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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Saturday, May 11, 2024

स्टीकर ले लो स्टीकर (Social Tales of Social Engineering)

स्टीकर ले लो स्टीकर

अरे भैया कैसे दिए?

2 का। 5 का। 15 का। 20 का। 50 का। 100 का। 200 का। 500 का। इससे महंगे भी हैं। आपको कौन-सा चाहिए? किसपे लगाने वाले  चाहिएँ? फ्रीज पे? वॉशिंग पे? स्टडी टेबल पे? रसोई घर की दिवार पे? ड्राइंग रुम की दिवार पे? बाथरुम की दिवार पे? फर्श पे? कॉपी-किताब पे? कपड़ों पे? गाडी पे। और भी बहुत तरह के हैं। जैसे नेताओं के। अभिनेताओं के। वैज्ञानिकों के। किसान, जवान के। बहुत हैं। पेड़-पौधों के। पशु-पक्षियों के। जानवरों के। कीड़े-मकोड़ों के।  

अरे नहीं। जैसे झगड़ों के, बिमारियों के, टूटफूट के। मौतों के। और उनके सिस्टम से संबंधों के। हैं क्या? 

अभी तो नहीं हैं। बड़े गोदाम वाले साहब से पूछना पड़ेगा, शायद उनके पास हों। 

ठीक है। पूछ के बताना।               


Friday, May 10, 2024

टाली जा सकने वाली बीमारियाँ, हादसे या दुर्घटनाएँ (Social Tales of Social Engineering)

सामान्तर केस वो घड़ाईयाँ हैं जो बहुत से बड़े-बड़े लोगों की जानकारी के बावजूद हो रही हैं। जिनमें युवाओं का ही नहीं, बल्की बुजर्गों और बच्चों तक का शोषण है। बहुत से केसों में तो शोषण से आगे, मौतें तक हैं। ऐसी बीमारियाँ या हादसे, जिन्हें वक़्त रहते रोका जा सकता है। लेकिन हरामी लोग और राजनीतिक पार्टियाँ ऐसा नहीं चाहती। ये वो लोग हैं, जिन्हें किसी भी किम्मत पर सिर्फ और सिर्फ कुर्सियाँ या छोटे-मोटे लालच दिखते हैं। 

वैसे तो हर केस अलग है और उसका समाधान भी एक नहीं हो सकता। 

अलग-अलग समस्या, अलग-अलग समाधान।

मगर बहुत-सी सामान्तर घड़ाईयोँ में काफी कुछ ऐसा है, जो शुरू में बहुत ही छोटा-मोटा सा लगता है। मगर जिसे बढ़ा-चढ़ा बहुत ज्यादा दिया जाता है। उस छोटे-मोटे को बड़ा करने या बढ़ाने में, इन केसों के ज्ञाताओं को बहुत वक़्त नहीं लगता। वक़्त और जरुरत के हिसाब से, जिधर चाहें उधर मोड़ देते हैं। रिश्तों का यही है। बिमारियों का यही है और मौतों का भी ऐसे ही है।     

ये हूबहू घड़ाईयाँ इधर के या उधर के स्टीकर हैं। बेवजह के स्टीकर। बेवजह की बिमारियों के। बेवजह के हादसों या दुर्घटनाओँ के। ऐसी बीमारियाँ, जिन्हें आप नहीं चाहते। अब बिमारियाँ भला कौन चाहता है? और वो कब आपको बता कर आती हैं? मगर, आपको पता चले की कोई तो, उन्हें कहीं घड़ रहे हैं? तो? ठीक वैसे ही, जैसे, ये सामान्तर केस घड़ने वाली पार्टियाँ, इधर या उधर। जहाँ आपको पता नहीं चल रहा, की यहाँ कोई सामान्तर घड़ाई चल रही है, वहाँ जानने की जरुरत है, खासकर, जहाँ असर बुरे हों। मगर, जहाँ आपको कुछ भी कहकर या बताकर शामिल किया जाता है, वहाँ? बुरे असर जानने के बावजूद, कितनी बार शामिल होंगे आप ऐसी वैसी नौटंकियोँ में?

एक जोक है, किसी पढ़े-लिखे पुलिसिए का। मैं तो नदी पार करवाऊँ था।

और सामने वाला ना हुई बीमारियाँ भी सालों-साल लिए बैठा है? 

कौन है ये सामने वाला? 

आम आदमी? 

आप? हम? हम-सब? 

Micro Media Lab (Social Tales of Social Engineering)

जब आप आसपास या खुद पर घटित होती हुई, किसी आम-सी घटना या घातक दुर्घटना को सूक्ष्म तौर पर देख या समझ पाने की काबिलियत रखते हैं, तो क्या होता है? बहुत-सी ऐसी घटनाओं या दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है या उनका बुरा असर कम किया जा सकता है। 

जैसे जो पालतू जानवर पालते हैं, उन्हें पता होता है, की उन्हें कब खिलाना-पिलाना है। कब उनकी साफ़-सफाई करनी है। कब नहलाना है। कब वो वयस्क होंगे। उसके क्या लक्षण होंगे। जल्दी वयस्क करना है, तो क्या खिलाना-पिलाना है? या कैसे माहौल में रखना है? उनके बच्चे पैदा करवाने हैं, तो क्या करना है? और भी कितनी ही तरह की जानकारी पशु पालने वालों को होगी। आप कहेंगे शायद की कोई खास बात नहीं?    

ऐसे ही जो किसान हैं या जिन्हें बागवानी का शौक है, उन्हें मालूम होगा पेड़ पौधों के बारे में। कितनी मेहनत करते हैं ना पशु पालक या किसान? और कितना वक़्त लगाते हैं, अपने पालतू जानवरों पे या पेड़-पौधों पे? जितनी मेहनत करते हैं या जितना ज्यादा वक़्त लगाते हैं, उतना ही ज्यादा कमा पाते हैं? ऐसा ही? 

या शायद कभी-कभी ऐसा नहीं होता? क्यों? 

कभी मौसम की वजह से? तो कभी बीमारियों की वजह से? या शायद कभी लापरवाही की वजह से? या शायद कभी इधर-उधर की रंजिश की वजह से भी? कभी गलत पहचान की वजह से? तो कभी गलत पहचान को खुद से किसी स्टीकर की तरह चिपकाए रहने की वजह से भी? कैसे? और      

इंसानो के केसों में भी ऐसा ही है। 

जानने की कोशिश करते हैं, ऐसे ही कुछ-एक आसपास के केसों से। जैसे कोई Mistaken Identity Or Identity Crisis?    

Monday, April 22, 2024

चित भी मेरा, पट भी मेरा? पल्टुराम छल-कपट (Maneuvers)? Social Tales of Social Engineering

राजनीतिक पार्टियाँ कितनी पलटी मारती हैं? कितनी भी मार सकती हैं? शायद इतनी की आम आदमी उनका ABC तक ना समझ पाए? चलो छोटे से उदहारण से ही जानने की कोशिश करते हैं।  

आप कौन हैं?  

आपके माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, दादा-दादी, उनके बच्चे और भी कितने ही रिश्ते? जो हैं, वही हैं? या वक़्त के साथ बदल जाते हैं? या फिर क्या वक़्त के साथ बदल जाता है? और क्या ना बदलता और ना ही आप बदल सकते?  

आप कहाँ पढ़े हैं? कहाँ रहते हैं? या रहे हैं?

कहाँ तक पढ़े हैं? 

क्या करते हैं? या पहले कर चुके? 

जो है, वही है? या बदल जाता है?

आपके नाम बदलने से? 

नाम का कोई एक अक्सर या शब्द बदलने से? 

जगह का पता बदलने से? 

घर का नंबर बदलने से? 

या स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी या कोई नौकरी बदलने से? या शायद एक तरह की नौकरी की बजाय, कोई और नौकरी करने से? आपकी पोस्ट या कुर्सी बदलने से? आपके रिश्ते-नाते बदल जाते हैं क्या? जो खून के हैं या स्थाई हैं, वो तो नहीं बदलते शायद? तो क्या बदल जाता है?

परिवेश? आसपास? आसपड़ोस? लोगबाग? जीव-जंतु? पशु-पक्षी? पेड़-पौधे? हवा-पानी? खाना-पीना? बोलचाल, बोलचाल की भाषा? पहनावा? और भी शायद बहुत कुछ?

क्या है जो कहीं भी जाएँ, तो नहीं बदलता? 

राजनीती में स्थाई क्या है? है, कुछ? कौन किसका है? कब तक है? है, तो क्यों है? या नहीं है, तो क्यों नहीं है? राजनीती में नीतियाँ ही स्थाई नहीं होती। वो कैसे और क्यों बदलती हैं? और किसके लिए बदलती हैं? ये तक अकसर राज रहता है। क्यूँकि, जैसा यहाँ दिखता है, वैसा होता नहीं। और जो होता है, वो अकसर दिखता नहीं।      

चलो अगली पोस्ट में, एक किसी आम इंसान की ज़िंदगी से समझने की कोशिश करते हैं।     

Sunday, April 21, 2024

कैसी ये स्याही (Ink) होगी? कैसा चुनाव और कैसा तंत्र? (Social Tales of Social Engineering)

 पीछे पोस्ट में मेरी तरफ से भारत में चल रहे चुनाव का बहिष्कार था। 

अब ऊँगली पे लगने वाली स्याही का बहिष्कार है। 

कैसा चुनाव और कैसा तंत्र?     


 कैसी ये स्याही (Ink) होगी? 

लोगों को सतर्क करने की ज़रुरत है, शायद?




कैसे-कैसे उजाले?
और कैसे-कैसे अँधेरे?  
2017 Chemicals Abuse? 


2018 या 2019?
Pink Bouganvillea  

और इन chemicals (abuse) के नाम कहाँ से पता चलेंगे? 
In case, anyone can?
Simple high dose pesticides or diluted form of acids?

वैसे तो कितनी ही बीमारियाँ हैं, जिनपे लिखा जा सकता है। ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं होता, की या तो उन्हें वो बीमारी है ही नहीं, जो diagnose कर दी गई है। या वो लक्षण हैं, आसपास के ज़हरीले वातावरण के। वो ज़हर पानी में हो सकता है। हवा में हो सकता है। और खाने-पीने में भी हो सकता है। या ऐसी किसी भी वस्तु में हो सकता है, जिसके आप जाने या अंजाने सम्पर्क में आते हैं। कॉस्मेटिक्स में हो सकता है, जैसे कोई भी लगाने की क्रीम वगैरह या नहाने-धोने का साबुन, शैम्पू। दवाई में हो सकता है। घर के साफ़-सफाई के सामान में हो सकता है। 

या शायद वो नीली-सी या बैंगनी-सी या थोड़ी काली-सी स्याही में भी हो सकता है, जो आपकी ऊँगली पे वोट डालने के बाद लगती है। थोड़ा बहुत शायद भारत के CJI बता सकें? वैसे ये वाली स्याही ऊँगली पे ही लगती है ना, कहीं कलाई पे तो नहीं?

जैसे सालों-साल फाइल्स में चल रहे ऊटपटाँग रिश्तों को टाटा, बाय-बाय किया था। वैसे ही अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों द्वारा, लोगों पर अपनी-अपनी तरह के भद्दे-धब्बों, ठपों और मोहरों को टाटा, बाय-बाय। एक शुरुवात, इस गुप्त कोढ़ सिस्टम को उखाड़ फ़ेंकने की, ताकी कम से कम आगे की पीढ़ियों को ये ना झेलना पड़ें। थोड़ा मुश्किल है, पर असंभव तो नहीं। कम से कम, एक शुरुआत तो कर ही सकते हैं। 

तो क्यों बात हो इशारों में? क्यों "दिखाना है, बताना नहीं" बनते रहें, लोगों की ज़िंदगियों की बीमारियाँ या मौतों तक की कहानियाँ? क्यों ना खुल कर बात हो, राजनीती या सिस्टम की थोंपी गई बिमारियों की और मौतों की, उनके कोढों के साथ?    

