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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Wednesday, November 29, 2023

सतर्कता और रोकथाम, ईलाज से ज्यादा अहम है (Prevention is better than cure)

बिमारी कैसे होती हैं?  

संक्रमित खाने से 

संक्रमित पीने से 

संक्रमित हवा में साँस लेने से 

और जीवन शैली (Lifestyle Problems) की वजह से। खाने-पीने की अधिकता या कमी की वजह से। शरीर के ज्यादा या कम प्रयोग की वजह से। 

कैसे पैदा की जाती हैं?

खाने के माध्यम से 

पीने के माध्यम से 

और हवा के माध्यम से 

कितनी ही तरह के संक्रमण इनके माध्यम से किए जा सकते हैं। जहाँ खाना-पीना और हवा जीवन के लिए जरूरी है, वहीँ संक्रमित खाना-पीना या हवा मतलब, बीमारी।   

उसके बाद है जीवन शैली। किसी भी चीज की अधिकता या कमी भी बिमारियों की वजह होती हैं। ऐसे ही शरीर का ज्यादा या कम प्रयोग। मतलब खाने-पीने और उसको पचाने का संतुलन न होना। 

इसलिए आपका स्वास्थ्य काफी हद तक आपके अधीन है। आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं और कैसी हवा में सॉंस लेते हैं, अगर उस पर नियंत्रण कर सकें तो। आम आदमी को पहली बात तो उसका पता ही नहीं होता। हो भी जाए तो नियंत्रण नहीं करना आता। 

थोड़ा बहुत पता भी हो और नियंत्रण भी करना आ जाए, तो भी बहुत से गुप्त तरीके होते हैं, खाने-पीने के माध्यमों से ही संक्रमण करने के। इसलिए अगर आपको लग रहा है की ऐसा कुछ हो रहा है तो अपने खाने-पीने को बदल कर देखें। जहाँ तक हो सके ताजा खाएँ। और जहाँ तक हो सके जिस किसी खाने में संक्रमण की संभावना नजर आए, वो ना खाएं। फिर भी बात ना बने तो जगह बदली करके देखें। कम से कम, एक-दो महीना तो करें। थोंपे हुए संक्रमण का यही इलाज है। संक्रमण, मतलब किसी भी तरह का दर्द। दर्द, मतलब डॉक्टर के पास या हॉस्पिटल जाना। 

अगर संक्रमण किया हुआ है, मतलब दर्द दिया हुआ है। तो इससे आगे आपको कुछ नहीं करना। आप खुद को बीमार करने वालों के और ज्यादा हवाले करने जा रहे हैं। चैक करना, टैस्टिंग, जिसे डायग्नोस्टिक (Diagnostic) भी कहते हैं, संक्रमण को बढ़ाने-चढ़ाने की अगली सीढ़ी है। यहाँ खास तरह के कमीशन होते हैं और खास तरह की हेराफेरी। उसके बाद डॉक्टर के हवाले। प्राइवेट हॉस्पिटल में तो वैसे ही उन्हें कमाने और अपने स्टाफ को देने के लिए भी काफी कुछ चाहिए होता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे, प्राइवेट स्कूल को। यहाँ पे इंफेक्शन को कितना भी घटाया या बढ़ाया जा सकता है। कितने भी दिन, महीने या साल, आपको ऐसे भी और वैसे भी लूटा जा सकता है। और राम नाम सत्य करके, ऊपर भी पहुँचाया जा सकता है। तो जितना और जहाँ तक हो सकता है, हॉस्पिटल जाने से ही बचें। 

जो कहते हैं फलाना-धमकाना उम्र के बाद, फलाना-धमकाना टैस्ट हर साल या एक या दो साल में जरूर करवा लें। ऐसे हालातों के मध्यनजर, हट्टे-कट्टे इंसानो के लिए तो वो बिलकुल जरूरी नहीं है।  

किसी बच्चे को माँ के जाने के बाद 1-19, 2023 मई तक पीलिया नहीं हुआ था। ये एक सामांतर घड़ाई थी। अगर अपने मेडिकल के फरहों को और पुरे घटनाक्रमों को, इन सामांतर घड़ाईयों के जानकारों को दिखा और बता दोगे तो वो बता देंगे की वो क्या था। 

ऐसे ही, जैसे किसी माँ को M.Tech Exams Fraud के आसपास कोई पथ्थरी नहीं थी। वो एक सामांतर घड़ाई थी। 

ऐसे ही जैसे, मुझे कोरोना से पहले कोई पथ्थरी का दर्द नहीं था। बल्कि संक्रमित खाना-पीना उसकी वजह था। अगर मैं भी डायग्नोस्टिक और डॉक्टर की मान कर, Gall Bladder Stone के ईलाज की हामी कर देती तो माँ की तरह कट चुकी होती। उसके विपरीत, मैं बैग पैक कर घर पहुँच गई। और वो दर्द छु मंतर? भला कैसे?  

आते हैं ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, दर्द और बिमारियों पे भी। जहाँ कभी-कभी लगता है, की तुम इसे या उसे बचा सकते थे शायद। क्यूँकि तुम्हें कहीं शक थे। शक (doubt), किसी भी observation की पहली सीढ़ी होती है। 

अपने हॉस्पिटल के जितने भी फरहे हैं, उन्हें संभाल कर रखें। वो आपके और आपके बच्चों के स्वास्थ्य ज्ञान की अहम सीढ़ी हैं। कोई भले इंसान, ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी बिमारियों से, खामखाँ के धक्कों से और उसपे बेवजह के खर्चों से बचा सकते हैं शायद।    

Tuesday, November 28, 2023

सरवर, सर्वर, सर्वत्र और बिजली?

 ये झमाझम बारिश 

और ये बिजली का गुल होना 

दोनों हैं मानव निर्मित?

या प्रकृति की देन?

माँ के इस घर में बिजली की थोड़ी दिक्कत थी। स्विच कम थे। तो सोचा थोड़ा ठीक करवा लूँ। पड़ोस की ही एक आंटी को बोला और एक बिजली वाला पहुँच गया। एक खास तरह की नौटंकी के बाद, कुछ ऐसा काम भी हो गया जो बोला ही नहीं था। और कुछ ऐसा नहीं किया गया, जो बोला था। ये खास किस्म के 15 वाला कमीशन था? ये कमीशन वाली दुनियाँ, कुछ ज्यादा ही अजीब है। जितना आप इसे समझने की कोशिश करोगे, उतना ही इससे दूर होते जाओगे। उसपे जिस तरह के लोगों के बीच आप रह रहे हैं, कभी कभी तो समझ ही नहीं आएगा, की ऐसे-ऐसे लोगों की कमेन्ट्री पर क्या तो बोला जाए और क्या ना? एक होता है, कुछ गलत होने पे सॉरी फील करना। या सामने वाले को ठीक करने को बोलना। और एक होता है, ऐसा कुछ करने की बजाय बेहुदा कमेन्ट्री करना। और ऐसा भी नहीं है की ऐसे लोग सिर्फ आपपे ऐसी कमेन्ट्री करते हैं, वो बक्शते अपने खुद के बच्चों को भी नहीं। आदत से लचर लोग। कुछ तो अपना दिमाग कम प्रयोग करना। उसपे राजनीतिक पार्टियाँ अलग-अलग तरह के भावनात्मक तड़के लगाती हैं। मतलब, लोगों को किसी ठीक-ठाक काम पे ना लगा के, उनके दिमाग ब्लॉक करके, सिर्फ और सिर्फ फालतू और बकवास की तरफ धकेलना। अब ऐसी-ऐसी पार्टियाँ ये थोड़े ही बताएँगी की, जुर्म जुर्म होता है। वो सॉफ्ट क्राइम हो या लट्ठमार।  किसी भी तरह का बेहुदा साँड़ सिंड्रोम (Bulling Syndrome), उस केटेगरी में आता है।          

बड़े लोगों के करवाए जुर्मों की जानकारी या समझ, जिनसे ये छोटी-मोटी  नौटंकियाँ करवाई जाती हैं, उन्हें कितनी है, पता नहीं। यही सोचकर बहुत कुछ ऐसा, ज्यादातर इग्नोर करो के डिब्बे में जाता रहता है। हाँ। ये कुर्सियों पे बैठे उन लोगों के लिए जरूर है, जिनसे शायद कई बार बहस भी हुई और एक-आध अच्छा खासा लेक्चर भी दिया गया। खासकर वो, जिसमें बोला गया था की अगर इतने पढ़े-लिखे लोगों के ये हाल हैं तो बाहर जो कम पढ़ा-लिखा या तकरीबन अनपढ़ समाज है, उससे उम्मीद क्यों? उस समाज की दिशा या दशा ये पढ़े-लिखे लोग घड़ रहे हैं, कोई और नहीं। वो चाहे फिर सिविल में हों, या डिफेंस में।      

वापस बिजली पे आते हैं। क्या है, जो आम आदमी को भी समझना चाहिए, इस बिजली के बारे में? वो है, की बिजली क्या कुछ कर सकती है? कितना कुछ रिमोट कंट्रोल हो सकता है? और उसकी वजह से आम आदमी कितना परेशान हो सकता है ? वो भी उसकी जानकारी के बगैर, की दुनियाँ में बहुत कुछ अपने आप नहीं हो रहा। बल्कि किया जा रहा है। बिजली का ये राजनीतिक मकड़ज़ाल उनमें से एक है। बहुत कुछ तो नहीं मालूम इस विषय के बारे में। मगर हाँ, बिजली के इर्द-गिर्द घूमते, इधर-उधर हुए नौटंकियों और अनुभवों के हिसाब से आम आदमी से शायद थोड़ा ज्यादा मालूम है। तो आती हूँ उन अनुभवों को भी शब्दों में पिरोकर, किसी अगली पोस्ट में। 

हिन्दू है हिन्दू हम ?

हिन्दू हैं, हिन्दू हम 

भगवा लहराएंगे ?

ये कैसे हैं हिन्दू  हम?

और कैसा भगवा लहराएँगे?

भावनात्मक भड़क से ज्यादा, 

भला और क्या हैं हम?

और इससे ज्यादा और क्या कर पाएँगे? 


सुबह-सुबह, कभी-कभी

या कहना चाहिए ज्यादातर 

ये खास किस्म के हिन्दू-मंदिर 

बस यही गाते हैं और यही लहराते पाते हैं।  

यही प्रसाद बाँटते हैं हम?  

सुबह-स्याम, ध्वनि प्रदूषण से ज्यादा 

ना कुछ और फैलाते हैं हम?    


जब पढ़ने वालों का हो पढ़ाई का वक़्त 

भांडों की तरह भड़ाम-भड़ाम चीखते जाते हैं हम 

कितनी ही हो सुबह या स्याम 

भंडोलों की नगरी बनाते जाते हैं हम 

यही रह गए हैं हिन्दुओं के नाम पे मंदिर?

और उनके स्पीकरों से गुंजते उनके प्रभु ज्ञान?


इनसे थोड़ा इधर या उधर होंगे 

तो शायद नाचन दे, मैने नाचण दे 

उठते ही नचनियें सांग ?

जैसे गा रहे हों 

और दूर-दूर तक सुना रहे हों 

भंडोले हैं, भंडोले हम

भंडोले नगर बनाएँगे 

भडकावों से आगे औकात ही कहाँ? 

भावनात्मक भड़वे हैं, भड़वे हम 

भड़वे नगर बनाएंगे ?


ऐसा ही होता है, जब मंदिर भी बाज़ारों के अधीन हों? सुनते थे कभी, की मंदिर शांति की जगह होते हैं। मगर आजकल के मंदिर, वो जो सांग होते थे, उनके भी बाप होते हैं शायद?  

Sunday, November 26, 2023

अतीत या भविष्य की यात्रा (Time Travel)

क्या आप भविष्य या भूत में जा सकते हैं? और जान सकते हैं की भूत की कहानी क्या हैं? या भविष्य में क्या सम्भावनाएँ हैं या भविष्य कैसा होगा? वो भूत या भविष्य बताने वाले आते हैं ना? पुराने जमाने में तो आते थे। अब? अब वो सिर्फ बताने नहीं आते, सिर्फ दिखाने या सुनाने भी नहीं आते। बल्कि हकीकत में अनुभव कराने आते हैं। आपके आसपास ही, शायद आपके अपने घर में? आपके अपने बहन, भाइयों, भतीजा, भतीजियों की जिंदगी के माध्यम से। कहीं बुजुर्गों की ज़िंदगी के माध्यम से, तो कहीं युवाओं की ज़िंदगियों के माध्यम से। कहीं बिमारियों के माध्यम से, तो कहीं लोगों को बेवक़्त उठा के। कहीं शादियों के माध्यम से, तो कहीं बच्चों की ज़िंदगियों के माध्यम से। तो कहीं जबरदस्ती, इधर से उधर धकेली जाती हुई, ज़िंदगियों के माध्यम से।  

कुछ थोड़े पास के अपनों के माध्यम से, तो कुछ थोड़ा दूर के अपनों या परायों के माध्यम से। उनकी ज़िंदगियों के उतार-चढाव, कहीं आपको दिल्ली टाइम की सैर करवाते हैं तो कहीं US की या उसके बाद ज़िंदगी की। कैसे संभव है ये? अतीत की यात्रा? समझते-समझते समझ आया, की ये चल क्या रहा है? कैंपस क्राइम सीरीज, उसे पूरा क्यों नहीं करने दिया जा रहा? क्या दिक्कत है?

कैंपस क्राइम सीरीज और उसी का एक खास बढ़ाया-चढ़ाया हुआ पहलु। कोविड-कोरोना। वो आपको एक अलग ही तरह की यात्रा पे ले जाता है। हादसों, बिमारियों की यात्रा पे और कैसे होते हैं या किए जाते हैं ये सब?   

