िया के केस ने जो समझाया, वो शायद किसी को भी झकझोर दे। लोगों का वो सब करने के पीछे मकसद चाहे जो भी रहा हो। इधर-उधर हर तरफ से जैसे एक ही आवाज़ आ रही हो। तेरे पास पैसा कहाँ है, पैसा तो खत्म। तेरे तो ऐसे दिन आएंगे, वैसे दिन आएंगे और पता नहीं क्या-क्या। खैर। जिसके पास जो था या है वो उसे पता है। बाकी रो लें, कुछ वक़्त और। ये पैसा-पैसा करने वाले वो लोग हैं, जिन्हें पढ़ाई की किम्मत नहीं मालुम। अब यहाँ रहोगे तो ये, ये काम नहीं करने देंगे और वहां वो। बाहर तुम्हे निकलने नहीं दिया जाएगा। जैसे कोई मोदी जैसा तानाशाह गा रहा हो कुछ या फेंक रहा हो किसी फेंकु की तरह? लपेट लो, क्या जाता है? 

जब ये सब पैसा कहाँ है चल रहा था तो समझ आया (हालांकि थोड़ा बाद), की किसी थोड़ा-सा हड़बड़ी या जल्दबाज़ी में काम करने वाले को फँसाया जा रहा था। इसे बोलते हैं शायद लोगों को असुरक्षा (insecure) के डर से भरना। और अपना कुत्ता बनाने की कोशिश करना। थोड़ा धैर्य रखो तो बुरा वक्त कट जाता है, थोड़ी शांति से। विचलित हो जाओ तो वो ले आता है और नई समस्याएँ। थोड़ा-सा नजरिए का फर्क है शायद। जैसे कोई भागा और अभागा या नरभागा को अलग-अलग अर्थ दे दे, वैसे ही जैसे -- Impossible is nothing but possible। तो ऐसे ही, भागा, भाग मिल्खा भाग भी तो हो सकता है। और नर भागा? कोई नर, भाग वाला या कोई नर, भागा जैसे। इतने से हेरफेर से ही स्थितियां भी बदल जाती हैं शायद। 

एक तरफ बड़े कहलाने वाले लोग ये सुनकर कहीं से, की पैसा तो खत्म, लताड़ रहे थे ऐसे, जैसे ज़िंदगी खत्म। दूसरी तरफ, एक छोटा-सा बच्चा शायद प्रेरित कर रहा था।  पता नहीं कहाँ से, क्या सुनके आई थी वो। 

अच्छा बुआ एक बात बताओ 

बोलो 

आप US गए थे?

हाँ ! बहुत पहले, धाई के हाथ लगाने जैसे। 

थोड़ा रुआंसा होकर, फिर आप मम्मी को भी ले जाते, तो शायद वो आज ज़िंदा होते।  

बुआ ही नहीं रुके तो मम्मी को कैसे ले जाते? 

तो मुझे ले जाते, फिर तो आप रूक जाते। (उसे मालुम ही नहीं की वो तब पैदा ही नहीं हुई थी) 

हाँ ये भी सही है। अब चलेंगे कहीं किसी US 

सच्ची ?

सोच तो रही हूँ। 

पर आपके पास पैसे कहाँ हैं?

आपके लायक तो हैं। लोगों के लायक नहीं हैं शायद। 

मन में सोचते हुए: जिनके लायक हैं वो चल पड़ेंगे। जिनके लायक नहीं हैं वो सड़ लेंगे यहीं, इस राजनीती के या उस राजनीती के तानेबानों में।   

रोज-रोज लोगों के खामखां के खेलों या कहो ड्रामों से दूर रखने के लिए बुआ-भतीजी ने कोई नई भाषा सीखनी शुरू कर दी। और शाम को एक स्पेशल टीचर-स्टूडेंट प्रोग्राम भी, अंग्रेजी की शब्दावली बढ़ाने के लिए।  

भला इस घर के दुश्मनों को इतना कहाँ सहन होना था की ये तो फिर से चल निकलेंगे। और लो खड़ी करदी फिरसे यहाँ-वहां, छोटी-मोटी दिवारें। तुम हटाते रहो वो दीवारें, वो बुनते रहेंगे। ऐसे माहौल में भला और क्या मिलेगा? वो तुम्हारा पैसा रोककर, या इधर-उधर की आवाजाही रोककर, बच्चे को किसी और स्कूल में करवाकर, कमाने वाले को खत्म कर, बचे हुए को अपने यहाँ कुत्ता बनाएंगे। बड़े लोग, इतने छोटे होते हैं, दिमाग से? हकीकत यही होती है, अक्सर ऐसे-ऐसे बड़े लोगों की। खासकर तानाशाहों की। ऐसे लोग क्यों चाहेंगे भला, की कोई उनके जालों से बाहर निकले। वो भी सालों-साल, इतनी मेहनत और छुपम-छुपाई से बनाए हुए जाले।    

Tuesday, August 1, 2023

आभाषी दुनियाँ की सैर पे चलें? (1)

आओ आपको एक आभाषी दुनियाँ की सैर पे ले चलूँ 

उससे शायद थोड़ा बहुत समझ आये की मानव रोबोट बनाना कितना आसान या मुश्किल काम है?  

A के एक लड़का और एक लड़की है। RR

B के एक लड़की और दो लड़के है। SJN

AB थोड़ा पास पड़ते हैं क्युंकि बाप एक है। मगर माँ अलग-अलग हैं।  

C के एक लड़का है। S

D के चार लड़के हैं। VDSM

ABCD एक पीढ़ी है (Generation G1)

तो RR, SJN, S, VDSM हो गयी अगली पीढ़ी (G2)

ऐसे ही G3 और G4 होंगे। 

मान लो SJN में JN दो भाई हैं। कोई कहे N भाई वाले J वालों को खा जाएंगे। यहाँ मान लो, कोई कहे, अहम है। जरूरी नहीं हकीकत हो। मतलब आभाषी दुनियाँ। 

J के एक लड़की और दो लड़के V S P 

N के एक लड़की और एक लड़का A A   

SJN दूसरी पीढ़ी (G2) 

तो VSP और AA तीसरी (G3)

VSP और AA का कोई झगड़ा है क्या? 

ना। 

फिर JN का?

ऐसा भी कुछ नहीं। 

फिर?

ये किसकी घड़ी आभाषी दुनियाँ है? और कौन इसे हकीकत में बदलना चाहता है? 

राजनीति।

राजनीति का किसी ऐसे गाँव में पड़े, अनजान से, ऐरे-गैर-नथु-खैरों से क्या लेना देना? 

कोई कहे N नरेंदर है और J जय। 

तो?    

N मोदी पार्टी तो J विरोधी पार्टी?

कुछ भी। कहीं से, कुछ भी जोड़ो, तोड़ो, मरोडो और पेलो?

आभाषी दुनियाँ का मतलब ही ये है की कुछ भी। कहीं से, कुछ भी जोड़ो, तोड़ो, मरोडो और पेलो।

हकीकत की दुनियाँ वाले जितना इस आभाषी दुनियाँ को मानने लग जाते हैं, उतना ही वो सच होता प्रतीत होता है। जरूरी नहीं सच के आसपास भी हो। 

आभाषी दुनियाँ के सफर को आगे जारी रखते हैं, हकीकत जानने के लिए। और ये भी जानने के लिए की क्यों जरूरी है राजनीतिक पार्टियों की घड़ी हुई आभाषी दुनियाँ से बाहर निकलना।   

राजनीतिज्ञों की घड़ी ये आभाषी दुनियाँ आमजन हितैषी नहीं है।