Sunday, April 14, 2024

Social Media Culture, Booster Doses (Social Tales of Social Engineering)

Culture?

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने?

पैदाईश ही जीरो होगी, तो क्या होगा तेरा?

पैदाईश जीरो? सच में?

Eurovision Song Contest, पहली बार देखा 2005? 

और favourite song? 

My Number One? 2005 


ले तू जीरो पे एक रख
पापा? राजी? या? Paparizou? या?  

"Music is my life?

My life is music?"

Music madness continues और 

ये क्या है?


My Number One? 2016  


आपने कुछ सोचा, उस 2005 वाले गाने के बारे में? 

शब्द वही हैं, मगर बाकी सब बदला-बदला सा है?  

Booster Doses?

Sleep? Psycho?

Music?

Ram Rahim? 

उन्होंने कहा, Immersive Media Technology 

अब ये क्या बला है?

Laser Show?     

Lake Tiliyar, Special Shows 

धन्यवाद, छोटे हुडा को?

दिप्तम-दीप्तम सा है? और आगे आप कहीं, दिप्ती मैडम से भी मिलोगे। 

कहीं किसी केस में जज, तो कहीं?

ये कौन सी दुनियाँ है? और चल क्या रहा है?

"कुछ ना, तू मैन्टल है और मैन्टल सर्टिफ़िकेट पकड़। अब तेरे को चुप करवाने का यही एक रस्ता है। "         

यही नहीं, अब आप गानों को शायद, किसी और नज़र से भी देखने लगे? पहले फ़ोकस शायद सिर्फ लिरिक्स होते थे? अब क्या बदल गया? अरे! ऐसे तो मैंने गानों को कभी देखा ही नहीं? Evolution हो गया? जुर्म और अनुभव की खिचड़ी पकने लगी, धीरे-धीरे दिमाग में? टेक्नोलॉजी के बारे में जानने की उत्सुकता भी बढ़ गई? पहले तो कभी सोचा ही नहीं, की कैसे होता है या करते होंगे ये कलाकार, इतना कुछ? कैसे-कैसे, अलग-अलग विषयों के ज्ञाता होंगे, इस सबके पीछे?

कभी सुना है की मोदी, हाँ वही, आज तक भारत का प्रधानमंत्री, भाषण कैसे देता होगा? किसी hologram से उसका कोई लेना-देना हो सकता है क्या? ये teleprompter क्या होता है? ये सब सिर्फ टेक्नोलॉजी है? राजनीती? Music Industry? या इन सबका, किसी कोढ़ से भी कोई लेना-देना हो सकता है?      

वैसे, music industry का किसी बच्चे के कानों में silver ear rings डलेंगे या gold? या माँ के जाते ही, उसके कान पक जाएँगे? और so-called कमीनों की सलाह पे, सींख डल जाएँगी? बच्चे पे उसका क्या असर होगा? नई आने वाली सोने से लद जाएगी? बीमारी (कानों का पकना?), माँ के जाने के बाद, अपने आप आ जाएगी? या? Invisible Enforcements? अद्रश्य तरीक़े बिमारियों के? अद्रश्य तरीके, लोगों के भेष और हुलिया बदलने के? आप किस वक़्त कहाँ होंगे और कैसे दिखाई देंगे? जैसे बच्चों के बालों के हेरफेर वाला केस? 

कितना कुछ आ गया ना, इस कल्चर में? यहाँ Microlab Culture की समझ बहुत जरुरी है। राजनीती, टेक्नोलॉजी, ज्ञान-विज्ञान के दुरुप्योग को "सोशल मीडिया कल्चर लैब" में पकाई गई, खिचडियों (तरह-तरह की बिमारियों), को समझने के लिए। इसलिए कहा, मीडिया हर विषय के लिए अहम है। कम से कम, यूनिवर्सिटी के स्तर पे तो हर डिपार्टमेंट में इसका अपना, अलग expertise होना चाहिए। जो ये बता सकें, की उनके विषय के ज्ञान या विज्ञान को कैसे भुनाया जाता है? किसी भी समाज के स्वास्थ्य या बिमारियों के स्तर पर? किसी भी समाज की बदहाली या खुशहाली के लिए? ये मीडिया महज़ वो जर्नलिज्म नहीं है, जो भड़ाम-भड़ाम करता रहता है, दिन-रात। ज्यादातर, इस या उस पार्टी के राजनीतिक एजेंडों को। ये मीडिया वो मिर्च-मसाला भी नहीं है, जो मनोरंजन के नाम पे कुछ भी परोसता है और उसे भी भुनाता है। समाज को बीमार करने के लिए। ये मीडिया वो है, जो बता सके, की भगवानों को कौन बनाते हैं? इंसानों को कौन? और शैतानो को कौन? और उससे भी अहम, क्यों और कैसे? रीती-रिवाज़ों में बदलाव कैसे और कहाँ से आते हैं? साइकोलॉजी या फिजियोलॉजी, और भी ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे विषयों का, इन बदलावों और वहाँ की राजनीतिक पार्टियों के अद्रश्य एजेंडों से क्या लेना-देना है? क्या ये भी किन्हीं बिमारियों की वजह या लक्षण हो सकते हैं? और ईलाज भी वहीँ छिपा हो सकता है?    

ये मीडिया वो है, जो एनवायरनमेंट जैसे विषय की तरह अहम है और इकोलॉजी के स्तर पे हर विषय को अपने में समाए हुए है। 

और ये Social Tales of Social Engineering क्या है? ये वो कहानियाँ हैं, जो आपकी, मेरी और हर किसी की ज़िंदगी से जुड़ी हैं। ज़िंदगी के बनने में या बिगड़ने में। ये भी, हर किसी के लिए और हर विषय के लिए अहम हैं। क्यूँकि, ज़िंदगियों को अलग-अलग दिशा या दशा देने के लिए, अलग-अलग जगह, अलग-अलग तरह के विषयों की खिचड़ी पकी होती है। जैसे, 

कुछ इंसान के खोल में छुपे जानवरों ने, होली के दिन इस बेजुबां के कान में चीरा लगा दिया 


या एक ख़ास तारीख को हमारी गली में रहने वाली कुत्ती के ज़ख्मों पे, एक पियकड़ से पेट्रोल डलवा दिया। और भी कितने ही ऐसे किस्से हैं। जिन्हें, सुनकर या जानकार यही कहा जा सकता है, ये कौन-सा समाज है? और कैसी राजनीती? जिसका आम इंसान भी जाने-अंजाने हिस्सा बना दिया गया है?  

Social Media Culture, Booster Doses (Social Tales of Social Engineering)

 Booster Doses?

An interesting concept?

Not just in labs?

Where you need antibody production?  

 



But?
Social in Media Culture also?  
Defence or Civil?
Civil or Defence?
How?
Such an interesting interdisciplinary world?  

Social Media Culture? (Social Tales of Social Engineering)

How you evolve? 

With time? 

With age? 

With circumstances?  

With your surrounding?


Surrounding?

Place?

People?

Plants?

Animals?

Birds?

Worms?

Or flies?


The water you consume there?

The air you breath there?

The food you eat there?

The faith and belief of that surrounding?

The customs, that place follows?

The way, that place or society treats?

Her girls? 

Boys? 

Kids?

Adults?

Elders?


The language, that place speaks?

The way that place look at --

Different views?

Different opinions?

Different customs?

Different people?

And their ways of life?


The way, people wear cloths there?

Types, designs, colours, 

And so many different combinations?

The way, people talk there,

With each other?

With respect or disrespect?

Straight forward or hidden agendas?

The way, people take each-other ahead?

Or the way, they pull down each other, 

So low, that can put under graves?


Whatever you interact in your surrounding

Then be it living or non living beings

Make your life

That's why they say, 

Choose your surrounding carefully? 

But, the kind of social media culture, 

People come across in this world

Do they really have choices?

Or enforced agendas work invisible ways?

Beyond people's understanding?

Thursday, April 11, 2024

इकोलॉजी (Ecology) और बिमारियों की जानकारी? (Social Tales of Social Engineering)

इकोलॉजी (Ecology), आपका अपने आसपास से रिस्ता या यूँ कहो, की जिस किसी जीव या निर्जीव के संपर्क में आप आते हैं, या जो कुछ भी आपके आसपास है, उसका आप पर या उस पर आपका प्रभाव। इसमें आपके आसपास जो कुछ भी है, वो सब आ जाता है। हवा, पानी, खाना-पीना, इंसान, जीव-जंतु, कीट-पतंग, पेड़-पौधे, घर या बाहर का सामान, अड़ोस-पड़ोस, मोहल्ले, समाज में कैसे भी बदलाव। जीव या निर्जीवों का आना या जाना। और भी कितना कुछ। यही सब सोशल मीडिया है। किसी भी जगह के जीव-जंतुओं का आगे बढ़ने का या रुकावट का माध्यम। बड़ी-सी माइक्रोबायोलॉजी लैब। या कहीं का भी सिस्टम।      

मैंने अपने घर और आसपास के बच्चों की कुछ बिमारियों (या लक्षणों?) को जानने की कोशिश की थी, कुछ साल पहले। ये सब शुरू हुआ था, की पैदाइशी अगर किसी बच्चे के बाल सीधे, सिल्की और भूरे हैं, तो कुछ साल बाद ही, वो घुँघराले, खुरदरे (Rough) जैसे, और काले हो सकते हैं? और ऐसा होते ही, बच्चे का हुलिया ही कुछ और ही नज़र आने लगेगा? ऐसे ही जैसे, अगर किसी बच्चे के बाल पैदायशी घुँघराले और काले हैं, तो कुछ साल बाद ही वो सीधे, कम काले और सिल्की हो सकते हैं? यहाँ फिर से हुलिया अलग ही नज़र आने लगेगा। अब जितना जैनेटिक्स पढ़ी हुई थी, उसके हिसाब से तो ऐसा नहीं हो सकता। हाँ। वातावरण में बदलाव, खाने-पीने में बदलाव या आर्टिफिसियल तरीके से ऐसा संभव है। अर्टिफिशियल तरीके से कैसे? इनके माँ-बाप ही पार्लर नाम मात्र जाते हैं, वो भी किसी ख़ास प्रोग्राम पे ही। तो बच्चोँ का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ये मेरी अपनी भतीजी और भांजी का केस था, तो तहक़ीकात थोड़ी और शुरू कर दी। 

भाभी ज़िंदा थे उन दिनों। माँ और भाभी से बात हुई, तो माँ ने बोला, ऐसे ही थे बचपन से। भाभी ने बोला, नहीं थोड़े बदल गए लगता है। उसपे माँ ने थोड़ा और जोड़ दिया, की भाई के भी शायद ऐसे ही हैं। जब मैंने कहा, की घर में तो ऐसे किसी के नहीं है, तो कैसे हो सकता है? जितना मुझे मालूम है, तो रिश्तेदारों में भी नहीं है। यहाँ सीधे से, घुँघराले होने लगे थे। भाभी ने इसपे कहा, शायद मेरी माँ पे हैं। उनके जड़ों से तो सीधे हैं, मगर थोड़े बड़े होने पे घुँघराले होने लगते हैं। मुझे भाभी और माँ, दोनों के ही तर्क, बेतुके लग रहे थे। माँ को बोला, आपको इतना तक पता नहीं, की आपके लाडले के बाल कैसे हैं? और उन्होंने डाँट दिया मुझे, जैसे हैं, ठीक हैं। दिमाग़ मत खाया कर, हर बात पे, खामखाँ में। भाभी हंसने लगे। और कर लो बहस। मैंने भाभी को कहा, की एक बार एल्बम लाना। माँ ने मेरी तरफ घूर कर देखा। और भाभी ने कहा, पता नहीं दीदी कहाँ पड़ी है एलबम,  ढूँढ़नी पड़ेगी। 