और इसी दौरान आप सालों बाद, वापस अपनी जन्मभूमि आ टिकते हैं। वही बचपन का घर। वही पुराने लोग? नहीं। यहाँ गड़बड़ है। फाइलों के माध्यम से यथार्थ में उतारी गई, इन चलती-फिरती गोटियों को समझना और इनकी ज़िंदगियों को समझना, एक अलग ही दुनियाँ है ये।  

आप किसी को नहीं जानते यहाँ। ना ही कोई आपको जानता। शायद बहुत वक्त, बहुत दूर रह लिए। या शायद कभी पास थे ही नहीं। वो आपके रुप में किसी ऐसे किरदार को जानते हैं, जो उन्हें इस पार्टी या उस पार्टी द्वारा दिखाया गया है। आप उनकी ज़िंदगियों को ऐसे-ऐसे किरदारों में ढलते देख रहे हैं, जो हकीकत से बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर या तोड़-मरोड़ कर पेश किए जा रहे हैं। इन लोगों की ज़िंदगी के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े निर्णय कोई और ही ले रहे हैं। और इन्हें अहसास तक नहीं, की ऐसा संभव ही नहीं है, बल्कि हो रहा है। किन्हीं और के अतीत के अलग-अलग पन्नो के वक्त पे, धकेली जाती हुई इनकी ज़िंदगियाँ। मगर ये इनका आज है, जिसमें आप किसी बीते हुए कल के, इसके या उसके किरदारों को, थोड़े अलग-अलग रूप में देख रहे हैं। और उसी कल के, थोड़े बहुत ज्ञान की वजह से आप डरने लगते हैं, की यहाँ ये हादसा हो सकता है और यहाँ ये। क्यूँकि, आप उस कल को देख चुके, सुन चुके या भुगत चुके, जो इनका आज घड़ा जा रहा है या आने वाला कल है। जिनके कुछ किरदारों और कुछ हिस्सों को आप जानते हैं। कितने ही तरह के लोगों के भूत के इर्द-गिर्द घूमता है ये आज? बहुत से ऐसे भी, जिनके बारे में खुद मुझे ABC से आगे नहीं पता, या एक वक्त से आगे की खबर नहीं। जितना पता है, वो भी सालों बाद, यहाँ-वहाँ से बताया गया या सुनाया गया। तो इन्हें कैसे खबर होगी? सामान्तर घढ़ाईयाँ  

जैसे एक बच्चे के केस में। उसे पढ़ाई से दूर, किसी टोनी वाले दौर की तरफ धकेला जा रहा है। क्यूँकि, उसका स्कूल उस पार्टी से संभंधित है? बड़ों के किस्से-कहानियों को इतने छोटे बच्चों पे घड़ने की कोशिशें? अब इसका असर उस बच्चे पे क्या होगा? धकेलने वालों को इससे कोई लेना-देना नहीं। उन्हें अपने-अपने कुर्सियों के नंबर घड़ने हैं।          

मेरी नौकरी वाला डिपार्टमेंट, एक गौरवमई भारत की कहानी जीने वाला डिपार्टमेंट है। जिसके रोज-रोज दोहराए जाने वाले किस्से-कहानियों से तंग आ, आप उनसे मुक्ति की तरफ निकलते हैं। मगर वहाँ से मुक्ति की बजाय और पीछे धकेल दिए जाते हैं। PhD और M.Sc. के वक़्त के, किस्से-कहानियों के इर्द-गिर्द। इसी डिपार्टमेंट वापस जाना चाहते थे ना आप? पढ़ाई-लिखाई करने, रोज-रोज के तमाशों से दूर रहने? मगर तमाशे वालों के पास तो सिर्फ और सिर्फ तमाशे होंगे। उनके पास सिर्फ अतीत है, वो भी उनके हिसाब-किताब का अतीत। आप किसी भी अतीत से, बहुत पहले, बहुत दूर निकल चुके और आज में जी रहे हैं। जिसमें सिर्फ और सिर्फ भविष्य है। मगर गिराने में सिद्धि हासिल लोग, तो सिर्फ गिराना या पीछे धकेलना जानते हैं। ठीक वैसे, जैसे आसमान से गिरे, तो झाड़ पे अटके। आपको आगे जाना है और वो हैं की पीछे धकेले जा रहे हैं। 

गाँव में आके आप किसी और वक्त को थोड़ा बेहतर जानने की कोशिश में, कुछ और पन्नो को भी उठा लेते हैं। इसका मतलब उस वक्त को भी जाना जा सकता है, जो पापा या चाचा के वक्त का है? जो दादा के कुछ खतों में और डायरी में मौजूद है? शायद कुछ हद तक? ऐसे ही बढे-चढ़े, तोड़े-मरोड़े किरदारों के रूप में। वैसे ही जैसे, ना होके भी किसी ज़िंदा डायरी की तरह? अजीब संसार है ना? भूत! मगर, आज और कल, यहाँ या वहाँ, एक साथ लिए हुए जैसे?

किसी ने शायद सही कहा है, तुम्हारा भविष्य तुम्हारी नौकरी से आगे की तरफ बढ़ता है। ना की उससे पीछे के किस्से-कहानियों से। उससे पीछे के घटनाक्रमों को जानने या समझने की कोशिश बस इतनी भर हो, जितना किसी किताब को पढ़कर, उस अलमारी में या उससे भी पीछे कहीं, किसी पीछे वाले कमरे में चलता कर देना। क्यूँकि, भूत, भूत है। आज, आज। और कल, भविष्य।         

"वो जो पीछे की तरफ धकेलते हैं, यादें हैं। वो जो आगे की तरफ लेकर जाते हैं, सपने" --  Time Machine ?

थोड़ा बदलाव --सपने जो हम खुली आँखों और दिमाग को साथ लेकर देखते हैं। रोबोट बनकर नहीं।           

Saturday, November 25, 2023

खूंखार नियंत्रण और राजनीती विज्ञान

खूंखार नियंत्रण, 

जहाँ जन्म, मरण और जीवन का हर पहलु कुछ खूंखार, पढ़ेलिखे शातीर लोगों के समूह नियंत्रित करने लगे हों। और आम आदमी को खबर भी ना हो, की ऐसा हो रहा है। कौन कर रहा है या कर रहे हैं? कैसे कर रहे हैं, बहुत दूर की बातें हैं आम आदमी की समझ से?    

आपके बच्चों के जन्म एक नियंत्रित सामाजिक लैब (Controlled Social Lab) में हुए हैं। जहाँ-जहाँ उन्हें पसंद नहीं आया, तिथि, महीना या साल, वहाँ-वहाँ या तो उन्होंने होने नहीं दिए या मार दिए। मालूम है? शायद कुछ एक आम आदमियों को ही भनक है। मगर कैसे करते हैं वो ये सब ? ज्यादातर आम आदमियों को नहीं मालूम।  

जहाँ उन्हें जरुरत महसूस हुई, वहाँ-वहाँ उन्होंने बच्चे पैदा करवा दिए। मगर तारीख, महीना और साल उनका। किनका? नहीं मालूम? उन्हीं का, जिनके इशारों पे आपकी ज़िदगियाँ चल रही हैं। गुप्त संसार। आप पर इतना कुछ नियंत्रण करने के बावजूद, आप उनके बारे में कुछ नहीं जानते। इसे परदे के पीछे की दुनियाँ बोलते हैं। एक वो दुनियाँ है, जो आपको दिख रही है या महसूस हो रही है। दूसरी वो, जो ये सब दिखा रही है, सुना रही है या महसूस करवा रहे है। मगर आपको उनके बारे में कुछ भी नहीं मालूम। वही हैं भगवान, इस दुनियाँ के। वो है टेक्नोलॉजी की दुनियाँ और उसके साथ-साथ सिस्टम में आते बदलाव। सिस्टम को बनाया ही ऐसा जा रहा है, की वो दुनियाँ के मुट्ठी भर लोगों की कैद में रहे। बाकी सब उसके जाल में। सबसे बड़ी बात कैसे संभव है, इतना कुछ? गुप्त तरीकों से, राजनीती विज्ञान से। राजनीती जितनी अहम है, उतना ही अहम है उसको चलाने वालों को जानना। इस गुप्त विज्ञान को, टेक्नोलॉजी को और उनके प्रयोगों और दुस्प्रयोगों को समझना। ये समझ आ गया, तो ये खूंखार-नियंत्रण भी समझ आ जाएगा।  इसीलिए इसका नाम सिर्फ राजनीती नहीं, बल्की राजनीती-विज्ञान है।  इसे ऐसे भी पढ़ सकते हैं 

राज (Secret), मतलब छिपा हुआ ज्ञान किसी भी तरह का  

नीति (Policy) --  किसी भी संस्थान की योजनायें या तरीके, कुछ भी करने या पाने के लिए 

विज्ञान (Science and Technology) -- विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रयोग या दुष्प्रयोग से अपने निहित स्वार्थो की सिद्धि 

जब वो कहें की हमारी मर्जी के बगैर तो पंछी तक पर नहीं मार सकते। जिस दिन आप पंछियों के नियंत्रण के पीछे छिपे विज्ञान को भी समझने लग जाओगे, उस दिन शायद काफी हद तक, राजनीती वाले ज्ञान-विज्ञान को। आएँगे जीव-विज्ञान के तर्क-वितर्क के साथ-साथ उस G (या Ji, Jee) वाली दुनियाँ पे भी। कितना G होगा, तो पंछियों पे क्या-क्या और कैसे-कैसे असर होगा? आपके एरिया में जो पंछी हैं, वही क्यों हैं? क्या ये भी सुनिश्चित किया जा सकता है की कौन से दिन, कौन-कौन से पक्षी, कहाँ-कहाँ आएँगे या दिखाई देंगे ? कौन से कहाँ-कहाँ रहते हैं और क्यों? और कब तक रहते हैं? उसके बाद वो कहाँ चले जाते हैं? कौन भेझता है उन्हें, यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ और वहाँ से कहाँ-कहाँ? 

चलो बच्चे के जन्म तो तय कर दिए। उसके बाद का भी उनका हर अहम फैसला आप नहीं, आपके वो ठेकेदार लें? वो भी मझे हुए गुप्त तरीके से? और आपको लगता है जो भी कर रहे हैं, वो सब आप खुद कर रहे हैं? जितने ज्यादा, जहाँ कहीं इन राजनीतिक पार्टियों के stake हैं, वहाँ-वहाँ नियंत्रण भी उतना ही ज्यादा। और जितने ज्यादा कम पढ़ेलिखे और आर्थिक स्तिथि कमजोर, उतना ही ज्यादा आसान है उनके लिए ये सब करना। आप प्रॉपर्टी हैं उनकी और आपके बच्चे उनके शेयर। ये आपको और आपके बच्चों को ऐसे ही पेलते हैं, जैसे शेयर मार्किट में किसी भी कंपनी के शेयरों की बोली लगाने वाले। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता, उस सौदे में आप या आपके बच्चों के साथ क्या हो रहा है या उसका असर उनपे क्या पड़ रहा है। इन घिनौने और बेहूदा लोगों को, अपनी राजनीती कूटने से मतलब। आपके बच्चे का जन्मदिन 1 हो, 2 हो, 3 हो, 4 हो, 6 हो, 7 हो, 9 हो 10 हो या कुछ और। सब नंबर शुभ हैं, इसीलिए वो आपका बच्चा है। मगर क्या हो वो 6 वालों को छठ या छठा हुआ की तरह दुरुपयोग करने लगें और 4 को चौथ, 7 को सत्ता ? उनपे इक्की, दुक्की, तिग्गी, चुग्गी, जीरो या नौ या कुछ और लगा के गोटियों की तरह खेलने लग जाएँ? आप कहें मुझे तो मेरा जन्मदिन पसंद है या उसके नंबर पसंद हैं। और वो कहें, हाँ, इसका मतलब ये, उसका ये और उसका ये। दूसरी पार्टी वाले कहें, अरे नहीं, इनके मतलब वो नहीं, ये हैं। अब हो सकता है, की आपको इनके वाले मतलब पसंद ना आएं और ना ही उनके वाले। आप तो अपने जन्मदिन वाले नंबरों का मतलब कुछ और ही सोचते हों। सबसे बड़ी बात, आपकी सोच अपने लिए हमेशा शुभ होती है। मगर इन राजनीतिक पार्टी वालों के लिए? वो हमेशा इन नंबरों को अपनी जीत के अनुसार चलते हैं और लोगों को वैसे ही चलाते हैं। चाहे उसमें सामने वाले का पूरा खानदान उठ जाय। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए आपके लिए क्या शुभ है और क्या अशुभ, ये आपको पता होना चाहिए। आपके नंबर आपके लिए और आपके अपनों के लिए भी शुभ हैं। उनके थोंपे हुए नहीं। 

ये लोग किस दिन किस-किस से क्या करवा रहे हैं या कहाँ भेझ रहे हैं। किसको आपकी ज़िंदगी में ला रहे हैं और किसको उससे दूर कर रहे हैं ? या आपके अपनों के साथ ऐसा कुछ कर रहे हैं, आम आदमी कैसे जाने उसे? उसे तो यही लग रहा है की वही ये सब खुद कर रहा है। जानते हैं आगे आने वाली पोस्ट में। 

Thursday, November 23, 2023

टेक्नोलॉजी, विज्ञान, चालाकी या जादू (Smart)?

इंटरनेट मकड़जाल या IOT (Internet of Things)

जैसे, जैसे विज्ञान और प्रोद्योगीकी (Technology) में नए-नए अविष्कार हो रहे हैं, उतना ही इंसान का जीवन आसान बन रहा है। मगर वही टेक्नोलॉजी जो जीवन आसान बना रही है, बहुत तरह के जुर्मों को भी बढ़ावा दे रही है। और जुर्म भी ऐसे-ऐसे की उन्हें प्रमाणित करने में ही उम्र निकल जाए। और आम-आदमी को पता ही ना चले की उसके साथ कोई अनहोनी अपने आप नहीं हुई, बल्की की गई है। ऐसी-ऐसी और जाने कैसी-कैसी, अनहोनियों को, बीमारियों को वो अपना दुर्भाग्य मान कर या किस्मत मान कर बैठ जाए। जबकी उसकी हकीकत में विज्ञान की जानकारी, टेक्नोलॉजी के दुरूपयोग और चालाकियाँ छिपी हों।  
चलो ऐसी ही टेक्नोलॉजी को जानते हैं जो जीवन आसान बनाती है। उसके दुरूपयोग पे बाद में आएंगे। इंटरनेट एक ऐसी ही सुविधा है। इसके जरिए कितने ही काम एक क्लीक में हो जाते हैं। इसके जरिए आप घर बैठे बैंक का काम कर सकते हैं। कहीं पढ़ाई के लिए admission ले सकते हैं। कहीं जाने के लिए टैक्सी कर सकते हैं। ट्रेन या हवाई-जहाज का टिकट बुक करवा सकते हैं। किसी म्यूजियम या मूवी का टिकट बुक करवा सकते हैं। प्रॉपर्टी देख और खरीद सकते हैं। कोई भी सामान खरीद सकते हैं। घर बैठे पढ़ाई कर सकते हैं। दूर बैठे रिश्तेदारों या दोस्तों से बात कर सकते हैं। घर बैठे ज्यादातर documents बनवा सकते हैं। घर बैठे दुनियाँ के दूसरे कोने में नौकरी ढूंढ सकते हैं और कर भी सकते हैं। ऐसे ही इंटरनेट के प्रयोग से अपने घर, ऑफिस, वाहनों की दूर बैठे या दुनियाँ के किसी और कोने में बैठे न सिर्फ निगरानी कर सकते हैं बल्की उन्हें on और off भी कर सकते हैं। इसे  इंटरनेट मकड़जाल या IOT (Internet of Things) भी कहते हैं। क्या कुछ कर सकता है या कर रहा है ये इंटरनेट मकड़जाल? 