मैं घर आ गई, भाई के घर से। अपनी एल्बम निकाली, जिसमें भाई और गुड़िया की अलग-अलग वक़्त की फोटो थी। अब शक और बढ़ गया, की कुछ तो गड़बड़ घोटाला है। क्यूँकि, दोनों में से किसी के बाल घुँघराले नहीं थे।      


अब पहुँची मैं ऑन्टी के पास। जिनका घर भाई के साथ ही लगता है। उनसे भांजी के बारे में बात हुई तो बोले, हाँ बचपन में तो ऐसे नहीं थे, अब बदलने लगे। यहाँ घुंघराले से, सीधे होने लगे थे। जाने क्यों, अब मुझे छोटी बहन (चाचा की लड़की) के बालों पे भी शक होने लगा। जिसके बाल घुँघराले जैसे-से हैं। मगर मेरे पास उसकी बचपन की कुछ फोटो हैं, जिनमें सीधे हैं। ये भी कुछ-कुछ ऐसा था शायद, जैसे भाभी ने अपनी माँ के बालों के बारे में बोला? इसी दौरान ऑनलाइन कुछ सर्च कर रही थी और किसी फ़ोटो को देखकर फिर से थोड़ा शंशय। ये अंकल की फोटो थी, जिसमें उनके बाल घुँघराले लग रहे थे। मुझे ऐसा कुछ ध्यान नहीं। शायद कभी ध्यान ही नहीं दिया। 

फिर से एक दिन अंकल के घर थी और वही फोटो सामने देख रुक गई। पर ये तो यहाँ बहुत सालों से थी। मतलब, हम बहुत-सी बातों पर सामने होते हुए भी, ध्यान नहीं देते। क्यूँकि, जरुरत ही नहीं होती। ये तो जब जरुरत महसूस हो, तभी ध्यान जाता है। मैंने फिर से ऑन्टी से पूछा, की अंकल की ये फोटो कब की है? क्या अंकल के बाल घुँघराले थे? वो फोटो शायद, उनके आखिरी दिनों के आसपास की होगी। और उन्होंने बताया की घुँघराले तो नहीं थे। 

टेक्नोलॉजी का गलत प्रयोग?  

क्यूँकि, खुद की मेरी कितनी ही फोटो, पता ही नहीं कैसे-कैसे ख़राब की हुई थी और ऐसा ही बहुत-सी गुड़िया के केस में था। चलो फोटो में बदलाव तो समझ आते हैं, वो भी आज के युग में। मगर, जो वो सामने गुड़िया और भांजी के बालों के साथ हो रहा था, वो क्या था? ये उस दुनियाँ की सैर करवाने वाला था, जो कितने ही चाहे-अनचाहे बदलावों के और बिमारियों के राज खोलने वाला था।  

जानकारी या ज्ञान-विज्ञान का गलत प्रयोग?

मतलब, छोटी से छोटी चीज़, जो आपके आसपास बदल रही है, वो कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रुप में आपको और आसपास के जीवों को प्रभावित कर रही है। वो फिर चाहे खाना-पीना है या ऐसा कोई भी उत्पाद, जो आप नहाने-धोने में या अपनी या अपने आसपास की किसी भी प्रकार की सफ़ाई में प्रयोग कर रहे हैं। और भी अहम, उसे आप किससे या कहाँ से ले रहे हैं? वो चाहे आपके कपड़ो का या बालों का स्टाइल का तरीका है या उनमें प्रयोग होने वाले उत्पादों के किस्म और प्रकार। वो चाहे आपकी हवा का रुखा-सूखा, धूल-भरा या साफ़ होना है या उसमें पानी की अलग-अलग मात्रा। वो आपके आसपास के तापमान का तीख़ापन है या सुहावना होना। वो आपके घर की शाँति है या लड़ाई-झगड़ों का बढ़ना। वो आपके ज़मीनी पेड़-पौधों का बदलना है या अच्छे से फलना-फूलना। वो आपके घर के पेड़-पौधों का इस जगह से, उस जगह खिसकना है या बाहर कहीं जाना। वो आपके ज़मीनी पेड़-पौधों का मरना है और सिर्फ गमलों वाले पौधों का ही जीवित रह जाना। वो आपके छोटे से छोटे गमलों में भी एक पौधे का होना है या उसमें भी दो, तीन या ज्यादा पेड़-पौधों का होना। वो एक ही, वो भी छोटे से गमले में भी, एक ही तरह के पेड़-पौधे का होना है या उसमें भी कई तरह के पेड़-पौधों का एक साथ लगा देना। वो आपके आसपास के कीट-पतंगों का बदलना है? या कुत्ते, बिल्लियों का सिर्फ एक, दो ना होकर कई सारे, पता ही नहीं कहाँ-कहाँ से अचानक आना शुरू हो जाना। और फिर अचानक से ग़ायब हो जाना। इनमें से बहुत कुछ अपने आप नहीं होता। बल्की, धकाया हुआ या जबरदस्ती लाया हुआ होता है। वो फिर बंदरों के झुंड हों या गाय-भैंसों के। वो फिर टिड़ियों के दल हों या अलग-अलग तरह की चिड़ियों के। अपने आसपास में हो रहे या किए जा रहे बुरे या भले बदलावों को समझना शुरू करो। बहुत कुछ समझ आएगा। बिमारियों को होने से रोकने के या होने पर ईलाज के समाधान डॉक्टरों के पास नहीं, आपके अपने पास या आसपास हैं। डॉक्टर तो तब के लिए होते हैं, जब बीमारी लाईलाज हो जाए। और वहाँ भी ज़्यादातर केसों में, जाने या अंजाने बढ़ती हैं, कम नहीं होती। 

Wednesday, April 10, 2024

शक्ति की रैली पीटना?

शक्ति, औरत है? पुरुष है? या LGBT? वैसे, ये LGBT कोढ़ क्या है?

बच्चा या बच्ची है? युवा है, या बुज़ुर्ग? इंसान है? शैतान है? भगवान है? भगवानी है? कोई देव या देवी? आप शक्ति को किस रुप में मानते या जानते हैं? पवित्र है? अपवित्र है? पूजनीय है या अपूजनीय? किसी का बेटा है या बेटी? किसी की माँ है या बाप? किसी की बहन है या भाई? किसी की पत्नी है या पति? किसी एक की है या अनेक की? और भी कितने ही ऐसे प्रश्न हो सकते हैं। 

राजनीती वाले, इधर वाले या उधर वाले, किस शक्ति की रैली पीट रहे हैं? इधर वाले या उधर वाले? आप राजनीती के गढ़े भगवानों, अवतारों, छलियों, शैतानों या इंसानों को मानते हैं? या आपका अपना भी कोई मत है? या उनके कहने या उकसाने पर लोगों की रैलियाँ पीटते हैं ? (जो ज़्यादातर जाने-अंजाने, आप अपनी खुद की पीट रहे होते हैं।)

या ऐसे उकसावों और भडावों से दूर रहते हैं?

मान लो, कोई शक्ति पुरुष है और अपनी पत्नी को लेकर कहीं जा रहा है। तो कोई कहे, ये दो को कहाँ ले चला? या ये आधे-आधे टुकड़े कहाँ ले चला? हकीकत में वो चाहे, एक को ही ले जा रहा हो। क्यूँकि, शायद ऐसे लोगों के लिए शक्ति पुरुष नहीं औरत है। शायद माँ है, बहन है, बुआ है या बेटी है। या शायद पत्नी है। इधर वालों ने भी शक्ति की रैली पीट दी और उधर वालों ने भी। सिर्फ़ किसी राजनीतिक पार्टी के भड़काओं या उकसावों पे। क्यूँकि, राजनीती का काम यही है। नहीं तो किसी के भगवानों या भगवानियों, देव या देवियों या आमजन के निजी रिश्तों से राजनीती का क्या लेना-देना? 

और आपको पता है, की ऐसे-ऐसे भड़कावे या उकसावे आपकी जानकारी के बिना, आपके अपने घरों में लड़ाई-झगड़ों की ही वजह नहीं बनते, बल्कि बीमारियों की अहम कड़ियाँ (प्रकिर्या का हिस्सा) भी बनते हैं। कैसे? जानते हैं आगे कुछ पोस्ट में।   

चुनाव या धंधा-प्रदर्शन, बहिष्कार।

1. On 

2. Off (Experimented) 

3. Over (Experimented) 

4. Control Freak (Elections?) (Experimented, hence prooved?) 

या छलावों और बेहुदगी की सब हदें पार? इनके एक्सपेरिमेंट्स कभी ख़त्म नहीं होते। लोगों की ज़िंदगियाँ ख़त्म हो जाती है।  

ऊप्पर दी गई सीरीज कहीं और, कुछ और भी हो सकती है।  

अगर आपको समझ आए की चुनाओं का मतलब ये है? मानव सभ्यता की सब हदें पार करके भी, लोगों को बेहुदा एक्सपेरिमेंट्स की तरफ धकेलना? तो आप आमजन, क्या ऐसे बेहुदा धंधा-प्रर्दशन का हिस्सा होना चाहेंगे? वो चाहे फिर Remote Controlled EVM हों या बैलट पेपर।  

ऐसे चुनाओं का बहिष्कार करो। वो जो कुर्सियों पर तानाशाह विराजमान हो गए हैं, उनको उनसे उतारने के कोई और रस्ते ढूँढो। वो जो कोई भी पार्टी, ऐसे या वैसे धंधे में शामिल है, उनसे भी मुक्ति के रस्ते तलाशो।   

मुझे जबसे ये बेहुदा धंधा समझ आया है, मैंने तो वोट डालने जाना ही छोड़ दिया। ऐसे बेहुदा धंधों और ऐसे बेहुदा धंधों के माध्यम से, अपने प्रतिनिधि चुनने का वक़्त मेरे पास तो नहीं है। आपके पास है, इतने घटिया धंधे का हिस्सा होने का वक़्त? और फिर ऐसे चुने गए प्रतिनिधियों को झेलने का वक़्त? ऐसे चुनकर आए प्रतिनिधि क्या करेंगे? सिर्फ और सिर्फ तमाशे। ऐसे चुनावों ने पुरे समाज को तमाशाघर बना दिया है। एक ऐसा तमाशा समाज, जो बच्चों को बक्श रहा है ना बुजर्गों को।            

आपका सिस्टम क्या है? और कैसा है? (Social Tales of Social Engineering 41)

आप कहाँ रहते हैं? और कैसे लोगों के बीच रहते हैं? 

कितना फर्क पड़ता है इससे? सारा फर्क इसी से पड़ता है। 

अगर आप ठाली लोगों के बीच हैं, जिनके पास करने-धरने को कुछ नहीं है। इतना तक नहीं की वो अपना काम ही खुद कर सकें या घर में ही कोई सहायता करते हों। तो मान के चलो, की आप बहुत ख़तरनाक लोगों के बीच हैं। ऐसे लोग खुद तो Use और Abuse होते ही हैं। अपने आसपास वालों को भी करते हैं, या करवाते हैं। इतने ठाली वाले लोगों का, भद्दी और बेहुदा राजनीतिक पार्टियाँ, बड़ी ही आसानी से दुष्प्रयोग करती हैं। 

मान लो, किसी घर या घरों को ख़त्म करना हो। उसमें ऐसे लोग, बड़ी अहम भुमिका निभाते हैं। वो भी ज़्यादातर युवा। पढ़े-लिखे शातीर और उसपे किसी भी तरह की खुंदक रखने वाले लोग, ऐसे लोगों को अपने कब्ज़े में कर लेते हैं। वो भी ज्यादातर दूर बैठे, कुछ सुरंगों के माध्यम से। अगर आप पढ़े-लिखे हैं, तो लोगों को आगे बढ़ाने का भी काम कर सकते हैं। मगर, भद्दी और बेहुदा राजनीती में ऐसा नहीं होता। वो जो उन्हें आगे बढ़ाने की बात करें, उन्हीं से दूर कर देते हैं। यही नहीं, ऐसे लोगों को उल्टे-सीधे कामों में भी प्रयोग करते हैं। और ज़्यादातर घरों में बेवज़ह के लड़ाई-झगड़े की वजह भी यही होते हैं। ज़्यादातर घरों को आर्थिक रुप से कमज़ोर रखने की वजह भी यही लोग होते हैं। मतलब, ये वो भद्दी और बेहुदा राजनीती है, जो समाज को आगे बढ़ाने का नहीं, बल्की पीछे धकेलने का काम करती है।       

Tuesday, April 9, 2024

संदेशवाहक, गुप्तचर, गुप्तदूत? (Social Tales of Social Engineering 40)

Diversity of Messaging 

संदेशवाहक, गुप्तचर, भेदिया, विभिषण, गुप्तदूत, गुप्तचर? और भी कितने ही नाम हो सकते हैं ना? वो जो सब्ज़ी देने आते हैं। वो जो गुड़-शक्कर बेचने आते हैं। वो जो कटड़ा, भैंस बेच लो वाले आते हैं। वो जो बैडशीट बेचने आते हैं? वो जो शर्फ़ बेचने आते हैं? वो जो रद्दी लेने आते हैं। वो जो सूट बेचने आते हैं। वो जो झाड़ू, वाइपर बेचने आते हैं। वो जो चुन्नी बेचने आते हैं। वो जो शाल बेचने आते हैं। वो जो टीशर्ट, पायजामा बेचने आते हैं। 

उसपे वो जो मंदिर में सुबह-शाम भजन सुनाते हैं। या कोई खास मैसेज बताते हैं। वो जो ट्रैक्टर-ट्राली, गाड़ी, झोटा-बग्गी या कोई और व्हीकल्स आते हैं। वो जो पेड़-पौधे बेचने आते हैं। वो जो किसी के घर या दुकान के बनाने का सामान लेकर ईधर या उधर जा रहे होते हैं। वो जो साफ़-सफाई वाले आते हैं। या कब-कब आना बंद हो जाते हैं। वो जो फलाना-फलाना जाती से कुछ बुजुर्ग महिलाएँ, जो अब काम-धाम करने की हालत में नहीं हैं, सिर्फ़ खाना या कपड़े वगरैह के लिए कभी-कभार आते हैं। वो जो चप्पल-जूते बेचने वाले या ठीक करने वाले आते हैं। वो जो कुकर, गैस चूल्हा ठीक करने वाले आते हैं। 

वो जो, और भी कितनी ही तरह के पशु-पक्षी, कीट-पतंग, कीड़े-मकोड़े, सबके सब जैसे, संदेशवाहक कोई। आप जहाँ रहते हैं, उस सिस्टम की गवाही के। गुप्तचर या कोढ़ कोई, ठीक आपके सामने होते हैं। कुछ ऐसा बता रहे होते हैं, जिनका अर्थ या अनर्थ उन्हें खुद नहीं पता होता। 

ये आपके आसपास के जीवन के बारे में और उनसे जुड़ी बिमारियों या रिश्तों की दरारों या कड़वाहटों, उनसे उपजे उत्पादों, कारकों के बारे में कितना कुछ बता रहे होते हैं? उनकी उत्पत्ति या प्रकिर्या के बारे में? और शायद उनके समाधानों के बारे में भी? कौन-सा जहाँ है ये? मुझे ये सब किसने और कैसे बताया? दुनियाँ के हर कोने में है, ये जहाँ। एक दुनियाँ के स्तर की बड़ी-सी लैब। जिसे जितने चाहो, उतने छोटे या बड़े स्तर पे अध्ययन के दायरे में रख सकते हैं। इससे भी मज़ेदार बात, ये लैब किसी भी विषय के लिए बंद नहीं है। जो चाहे, जिस विषय से चाहे या जिन विषयों की चाहे मिश्रित खिचड़ी (Interdeciplinery) पका सकता है। और अध्ययन कर सकता है। आप आर्ट्स से हैं तो आपको अपने लायक बहुत कुछ मिल जायेगा। विज्ञान से हैं तो भी। और अर्थशास्त्र से हैं तो भी। मर्जी आपकी की कैसे और क्या जानना चाह रहे हैं।                          

OSLO UiO 

सोफ़े के कवर लो 

गद्दे के कवर लो 

मेज के कवर लो 

मुझे बालकनी में देख ठहर गई वो। मेरी तरफ देखा, सोफ़े के कवर ले लो। 

कहाँ से हो?

सुनारियाँ चौक से 

अरे आप कहाँ से आए हो? 

रोहतक, सुनारिया चौक 

अच्छा रहते हो वहाँ? 

हाँ! झोपड़ी है। 

वहाँ कहाँ से आए हो?

UP 

सोफे के कवर ले लो 

अरे मैं तो मेहमान हूँ यहाँ। ऐसे ही पूछ रही थी। 

माँ आसपास होती तो सुनाती। पागल हो गई शुरू। किसी भी, कुछ भी बेचने वाले को रुकवाकर, पूछने लग जाती है। क्या मतलब हुआ, खामखाँ में? और फिर कोई भी कहानी घड़ देगी उसकी।   

जैसे हरी-भरी टोकरी और गई भैंस पानी में? या  "Don't Cross, Police Zone GAI Inspection"?

मतलब कुछ भी :)    

राजनीती और विज्ञान को अलग-अलग समझना क्यों जरुरी है? (Social Tales of Social Engineering 39)

जब अरविंद केजरीवाल जेल जा रहा होता है, तो भी कुछ खास संदेश दे रहा होता है। सिर्फ हाव-भाव से ही। मंच तो फिर, सब नेताओं का है ही, युद्धरण जैसे। 

 अभी दो-एक दिन पहले एक एंडी बड़बड़ावे था किम्मै?

वो के कहया करें?

भाई कस्सी ठाली? 

किसे न ते कही ए, अर हामने ठाली? मतलब कती अ ते ठाली?

 


बड़बड़ाने वाले को कोई दिखाना ये पोस्ट, की कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे, क्या कुछ, उसी वक़्त जाता है। जब हमें पता ना हो की क्या, कैसे और क्यों हो रहा है? और सामने वाले सुनना भी ना चाहें? तो इसे किस बीमारी के लक्षण कहते हैं? अनपढ़? गँवार? ना पढ़ेंगे और ना पढ़ने या पढ़ाने देंगे?

यहाँ ज़्यादातर लोगों तक ना इन इस ब्लॉग की पहुँच और ना ही किताबों की? ऐसा क्यों? बस इधर-उधर से उन तक जो पहुँचाया जाता है, जिस किसी फॉर्म में उतना ही जाता है। ये मीडिया घपला है? ब्लॉकेज घपला है ? या उससे भी आगे कुछ? जानते हैं आने वाली पोस्ट्स में।      

राजनीती को मतलब होना चाहिए की (Social Tales of Social Engineering 38)

अगर आप कहें की मेरी ज़िंदगी में सब सही है या मेरे घर में सब सही है और मेरा आसपास कैसा है या किस हाल में है, इससे मुझे फ़र्क नहीं पड़ता। तो आप भुलावे में हैं। ये कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे आपके पड़ोस में आग लगी हो, और आप कहें, की फ़र्क नहीं पड़ता। 

इंसान एक सामाजिक प्राणी है। जिसे ज़िंदगी को सही से चलाने के लिए, किसी न किसी रुप में, अपने आसपास पर आश्रित होना पड़ता है। इसीलिए, उस आसपास को सही रखने के लिए, शायद वो कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रुप में, समाज के ताने-बाने का हिस्सा बनता है। और अपने आसपास को भी सही रखने की कोशिश करता है। वो चाहे फिर हवा, पानी या साफ़-सफाई ही क्यों ना हो। ज्यादातर समाज इसीलिए, अपने आसपास के जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, हवा और पानी तक को शुद्ध रखने का ख्याल रखते हैं। क्यूँकि, किसी ना किसी रुप में, वो भी आपके सिस्टम, पर्यावरण का अहम हिस्सा हैं। और आपकी ज़िंदगी और स्वास्थ्य तक को प्रभावित करते हैं। जहाँ हवा और पानी शुद्ध है। खाने पीने के स्त्रोत शुद्ध हैं। लोग पढ़े-लिखे हैं। गरीब और अमीर में ज्यादा विभिन्नता नहीं है। वहाँ लोगों की ज़िंदगियाँ आरामदेह हैं। वहाँ ज्यादा खुँखार और भद्दे झगड़े नहीं होते। कम से कम ऐसे नहीं होते, की ज़िंदगीयां ही खा जाएँ। इसलिए, वहाँ लोग भी ज्यादातर खुशहाल मिलेंगे और उम्र ज्यादातर लम्बी। राजनीती का मतलब, सिस्टम को इस संतुलन की तरफ लेकर जाने का होना चाहिए। ना की खामखाँ के, उकसावों और बढावों को हवा देने की तरफ।      

राजनीती को मतलब होना चाहिए, की आपके घरों, गली, मौहल्लों में :

पीने के पानी और रोजमर्रा के प्रयोग के लिए साफ़ और मीठा पानी रोज आता है की नहीं?

पानी निकासी और गंदे पानी या कूड़े-कचरे का सही बंदोबस्त है की नहीं?

हर बच्चा जो आपके मौहल्ले में है, उसे अच्छी शिक्षा उपलब्ध है की नहीं? 

सरकारी स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी, वक़्त के साथ कदम-ताल मिला पाने में सक्षम हैं की नहीं?  

आपका खाना-पीना या वायु शुद्ध है की नहीं? कहीं वो जहरों के सब सेफ मापदंड पार तो नहीं कर चुका? और आप अपने थोड़े-थोड़े फायदे या स्वार्थ के लिए, उसका हिस्सा हो चुके? उसी को खा, पी रहे हैं? और उसी हवा में साँस ले रहे हैं? उसके लिए वहाँ की राजनीतीक पार्टियाँ क्या कर रही हैं? 

आपके यहाँ पर्यावरण असंतुलित है। उसे संतुलित रखने के लिए पर्यावरण से कदम-ताल मिलाने की बजाय, उसको और ज्यादा एक्सट्रीम की तरफ धकेल रहे हैं? उसके लिए वहाँ की राजनीतीक पार्टियाँ क्या कर रही हैं? 