कहाँ-कहाँ प्रयोग होता है?
Smart Homes 
Smart Offices 
Smart Vehicles 
Smart Industry 
Smart Governance
Smart Courts 
Smart Defence  
Smart Cities 
Smart Hospitals 
मतलब, घर, ऑफिस, वाहन, आने-जाने के साधन, शिक्षा के संस्थान, हॉस्पिटल, बाजार, खेती, व्यवसाय, शहर, सरकार या जो भी आप सोच सकते हैं, उसके आगे smart शब्द जोड़ दो। जब आप smart शब्द सोचते हैं तो सबसे पहले क्या ध्यान आता है, जो आपके ज्यादातर पास रहता है? जिसके शायद आप आदि भी हैं? 
शायद तो Smart Phone?
कभी सोचा की फोन को Smart क्यों कहते हैं?
इसे आप प्रयोग करते हैं या ये आपको, अपने लिए प्रयोग और दुरूपयोग? 
अगर आप इतना जान लेंगे तो शायद इसे प्रयोग करना ही बंद कर दें। क्यूँकि आम-आदमी का काम इसके बगैर आसानी से चल सकता है। या यूँ कहें की आम-आदमी को इसकी कोई खास जरुरत ही नहीं है। मगर सिर्फ आपके प्रयोग न करने से क्या होगा या कितना फर्क पड़ेगा? इसकी smartness का मकड़जाल तो जिधर देखिए, उधर है। 
Smart को हिंदी में क्या कहेंगे? बुद्धिमान? चालाक? आकर्षक? या चतुर, शातिर? या और भी ऐसे बहुत से शब्द हो सकते हैं।और स्मार्ट भी कितना स्मार्ट? बुद्धिमान या चालाक? जितनी ज्यादा नई टेक्नोलॉजी, उतना ही? तो कौन से फोन ज्यादा स्मार्ट हैं? क्या खास आ गया उनमें, पुराने फोन से ?  

शुरू करते हैं इस मकड़जाल को जानना Smart Home से।      

महारे 16-नंबरी

एक ने रक्खा 19 वाला रोड़ा 

वो ले आए 29 और ऐसे ही बढ़ाते रहे अपने खेल (जुए को आगे) 

19 वाले की शादी नहीं हुई या 29 वालों की? या उनके बच्चे नहीं हुए? 


16 को तो शिव का नंबर कहते हैं ना? फिर 16 वालों की इतनी बीरान-माटी क्यों?  

कौन-कौन हैं तुम्हारे आसपास 19 या 29 के जन्मदिन वाले? या शादी वाले? बताना कहाँ-कहाँ हैं, वो? या क्या कर रहे हैं? थोड़ी-सी निगाह तो अपने ही अड़ोस-पड़ोस या भाई-बँधो पे घुमा लो। सब ठीक-ठाक है या गड़बड़?   

और कौन-कौन हैं ये 16 के जन्मदिन वाले? या 16-नंबरी भक्ती वाले?  

16 को जहाँ मरण दिन बना दिया, उसपे इतने सारे हिसाब-किताब लगा दिए। तो क्या बचेगा, ऐसे हिसाब-किताब के बाद उनपे? तो वहाँ तो या आप शिव-भक्ती वाली राजनीति को नकारोगे या मरण-मरण ही रहोगे? ऐसा शिव और उसकी भक्ती किस काम की? उसपे शिव के नाम पे रखवा दिए, फलाना-धमकाना पथ्थर। तो इंसानों जैसी ज़िंदगी न जीकर, पथ्थरों जैसी-सी ही जिओगे। नहीं तो दे मारो, उन पथ्थरों को पथ्थर और कर दो उनका घमंड चूरचूर। कैसे काम के ऐसे पथ्थर, जो ज़िंदगी ही बना दें पथ्थर?

शिव और 16 तो पवित्र होना चाहिए? आइये जानते हैं, ऐसे नंबर वाले लोगों से ये राजनीती और ये कलाकार क्या-क्या करवाते हैं?

एक दिन एक गन्दा कालीन धोने के लिए रख दिया। एक 16 नंबरी आया और उसे पास ही रक्खी एक छोटी-सी सोफा कुर्सी पे रख गया। अजीब इंसान है? मगर पीने के बाद इतना होश कहाँ रहता है? उस कालीन को गुस्से में नीचे पटक दिया गया। मगर अगले दिन फिर वही। लगता है, उतरी नहीं अभी? कई दिन चला ये सांग। ज्यादा पीने वालों में दिमाग तो बचता नहीं। तो क्या तो बोलो और क्या ना बोलो? ऐसे-ऐसे मानव रोबोटों को? उनसे जो करवाया जाएगा वो कर देंगे, अपना दिमाग लगाए बगैर।    

यहाँ तक होता तो भी चल जाता। एक दिन, अपने 16-नंबरी परदे के पीछे डंडा रख गए और लड़खड़ाती जुबान गाए, "मारो साली को" । पता नहीं किसकी साली को मार दें, ये पीने वाले? अब साला या साली तो, ऐसे लोगों की कक्षा का क ख ग होता है। उससे आगे तो पता ही नहीं क्या-क्या आता है। गालियों से नफरत करने वालों को इनकी क्लास अटैंड जरूर करनी चाहिएँ। जुबान सिर्फ बेहुदा ही नहीं, बल्की कुछ खतरनाक भी गा रही थी। परदे के पीछे छुपा डंडा, उसका संकेत भर था। इधर-उधर से सावधान करने वालों के संकेत भी चल रहे थे, की गाँव से निकलवाने वाले, कहीं पुरे घर को ना खा जाएँ। ये खास भड़काने वाली पार्टियों की तरफ ईसारा था। जिनके कारनामों, खास तरह के भडकावों का खूँखार रूप, ये घर पहले ही भुगत चुका था। और उसे बहुत वक़्त भी नहीं हुआ था। मगर किन्हीं बाहरी पार्टियों को क्या कहोगे आप, जब आसपास से ही ऐसी-ऐसी साज़िशें चलने लगें? या कहना चाहिए की बहुत आसान होता है दिमाग से पैदल लोगों को, कोई भी भावनात्मक भड़काव पैदा कर, अपने फायदे के लिए उनका दुरुपयोग करना। और भी कई तरह के डरावे थे। कभी इस रंग का चाकू तोड़ के कहीं रख जाना। कभी उस रंग का चाकू तोड़के कहीं रख जाना। मगर, पीले रंग का चाकू, बिना तोड़े बैड पे रख जाना। वो भी किन्हीं खास-खास तारीखों को, वो भी चदर इधर-उधर फैंक के। एक तरफ ये 16-नंबरी के कारनामे। 

तो दूसरी तरफ, किसी पड़ोस से खास तरह का प्रचार, फलाना-धमकाना की पत्नी को फलाना-धमकाना ने ऐसे-ऐसे पीटा। वो भी खास तरह के इफेक्ट्स के साथ। चद्दर या कपड़ों वाले स्पेशल इफेक्ट्स। वो बच्चे जो आपके लैपटॉप से मारपिटाई के विडियो उड़ा दें, बगैर ये जाने-समझे, की उनकी कॉपी पता ही नहीं कहाँ-कहाँ पड़ी हैं। वो ऐसा कुछ गाएँ? दोगली सोच, व्यवहार या मानव रोबोट बन जाना?    

सबसे बड़ी बात, आसपास के लोगों द्वारा बच्चे को जिस तरह से किडनैप किया गया। और बच्चे ने फिर जो कुछ बताया। उसे कुछ खास ऐसे कहा गया या उसके सामने बहुत कुछ ऐसा बार-बार गाया गया। उसपे उसकी पढ़ाई का भठा बिठाने की कोशिश। वो लोग जो बच्चे पे मरते हैं, वो ऐसा कैसे कर सकते हैं? उससे सबकुछ छीनने की कोशिशें। जब ये सब पता करने की कोशिश की, तो वही इल्जाम मुझपर फेंकने की कोशिश हुई, उन्हीं लोगों द्वारा। बेवकूफ लोगों के दिमाग में अजीबोगरीब शुभ-अशुभ भर के, ईधर ऐसे भड़काओ और उधर वैसे? फुट डालो, राज करो विभाग?        

मतलब सबको आपस में ही भीड़ा-भीड़ा के मार डालो। इससे बढ़िया मानव रोबोटों वाली, एक के बाद एक, क्रूर  सामान्तर घढ़ाईयों की कोशिश, मैंने तो इतने पास से देखी, सुनी या अनुभव नहीं की ज़िंदगी में। कैंपस क्राइम सीरीज, फीकी पड़ गई, इन सबके सामने। कालीखी विभाग? ऐसे लोगों के लिए 16-नंबर, शिव या किसी भी भगवान के क्या मायने हो सकते हैं? सिवाय, उस माध्यम से राजनीति कूटने और अपनी स्वार्थ  सिद्धि के?   

ऐसी-सी ही कुछ कहानियाँ बीमारियों, लोगों को हॉस्पिटल तक पहुँचाने और वहाँ से उठाने, खास तरह के ऑपरेशन करने, या वापस घर भेजने की हैं। इतने तरह के enforced एजेंडा, इतने तरह के लोगों को, कितनी ही तरह से काबू करना और कितने ही तरह के यहाँ-वहाँ सूक्षम कंट्रोल। मानव संसाधनों और टेक्नोलॉजी का कितना दुरुपयोग? कितनी ही तरह से? कितनी ही तरह के मानव द्वारा ईजाद किए गए दुख, परेशानियाँ और हादसे? सबसे बड़ी बात, आम आदमी को अहसास तक ना होने देना की ये सब कैसे किया जा रहा है। और साहब लोग चाहें, की लोगबाग ज़ुबानों को सील कर बैठ जाएँ? कलमों को पेंसिल बना दें या तोड़ डालें? लैपटॉप, इंटरनेट से दूर रहें या उन्हें वायरस के हवाले कर दें। दिमाग बंद कर, बस उनके भक्त बने रहें?   

Wednesday, November 22, 2023

छठ या छठों की फौज?

ये किसी की भावनाओं को भड़काने के लिए नहीं है।  

पहले भी कई बार लिखा, मेरे लेखों को भावनात्मक भड़क के साथ ना पढ़कर, थोड़ा ठन्डे दिमाग से पढ़ें और उस पर विचार करें की किसी भी धर्म का या रीती-रिवाज का राजनीतिक विज्ञान से क्या रिस्ता है? 

और उसका क्या रिस्ता जुर्म से हो सकता है?  

छठ से क्या समझते हैं आप?

छठ मतलब, छठा हुआ?  

हिन्दी में 6?

अंग्रेजी में S-ix या Si -x ?

एक और तरह की अंग्रेजी भी है 

खास अंग्रेजों की दी हुई 

कमेंट्री -- 

और ये लगा छक्का?

अर्रे चौके का क्या होगा फिर?

दुक्के वाला छक्का?

तीके वाला छक्का?

या चौके वाला छक्का?


चलो एक और छठ को जानते हैं --

बिहारियों की छठ?

ये क्या होती है भई?

और कैसे होती है?

मालुम है कुछ?

बिहार में क्या खास है, इसके बारे में?

नदियों को गन्दा करते हैं, 

अपने बिहारी भाई लोग इस दिन?

या साफ करते हैं?

या तमाशा होता है पूरा 

इस दिन, इन भाई लोगों का?

इसका क्या मतलब हो सकता है -- अपनी छठ (6) रूठ गई, सत्ते (7) को बिगाड़ो?

इसका चाची 420 की कहावत से भी कोई लेना देना हो सकता है क्या? इन चाची-420 वालां की खास तारीख पता करो। क्यूँकि हज़म मुझे भी नहीं हो रहा की जुए वाले लोगों की ज़िंदगियों की बोलियाँ कैसे लगाते हैं ? इसकी भी 6th, उसकी भी 6th, उसकी भी और उसकी भी 6th ? ऐसा क्या खास है, इस छठ में? 

 मतलब अपना ना सुधार के, दूसरे का बिगाड़ो?  कंस विज्ञान है ये? या रावण ज्ञान है ये? पर कितना अजीब है ना? ऐसे ही भिड़ाती हैं, ये राजनीतिक पार्टियाँ और इनका राजनीतिक विज्ञान। 

किस-किस का ब्याह कौन-कौन सी छठ न हो रहा सै बालको? बड़े भी बता सकते हैं। शिव के 16 पे बिगाड़ कहाँ है? उसने सुना 26 पैदा कर दी? सात से उसकी क्या लड़ाई? 07 से? 1 पे 0, 2 पे 7 ? अब ये 6 वाले, मुझे आँख दिखाने की कोशिश ना करें। आते हैं, इन छठों के बिगाड़ पे भी।   

नोट: बिहारी ही नहीं, इधर-उधर हिन्दू धर्म के ठेकेदार कहीं नजर दौड़ा लें, आम है ये हिन्दू रिवाजों में खासकर           नदी तालाबों, झीलों, जमीनों को गन्दा करना। वो भी धर्म-कर्म के नाम पे?  

        यहाँ छठ की बात थी, तो थोड़ी रौशनी बिहार पे पड़ गई। 

बाकी 4, 5, 6, 7 सब पे स्टेज तैयार रहती है, बढ़िया वाली? यहाँ लोगों को जुए के जालों से मुक्ती चाहिए। मगर सिस्टम है की लगा पड़ा है, चो दम चु करने ? भाषा गलत तो नहीं? वही तो, सोचो ये काँड क्या हैं और खिलवाड़ क्या हैं, लोगों की ज़िंदगियों के साथ ? जिधर देखो, उधर छठों के साए? या सताए?         

लगता है इंटरनेट को कोई तकलीफ हो रही है। इसलिए गड़बड़ कर रहा है। आते हैं इन नंबरों पे भी, आगे किसी पोस्ट में। 

जन्मदिन कितना अहम होता है?

सुना जन्मदिन अहम होता है, किसी भी इंसान का। आजकल तो खासकर, बाजारों के हिसाब-किताब के अनुसार भी, कुछ ज्यादा ही अहम? और राजनीतिक विज्ञान के अनुसार? राजनीती वाला विज्ञान या हिसाब-किताब।    

थोड़ा बहुत जब इन नंबरों के जुए को जानने की कोशिश की तो पता चला, शायद बहुत ज्यादा अहम। वैसे ही, जैसे आपका नाम। आपकी सबसे बड़ी ID यही हैं। इनके इर्द-गिर्द बहुत कुछ घुमता है, आपकी अपनी जिंदगी में। थोड़ा-सा कहीं कुछ बदला नहीं, मतलब जिन्दगी उल्ट-पुलट होने लगती है। सच में ऐसा है क्या? जानकार ज्यादा बता पाएंगे। हाँ, मुझे जितना समझ आया अभी तक, वो आपके साथ बाँट सकती हूँ।        

टोना-टोटका, राजनीतिक-खोट-का

गुदड़ी के लाल 

तेरा जन्मदिन 

कौथ की चौथ सै?