आपके यहाँ हरियाली ख़त्म हो रही है? जोहड़, तालाब ख़त्म हो रहे हैं? कहीं पानी का भराव होता है, तो कहीं जहर पानी में बढ़ गया है। मतलब, कहीं पे ज़मीन से हद ये ज़्यादा पानी का दोहन और कहीं हद से ज्यादा ठहराव पानी का? जहाँ हद से ज़्यादा दोहन हो रहा है, उसे वापस कुछ नहीं दिया जा रहा, जहर के सिवा? और कहीं इतना ज्यादा इक्क्ट्ठा हो जाता है, की निकासी का ही बन्दोबस्त नहीं है? जहाँ मीठा पानी है, वहाँ की ज़मीन को जैसे-तैसे so-called बड़े लोग हड़पने में लगे हैं? ख़ासकर, गरीबों की ज़मीन? इस सबके लिए, वहाँ की राजनीतीक पार्टियाँ क्या कर रही हैं?    

वो राजनीतिक पार्टियाँ आपके मानस-पटल के शांत, स्वच्छ, सभ्य, मेलमिलाप वाले, करुणामयी या तर्कशील जैसे तारों को तहस-नहष कर, बेवज़ह के भडकावों और उकसावों को, अपनी-अपनी तरह के ठप्पों का दुष्पयोग कर ख़त्म कर रही हैं। इसमें आज की टेक्नोलॉजी का और बड़ी-बड़ी कंपनियों का बहुत बड़ा योगदान है। इसलिए, राजनीती और ज्ञान-विज्ञान को अलग-अलग समझना बहुत जरुरी है। 

इसलिए, अपनी राजनीतिक पार्टियों से प्रश्न करो, मुद्दों पर। ना की अंधभक्त बन उनके साथ हो लो, उकसावों और भड़कावों पर।      

और भी ऐसे-ऐसे कितने ही मुद्दे हो सकते हैं या हैं।       

Monday, April 8, 2024

बीमारी एक प्रकिर्या है (Social Tales of Social Engineering-37)

Disease is a Process. 

नया क्या है इसमें? ये तो सबको पता है? या शायद नहीं भी पता?

और क्या हो जब वो बीमारी Autoimmune Disorder हो ? 

एक ऐसा डिसऑर्डर, जिसमें शरीर का रक्षा विभाग, अपने ही शरीर की स्वस्थ सैल (cells) को खाने का काम करने लगता है।   

जिन्हें नहीं पता उनके लिए, शरीर का भी अपना रक्षा विभाग होता है। ऐसा रक्षा विभाग, जो आज भी संसार की किसी भी डिफ़ेंस या मिलिट्री फ़ोर्स से ज्यादा ताकतवर है। जिसके बहुत से अज्ञात रहस्य, सुक्ष्म (Molecular) स्तर पर आज तक पता नहीं है की वो कैसे काम करते हैं। और कैसे डिसऑर्डर में बदल जाते हैं? इसलिए, बहुत से बिमारियों के आज तक स्थाई समाधान नहीं है। जिन्हें आज तक या तो कुछ सालों टाला जा सकता है या कहो की ज़िंदगी को थोड़ा और बढ़ाया जा सकता है, कुछ तरीके अपनाके। बहुत से केसों में, एक स्तर पे ही रोका जा सकता है। और बहुत से केसों में वापसी भी संभव है।    

आपको पता चले की आपकी नौकरी का वातावरण एक Autoimmune Disorder में बदल चुका है। तो या तो आप उससे लड़ने की कोशिश करेंगे या उससे बाहर निकलने की। शुरू-शुरू में मैंने लड़ने की कोशिश की। मगर जब लगा की यहाँ लड़ाई का स्तर कुछ ज्यादा ही ख़तरनाक हो रहा है, तो उससे कुछ वक़्त बाहर रहकर देखने की कोशिश की। क्यूँकि, अगर आप स्वस्थ ही नहीं रहोगे तो क्या तो लड़ोगे और क्या ही करोगे? ऐसे माहौल में ख़त्म ही हो जाओगे। 

मगर उस बाहर रहकर देखने ने इतना कुछ दिखा दिया की लगा, ऐसी प्रकिर्या को ख़त्म करने की ज़रूरत है या उससे जैसे भी हो सके, बाहर निकलने की। क्युंकि, मुझे जो समझाया गया या समझ आया वो ये, की ये राजनीतिक सिस्टम की प्रकिर्या है, जिसको जैसे आप चाहते हैं, वैसे ख़त्म नहीं कर सकते हैं। वो किसी एक के वश में नहीं है। चाहे फिर वो इंसान हो या पार्टी। हाँ, शायद उससे दूर हो सकते हैं। उस नौकरी से और उस जगह के सिस्टम से दूर होकर या रहकर। 

भाभी का हादसा और उस दौरान या उसके बाद जो कुछ हुआ, वो शरीर के Autoimmune Disorders का तो पता नहीं, पर किसी भी जगह के राजनीतिक सिस्टम के ऑटोइम्म्युन डिसऑर्डर  को जरुर उधेड़ रहा था। किसी भी जगह, घर, अड़ोस-पड़ोस, मौहल्ला या समाज में जब लोग आपस में ही एक दूसरे को खाने लगें, तो उसे समाज का Autoimmune Disorder कह सकते हैं। 

Social Autoimmune Disorder? 

मुझे लगता है की Social Autoimmune Disorder को समझ कर,  ऐसी बिमारियों से लोगों को सचेत जरुर किया जा सकता है। अगर सही से Molecular Autoimmune Disorder को जीव-विज्ञान की भाषा में परिभाषित नहीं भी किया जा सके, तो भी शायद से बचाया जा सकता है। और काफ़ी हद तक वापस स्वास्थ्य की तरफ मोड़ा जा सकता है। उसे समझने से पहले, कुछ बच्चों, बड़ों या बुजर्गों के खेलों पर गौर फ़रमाते हैं। ख़ासकर, जहाँ मैं पिछले तक़रीबन 2-साल से रह रही हूँ, वहाँ के ड्रामों को या खेलों को। 

क्या ये खेल या रोज-रोज के ड्रामे, लोगों की बिमारियों को भी परिभाषित कर सकते हैं?  

उनके कारणों और निवारणों को भी बता सकते हैं? 

शायद हाँ? शायद ना? मुझे लगता है, हाँ। खासकर, अगर आपको थोड़ी-बहुत इकोलॉजी या एनवायरनमेंट की भी समझ है तो। तो जानने में क्या जाता है? आते हैं आगे ऐसी कुछ पोस्ट पे। 

Wednesday, April 3, 2024

शिक्षा का भविष्य? या भविष्य की शिक्षा?

शिक्षा का भविष्य? Future Education?

या भविष्य की शिक्षा?

कोरोना काल में अगर कुछ अच्छा रहा तो वो था भविष्य की शिक्षा से भारत जैसे देशों का जुड़ना। ऑनलाइन पढ़ाई और उसके बाद मिश्रित (Blended Mode Education) । सबसे पहले शिक्षा के रुप को मैंने शायद MIT के ओपन लर्निंग प्रोग्राम्स से जाना था। तब तक ये नहीं पता था की ये ओपन लर्निंग बहुत कुछ ऐसा भी बता रहा है जो आमजन के सामने होकर भी छुपा हुआ है। इसके पीछे छिपी टेक्नोलॉजी। और उस टेक्नोलॉजी का छुपा हुआ संसार, शिक्षा के संसार से बाहर भी, आम आदमी की ज़िंदगी में। ऐसा कैसे? अभी तक ये सब ज्यादातर पढ़ने पढ़ाने वालों को ही मालुम नहीं था। तो आम आदमी को कैसे मालुम होगा? और इसका सीधा सीधा सम्बंध कैंपस क्राइम की किसी किताब से भी हो सकता है?

ये सब बताने के लिए बहुत सी फालतु या काम की इमेल्स में छुपे संदेश आते थे, जो उसकी तरफ इसरा करते थे। मगर उन संदेशों को समझने में काफी वक़्त लगा। 

ठीक ऐसे ही जैसे कोई कहे कैम्ब्रिज अनालिटीका और आप कहीं UK की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से कुछ समझने की कोशिश करें। मगर उसके असली राज शायद US के किसी कैम्ब्रिज में छुपे हों? इमेल्स से संबंधित कोई घपला था शायद US के किसी इलेक्शन में? मगर क्या?

ऐसे ही जैसे आप टेक्नोलॉजी और विडियो गेम्स को समझने की कोशिश करें और युरोप की कुछ यूनिवर्सिटी उसपे टेक्नोलॉजिकली बेहतर बता पाएँ। US में MIT तो शायद इस सब में महारत लिए हो। खेलों का भला शिक्षा से क्या सम्बन्ध? वो भी यूनिवर्सिटी के स्तर पे? ये खेल महज़ कोई रेस, क्रिकेट, हॉकी या कब्बड्डी जैसे खेल नहीं हैं। ये दिमागी खेल हैं। जो दुनियाँ भर के दिमागों को सिर्फ टैस्ट नहीं करते, बल्की ईधर और उधर की टीमें एक-दूसरे को ओवरपॉवर करने की कोशिश करते हैं। ये सब आप किसी भी यूनिवर्सिटी के एक या दो प्रॉजेक्ट से नहीं समझ सकते, बल्की उस यूनिवर्सिटी में कौन-कौन से विषयों पे ख़ास फ़ोकस है। कौन-कौन से विषयों को सबसे ज्यादा पैसा मिलता है या खर्च होता है। वो वहाँ के सिस्टम को बताता है। वहाँ के समाज की दिशा और दशा वही निर्धारित करते हैं। यही नहीं, बल्की छुपे हुए तरीके से ये विकसित देशों का जहाँ विकासशील और पिछड़े देशों की दशा और दिशा भी निर्धारित करता है। कुछ इन्हें बोर्ड गेम्स बोलते हैं तो कुछ राजे-महाराजों के नए दौर के शौक या जुआ।        

इसे आप अपने स्तर पर भी समझ सकते हैं, फिर चाहे आप दुनियाँ के किसी भी हिस्से में क्यों ना हों। समाज के ऊप्पर वाले हिस्से या तबक्कों में जो हो रहा है, उसी की हूबहू कॉपियाँ वहाँ का लोकल सिस्टम बनाने की कोशिश करता है। चाहे फिर उससे समाज के उस हिस्से को कितना भी नुकसान क्यों ना हो। समाज में जितनी ज्यादा शिक्षा की दरारें हैं या गैप है, उतना ही ज्यादा दूसरी तरह की असमानताएँ भी। इन्हीं असमानताओं की वज़ह से समाज का जो हिस्सा जितना ज्यादा पिछड़ा है, उसके दुष्परिणाम भी वो सबसे ज़्यादा भुगतता है। अगर किसी समाज को आगे बढ़ाना है तो शिक्षा पे ध्यान देना होगा। उसका स्तर जितना ज्यादा बढ़ेगा, वहाँ का समाज भी उसी हिसाब से आगे बढ़ेगा। मगर ये शिक्षा महज डिग्रीयों तक या जैसे तैसे टॉप करने की रेस मात्र ना रह जाय।   

Friday, March 29, 2024

उनका जहाँ और इनका जहाँ

खुद के लिए हम 

जीव-निर्जीव सब 

हमारे प्रयोग के लिए? 

उनसे पूछे बगैर 

उन्हें बताए बिना 

दुषपरिणाम उनके। 


उनके लिए हम ,

जीव-निर्जीव हमारे सब 

उनके प्रयोग के लिए? 

और हमें पता तक नहीं 

वो कर रहे ये सब 

कैसे? क्यों? और किसलिए?


बचा जा सकता है, इस सबसे 

कुछ एक प्रश्न करके 

मगर सारा दोष शायद यही है 

इनके जहाँ में प्रश्न करना ही 

जैसे कोई गुनाह है। 


बड़ों से तो बिलकुल ही नहीं 

और उन बड़ों के मायने भी 

बड़े ही अजीबोगरीब हैं। 

 शोषक, वो अजीबोगरीब बड़े हैं 

और शोषित हमेशा ही छोटे? 


ठीक ऐसे जैसे 

घर के बड़े 

अड़ोस-पड़ोस के बड़े 

मौहल्ले, समाज के बड़े?

लड़के इन तबकों में 

पैदा होते ही बड़े हो जाते हैं। 


या शायद सही शब्द 

ज्यादातर ठेकेदार लोग, 

जिम्मेदार नहीं।  

क्यूँकि जिम्मेदार लोग, बड़े होके भी 

महज़ ठेकेदार नहीं रहते। 

जिम्मेदारियों के भार उठाए होते हैं। 

Tuesday, March 26, 2024

EC से पास हुआ Resignation Letter Response, जून 2021 (Social Tales of Social Engineering 36)

आगे भी है, काफी कुछ है शायद  




जिसका कुछ हिस्सा कैंपस क्राइम सीरीज़ में पब्लिश हो चुका। और उसके पब्लिश होने के बाद भी काफ़ी कुछ हो चुका। या यूँ कहो Social Tales of Social Engineering का ABCD से लेकर, सामाजिक सामान्तर घड़ाईयोँ वाला हिस्सा उसके बाद ही समझ आया है। और ये भी, की किसी भी बीमारी या मौत में वक़्त या बेवक़्त इस social media culture की क्या भुमिका रहती है। 

EC से पास हुआ Resignation Letter Response, जून 2021 (Social Tales of Social Engineering 35)

  एक है कैंपस क्राइम सीरीज, जो खुँखार परिणामों की वजह से बीच में ही रोकनी पड़ी। 

और एक है, ये EC से पास हुआ Resignation Letter Response जून 2021 का 


इसमें resignation acceptance भी है और liberty to join back भी

कुछ terms और conditions के साथ। 

मुझे लगा नहीं उस वक़्त मुझे वापस join करना चाहिए, खासकर, जिन हालातों में दोबारा resign किया था। मेरा ईरादा डाक्यूमेंट्स पब्लिश करने का था। इसीलिए हालातों के मध्यनजर मैंने छुट्टी के लिए लिखा, जो जिस किसी वजह से accpet नहीं हुई। या शायद मैं फिर से उस साइको को नहीं देखना चाहती थी। उसपे जिन लोगों की वजह से छोड़ा था, फिर से उन्हीं के बीच जाना खटक भी रहा था। ये ऐसा था, जैसे अलग-अलग पार्टियों के बीच पिसना।     


इतना नालायक़ होते हुए यूनिवर्सिटी ने इतनी सहानुभुति दिखाई, शुक्रिया करना चाहिए उसके लिए मुझे यूनिवर्सिटी का?
एक खास बात जो इसमें नोट करने लायक है, वो ये की ये सब समस्याएँ मेरे 2017 के Resignation देने के बाद, बुलाकर फिर से joining करवाने के बाद ही शुरू क्यों हुई? ऐसा कैसे हो सकता है की उससे पहले उस फैकल्टी के खिलाफ ऐसी कोई शिकायत तक ना रही हो? शिकायतों पे कोई committees बैठाना तो दूर की बात?
या इस letter में ये सब कोढ़ है? कौन से ख़ास exams या duties होंगी, जिन्हें उसने करने से मना कर दिया? और उसे Mental Hospital का रस्ता दिखा दिया? 

उससे कुछ साल पहले, शायद वो  इंस्टिट्यूट के परीक्षा केंद्र की डिप्टी सुपरिटेंडेंट और सुपरिटेंडेंट तक की ड्यूटी को बखुबी निभा चुकी। और भी ऐसी-ऐसी कई ड्यूटी, डिपार्टमेंटल रिकॉर्ड में होंगी शायद? और वो इंस्टिट्यूट कोई 100, 200 या 400, 500 स्टूडेंट्स का इंस्टिट्यूट नहीं है। बल्की, यूनिवर्सिटी का सबसे बड़ा इंस्टिट्यूट। 2000 के आसपास स्टूडेंट्स। यूनिवर्सिटी का कमाऊ पूत या पुत्री? पता नहीं। 
      
ये Mental Hospital का सर्टिफ़िकेट, शायद मेरे वकील ने भी कहीं जमा करवाया था? कौन-सा केस था वो? या थे? 2 केस शायद? मुझे पता ही नहीं होता, की इन केसों में कोर्ट्स में चलता क्या है। जितना समझ आया, वो ये की सिर्फ ज़िंदगियाँ तबाह होती हैं। फैसले पार्टियों के अधीन या सहमति पे अटके होते हैं। सहमती ना हो, तो Political Paralysis होते हैं। कभी ईधर, तो कभी उधर वालों को। होते हैं या किए जाते हैं, अहम है। बिमारियों के ऐसे-ऐसे राजों को जानकार, जो पागल ना हो, वो हो जाए शायद। और इन राजों को हम (Academicians?) जनता से छुपाना चाहते हैं? बिमारियों का सीधा-सा नाता, जहाँ आप रह रहे हैं, वहाँ के सिस्टम से है और पार्टियों की खिंचतान से। 

यूनिवर्सिटी लिखित में बोले की सहानुभूतिवश और फलां-फलां परिस्तिथियों के मध्यनजर ऐसा हो रहा है। तो कम से कम, उसका पैसा तो रिलीज़ कर देना चाहिए। और वो पैसा भी उसने तब माँगा, जब उसे चारों तरफ से एकॉनॉमिकली ब्लॉक कर दिया गया। और लगा की कहीं इमरजेंसी है। शायद कुछ बिमारियों या अनचाहे बेवक्त हादसों से बचने के लिए जरुरी है। और बच्ची को किसी अनचाहे माहौल से बचाने के लिए भी। नहीं तो शायद, उस थोड़े से पैसे की जरुरत भी नहीं थी, इतनी कॉंफिडेंट थी वो। राजनीतिक पार्टियाँ, डिज़ाइनर परिस्तिथियाँ घड़ने का काम करती हैं। और तो क्या कहा जा सकता है?

सुना है, एक सस्पेंडेड फैक्ल्टी तक को कोई मंथली अलाउंस मिलता है। फिर यहाँ तो resignation है, जैसा भी है। और उसपे एक्सेप्टेन्स भी, जिसे 3 साल हो गए। और कितना इंतज़ार करे कोई, वो भी अपने ही पैसे के लिए? 

Designer World? बुटीक-से मनचाहे डिज़ाइन? (Social Tales of Social Engineering 34)

विवाद खड़े करना, जहाँ कोई विवाद बनता ही ना हो?  Conflict Creations where none exists?

Designer World? बुटीक-से मनचाहे डिज़ाइन? इस पार्टी के और उस पार्टी के और उन सबके बीच अपनी-अपनी छोटी-मोटी सी जरुरतों में पिसते आम लोग?   

डिज़ाइनर संसार या टेक्नोलॉजी के संसार की मार? टेक्नॉलजी जिसे अच्छे के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है और बुरे के लिए भी। लोगों की ज़िंदगियों को आसान भी बनाया जा सकता है और दुर्भर भी।  

आओ कुछ ऑनलाइन नमुने दिखाती हुँ :

"तेरा वो हाल करेंगे की तुम घर के रहो ना घाट के?" 

"तु मर चुकी। तेरा सब दान हो चुका।" 

"तीन महीने की तनख़्वा देके निकालेंगे।"

ऐसे ही और कितने ही Direct-Indirect कमैंट्स और धमकियाँ, सबके सब ऑनलाइन। 

उसके बाद घर के और आसपास? खीँचतान, ईधर, उधर और किधर और किधर? ऑनलाइन संसार पे भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है और ऑफलाइन पे भी। तो जानते हैं इन दोनों संसारों को एक-एक करके।   

मैं जानवर और तुम इंसान? (Social Tales of Social Engineering 33)

मैं जानवर और तुम इंसान?  

मैं 2022 में जब यूनिवर्सिटी से सामान उठा के घर आई और यहीं रहने लगी, तो इंसानों ने ही नहीं बल्की पशु-पक्षी और कीट, पौधो ने भी काफी ध्यान खींचा अपनी तरफ। जो जैसे चीख-चीख के कह रहे हों, इंसान ही नहीं, हम भी भुगतभोगी हैं इस सिस्टम के। वो अलग बात है, वो शायद इंसानो की तरह नहीं चीख-चिला पाते।  

ये सब ज्यादा नज़र आने लगा, जब मैंने कार चलाना ही छोड़ दी। शुरू-शुरू में किसी हादसे के डर से और बाद में? दूसरा यहाँ पे नई लेने का ना ये वक़्त था और ना उस हिसाब का जुगाड़। जब पदैल चलना शुरू किया तो पता चला की कार की सवारी ने कितना काट दिया था, आसपास से। और शायद मुफ़्त के स्वास्थ्य लाभ से भी। गाँवों में ज्यादा शायद? और ये कार पे ही नहीं, बल्की हर तरह के व्हीकल पे लागु होता है। दो कदम चलने के लिए भी हम इनके आदि हो जाते हैं। पैदल चलने के दौरान आसपास के लोगों से भी जैसे बोलचाल ही बंद हो जाती है। चाहे वो सिर्फ नमस्ते, या आप कैसे हैं? घर पर सब कैसे हैं और बाय तक ही सिमित क्यों ना हो। और भी काफी कुछ जो आसपास घटता है, उससे तक़रीबन अनभिग हो जाते हैं। उसमें आसपास का हर जीव और निर्जीव शामिल है। 

निर्जीवों की बात फिर कभी। अभी चुपचाप, इस निर्दयी सिस्टम की मार सहते जीवों की बात करें?

गायों की करें या भैंसों की?

कुत्तों की करें या बिल्लिओं की?

चिडियांओं की करें या कबूतरों की?

नीलकंठ की या मैना, तोता की?

मोर की, या काबर या कोतरी की?

कौवों की या चीलों की? 

बत्तखों की या बटेर की?

चुहोँ की या सुनसनीयों की?

मख्खियोँ की या मच्छरों की?

भिरड़ों की या भुन्डों की?

मकड़ियों की या कॉक्रोचों की?

चमगादड़ों की या सुर्यपक्षीयों की? 

टिड्डियों की या तितलियों की? 

चींटियों की या कीड़े-मकोड़ों की?

मेंढ़कों की या मच्छलियों की?

साँपों की या कानखजुरों की?

या शायद पेड़-पौधों की ही?

ये सब और इन जैसे कितने ही जीव, जो किसी ना किसी रुप में आपके आसपास हैं, आपके आसपास के सिस्टम का हिस्सा है। वो कब आ रहे हैं? कब जा रहे हैं? कितनी संख्यां में हैं? किस हाल में हैं? आपको कैसे फायदा या नुकसान कर रहे हैं? आपसे कोई बीमार ले रहे हैं या दे रहे हैं? इससे आगे भी बहुत कुछ बता रहे हैं। वहाँ के खानपान के बारे में और उसमें छिपे ज़हर या बिमारियों के बारे में। उनके जुबान है या नहीं है? या शायद उनकी जुबान आपको समझ ही नहीं आ रही? या आप समझना ही नहीं चाह रहे? अगर समझने लगोगे तो उनके लिए भी अच्छा होगा और आपके लिए भी। 

जानवर कौन, कौन इंसान? (Social Tales of Social Engineering 32)

23? (23-03-2024)   

से आगे क्या?

31? (31-03-2024)   

क्या बदल जाता है इस दौरान?