कमेंट्री वालों की जानकारी के लिए 

मेरे जन्मदिन में सब जुड़वाँ हैं, एक ओड नंबर 19 को छोड़के इस 19 को ही प्रयोग किया गया, जिंदगी में रोड़े रोपने के लिए। 

22 11 77 क्या मस्त नंबर हैं ना ? और मेरे फैवरेट भी। चौथ इन नंबरों में कहीं नहीं है। ना कोई कौथ है और ना ही तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा। हालाँकि, ये मेरा ऑफिसियल जन्मदिन नहीं है। 10-12-1977 है, वहाँ। चौथ, वहाँ भी नहीं है। दादा, एडमिशन करवाने गए थे। तारीख और महीना भूल गए। उन दिनों, बर्थ सर्टिफिकेट नहीं होता था। हालाँकि, ये पता था की सर्दियों में दिवाली के बाद हुई थी। और साल याद था। तो बोल दी, कोई भी तारीख आसपास। हालाँकि, उन्होंने डायरी में, हम सब बहन-भाईयों की जन्मतिथि लिखी हुई थी। बाकी अलग-अलग जगह, अलग-अलग नंबर के मायने अलग-अलग हैं। जरूरी नहीं हर चार नंबर, हर किसी के लिए चौथ हो। जैसे कौन-सी चौथ जानने वालों के लिए। मैं किसी भी नंबर को बुरा या अशुभ नहीं मानती। मगर जब राजनीतिक जालों के हिसाब-किताब की बात हो, तो हमारे हिसाब-किताबों से, जरूरी नहीं वो मिलते भी हों।        

इन तारीखों को या नंबरों को पार्टियाँ, आम-आदमी के हिसाब से नहीं घुमाती। बल्की अपने जुए के जितने वाले नंबरों के हिसाब से चलती हैं। आप अहम तो हैं और होने भी चाहिएं, जैसे हर इंसान। मगर, राजनीती में और इस सिस्टम में आपके नंबर कहाँ फिट बैठते हैं, आपके लिए। वो आपको देखना होगा। पार्टियाँ देखेंगी, तो वो क्यों सच बताएंगी आपको? वो सिर्फ घुमाएंगी आपको। कई जगह तो जो समझ आया वो ये, की आपकी जिंदगी और पुरे घर को ही इधर या उधर के पड़ोसियों के हिसाब-किताब सा फिट किया जा रहा है। इसीलिए वो इन कोडों को और इनके मतलबों को घुमाफिरा के बताती हैं। जिसमें छल-कपट, चालें और घात बहुत होता है।

अपनी जिंदगी में, अपने नंबरों को अहम रखो। ऐसे ही, औरों के लिए उनके अपने नंबर अहम रहने दो। ये है, अपनी जानकारी का हिसाब-किताब। थोड़ा बहुत शायद और लिख पाऊँ, आसपास के और राजनीतिक पार्टीयों के हिसाब-किताब के अनुसार। आपकी जानकारी क्या कहती है?   

Monday, November 20, 2023

समस्याएँ और समाधान ?

कहीं पुस्तैनी जमीन जायदाद के झगडे, तो कहीं सरकारी भी हमारे बाप की प्राइवेट लिमिटेड? 

नागीन-सपेरा? 100-100 नाग पड़े रहं गल मैं, सामान्तर घड़ाई? जहाँ-जहाँ नाश उठाना हो, वहीं छुपम-छुपाई खेल शुरू हो जाते हैं?    

कमजोर वित्तीय स्थिति के लोगों के विवाद हैं ये? ऐसे विवाद, तब ज्यादा होते हैं, जब एक ही घर हो और उसे प्रयोग करने वाले कई। सबके अपने-अपने घर होंगे, तो ऐसे विवाद ही कहाँ से पनपेंगे? बढ़िया है ना, की अपने-अपने घर ढूँढो या बनाओ। इन पुस्तैनी जमीनों के वाद-विवादों से दूर कहीं।  

मगर उसके हिसाब से पैसा चाहिए। उसपे जहाँ आप रहना चाहते हैं, उसके हिसाब से पैसा चाहिए। वो तो कमाना पड़ेगा। बगैर, काम-धाम या मेहनत किए तो कुछ नहीं हो सकता। मगर यहाँ पे अजीबोगरीब तरह के किस्से-कहानियाँ हो सकते हैं। जैसे, दो भाई या दो बहन हों। एक मेहनत करके खाए। दूसरे ठगु को पता ही ना हो, वो क्या बला होती है? गलती शायद बहुत ज्यादा उसकी भी ना हो। माहौल, संगत, जो अच्छे भले लोगों को कामचोर और अपाहिज बना देता है। ज्यादातर गरीब इलाकों की या गरीब लोगों की अलग-अलग तरह की अजीबोगरीब सोच। जिसका इलाज सिर्फ और सिर्फ मेहनत है। ये तो हुई पुस्तैनी घरों या जमीनों की बात। 

तुम, खास किस्म के महान लोग, कब-कब और कहाँ-कहाँ, कह सकते हो उसे, की मेरे घर से निकल? वो भी पुस्तैनी मकान या जमीन पर बने घर से? ये कहानी भी, किसी एक औरत की नहीं है यहाँ। हर कमजोर औरत की? कमजोर औरत? या शायद कमजोर तबका। फिर वो चाहे औरत हो, या पुरुष? 

क्या हो अगर आपको पुस्तैनी चाहिए ही नहीं? आपके पास सरकारी हो और उस मकान के कोई खसम बने बैठे हों?  

एक वजह 

राजनीती के मकड़जाल और सामान्तर घड़ाईयों की सोच की पैदा की गई सोच है। जिसमें, जिसकी लाठी, उसकी भैंस का महान मंत्र है। सोचो, आप यूनिवर्सिटी में टीचर हों। वहाँ का कर्मचारी होने की वजह से कैंपस घर, आपकी नौकरी की वजह से, बहुत सारी और सुविधाओं की तरह ही, एक सुविधा हो। कुछ अलग से खास नहीं। और आपको किन्हीं ऐसे लोगों से सुनने को मिले, "मेरा घर खाली कर", जिनकी कम से कम योग्यता भी, उस नौकरी के आसपास ना हो? और ना ही वो यूनिवर्सिटी के कर्मचारी, किसी भी स्तर पर। एक बार तो आप यही सोचेंगे, की खिसके हुए बन्दे हैं। या अगर कोई लड़की हो, जो ससुराल से घर आ बैठी हो, तो शायद ज्यादा ही दुखी है, ससुराल वालों से। शायद इसलिए दिमाग खराब हो गया है। थोड़ी मेहनत घर के कामकाज की बजाय, अगर ध्यान पढ़ाई पे दे, तो शायद कुछ भला हो जाए, ऐसे-ऐसे लोगों का भी। क्यूँकि, ऐसा भी नहीं है, की दिमाग या मेहनत की कमी है। मेहनत, घर के वाद-विवादों और कामकाज में व्यस्त है। और दिमाग, मानव रोबोट वाली राजनीतिक सामान्तर घड़ाईयों का मारा। मानव रोबॉट, खुद का दिमाग ही नहीं प्रयोग हो रहा हो, जैसे। मतलब गड़बड़ फिर से माहौल, मीडिया (वही बायो वाला मीडिया), जिसके मकड़जाल में लोगबाग हकीकत और भावनात्मक-भड़काव तक का फर्क नहीं महसूस कर पाएँ। चलती-फिरती गोटियाँ या मानव रोबॉट।     

यूनिवर्सिटी के माहौल से निकलने के बाद, आपको वहाँ का माहौल ही, अपने लिए सबसे बड़ा अवरोध नजर आने लगे। आपको लगने लगे की उस माहौल से निकलना भी जरूरी है। क्यूँकि, आप उस नौकरी की वजह से, खुद को मकड़जाल में फँसा हुआ अनुभव करने लगें? 

दूसरी साइड/वजह 

कहीं से नेक सलाह, वो भी धमकी की तरह जैसे। वो भी फिर किसी ससुराल से घर बैठी हुई लड़की से। कितनी नेक? " तुम्हारे पास और कोई विकल्प नहीं है। ये नौकरी या भारत से बाहर।" ये नौकरी का मतलब है, यहाँ-वहाँ, कोरे पन्नो पे दस्तखत। जो पहले ही बहुत नहीं हो चुका? वही साइको तमाशा। और सोचो, ये सब हमारे महान सुप्रीम कोर्ट और सरकार की देखरेख में हो? बाकी पार्टियाँ भी पार्टी हों, ऐसे-ऐसे समझौतों में? बहुत से प्रश्न खनकने लगते हैं, ये सब जानकर या सोच समझकर। 

कमजोर वित्तीय स्थिति के लोगों के विवाद? या जुआरियों और शिकारियों की वजहें हैं, इन सब विवादों की? क्यूँकि, देश तो हैं ही नहीं। ना ही कोई कानुन। बस जुआ और शिकार? जिसका दाँव चल जाए, जैसे भी, जहाँ कहीं भी। और महान देश के कर्ता-धर्ता कहें, इस जुए से बाहर कोई दुनियाँ ही नहीं है। मतलब, समस्या ही समाधान है? या समाधान भी समस्या?           

Sunday, November 19, 2023

जादु ? नजरबंद जैसे ? या टेक्नोलॉजी की दुनियाँ ?

जादु ? नजरबंद ? मतलब छल, कपट के तरीके से कुछ का कुछ दिखाना या बताना, मगर हकीकत छुपाना।  

इंसानों पे नियंत्रण। कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैंस जैसे पालतु या भेड़-बकरी, गधे-घोड़े या अन्य औधोगिक जानवरों पे नियंत्रण। पेड़-पौधों पे नियंत्रण। इस पार्टी द्वारा या उस पार्टी द्वारा। साफ बताके नौटंकियाँ या ज्यादातर गुप्त तरीके से। गुप्त तरीके मतलब, वो आपकी जिंदगी ही, अपने घड़े किरदारों के आसपास हकीकत में घुमाते हैं। बहुत बार गुस्सा और घिन भी आती है, ऐसे लोगों पे। खासकर, जब उनके प्रयोग के जीव-जंतु भुगतते दिखते हैं। ये बाकी जीव जंतुओं का तो काफी हद तक समझ आ गया शायद। या धीरे-धीरे और आ जाएगा। 

पक्षियों का कुछ-कुछ आ गया। कुछ-कुछ, अभी भी पहेली-सी है। हर जीव को खाना, रहने की जगह और सुरक्षा चाहिए। उसमें बदलाव, सिस्टम या कहो वातावरण के बदलावों की वजह से, या जबरदस्ती, पक्षियों को भी इधर-उधर करता है। जिनके संकेत, हमारे जैसे, observation के बावजूद, शायद थोड़ा लेट समझते हैं। कलाकारों के संकेत तो, यहाँ-वहाँ, चलती-फिरती गोटियों की तरह, इधर-उधर नजर आने लगते हैं। सिर्फ नजर नहीं आते, बल्की उन्हें बढ़ाने-चढ़ाने के लिए (Amplification), खास पेश किए जाते हैं। अब आप उन्हें कितना मानने लगते हैं और कितना नकार के सतर्क रहने लगते हैं, ये आपपे है।  

H#30, टाइप-4, में एक दिन ऐसे ही कुछ गुलाब ग्राफ्ट कर रही थी, शायद कुछ जानने के लिए। और एक कौआ, बार-बार उधर मंडरा रहा था। अब तर्कसंगत सोच तो ये देख रही थी, की कहीं आसपास इसका घोषला तो नहीं। मगर बाद में जब लैपटॉप पे कुछ काम करने बैठी, तो एक मजेदार विज्ञापन बार-बार आ रहा था। जब वो सीरियल देखा, तो गुस्सा आ रहा था, की लोगबाग मेरी सोच में डर पैदा करना चाह रहे थे, शायद। जो मुझे समझ आया, वो सीधा-सा मतलब हर कदम पे यही था, ये घर खाली करो। अब मुझे तो पता था, की मैं 24-घंटे लाइव हूँ। कैमरों के पहरे में या और कितनी ही तरह के सर्विलैंस। और वही पहरा, बहुत कुछ ऑनलाइन या ऑफलाइन दिखाता या बताता भी है। शुरू-शुरू में जब इस 24 घंटे के पहरे का पता चला, तो जरुर सदमें में थी। कई साल लगे, उससे कुछ हद तक उभरने में या उसके थोड़ा-बहुत अभ्यस्त होने में। मगर किसी ऐसे आम-आदमी को अगर बताया जाए, जिसकी विज्ञान या सर्विलैंस की समझ बिलकुल ही नहीं हो, तो वो ऐसे अहसास या अनुभव को कैसे लेगा? 

सोचो आपने कोई पक्षी देखा। कोई भी हो सकता है, कौआ, चील, कोतरी। और फिर आप जैसे ही लैपटॉप पे कोई काम करने बैठे, या कोई खबर ही देखें, या मैच या सीरियल। और बार-बार कोई विज्ञापन आपको दिखाया जाए।  कोई उस पक्षी के आसपास घुमता ऐसा सीरियल, जिसमें उस पक्षी के खुंखार रूप को दिखाया हो? आपको नहीं मालुम, की आपको कोई देख रहा है या कहना चाहिए, देख रहे हैं। और वो सीरियल भी ऐसे ही कहीं से विज्ञापन के रूप में आपको दिखाया गया है। हो सकता है यूट्यूब पे, या किसी चैनल पे या किसी सोशल मीडिया पे। अपने आप नहीं हुआ। हो सकता है, कोई आपसे खुंदक खाता हो, और उसे आपके मन में कोई डर बिठा कर, अपना कोई काम करवाना हो। अहम, आपको मालूम ही नहीं, की ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, डर का अहसास पैदा करने की कोशिश अपने आप नहीं है। इनके पीछे कोई एक-दो इंसान नहीं, बल्की, राजनीतिक पार्टियाँ और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ काम करती हैं। 

जादु? नजरबंद जैसे? या एक ऐसी टेक्नोलॉजी की दुनियाँ, जिसके बारे में आपको खबर ही नहीं, की वो कैसे-कैसे आपको मानव-रोबोट बनाते हैं। और इस मानव रोबोट बनाने में डर पैदा करना तो अहम है ही। और भी कितनी ही तरह के अहसास या अनुभव ऐसे करवाना होता है, जैसे आपको लगे की अपने आप हो रहा है। या आप खुद कर रहे हैं, और वही सही है। क्यूँकि, आपको इन गुप्त सुरंगों की, गुप्त समुहों की, गुप्त और छल कपट के तरीकों से काम करने और लोगों से करवाने वाले लोगों या टेक्नोलॉजी के प्रभावों या दुस्प्रभावों की जानकारी ही नहीं है। दुनियाँ रुपी इस रंगमंच पे जो कुछ आप देखते हैं, या सुनते हैं या अनुभव करते हैं, अहसास करते हैं, उसके पीछे दुनियाँ के बड़े-बड़े शातीर दिमागों के समुह काम करते हैं। वैसे ही, जैसे परदे पे जो किरदार दिखते हैं, उनके पीछे कितनी सारी टेक्नोलॉजी और लोगों के समुह, कितने सारे काम करते हैं। उनमें से ज्यादातर के आपको नाम तक पता नहीं होते। काम क्या करते हैं, वो तो बहुत दूर की बात। उन्हें और उनके काम को जितना ज्यादा जानने और समझने की कोशिश करोगे, ये दुनियाँ उतनी ही ज्यादा पारदर्शी नजर आएगी। और आप इन गुप्त, छल-कपट वाले मकड़जालों से थोड़ा-बहुत बच पाएँगे।    

ऐसे-ऐसे एक नहीं, कई सारे वाक्या हुए। कुछ जो अभी तक मेरी समझ से बाहर हैं, शायद जानकार बता पाएं। पक्षियों पे नियंत्रण? मगर किस हद तक? क्या इंसानों या बाकी जानवरों की तरह, उन्हें किसी खास जगह या किसी खास मौके पे भेझा जा सकता है? झुंड में या अकेले? क्या कोई खास तरह के पक्षी ही कहीं नजर आएँगे, बिलकुल ऐसे, जैसे कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैंसों, घोड़ों के साथ हो रहा है? आते हैं, ऐसे ही कुछ प्रश्नो के साथ, किसी अगली पोस्ट में।                               

नियंत्रण (Control )

ये पोस्ट अगस्त 2021 में लिखी गई थी। क्या खास है इसमें? 