ऐसे लग रहा है, जैसे कुछ कह रहा है ये?
क्या भला?
मुझे कहते हो जानवर?
और खुद को इंसान?
मगर,
काम करते हो ऐसे, जैसे शैतान? 

फोटो को ऑनलाइन बैठे हैवानों ने थोड़ा Edit भी कर दिया है 
बिना पूछे और बिना बताए 
सहमती तो फिर दूर की बला है। 
थोड़ा कालिख़ पोत दिया है।    

कान काटकर, कालिख़ पोतना?  
कहावत सुनी-सुनी है ना कोई?
"ये तुम्हारे कान काट देंगे?"    
कान किसने काटा?
किसके कहने पर?
और AI Editing किसने की?
    

और भी शायद कुछ कर दिया है?
AI  प्रकोप?
(Artificial Intelligence)  


इसकी Ho -Li- तो नहीं मना दी?
Sound 
Camera 
Action?
जी हाँ। होली पे एक मासूम जानवर के साथ ऐसा व्यवहार?
वो भी गायों को पूजने वाले इलाके में?  

Monday, March 25, 2024

होलिका दहन 24-03-2024 (Social Tales of Social Engineering 31)

वही पिछले साल पहली बार देखा गया तमाशा। ट्रैक्टर पे रंग-बिरंगे पुते लड़के और ट्राली पे आग की लपटें और धुआँ-धुआँ। अंधभक्ति के तमासे और ज्यादातर कम पढ़े-लिखों की भीड़। पढ़े-लिखे जहाँ उसे स्मॉक्स्क्रीन (Smokescreen) का नाम देंगे। युरोप की कुछ खास यूनिवर्सिटीज के मीडिया कोर्सेज बेहतर समझा पाएँ शायद। 

तो कुछ के लिए? किसी घर की तबाही जैसे। ठीक वैसे जैसे, किसी बेवक़्त हुई मौत के दिन, कोई छोटा पूछता है, दीदी ये क्या हो रहा है?" और आप जैसे भड़ास खुद पे ही और अपने आसपास के हालातों पे निकाल रहे हों। "भेझे से पैदल लोगों के साथ इस संसार में ऐसा ही होता है। जिनके पास ना पैसा होता और ना दिमाग।" इससे आगे जो कुछ समझ आता है, वो उस दिन के बाद के हादसों के अनुभवों से। या यूँ कहो की रीती-रिवाज़ों, आस्थाओं और धर्मों के जरिए परोसे गए, पिरोए गए, कदम दर कदम बिछाए गए जालों से, घातों से और हादसों पे हादसों से। आम आदमी उन्हें वैसे देख या समझ ही नहीं पाता। किस्मत या किसी भगवान का दिया, प्रसाद समझ निगल जाता है। ठीक ऐसे जैसे, जहर को आँख बंद कर निगल जाना। परेशान वो शायद ज्यादा होते हैं, जो उन्हें करने और करवाने वालों को देख और समझ रहे होते हैं। हादसों पे जैसे मखोलियों के झुँड और मखोलों में जैसे हादसों को भद्दे से भद्दे रुपों में पेश कर, अपने कारनामों पे ठोकना मोहर। आप ये सब देख और जानकर, सिर्फ सोचते ही रह जायेंगे की ये कैसे इंसान हैं? क्या ये सच में इंसान हैं? या जानवरों के सांचों पे इंसानों के खोल मात्र? और ये कैसी सेनाएँ हैं? आम इंसान को कीड़े-मकोड़ों की तरह रौंदती हुई जैसे। किसके लिए और क्यों?

फाइलों के संसार में और इस संसार में यही फर्क है। वहाँ पढ़े-लिखे (?) और शातीर कढ़े हुए लोग, सिर्फ फाइल-फाइल खेलते हैं, ज़िंदगी भर। और यहाँ? उन फाइलों से निकले हुए स्क्रीप्ट्स, सिर्फ शब्द या कोई नाटक ना होकर, किसी फाइल का हिस्सा भर नहीं, बल्की लोगों की ज़िंदगियों से खेलते हैं। मालूम नहीं कैंपस क्राइम वालों को क्या खतरा है, की आज तक लोगबाग उन डॉक्युमेंट्स को छुपाने की जद्दो-जहद में हैं? वो, जो उन इंस्टीटूट्स की वेबसाइट पे आम जनता को उपलभ्द होने चाहिएँ। समाज में जो कुछ हो रहा है, वो उसका मामूली-सा नमुना भर हैं। उनसे कहीं ज्यादा भद्दे और खुँखार जुर्म तो इन इंस्टीटूट्स की किलाबंद-सी दिवारों के बाहर का समाज भुगत रहा है। जिससे ना कोई खास छिपाने की जद्दो-जहद है और ना ही कोई बचाने की। क्यूँकि पढ़े-लिखे (?) और कढ़े शातीरों को मालूम है, की इन्हें इतनी आसानी से समझ नहीं आना। इसीलिए शायद, समाज के इस तबके को, ये so-called संभ्रांत लोग, कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा समझते ही कहाँ हैं?                           

होलिका दहन का ये रुप, एक ऐसा ही छोटा-सा नमुना भर है। पहले देखते सुनते थे, की होलिका दहन श्याम को होता था। अब तो इसका खास वक़्त भी है शायद। कितने बजे, किस रुप-स्वरुप में, कहाँ से और किस गली से होकर गुजरेगा।   

रीती-रिवाज़ वहाँ के समाज की मानसिकता का आईना भी हैं। अब होली को ही समझने की कोशिश करो और पता चलेगा, लठमार होली का रिवाज़ कहाँ-कहाँ है, आज तक? और बेहुदा रंगों, गंदे पानी का चलन आज तक भी कहाँ-कहाँ बचा हुआ है? जहाँ एक तरफ, रंगों के नाम पे ग्रीस और कीचड़ तक से लथ-पथ प्रदर्शन देखें है। तो दूसरी तरफ, डंडे और रस्सी के कोलडों की मार झेलते लोग। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता था, जैसे, होली ना खेलकर, लोग साल भर की दबी-छुपी, अंदर की भड़ास निकाल रहे हों। यही नहीं, बल्की कुछ केसों में, इससे भी थोड़ा आगे चलकर, रंग लगाने के नाम पे बेहुदगी और धक्का-मुक्की तक। जहाँ किसी के हाथ टूटे मिलें, तो किसी के दाँत। कोई लहु-लुहान मिले तो कोई, कई-कई दिन तक कोलडों के निशान और दर्द लिए। अच्छा है, वो सब आजकल तकरीबन यहाँ तो खत्म-सा है। मगर अभी जो राजनीती का घिनौना प्रदर्शन ट्रैक्टर-ट्राली के नाम पे होने लगा है, वो भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, जैसे एक दूसरे के खिलाफ कोई दबी-छुपी सी ख़ीज निकालना। खीज़? वो भी रीती-रिवाज़ों के नाम पे? धर्म आस्थाओँ के नाम पे?  

पता है, थापे दिवार पे कब लगते हैं और पेपर पे कब? थापे में वायरस भी छुपकर बैठा होता है? और घी और मेहँदी के थापे में अलग-अलग तरह की मोहर भी होती है? मेहँदी पे बुलेट (गणेश) भी छिपा हो सकता है? और घी पे वायरस? और भी कितना कुछ, एक छोटा-सा थापे का रिवाज़ बता सकता है? रीती-रिवाज़ों के कोढों पे एक नहीं, बल्की कितनी ही किताबें लिखी जा सकती हैं। और इन कोढों में छुपा ज्ञान-विज्ञान, आम आदमी को कैसे-कैसे ढालने के काम आता है, इन सेनाओं के? और राजनीतिक पार्टियों के? सामने होकर भी, आपकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा होकर भी, छुपा हुआ ये रहस्य्मयी संसार। कौन चला रहा है इसे? भगवान? चलो, भगवान ही नाम दे देते हैं, इन रहस्य्मय शैतानों को। मगर कहाँ कौन-सा या कहना चाहिए की कौन-से वाले भगवानों की पार्टियाँ या कम्पनियाँ (फ़ैक्टरियाँ) काम पे लगी हैं, उन्हें भी जानो-पहचानों। हम धीरे-धीरे आपके बहुत आसपास से होकर, दूर, आपसे बहुत दूर बैठे, उन भगवानों या भगवानियों, देवों या देविओं से मिलाने या उनके हूबहू दर्शन करवाने चलेंगे। तो अगर आपको वो दर्शन चाहियें, तो साथ रहिएगा इस यात्रा पे। 

Saturday, March 23, 2024

क्या रास्ता है, तानाशाहों के जाल से मुक्ति का? (Social Tales of Social Engineering 30)

रंगो को मिलाओ ना ऐसे, 

की वो कालिख़ बन जाएँ। 

उन्हें सजाओ तुम ऐसे, 

की वो इंदरधनुष-से खिल जाएँ। 

कुछ दिन पहले कॉल आती है, किसी पब्लिकेशन हाउस से। उसके बाद एक ईमेल मिलती है। और दिमाग कहीं अटक जाता है, कॉन्ट्रैक्ट के नमुने पे। क्या है ये? पैसे के लिए, कितना गिरा जा सकता है? मुझे कुछ ऐसा ही समझ आया। बाकी हकीकत वही जानें। हो सकता है, कुछ पॉइंट्स मेरी समझ से बाहर हों। 

जब आप economically चारों तरफ से ब्लॉक हों, तो सीधी सी बात, पैसे तो चाहिएँ। इस संसार में पैसे के बैगर ज़िंदगी कहाँ चलती हैं? हाँ। रेंगती जरुर हैं। या कहीं-कहीं शायद चलती भी हैं? खैर। या यूँ कहिये की इकनॉमिक ब्लॉक अच्छा तरीका है, किसी को अपनी terms and conditions मनवाने का? 

थोड़ा और समझने के लिए, जहाँ कैंपस क्राइम सीरीज पब्लिश की हुई है, उसी जगह फिर जाओ। और उन केस स्टडीज़ को फ्री ज़ोन से मुक़्त करके देखो। अब इतने महान पब्लिकेशन कहाँ होते हैं, की आप हों भारत में और वो कहें, फलाना-धमकाना किताब हमने किसी शुक्र, शनि, चाँद, या मंगल ग्रह पे पब्लिश कर दी हैं? और फलाना-धमकाना वाली किताब आप पब्लिश नहीं कर सकते। क्यूँकि, वो शब्दों ही शब्दों में हमारी असलियत का नमुना दिखा रही है। हथियारों वालों को किताबों से डर? अरे भारत जैसे देश में तो वैसे ही किताबें पढ़ने वाले कितने हैं? और राजनीति के बाजार में तो वैसे भी, कुछ का कुछ होता है या बनता है।  

इन राजनीतिक पार्टियों की भाषा में ही बात करें, तो कुछ-कुछ ऐसे है, जैसे तम्बाकु, गुटका, पान जैसे धंधों के उत्पादन वाली पार्टियों की तुलना, हथियारों के उत्पादन के धंधों वाली पार्टियों से करना।    

Oh No! सिर्फ़ यही कह सकते हैं, आप? खासकर, इस दौरान जो घटनाक्रम चलते हैं उनपे। क्या हो रहा ये सब? या हो सकता है, मुझे ठीक से समझ नहीं आया हो? 

क्या रास्ता है, तानाशाहों के जाल से मुक्ति का?  

ऐसा भी नहीं की मुझे कोई राजनीतिक पार्टी खास पसंद है। मगर बीजेपी? ये तो आदमखोर हैं। और किसी भी हाल में आदमखोरों से मुक्ति चाहिए। थोड़ा सीधा-सीधा अगर कोई समझा पाए? और क्या रास्ता है इस "Economic Block Zone" से निकलने का, बेहुदा अवरोधों को या उनके परिणामों को झेले बग़ैर?

या शायद एक संसार ऐसा भी हो जहाँ पैसे के बिना भी ज़िंदगी ठीक ठाक चलती हों? 

Tuesday, March 5, 2024

Mind Programming for Social Engineering 29

बड़े बच्चों को करते देखा था, मना करने के बावजूद। जुबानी और लिखित में अवरोधों के बावजूद। उससे भी भद्दा कुछ छोटे बच्चों के साथ होता देख रही हूँ। इतने छोटे स्कूल के बच्चे की इनके compare में यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स को बच्चा नहीं कहा जा सकता। 

मुझे समझ नहीं आता था, जब माँ-बाप को एक दो नंबरों के लिए आपस में बहस करते देखती थी। चिढ़ मचती थी, खासकर, जब उन्हें इतने छोटे बच्चों को डाँटते या मारते-पिटते देखती थी। जब गाँव आई, तब शुरू-शुरू की बात थी। भाभी ज़िंदा थे उस वक़्त। आसपास में ये सब आम-सी बात जैसे।  

उनके जाने के बाद जो देखा, उससे चिढ़ नहीं होती थी, बल्की घिन मचती थी। क्यूँकि मैं अपनी classes में बड़े स्टूडेंट्स को वो सब, नहीं, उससे कहीं ज्यादा कुछ करते, कहते काफी वक़्त झेल चुकी थी। बहुत कुछ समझ आ रहा था, की गुड़िया के साथ क्या हो रहा था। जो साथ थे, वो उस सबसे अंजान थे। उनके हिसाब से कुछ गलत नहीं हो रहा था। सब सही चल रहा था। क्या था वो?

आप क्या पढोगे? कितने बजे पढोगे? या नहीं पढोगे? कब तक कहाँ खेलोगे या रहोगे। ये कहीं और के ही आदेशों का पालन हो रहा था। बिना उसके परिणाम जाने, गँवारपट्ठे  इधर से भी और उधर से भी लगे पड़े थे, बड़े लोगों के आदेशों का पालन करने। जबसे गुड़िया को पढ़ाना शुरू किया तो समझ आया, ये कौन-सी पढ़ाई है। और उसे उस स्कूल में ही क्यों भेजा गया? वैसे तो आसपास के हर बच्चे और स्कूल के साथ कुछ-कुछ ऐसा ही है। मगर यहाँ शायद थोड़ा ज्यादा हो रहा था। या शायद कोई उस सबको ध्यान से देख-समझ रहा था, इसलिए ज्यादा समझ आ रहा था।  इतने छोटे बच्चों की किताबों को पढ़ने का मौका भी बहुत सालों बाद था, खासकर लगातार इतने समय तक। हर अध्याय जैसे अपने आप कुछ गा रहा हो। उन किताबों के अंदर गलतियाँ या जबरदस्ती जैसे कुछ खास प्र्शन, अपने आप में किसी जबरदस्ती की तरफ इशारा जैसे कोई। खास तारीखों को खास तरह के प्रोग्राम। खास वाले डांस प्रधान हैं तो आईटी पढ़ाना ही नहीं। या सिर्फ ये वाला हिस्सा पढ़ाना है। मैथ में बच्चा ठीक-ठाक हो, तो भी भूत दिमाग में बिठा देना है। अपने आप भागने लगेगा दूर। नहीं भागे तो भगाओ। बहुत तरीके हैं उस सबके। कैसे? आओ जानते हैं, एक-एक करके की यहाँ बच्चों के और बड़ों के साथ क्या-क्या हो रहा है।                  

कुन्डलीमार लोगों के लिए (M?)

 2021, सुना Resignation accept हो चुका।     Post Written on 21-11-2023

मई 2023, घर भी खाली कर दिया। और लिखित में और फोन पे बताया भी जा चुका। 6 महीने बीत चुके, मगर बचत पे कुंडली, अभी भी कायम है। क्यों? कितना और वक्त लेंगे, जाहिल, आदमखोर लोग, किसी Employee की एक छोटी-सी बचत को भी देने में?   

सुना फिर से वही, भारद्वाज के यहाँ कहीं फाइल अटकी पड़ी है?  कुछ धंधे की "फलाना-धमकानाओं" को, अभी तक लग रहा है, की कोई धंधा करने आएगी, उनके लिए? सच में?  

   

 28-11-2023

आज बहुत वक़्त बाद फोन उठा भारद्वाज मैम का। वो भी ये बताने को, की अब फलाना-धमकाना सुपरिंटेंडेंट है, वहाँ। कुछ नया नहीं। वही घिसे-पिटे पुराने पैंतरे, फाइल्स को महीनों, सालों या लोगों की मौत तक अटकाए रखने के।  

4-12-2023

M ?

M हैं क्या आप? जैसे रोड़ा कोई? या खूंठा? महाबली तो नहीं कहते आप खुद को?  या 10 -15 % से भी थोड़ा आगे निकलके, 50 % या 100 % कमीशनखोर? वही घिसे-पिटे पुराने पैंतरे, फाइल्स को महीनों, सालों या लोगों की मौत तक अटकाए रखने के।   

19 से आगे क्या आता है? 29? 39? 49? 59 ? 69? 79? 89? 99? और कितने ही 9999999?


बचत पे कुंडली, अभी भी कायम है। क्यों? कितना और वक्त लेंगे, जाहिल, आदमखोर लोग, किसी Employee की एक छोटी-सी बचत को भी देने में?

04.03.2024

ऐसा भी नहीं है की सिर्फ मेरी बचत के साथ ऐसा हो रहा है। बाकी जो घर में बचे हैं उन्हें भी किसी ना किसी तरीके से ठिकाने लगाने का काम चल रहा है। उन्हें शायद अभी तक समझ नहीं आ रहा। मुझे दिख भी रहा है। सबकुछ घर में उन्हीं द्वारा (?) उन्हीं के खिलाफ रखा जा रहा है।  घर की हर चीज़, हर हलचल जैसे चीख-चीख के बोल रही हो, सबको खाने की तैयारी चारों तरफ से चल रही है। 

Social Tales of Social Engineering  

ये तो कुंडलीमार से आगे भी कुछ हो गया। कुंडलीमार की बजाय आमदामखोर लोगों के लिए लिखना चाहिए। Assisted Murders में ये सब आता है, जो आम-आदमी को ना दिखता और ना ही समझ आता है, मगर होता है बड़े ही गुप्त तरीके से।   

Monday, March 4, 2024

तमाशे के क ख ग घ (Social Tales of Social Engineering) 28

तमाशे के क ख ग घ (ABCDs of Farce)

व्यक्ति, समाज अथवा राजनीती पर मखौल, मजाक, व्यंग्य या उपहास। उसे बढ़ाचढ़ा कर, तोड़मरोड़ कर, विचित्र या विकृत कर, भद्दा बना, हास्यास्पद या हास्यजनक बनाकर। किसी चीज का गलत वर्णन, उसका मखौल उड़ाने के लिए। आम आदमी की भाषा में, रोजमर्रा के कामों द्वारा। रीती-रिवाज़ों या धर्मों-कर्मों के माध्यम से। पढ़ाई-लिखाई या कला-कृतियों के माध्यम से। प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से। जैसे चित्रों, सांगों, किस्से-कहानियों, नाटकों, कार्टूनों, हास्यचित्रों या चलचित्रों के माध्यम से। अट्ठे का ठठ्ठा जैसे। या अठ्ठे पे नहला, नहले पे दहला या दहले पे नहला।

C aricature, e xaggerated, d istorted, d eformed, w arped, p erverted, p erverse, e ccentric, r idicule, m ock, i mitate, l udicrous, a bsurd, d erogatory, g rotesque, p arody, s atire, t ravesty, s quab, s end up, t ake off, p asquinade, p ejorative, l ampoon). Any treatment or imitation, that makes a serious thing seem ridiculous. 

Burlesque, an absurd or comically exaggerated imitation of something, especially in a literary or dramatic work, like Parody, Mimicry, Skit, Play, Mime, Cartoons, Serial or Movie and nowadays in trend Stand Up Comedies, Spoof, Meme. Like some T rivial matters, F rivolous Matters of elites by forgetting the real issues of poor people?

Seeing the tragedies of people's real lives and the way they play with them. 

What they call that? 

System?

That's the way system works? 

System works? 

For whom?     

Friday, March 1, 2024

सरकारों का बनना और सरकारों का गिरना? (Social Tales of Social Engineering) 27

सरकारों का बनना और गिरना या बनाना और गिराना?  Formation and Breakdown of Governments?

2018, में काफी कुछ ऐसा सुना, देखा और अनुभव किया जो दिमागी तौर पे हिलाने वाला था। तब से पता ही नहीं की कितनी तरह से और कैसे-कैसे, ये दिमाग हिला है या रौंदा गया है। 

जैसे पहले भी कई पोस्ट में लिखा, वो एक अलग दुनियाँ की सैर थी, उसी दुनियाँ में रहते हुए जिसे बचपन से सुना, देखा, पढ़ा या अनुभव किया था।   

क्या था वो सब? थोड़ा 2018 और उसके बाद लिखी गई पोस्ट पे फिर-से गौर फरमाते हैं।  

FRIDAY, DECEMBER 18, 2020

The Politics of Control and Hacked Lives!

TUESDAY, OCTOBER 29, 2019

Elections, Governments, Governance and Defence Affair Battlefield

 My Questions (with 99% possibility is yes):

Elections are farce?
Governments and chairs are puppets?
Governance is circus? 
Courts very much part of that?
Defence agencies playing what?

So many deaths are murders? Bio-Physio-Chem-Psycho and Electronics war is going on at its worst since long! In the process, so many innocent lives are being played on day by day! 
What are the corrective measures? 

SUNDAY, AUGUST 4, 2019

Being Unique Vs Cloning and Quantification!


*"Exposing well a dissertation game over the years!" Then you knew things were wrong. Some thieves were stealing chemicals or replacing them with expired ones, stealing documents from lab, office room, enforcing such ways that you cannot progress in any direction. You had almost given-up so-called academics. Then you came to know the digital-gamble and the puzzle sequenced itself without much efforts. (Latest gamble happened on 01.08.2019, will be part of Raaz-blog soon.)

TUESDAY, FEBRUARY 26, 2019

Presentation is all that makes a difference.

कॉन्टेंट डेवलपमेंट कितने तरह का होता है? किस्से-कहानियाँ और सामाजिक सामान्तर घड़ाईयाँ शायद उस दिन लिखे गए कॉन्टेंट डेवलपमेंट से कहीं आगे काफी कुछ बताते हैं।  

SUNDAY, JULY 19, 2020


The World of Gambling!
Complex crime webs/World!
Numbers, Alphabets & Gambles!

I had little idea about these parallel cases though had doubt a few times but ignored. First time experienced in some arguments with earlier VC and warning and consequent high drama of calling some senior Profs and security and


And then came across so many cases day by day:
VC Sajjanar Encounter/Students marks
And countless stories of such parallel cases!

MONDAY, FEBRUARY 11, 2019

Kinda (नायक भी हम, खलनायक भी हम ही?
We broke your home-roof 
(And did special type of concrete roofing)
We broke your window glass 
(Campus first home)
And ahsaan on that to save you!
hmm Adam ruins everything!

And now a days it's Ketto adv.
Oops! Ketto!
(Current home dhamaal, old home kamaal!)
Kinda declaring cancerous and blah, blah
Bachao Abhiyan!

Gratitude to people for special care!