एक ऐसे Resignation के बाद, जिससे पहले और जिसके आसपास हादसों के अम्बार थे। या शायद कहना चाहिए, मुझे तभी दिखने और समझ आने लगे थे, इतने बारीकी स्तर पे। या शायद दिखाए गए थे और दिखाए जा रहे हैं। या शायद यही वो संसार की हकीकत है, जिसे आम आदमी के लिए जानना-समझना बहुत जरुरी है। 

वो अपना रंग देना चाहते हैं, हर रंग को 

वो अपनी चालो में बांधना चाहते हैं, हर ढंग को  

उनके जाल में कैद है, हर पंछी, हर प्राणी 

उनके चक्रव्यूह में फँसा है, हर इंसान  


क्यूँकि 

वो अपना रंग देना चाहते हैं, हर रंग को 

वो अपनी चालो में बांधना चाहते हैं, हर ढंग को  

उनके जाल में कैद है, हर पंछी, हर प्राणी 

उनके चक्रव्यूह में फँसा है, हर इंसान  


What is this?

The way things work at each and every step.

So many diseases, operations and so-called deaths happen same way. They need a bit more minute detailed observations and a bit more time for study and research than this simplest example.

Common sense: Pattern Fraud 

Day by day things change in the surrounding (environment) in some pattern. Some simple growths, progresses, competitions, some directed but invisible enforced directions, some systematic automation and consecutive cumulative effects.

Probably, many would not understand this until and unless go through some case studies.
Part of "Bio-Chem-Physio-Psycho, Electronics Warfares: Cons and Pros"

Thursday, November 16, 2023

आओ माहौल घड़ते हैं (वातावरण? संगत? मीडिया?)

आओ माहौल घड़ते हैं। ऐसा माहौल जो आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। क्या है ये माहौल? 

वातावरण? संगत? 

या सही शब्द होगा शायद, मीडिया। मीडिया, मतलब किसी भी जीव की संतुलित ग्रोथ के लिए जरुरी तत्वों का मिश्रण। ये प्राकृतिक भी हो सकता है, जैसे feotus liquid medium (Amniotic Fluid)। या जैसे लैब में तैयार किया जाता है, कृत्रिम ग्रोथ माध्यम।      

बायोलॉजी में मीडिया का मतलब होता है, किसी भी जीव का जीने और फलने-फूलने का वातावरण। जो कृत्रिम रूप से लैब के कंट्रोल वाले वातावरण में प्रदान करवाया जाता है। जिसपे अक्सर अलग-अलग तरह के प्रयोग भी किए जाते हैं। अलग-अलग तरह के मीडिया में अलग-अलग तरह के जीवों पे। अलग-अलग तरह के पोषक तत्वों की मात्रा को घटाकर या बढ़ाकर। या किसी पोषक तत्व की कमी करके या उसे इस मीडिया से हटाकर या अधिकता करके। या कुछ पोषक तत्वों की बजाय, कुछ हलके या ज्यादा जहरीले तत्व उस ग्रोथ मीडिया में डालकर। अलग-अलग तरह के तत्वों वाले मीडिया का असर, अलग-अलग तरह के जीवों पे देखने और जानने के लिए। ये बच्चों जैसे-से प्रयोग हैं। अलग-अलग विषयों के ज्ञाता, इससे कहीं ज्यादा जटिल प्रयोग करते हैं। इतने नियंत्रित वातावरण में बहुत ही आसान होता है, किसी भी जीव को अपने अनुसार पैदा करवाना, आगे बढ़ाना या रोककर रखना या खत्म कर देना। और इन सबके कितने ही तरीके हो सकते हैं।   

बायोलॉजी की लैब से परे, जो सामाजिक मीडिया है, वो भी यही सब करता है। लैब में ये सब करने के कायदे-नियम होते हैं। मगर राजनीती के रण में ज्यादातर नियम-कायदे, अक्सर ताक पर होते हैं। सत्ताओं के हिसाबों के अनुसार, ढलते और बदलते रहते हैं। इसलिए जरूरी होता है, अपने आसपास के मीडिया पे नजर रखना और जो आगे बढ़ने के लिए जरूरी हो, सिर्फ उस मीडिया को आसपास रखना। या जो आगे बढ़ने में अड़चन हो, उससे थोड़ा दूर बचकर रहना और लोगों को भी बचाकर रखना। वो कहते हैं ना, की किसी भी बाग पे कितनी मेहनत हो रखी है, या उसने कैसे-कैसे वातावरण झेले हुए हैं, ये उसको देखते ही बताया जा सकता है। जिस बाग पे जितनी ज्यादा मेहनत होती है, वो उतना ही ज्यादा हरा-भरा मिलेगा। मगर कितनी भी मेहनत किसी काम की नहीं रहती, अगर उसका माहौल या ग्रोथ-मीडिया सही नहीं है तो। उसमें किसी भी तरह के जहरीले तत्व, किसी भी रूप में मौजूद हैं तो। आम-आदमी की समझ यहाँ मार खा जाती है। जब उसे लगने लगता है, की इतनी मेहनत करके भी, मेहनत के हिसाब से नहीं मिल रहा। क्यूँकि, या तो उसे अक्सर ऐसे जहरीले तत्वों की जानकारी ही नहीं होती। या जानकारी होते हुए पता नहीं होता, की उनसे निपटा कैसे जाए? तो एक तो सीधा-सा तरीका होता है, की ऐसे माहौल से थोड़ा इधर-उधर खिसक जाएँ, जहाँ माहौल आपके आगे बढ़ने के लायक हो। हालाँकि, वो भी इतना आसान नहीं होता, जितना कहना या लिखना।            

चलो इस माहौल को राजनीती और इसके षड्यन्त्रों से थोड़ा परे लेकर चलते हैं। खामखाँ की खबरों और बेवजह के मीडिया से थोड़ा दूर, अपने-अपने कामधाम की खबरों और मीडिया के आसपास लेकर चलते हैं। पहले तो अपने माहौल या इस ग्रोथ मीडिया के प्रकार को जानने की कोशिश करें। 

आपका माहौल या मीडिया -- 

आपको आगे ले जा रहा है  

या पीछे धकेल रहा है?  

रस्ता दिखा रहा है 

या रस्ता रोक के खड़ा है? 

बढ़ोतरी में सहायक है  

या नीरा घाटे का सौदा? 

जिंदगी आसान बना रहा है 

या जिंदगी को मुश्किल बना रहा है ?


आपका माहौल या मीडिया --  

आपकी अच्छाईयों को बढ़ा-चढ़ा रहा है   

या उन्हें  रोंदने का काम कर रहा है? 

कुरड़ पे कचरे का ढेर जैसे? 

 

माहौल ही है, 

जो जितना आप करते हैं 

कम से कम उतना तो वापस देता है  

या सिर्फ और सिर्फ आपसे लेने का काम कर रहा है?

आपको खत्म करने की तरफ धकेल रहा है ?   

Manipulations, twisting facts. Amplifying or trying to delete the good and add bad. If anyhow fails in that, then atleast try to show or present you like that?  जैसे गुड़ का गोबर करना।  

तो मीडिया को जानना और समझना बहुत जरूरी है। बच्चों के लिए भी, और बड़ों के लिए भी। पहले, बच्चों से और उनके काम की खबरों के मीडिया के आसपास चलते हैं। उसके बाद धीरे-धीरे, बड़ों के कामधाम के मीडिया पे आएंगे।  

माहौल

कुछ भी करने या करवाने के लिए माहौल अहम है। आप खुद जिस माहौल में रहते हैं, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। आपको किसी से कुछ करवाना है, तो आपको उस इंसान को ऐसा माहौल देना बहुत जरुरी है। चाहे फिर वो अच्छा हो या बुरा। इंसान को मानव रोबोट बनाने में इस माहौल की अहम भुमिका है। आपको या आपके अपनों को पता लगे बगैर, ऐसे-ऐसे माहौल में धकेलने की कोशिश होती है, जिससे सामने वाले का स्वार्थ सिद्ध हो जाए। जब पार्टियों की सामाजिक स्तर पर सामान्तर घड़ाई होती हैं, तो वो सबसे ज्यादा काम उनकी स्वार्थ सिद्धि वाले माहौल में धकेलने या माहौल को ऐसा बनाने में करते हैं। आप कैसे माहौल में हैं, वो माहौल उनकी स्वार्थ सिद्धि में कितना उपयोगी है? अगर नहीं है, तो उसे बदलो। मानव रोबोट घड़ाई का ये अहम कदम है। इससे पहले उनके पास आपके बारे में बहुत सी जानकारी भी होनी चाहिए। वो जानकारी जितनी ज्यादा होगी, उतना ही आसान होगा, उनके अनुसार आपको गढ़ना।     

जहाँ अच्छे के लिए हो, वहाँ तो सही है। मगर जहाँ बुरे के लिए हो, वहाँ सतर्कता बहुत जरुरी है। नहीं तो कोई आपका अपना, उनके प्रयोग की बली चढ़ सकता है। और आपको लगेगा ये तो खुद हुआ है। या किस्मत ही ऐसी है। किस्मत भी सतर्कता और मेहनत माँगती है। मेहनत से भी ज्यादा, माहौल माँगती है। क्यूँकि, विपरीत माहौल में बहुत ज्यादा मेहनत करने पर भी मिलता बहुत कम है। जबकी जहाँ माहौल सही हो, वहाँ कम मेहनत में भी ज्यादा। आओ कुछ माहौलों के परिणामों पे गौर करें।

कोई भी माँ-बाप, बहन-भाई या आसपास का रिस्तेदार आपका बुरा नहीं चाहता, ज्यादातर। मगर माहौल कई बार ऐसा बना दिया जाता है, जिससे लगे की वो आपका बुरा कर रहा है या कर रही है। पहली तो अहम बात होती है की एक-दूसरे पर विस्वास करें। जहाँ तक हो सके, संवाद ना खत्म करें। वो खत्म होते ही, आपके दुश्मनों के लिए बहुत कुछ आसान हो जाता है। पता नहीं वो एक दूसरे के खिलाफ क्या-क्या, ना हुआ भी घड़ देते हैं। या इतना बढ़ा-चढ़ा या तोड़-मरोड़ देते हैं, की हकीकत के बिलकुल विपरीत समझ आए। भाभी की मौत के बाद, ऐसा ही कुछ चल रहा था। उससे पहले भी बहुत तरह के भावनात्मक भड़काव थे, इधर-उधर से। हकीकत जानने की कोशिश करें। सिर्फ सुने-सुनाए या दिखाए या अनुभव करवाए पर ना जाएँ। क्यूँकि, इसपे बड़े-बड़े मार खा जाते हैं। जब तक संभलते हैं, तब तक बहुत बार, देर हो चुकी होती है। क्यूँकि, हकीकत को जहाँ तक हो सके छुपाके रखना भी, राजनीती के छल-कपट का अहम हिस्सा होता है। 

अपने बच्चों को खासकर, बाहर के माहौल से जहाँ तक हो सकता है, बचाएँ। हर कदम पे सामांतर घढ़ाईयाँ चल रही हैं। वो उनके लिए सही नहीं हैं। जहाँ तक हो सके, अपने बच्चों को अपनी नजर से ज्यादा दूर ना जाने दें। किसी बाहर के इंसान के साथ, इधर या उधर ना भेझें। बहुत ज्यादा हो रहा है ना? ऐसा नहीं है की लोग विस्वास के लायक नहीं बचे। ज्यादातर आज भी भले हैं और किसी का बुरा नहीं चाहते। मगर राजनीती के जालों ने और कुछ एक ने माहौल को ऐसा बना दिया है। तो रिस्क लेना चाहेंगे आप? माहौल सही नहीं है, खासकर राजनीतिक। इसलिए ये सब जरुरी है। सबकुछ माहौल पे निर्भर करता है। 

बुरे माहौल को भले में कैसे बदलें?

अपने घर और आसपास का माहौल सही करें। वो करने कोई और नहीं आएगा। आपके मंदिरों से भी ज्यादा जरुरी है, किताबों का होना। क्यूँकि मंदिर जहाँ षडयंत्रों, भावनात्मक-भडकावों और राजनीती के छल-कपट के भद्दे अड्डे बन चुके हैं। वहीं बुरे से बुरे माहौल में भी, अच्छी किताबें उन छल-कपटों के पार जाने के रस्ते हैं। ये उनके लिए भी, जो कहते हैं की हमने तो बहुत किया अपने बच्चों के लिए, मगर फिर भी नालायक निकले। अभी शायद उनकी उम्र खत्म नहीं हुई। एक बार थोड़ा-सा ये भी करके देख लें, क्या पता आपको उनके लिए बहुत कुछ ना करना पड़े। माहौल मिलने पे हो सकता है, वो अपने आप करने लग जाएँ। वो भी सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्की आपके और अपने आसपास के लिए भी। जितना वक्त, श्रद्धा या दान आप मंदिरों के नाम करते हो, या राजनीती के हवाले कर देते हो, कम से कम उतना हिस्सा, पढ़ाई या किताबों को भी दे दो। जिस किसी भी चीज को आप बढ़ाना चाहते हैं, उसे जितनी ज्यादा अपने घर, आसपास और अपनी खुद की दिनचर्या का हिस्सा बनाएँगे, वो अपने आप होती जाएगी। और कुछ नहीं, तो दिखावा मात्र ही सही। 

जैसे उस छोटे से मंदिर को अपने घर में खास जगह दे रखी है, वैसे ही एक छोटी सी लाइब्रेरी, अलमीरा या कमरे को सिर्फ और सिर्फ, पढ़ाई-लिखाई के नाम कर दो। जितना ध्यान उन मूर्तियों पे लगाते हो, उस ज्योत पे लगाते हो, उनके रख-रखाव, साफ-सफाई में, पूजा-पाठ की सामग्री, विधि और फलाना-फलाना खास दिनों पे पूजा या श्रद्धा में लगाते हो, इस भगवान में या उस भगवान में लगाते हो, वैसा-सा ही कुछ, इस विषय या उस विषय की किताबों पे लगाके देखो। ऐसा नहीं है की आपके लायक विषय ही नहीं हैं। और ऐसा भी नहीं है की आपमें दिमाग की कमी है। हाँ, उसका कितना और कहाँ प्रयोग है, इसका फर्क है। जैसे बच्चों को ऐसे घरों में अलग से बताने या पढ़ाने की जरुरत नहीं पड़ती, इन मंदिरों और भगवानों के बारे में। वो माहौल से अपने आप सीख जाते हैं। डराने, धमकाने या मार-पिटाई की जरुरत नहीं पड़ती। ऐसा ही पढ़ाई-लिखाई का है। उन्हें जैसा माहौल मिलता है, वो उतना ही सीखते हैं। ना उससे कम, ना उससे ज्यादा। हाँ। एक बार खुद लगन हो गई, तो डाँट-डपट या मार-पिटाई की भी जरुरत नहीं पड़ेगी। 

ज्यादातर टीचर्स के, साइंटिस्ट्स के, डॉक्टरों के बच्चों को ये जरुरत नहीं पड़ती। क्यों? बच्चे, माँ-बाप को सुबह-शाम, पढ़ते-लिखते देखते हैं। जिधर देखो, किताबें ही किताबें दिखती हैं। किताबों से भरी अलमारियाँ और खास स्टडी रूम या लाइब्रेरी रूम दिखते हैं। किसी भी ऐसे इंसान के घर जाओगे, तो शायद ड्राइंग रूम में घुसते ही किताबें नजर आएँ। सुबह-शाम, उठते-बैठते, बातें उन्हीं के इर्द-गिर्द घुमती मिलेंगी। अब अपने यहाँ के माहौल की, उस माहौल से तुलना करके देखो। शायद पता चल जाए, कमी कहाँ है? माहौल में है। उसपे सिर्फ उनके घर का ही नहीं, बल्की आसपास का या आने-जाने वालों का भी माहौल ऐसा ही मिलेगा। और आपके यहाँ? अगर आप 10-12 पढ़े हैं और फिर भी लगता है की अपने बच्चों को पढ़ाने में दिक्कत है? तो मान के चलो, वो आपका खुद पे विस्वास कम होना है। या हो सकता है, हिंदी में पढ़े हैं और बच्चा इंग्लिश में पढ़ रहा है? तो चलो, अपने बच्चों के साथ उसे आप भी फिर से पढ़ लें। जो स्कूल में कभी हो सकता है की जबरदस्ती पढ़ा हो। अब जब आपका क्लास का सिलेबस नहीं है, तो हो सकता है आसान लगे और अच्छा भी। 

मुफ्त पढ़ाई 

आज के वक्त में पढ़ाई और ज्यादातर कोर्सेस मुफ्त हैं, ऑनलाइन। वो भी, अच्छे-अच्छे स्कूलों और यूनिवर्सिटी के टीचर्स के Class lectures और Labs तक। प्रीस्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक। अगर किताब से पढ़ने में मुश्किल हो, तो बहुत से मुफ्त के, यूट्यूब पे विडियो मिल जाएंगे। हर क्लास के और विषय के। वो भी बहुत ही आसान तरीके से समझाने वाले। इसलिए, ये खास कोचिंग सेंट्र्स समझ से बाहर हैं। आपने BA या BCom या शायद MA भी किया हुआ है? और वो डिग्री आपके बच्चे को पढ़ाने तक के काम नहीं आ रही? या शायद काम चल रहा है, जरुरत ही नहीं समझ रहे? टूशन वाले कब काम आयेंगे? एक बार शुरू करके देखो, घर में ही पढ़ाना। बस थोड़ी-सी मेहनत और थोड़ा-सा वक्त, अपने बच्चे के लिए। शायद आपको खुद को अच्छा लगने लगेगा। और हो सकता है, की इस ऑनलाइन की मुफ्त वाली पढ़ाई में या सिखने में, खुद आपके लायक बहुत कुछ हो। पढ़ने, सीखने, या नया कुछ करने को। हो सकता है, कोई नया और बेहतर काम-धाम। या कोई नई हॉबी ही सही। शायद कुछ ऐसा, जो आप कभी करना चाहते हों और ना कर पाए? आपका ऐसा करना भी, माहौल को पढ़ाई के लिए सही बनाता है। जब आप खुद को और अपनों को या अपने आसपास को अच्छा बनाने में व्यस्त होंगे, तो राजनीती के या बाहर के जालों से भी थोड़ा दूर रख पाएंगे, खुद को भी और अपने आसपास के लोगों को भी।      

Wednesday, November 15, 2023

खास बच्चों के लिए और उनके अभिभावकों के लिए

कुछ वक्त पहले सुनने में आया की किसी बच्चे को बहुत ही छोटी उम्र में हॉस्टल भेझ दिया गया। जहाँ कोई और समाधान ना हो, वहाँ तो शायद सही है। लेकिन, अगर कोई सिर्फ ये सोचकर भेझने की सोचें, की इससे उस बच्चे का ज्यादा भला होगा, तो सही नहीं है। अगर घर के हाल बहुत बुरे नहीं है, तो कम से कम स्कूल तक तो उसे घर का माहौल चाहिए। उसका कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। पैसे से आप उसे घर का माहौल या माँ-बाप का प्यार या देखभाल नहीं दे सकते। हाँ। अगर आपके पास अपने बच्चों के लिए वक्त ही नहीं है, तो मान के चलो कुछ भी नहीं है। स्कूल के बाद तो ज्यादातर पढ़ाई, वैसे ही घर से दूर रहके होती है। इतने छोटे बच्चे उतने परिपक्कव भी नहीं होते की अपना भला या बुरा समझ सकें। और ज्यादातर मिडिल क्लास के स्कूलों के हॉस्टल, ना ही उतने अच्छे। Day Boarding तक तो फिर भी समझा जा सकता है। क्यूँकि, ज्यादातर बच्चे स्कूल के बाद टूशन पे होते हैं, खासकर जिनके यहाँ पढ़ाने वाले नहीं होते।   

जो माँ-बाप जितनी ज्यादा मेहनत अपने बच्चों के साथ उनके काम करवाने में करते हैं, उतना ही उन्हें इस चूहा-दौड़ में कम झुझना पड़ता है। जरुरी नहीं आप उतने पढ़े लिखे हों या आपको एक क्लास से आगे सबकुछ आता हो। बहुत जगह देखा है, की छोटी-छोटी सी चीजें, जैसे बच्चा जब पढ़ रहा है, तो सच में पढ़ रहा है या इधर-उधर वक्त ज्यादा बर्बाद कर रहा है, देखना मात्र ही बहुत होता है। कभी-कभार उसके साथ देर रात तक जागना, खासकर पेपरों के वक्त या सुबह उठाकार पढ़ने की आदत डालना ही काफी कुछ बदल देता है। ऐसा मैंने अपने कुछ cousins के यहाँ या दोस्तों के यहाँ देखा है। बच्चा रात को लेट पढ़ रहा है और माँ या बाप साथ में जाग रहे हैं। वो भी स्कूल के स्तर पे नहीं, बल्की यूनिवर्सिटी के स्तर पे। जबकी सुबह माँ-बाप को नौकरी पे भी जाना होता है, वो भी घर का काम करके। और अगर पूछो की ये तो खुद ही पढ़ लेता है या पढ़ लेती है, फिर आप क्यों जगरता करते हैं? जवाब मिलेगा, अरे उसे लगेगा कोई और भी साथ जाग रहा है, तो नींद कम आएगी। अब हॉस्टल में तो बच्चे रातभर जागते हैं। एक-दूसरे से होड़ रखते हैं, तो माहौल ही अलग होता है। घर पे सब सोते दिखेंगे तो उसे भी नींद जल्दी आएगी। क्यूँकि हॉस्टल में, खासकर पेपरों के दिनों में ऐसा ही होता है। जैसे कोई सो ही नहीं रहा।    

हालाँकि, जिन्हें लगन होती है, वो ये आदतें खुद भी बना लेते हैं। मगर बहुतों को शायद थोड़ा-सा दिक्कत होती है, खासकर ऐसे माहौल में, जहाँ पढ़ाई का मतलब या तो जबरदस्ती का टूशन हो या धमकाना और डराना। कुछ तो उससे आगे चलके, दे पटापट भी शुरू हो जाते हैं। वो दे पटापट या जबरदस्ती वाले ज्यादातर, 10-12 के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। और फिर ज्यादातर उन्हीं माँ-बाप का सिर फोड़ते हैं। और ऐसे माँ-बाप ऊपर से ये भी कहते मिल सकते हैं, की हमने तो बहुत किया, अपने बच्चों के लिए। क्यूँकि उन्हें शायद मालूम ही नहीं, की बहुत वाले कितना करते हैं। बहुत कुछ ना करके भी, पढ़ाई का माहौल देने की कोशिश करना, कहीं ज्यादा काम करता है। ऐसा माहौल, जहाँ बच्चा अपने आप पढ़ना शुरू करे। क्यूँकि, जबरदस्ती की बजाय, माहौल और लगन ज्यादा कारगार होता है। यहाँ माँ-बाप पे बेवजह का प्रेशर डालना नहीं है, सिर्फ ये बताना है, की पैसा सबकुछ नहीं दे सकता। जब तक आप अपने बच्चे को वक्त तक नहीं दे सकते।  

सुक्ष्म, गोपनीय, चालाकी, धुर्त तरीकों से नियंत्रण करना

Micromanagement: Subtle Ways of Control (Written on May 24, 2023)

 सुक्ष्म, गोपनीय, चालाकी, धुर्त तरीकों से नियंत्रण करना।   

शोषण के जितने भी तरीके हैं, वो सब इसमें प्रयोग होते हैं, मगर चालाकी और धुर्तता से, गोपनीय रखकर। या शायद आपको उसके सिर्फ फायदे गिनाकर और नुक्सान छुपाकर। इनमें ज्यादातर क्रूर और निर्दयता से भरे होते हैं। और आपको लगता है कोई नहीं कर रहा या आपसे करवा रहा। आप सब खुद ही कर रहे हैं। यही नहीं, बल्की बहुत बार आपको लगता है की जो आप कर रहे हैं, वही सही है। आपके लिए और आपके आसपास के लिए। मगर परिणाम अक्सर उल्टे होते हैं। क्युंकि, गोपनीय तरीके से करवाने का मकसद वो नहीं होता जो आप समझते हैं। खासकर, वो सब, जब आपको बिना बताये करवाया जाए या किया जाए।  

ये सब कुछ-कुछ ऐसे ही है, जैसे भाषा का सीधा-सीधा प्रयोग और उल्टा-सीधा प्रयोग (Cryptic Use, गुप्त प्रयोग) 

जैसे बहन, मतलब बहन 

Cryptic Bahan means Ba   Han    or Ba h     A n 

जैसे बेटा, मतलब बेटा 

Cryptic (B e    t a)       

जी मतलब जी 

Cryptic G means G (Can be even short form of something else)

Ji or Jee (can have totally different meaning than what they look like)

Aloevera  (Al oe ve ra), a cactus plant, having only leaves and needles on leaves. It can survive under stress conditions. Useful product is gel but not as much useful as hyped. 

ऐसे ही बाकी पेड़-पौधों के बारे में भी जान सकते हैं। 

जैसे फल Mango (M an go), Guava (Gua va), या फूल वाले पौधे Roses, Bougainvillea etc.  

तुम्हे किसी ने हनुमान चालीसा थमा दी या सुनने को दे दी मगर चाहियें बीबी और बच्चे? या शायद भक्त बना दिए हनुमान के, प्रसाद बांटते फिरते हो हनुमान का और यहाँ-वहाँ भिड़वा रहें हैं, शिव के नाम पे? राजनीती के क्रूर जालों की मायानगरी है ये बंधुओ। जितना जानोगे, उतना ही समझ आएगा की कर क्या रहें हैं या कहना चाहिए, करवाने वाले करवा क्या रहे हैं, और तुम चाहते क्या हो?  

16. 04 . 2010 (ये शिव की नहीं कालिख की तारीख है। अगर किसी तारीख को आपके घर से किसी को उठाया जाता है तो वो कम से कम आपके लिए शुभ नहीं, अशुभ है। हो सकता है की सामने वाले की स्वार्थ सिद्धि उसी से होती हो? तो उसके लिए तो वही शुभ है, चाहे किसी को दुनियाँ से उठा के ही हो। आपकी रोबॉटिक समझ क्या कह रही है ? क्या कहके घुसेड़ी गई है आपके दिमाग में? शिव के 16 ब्रत? लड़कियाँ करती हैं, किसी धर्म या रीती-रिवाज में? लड़के भी करते हैं क्या? हमारे यहाँ तो शायद रिवाज ही नहीं रहा, ऐसे ढकोसलों का? फिर कहाँ से आ गया? राजनीती ले आई या बाजार?         

एक महान आत्मा ने एक गढ़ा खुदवाया, कितने पीपे घी डाला और सवाहा? पुण्य मिलता है इससे? सनातन धर्म के अनुसार? हिन्दु भावनाएं नहीं खोली? नहीं। अब इस हिन्दू धर्म में कितने प्रचंड, और कर्म-धर्म के तरीके हैं? बस पूछो मत। उतने ही, जितने कुर्सियों को इधर से उधर और उधर से इधर करने को चाहियें। बाकी धर्मों का दुरूपयोग भी कुछ-कुछ ऐसे ही होता है। ये आम आदमी की समझ से बाहर के वाद-विवाद हैं? आम आदमी को सिर्फ भेड़ों की तरह जैसा बताया जाए, बस वैसा करना चाहिए? अपने नुक्सान-फायदे देखे बगैर? खुद को, अपने बन्दों को, आँखों पे पटी बाँध के, देश सेवा में अर्पित करते रहना चाहिए। आखिर, देश तुमसे कुर्बानी माँगता है, और बार-बार माँगता है। भला, राजे-महाराजों से देश जैसी ताकतें कब और कहाँ कुर्बानियाँ माँगती है? औकात उनकी? तो ये भी जानना जरूरी है की ये देश कौन हैं। ये देश भी वो नहीं है, जो आम आदमी जानता है।    

Show, Don't Tell : इस तरह के कर्म-धर्म के तरीके, सिर्फ राजनीतिक खेल (राजनितिक जुआ) के परिणाम पे मोहर लगाना भर नहीं होते। बल्की Manifestation और Amplification या twists and turns और manipulations के तरीके भी होते हैं। चीज़ों को बढ़ा-चढ़ा कर, जोड़तोड़, मरोड़कर, अपने तरीके से पेश करना। और आम-आदमी को, उसकी भनक भी न लगे। बल्की उसे लगे, ये तो हमारे भले के लिए हो रहा है।   

जो कुछ हो रहा होता है या वो कर रहे होते हैं या आपसे करवाना चाहते हैं, अक्सर उसके कोड आसपास चल रहे होते हैं। उन्हें समझना जरूरी होता है। पीछे, एक घर में एक बैडरूम में कुछ टाइल्स लगी थी। लगती रहती हैं। क्या खास है? पता नहीं क्यों, मेरी निगाह जब उनपे पड़ी तो वो हज़म नहीं हुयी। थोड़ा अजीब-सा लग रहा था। बाकी सब टाइल्स (Ti - Les?) एक जैसी थी, सिर्फ वही अलग क्यों? X X वाली किसी specific पैटर्न और design में। मैंने एक बार नहीं शायद 2-3 बार पूछा भी और जवाब मिला टाइल्स खत्म हो गयी थी, इसीलिए। और भी कुछ ऐसी ही चीज़ें हुई। खासकर, मेरी गाडी का ड्रामे के साथ उठना और second hand 2-गाड़ियों का घर में आना। मुझे तो दोनों ही पसंद नहीं। मगर जब बैंक बैलेंस बिगड़ा हो तो पसंद-नापसंद नहीं चलती। 

और भी कई ऐसी ही चीज़ें हुयी। इन निर्जीव चीज़ों का होना शायद इतना अहम् नहीं था। बल्की, उसके साथ-साथ, जो इंसानों के साथ हो रहा था, वो ज़्यादा अहम् था। क्या था वो? क्या आम आदमी जान सकता है, ऐसे घटना कर्मों को? और रोक सकता है, ऐसी अनहोनियों को वक़्त रहते? शायद, थोड़ा-सा इन रहष्यमयी गुप्त गुफाओं (Cryptic Tunnels of specific kinda knowledge) को जान समझकर। इनमें, बहुत जगह, बहुत तरह के बाहरी कण्ट्रोल और twists हैं, जो हमें या तो दिखते ही नहीं या समझ नहीं आते। बाहरी, मतलब राजनितिक पार्टियों का छुपा हुआ हस्तक्षेप, आम आदमी के बैडरूम और बाथरूम तक भी।    

बहुत से ऐसे गुप्त कोड, मानव कण्ट्रोल में भुमिका निभाते हैं। मगर कैसे ? आम आदमी के लिए जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत जरुरी है इन कोडों को और इनमें छिपे अनर्थों को समझना।     

Tuesday, November 14, 2023

मानव समझ और रोबॉटिक समझ (Common Sense Vs Robotic Sense)

आपके पास एक बाइक है, किसी ने बोला एक और ले लो। समझ (Common Sense) कहेगी, नहीं लेना। रोबोटिक समझ दिलवा देगी। कैसे? क्या कहके या बताके?  

आपके पास एक साईकल है, ठीक-ठाक। दूसरी की जरुरत नहीं। कोई कहे, ये और ले लो। समझ कहेगी, नहीं लेनी। रोबोटिक समझ, दिलवा देगी। क्या कहके, या बताके?

ऐसे ही गाडी या किसी और वस्तु के बारे में होता है। जो सेल्स डिपार्टमेंट में होते हैं, वो ये सब काम आसानी से करवा सकते हैं। जब आमने-सामने बात हो, तो अलग तरह के तरीके होते हैं। ऑनलाइन कुछ खरीद रहे हों, तो अलग तरह के। 

आप कहें, मेरे पास फलाना-धमकाना जेवर या कपड़े हैं या शायद कोई और अच्छा सामान। और कोई आपको कहे, की वो तो आपके लिए अशुभ है। वो फलाना-धमकाना दुकान से लिए हैं। या फलाना-धमकाना रूपए के हैं। या फलाना-धमकाना वक्त तक नहीं डालने। ऐसे में अशुभ बताने वाले हो सकता है, आपसे जलते हों। और खुद लेना चाहते हों, शातीर दिमाग का प्रयोग करके। और अगर ले ना पाएं, तो हो सकता है की आपको प्रयोग नहीं करने दें, अशुभ के चक्कर में डाल कर। बहुत तरीके हैं, ऐसा करने के भी। कहाँ से लिया है या कितने का है या कैसा रंग है, फर्क नहीं पड़ता इससे। अगर वो आपपे सही या सुन्दर लग रहा है। शतीर लोग, फट्टे-पुराने को भी शुभ बता कर डलवा सकते हैं, चाहे वो कितना ही भद्दा क्यों ना लग रहा हो। ये भी तो हो सकता है की सामने वाले की जलन ही, आपको फट्टे हाल देखने या दिखाने की हो? उलटे लोग, अक्सर खुद भी उलटे-पुल्टे कामों में लगे होते हैं और सामने वाले को भी ऐसे ही व्यस्त रखना चाहते हैं। क्यूँकि, इससे आगे उनकी औकात ही नहीं होती। शुभ और अशुभ के चक्कर में डालकर, ऐसे-ऐसे उल्टे दिमाग, लोगों से कितने ही उल्टे-पुल्टे काम करवाते हैं। अगर आपकी मानव समझ होगी तो आप कम से कम एक बार तो सोचेंगे की मैं कोई उल्टा-पुल्टा काम क्यों करूँ? इससे किसका फायदा? मगर रोबॉटिक समझ? वो सब करवा देगी। अब रोबोट बनाने के इतने तरीके होते हैं। जिनमें अहम है, एक तरह से दिमाग पे पर्दा डाल देना। जिससे आदमी खुद का दिमाग प्रयोग नहीं कर पाता। क्यूँकि, इंसानी समझ ज्यादातर उल्टे-पुल्टे या गलत से दूर रखती है।              

मान लो किसी के पास सोने, चाँदी के जेवर हैं। कोई कहे चाँदी वाले आपके लिए शुभ हैं। सोना मत डालना, वो अशुभ है। समझ कहेगी, सोना अच्छा है तो शुभ भी होगा। मगर रोबॉटिक समझ उसे प्रयोग नहीं करने देगी। क्यूँकि दिमाग उसे अशुभ मान चुका। बताने वाले शातीर दिमागों ने कुछ तो ऐसा बताया होगा, की ऐसा मान चुका। तभी तो वो शातीर हैं और आप नासमझ।  

कोई और भी ज्यादा समझदार हो तो ये भी कह सकता है। वैक्यूम क्लीनर प्रयोग ना करो वो अशुभ है और झाडु शुभ। आपको सहज और आरामदायक क्या है ? तो वही शुभ है। 

कुछ तरह की धातु, पानी और हवा के साथ मिलके जल्दी काली हो जाती हैं। इसीलिए कम डाली जाती हैं। जबकि कुछ धातुएँ हवा और पानी के साथ मिलके, उतनी जल्दी काली नहीं पड़ती। जो जल्दी काली पड़ती हैं, वो ना सिर्फ सस्ती होती हैं, बल्की तव्चा को भी नुक्सान पहुँचाती हैं। इसीलिए कोई धातु या वस्तु अगर महँगी है, तो शायद कुछ तो अच्छा होगा उसमें। हालाँकि ब्रांड्स के बारे में इस कथन में अंतर हो सकता है। इसलिए लोगों के कहने पे मत जाओ, की क्या शुभ है और क्या अशुभ। रोबोट बनने की बजाय, अपना दिमाग भी प्रयोग करो।  

मान लो, आपको सफेद रंग पसंद हो और कोई कहे ये तो आपपे जमता नहीं, अच्छा नहीं लगता। और उसको कोई और बेचना हो, तो वो कहे की वो आपपे ज्यादा जमता है या अच्छा लगता है। या ये शुभ है और वो अशुभ। हो सकता है, आपके लिए उसका उल्टा हो। मगर, सामने वाले का तो काम हो गया। ऐसे कई रंगों का मेरा अपना अनुभव रहा है। किसके साथ खरीदने जाओगे तो नीला या कबूतरी आएगा। और किसके साथ जाओगे तो हरा या स्कीन कलर। किसके साथ जाओगे तो लाल या गुलाबी। कई बार ऐसे रंग भी आ जाएंगे, जो आपको कभी पसंद ही नहीं रहे। कैसे? हर पार्टी के अपने शुभ-अशुभ हैं। और हर इंसान के लिए अलग। वही शुभ-अशुभ ज्यादातर, उन पार्टी के प्रचार-प्रसार के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचते हैं। जरूरी नहीं आम आदमी को पार्टियों के अपने रंग भी होते हैं, तक का पता हो। या ये पता हो, की अलग-अलग रंग का अलग-अलग पार्टी में मतलब भी अलग होता है। जैसे हो सकता है आपको लाल या हरा या नीला या कोई और रंग पसंद हो। एक ही रंग के अलग-अलग जगह या मौकों पे, कई तरह के मतलबों को कैसे जाने ? जैसे लाल एक तरफ हिन्दुओं में शादी पे पहना जाता है और प्यार और समर्द्धि का प्रतीक है। तो दूसरी तरफ खतरे की निशानी। वो आपकी अपनी समझ बता देगी। मगर बहुत बार ये समझ थोपी हुई भी हो सकती है। उसको अशुभ या कुछ और बताके। ज्यादातर, आम आदमी की अपनी कोई पसंद-नापसंद कम ही होती है। वो माहौल, समाज, वक्त, रीती रिवाजों, राजनीती और बाजार से प्रभावित होती है।    

बाजार में भी ज्यादातर जो टिकता है, या तो उसकी अपनी हैसियत होती है। या पार्टियों की जीत-हार के अनुसार, इधर-उधर खिसकता रहता है। ये हैसियत और इधर या उधर खिसकना, तकरीबन हर वस्तु और जीवन के हर पहलु पे लागु होता है। आपकी हैसियत है, तो आप कहीं टिके रहते हैं। नहीं है, तो खदेड़ दिए जाते हैं। खिसका दिए जाते हैं, इधर या उधर। उस हैसियत में काफी हद तक पैसा भी अहमियत रखता है और आपका ज्ञान भी। और कभी-कभार आपका बैकग्रॉउंड भी शायद। अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों के बीच होना भी कई बार, कई तरह के नुकसान करता है। क्यूँकि, ज्यादातर ऐसे लोगों को बहकाना आसान होता है। इसलिए, वो खुद भी भुक्त-भोगी होते हैं। यहाँ-वहाँ, जाने कैसे-कैसे नुकसान खाते रहते हैं, समझ ना होने की वजह से।   

ऐसे ही शुभ और अशुभ के कितने ही और उदाहरण हो सकते हैं। 

किसी ने आपको बोला फलाना-धमकाना के यहाँ, ये, ये फैंक के आना है। या वहाँ जाके, ये शोर मचाना है। या और कोई आलतु-फालतु बकवास। ऐसे काम कौन करता है? बिलकुल ठाली, बेकार और भेझे से पैदल लोग। हमारे जैसे समाज में खासकर, राजनीतिक पार्टियाँ, ऐसे लोगों का भरपूर दुरुपयोग करती हैं। क्यूँकि उन बेचारी पार्टियों की सोच भी, यहीं तक अटकी होती है। थोड़ी ठीक-ठाक जगह ऐसे काम के लिए, कौन लोग दुरुपयोग होते हैं? ऐसे ही कुछ लोग, वहाँ गए हुए। माली, स्वीपर, गॉर्डस या बदमाश स्टुडेंट्स के रूप में। कुछ एक हो सकता है, थोड़ा और आगे का तबका हो। गाँवों में जो बच्चे ऐसे काम करने लग जाते हैं, वो थोड़ा बड़े होते ही क्या करते हैं? ऐसी-ऐसी राजनीतिक पार्टियाँ बराबर की जिम्मेदार होती हैं, बच्चों को ऐसी राह धकेलने में। क्यूँकि, बहुत कुछ अपने आप नहीं होता, बल्की बहुत से लोगों की जानकारी में होते हुए भी, धकेला हुआ होता है।    

बहुत से काम आपसे जो कहके करवाए जाते हैं, उनके वो अर्थ नहीं होते। ज्यादातर के अनर्थ होते हैं। अब आम आदमी को कैसे पता चले, की राजनीतिक या शैतान लोगों की कोड की भाषा के क्या-क्या अर्थ हैं? और उनके क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं? एक तो होता है, रैली पीटना। यहाँ तक हो तो भी देखा जाए। ये सोचकर की बेचारे दिमाग से अपाहिज लोग, आम आदमी का प्रयोग ही कहाँ कर सकते हैं? क्यूँकि, वो तो उन्हें आता नहीं। इससे आगे बढ़कर, जो बड़ा नुकसान होता है, वो होता है, गलत सामांतर घड़ाईयाँ। जिनसे बचना जरूरी होता है। मगर आपको पता ही नहीं उन अनर्थों का, तो बचेंगे कैसे? कोशिश करेंगे इन्हें जानने की, आगे कुछ पोस्ट में। 

Monday, November 13, 2023

आओ मानव-रोबोट (मुखौटे) घडें? 2

मानव-रोबोट या मुखौटे घड़ने से पहले, जितनी ज्यादा जानकारी उस इंसान की होगी, जिसका मुखौटा घड़ना है, उतना ही आसान, उसके अलग-अलग तरह के मुखौटे घड़ना होगा। 

एक 10-मुखौटों वाला किरदार, हम रामायण में पढ़ते हैं, रावण। मतलब उसे जीत के लिए बहुत तरह के किरदार बदलने आते थे। या कहो की चालाकियाँ या छल के तरीके। इसीलिए उससे जीतना मुश्किल था। ऐसे ही कुछ हकीकत के किरदारों को जानने की कोशिश करते हैं, जो अपने वक्त के बादशाह रहें हैं, अपने-अपने क्षेत्र में। अगर मुखौटों की बात करें तो King of Pop सही रहेगा शायद, Michael Jackson

सुना है, ये माइकलस Editing में बड़े माहिर हैं। चलो माइकल जैक्सन के बचपन से, आखिरी दिनों तक के चेहरों पे गौर फरमाएँ? सर्जरी पे सर्जरी ? या Rasism शायद? 



माइकल जैक्सन और Moon-walk? 

इसके इलावा क्या कुछ था, King of Pop के signature choreographic movements में ?

Shuffle, Gliding, Slide, Fluidity, Agile, Dynamic, Spin, Anti Gravity Lean, The Robot and Mechanical Machine Moves
   
यूँ लग रहा है, जैसे गाने या डांस नहीं, बल्की Genetic Engineering के तौर-तरीकों के बारे में पढ़ रहे हैं। ये और ऐसा ही कुछ जादू में भी प्रयोग होता है शायद? 
थोड़ा-सा अपने वक्त से आगे। उसपे Offensive और vulgur भी, पश्चिम के लिहाज से भी। Extreme, हर तरह से? इस कोरियोग्राफी में, विज्ञान भी अहम है। पर आम आदमी इतना कहाँ सोचता है, विज्ञान और डांस? शायद वैसे ही, जैसे विज्ञान और राजनीती? या राजनीतिक विज्ञान और धर्म और रीती-रिवाज और मनोविज्ञान और मानव रोबोट घड़ाईयाँ? उसपे, आम आदमी का रोबॉटिकरण? 

SciFi मूवीज देखनी चाहिएँ। वहाँ से इंसान के रोबॉटिकरण की दुनियाँ को समझना और आसान हो जाएगा। आएंगे कुछ एक ऐसी फिल्मों पे भी। खासकर, हॉलीवुड से। 
अभी तो King of Pop के signature choreographic movements को देखिए 

आओ मानव-रोबोट (मुखौटे) घडें? (1)

Creation of Alternative Realities or Egos 

आओ मानव-रोबोट (मुखौटे) घडें? 

By Micromanagement of System, especially Human Beings 

सुक्ष्म स्तर पे सिस्टम और इंसानों को कंट्रोल करके 

सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयों के किरदार कैसे गढ़ती हैं, ये राजनीतिक पार्टियाँ?

कोई भी सामान्तर किरदार, तब तक नहीं घढा जा सकता, जब तक आप उसे मानना शुरू ना करदें। जैसे ही आपने मानना शुरू किया, वैसे ही वो घढ़ाई आसान हो जाती है। इसीलिए दिखाना है, बताना नहीं का अहम भाग है, इन घड़ाईयों में। क्यूँकि, यहाँ पे ये राजनीतिक पार्टियाँ, जिसपे ऐसे-ऐसे किरदार घड़ रहे होते हैं, उन्हें ज्यादातर हकीकत से दूर करना शुरू कर देते हैं। यही है, फुट डालो, राज करो। 

आओ कुछ राजनीतिक परिस्थितियों से रूबरु होते हैं 

किसी भी घर में या रिश्ते में जब सब सही होता है, तो वो एक दूसरे के काम आते हैं। एक दूसरे का काम करते हैं, जहाँ कहीं जरूरत हो। जितना ज्यादा वक्त आप जहाँ-कहीं बिताते हैं, आपकी जिंदगी भी, वैसी ही और उन्हीं की हो रहती है। जैसे-जैसे आप एक दूसरे के काम आना बंद कर देते हैं, वहाँ वो-वो काम करने, कोई और इंसान या किरदार आने लगते हैं। कभी-कभी अपने आप और बहुत बार राजनीतिक पार्टियों द्वारा धकेले हुए। क्यूँकि, उन्हें मालूम है, की ये तरीका कोई भी अलग किरदार घड़ने का सबसे आसान तरीका है। किसी भी जगह या इंसानों से जितना ज्यादा अलग होने लगते हैं, उतने ही ज्यादा मतभेद या मनमुटाव भी होने लगते हैं। वो भी ज्यादातर अपने आप नहीं होते। आने वाले नए इंसानों के द्वारा या गुप्त राजनीतिक शखाओं के किए हुए होते हैं। क्यूँकि, किसी भी इंसान के लिए आपकी सोच वही होती जाती है, जो आप उसके बारे में सुनते हैं या आपको दिखाया या बताया जाता है। उस बताने या दिखाने में सिर्फ उतना ही और वैसा ही दिखाया या बताया जाता है, जिससे सामने वाले का काम या स्वार्थ सिद्धि आसान हो जाए। न उससे ज्यादा, न उससे कम। इसमें ज्यादातर उस हकीकत को दूर रखा जाता है, जो बताने या दिखाने वालों के इरादों में किसी भी तरह का रोड़ा बने। ये Perception War का अहम हिस्सा है। 

सोचो कब-कब ऐसा हुआ, जब आपने एक दूसरे के काम आना बंद कर दिया और क्यों? आपने खुद ऐसा किया या आपसे ऐसा करवाया गया? छोटे-मोटे मतभेदों की वजह से या कोई मतभेद थे ही नहीं? या थोड़े बहुत थे और उन्हें आपके आसपास के नए किरदारों ने बढ़ा-चढ़ा के गाया या बताया? आपके अपने लोग, उन्हें कोई खास बात ना मान, रफा-दफा करते थे। मगर इन नए किरदारों ने उन्हीं छोटे-मोटे मतभेदों को, मिर्च मसाले के साथ बढ़ा-चढ़ा कर गाया? सबसे बड़ी बात, उससे ज्यादा मतभेद, शायद इन नए किरदारों के अपने घरों में हैं। और फिर भी वो उन्हें कोई खास नहीं मानते। उनके अपने घर सुबह-शाम चाहे झगड़ों के अड्डे हों, मगर वहाँ सब सही है? ये तो सिर्फ आपके छोटे-मोटे मतभेद हैं, जो सही नहीं हैं? तो मान के चलो, आप गलत लोगों के बीच हैं।

जितना ज्यादा आप अपने घर, अपने लोगों और अपने काम से मतलब रखेंगे, उतना ज्यादा ऐसे लोगों के जालों से बचे रहेंगे। ऐसे-ऐसे किरदार घड़ना, जो आसपास दिखें, मगर हों एकदम अलग। सामाजिक समान्तर घढ़ाईयाँ ज्यादातर ऐसी ही हैं। ये राजनीतिक पार्टियाँ, आपको ऐसे वातावरण में रख देती हैं की उसके बाहर अगर आप खुद से देखना नहीं चाहेंगे तो नजर ही नहीं आएगा। ऐसे लगेगा, सच वही है। इसे Immersion भी कह सकते हैं। किसी वातावरण का हिस्सा ऐसे हो जाना की उससे बाहर कुछ दिखाई ही ना दे। आपके आसपास जो आपको दिख रहा है, या सुन रहा है या आप अनुभव कर रहे हैं। बल्की, बेहतर शब्द उसके लिए होगा, जो दिखाया, सुनाया और अनुभव कराया जा रहा है। कौन हैं ये, खास तरह का दिखाने, सुनाने और अनुभव करवाने वाले? ये आप खुद जानने की कोशिश करिये। मैं शायद तरीके बता सकती हूँ, उस हकीकत को जानने के। या आपको उकसाने या आपसे कुछ खास करवाने वालों के। जहाँ पे उनके मुताबिक घड़ाईयाँ ना हों, वहाँ बार-बार वैसा बोल के। वैसा ही है, जताने की कोशिश करना। 

मानव रोबोट घड़ने के तरीके, क्या हो सकते हैं? सोचो? मान लो, आपके पास कोई घड़ा है और आपको बिलकुल वैसा ही घड़ा चाहिए। क्या करोगे उसके लिए? किसी कुम्हार को बोलो, शायद बना के दे देगा। क्यूँकि उसकी प्रैक्टिस होती है, घड़े बनाने की। चलो मान लो, थोड़ी बहुत कमी रह गई, थोड़ा बहुत इधर-उधर हो गया। कई बार अगर बनाएगा, तो बन जाएगा। नहीं ? हो सकता है, फिर भी थोड़ा बहुत इधर-उधर अलग रह जाए। तब?

चलो रोटी बनाते हैं। कोई भी रोटी बनाने वाला आसानी से ऐसा कर देगा? बिलकुल एक जैसी रोटियाँ? शायद, आसपास? जितना ज्यादा एक्सपर्ट होगा, उतना ही ज्यादा आसपास बनाएगा। 

इंसान की बजाय अगर मशीन प्रयोग की जाय तो ? इंसान हुबहु कॉपी बढ़िया बनाएगा या मशीन? 

Data Mining, Machine Learning, Artificial Intelligence, Robotics

Saturday, November 11, 2023

राजनीतीक तड़क-भड़क वाले त्यौहार, धर्म और रीती-रिवाज

राजनीती के साँचे में ढलते त्यौहार, धर्म और रीती-रिवाज? राजनीती के अनुसार बदलते, पुरातन में लिखी गई कहानियों के अवतार, भगवान? हों चाहें फिर वो, राम-शिव, हनुमान या दुर्गा, संतोषी और काली। समय के साए में रमते, बाजार की राह चलते, हर तरह के रीती-रिवाज। राजनीती की जरूरतों के अनुसार बदलते, होली-दिवाली। वो लगाएंगे तड़के, तुम्हारी भावनाओं पे ऐसे भी, और वैसे भी। और तुम बहते जाना इन भावनात्मक भड़काओं में, बगैर सोचे-समझे, उनके पीछे छुपे षड़यंत्र। राजनीती वाले सेकेंगे उनपे, अपनी-अपनी कुर्सियों के लिए चालें और घातें। तुम्हें क्या मिलेगा उनमें? ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे प्रसादों के पीछे क्या छुपा होता है? वैसे ही जैसे, आपको नहीं मालुम, की ये LEGEND और HERO क्या होता है। और इसका उल्टा PLATINUM या SPLENDER या ऐसा कुछ और नहीं होता। बल्की अज्ञानता के दायरे से बाहर निकल, अपने-अपने कामों पे आगे बढ़ना होता है। भावनात्मक भड़क नहीं लेनी होती।   

ट्रैक्टर-ट्रॉली शो। वो भी दिवाली पे? वो भी राम के नाम पे नहीं, बल्की शिव के नाम पे? धुआं-धुआँ? कितना धुआँ? इनका उल्टा POP-UP शो नहीं होता। ना ही पटाखे या फुलझड़ी शो होता है। बल्की, दिमाग की वो बत्तियाँ on करनी होती हैं, की तुम्हारे आसपास कैसा समाज है? कैसे लोग हैं? और क्या कुछ करते हैं या व्यस्त कहाँ रहते हैं? क्युंकि, उसका कुछ ना कुछ असर तो आपपे भी होगा। राजनीती लोगों से क्या करवा रही है और क्यों? और लोगों को कहाँ व्यस्त रखती है? जितने ज्यादा कम विकसित समाज या लोग होंगे, उतने ही ज्यादा ऐसे-ऐसे राजनीतिक भावनात्मक भड़कों के जालों के आसपास मिलेंगे। ऐसे जालों से थोड़ा दूर रहना है, निकलना है। ना की उनका हिस्सा हो जाना। 

दिवाली मुबारक हो राम और सिया वाली। बुराई पे अच्छाई वाली। दीयों वाली। ना की बाजारू दिखाओं वाली या राजनीती की अजीबोगरीब भावनात्मक भड़क, आम इंसान में पैदा करने वाली। दिवाली ना तो भंडेलों का तांडव है और ना ही गरीबों का दोहन। एक तरफ सुना है, वो योद्धा होते थे, जो अपने से ज्यादा ज्ञानवान का सम्मान करते थे, दुश्मन होते हुए भी। एक तरफ आज के भंडोले हैं, जो कुछ ना आता जाता हो तो भी कहें, की बस हम ही हम हैं।

Friday, November 10, 2023

रंग बदलना, छलना, अहंकार, घंमंड (Ego)

एक प्रकृति ने जो जीव-जंतुओं को बाधाओं से निपटने के तरीके दिए हैं। 

जैसे, खुद के जीवन को बचाने के लिए करेलिया रंग बदलता है। अपना रंग काफी हद तक आसपास के रंग के अनुसार बदलके। जैसे, बहुत से पेड़-पौधे करते हैं, अपने पत्तों का या तने समेत या तकरीबन पूरे पौधे का रंग परिस्तिथि और वातावरण के अनुसार बदलके। इंग्लिश में जिसे Stress Management भी कहते हैं। ये तकरीबन सभी जीव जंतुओं में होता है।  

जहाँ भरण पोषण के लिए परिस्थितियाँ सही ना हों। या तो किसी या किन्हीं तत्वों की बहुत अधिकता हो या कमी हो। तो ज्यादातर जीव ऐसी परिस्थितियों को छोड़ के चलते बनते हैं। ज्यादातर चल फिर सकने वाले जीव जंतु या जो उड़ने की क्षमता रखते हैं, जैसे पक्षी। नहीं तो ऐसी परिस्थितियों को झेलने वाले जीवों के हुलिए अजीबोगरीब हो जाते हैं। पेड़ पौधे खासकर। बाकी जीव जंतु भी बदली परिस्थितियों में, बदले नजर आने लगते हैं।  

जहाँ जिंदगी को खतरा हो और लगे, कोई अंग शरीर से छोड़के जिंदगी बच जाएगी। छिपकली जो खतरा महसूस होने पर पूँछ छोड़ देती है। पेड़-पौधे, जो पत्ते छोड़ते हैं और फिर नए ऊगा लेते हैं। या मौसम के अनुसार रंग बदल लेते हैं।  

जहाँ अगली पीढ़ी को आगे बढ़ाने का खतरा हो। पक्षी, मधुमखियाँ और अलग अलग तरह के जीव अलग अलग तरह के तरीके अपनाते हैं। सुना है कोयल अपने बच्चे ही कौवे के घोंसले के हवाले कर देती है। और मधुमखियाँ झुँड वयवस्था।   

दूसरी तरफ, इंसान ने अपने दिमाग का प्रयोग करके लालच और घमंड में जो ईजाद कर लिए हैं, काफी हद तक कृत्रिम रूप से। शायद उसे ही Ego या अहंकार, घंमंड, छलिया या किसी भी तरीके से छलना या किसी भी विषय-वस्तु के बारे में बढ़ा-चढ़ा, तोड़ मरोड़ के दिखाना या बताना कहते हैं?

या किसी और की अहमियत को बिलकुल खत्म करने की कोशिश में, सिर्फ और सिर्फ, अपनी अहमियत दिखाना या बताना? मतलब, यहाँ ना तो जिंदगी को कोई खास खतरा हो, ना ही भरण-पोषण की कोई खास समस्या, बल्की बड़े कहे जाने वाले लोगों या कंपनियों या राजनीती के वर्चस्व के झगडे। आम आदमी पर उसकी जानकारी या ईजाजत के बिना छल, कपट या धोखे से थोंपे हुए युद्ध। जिनकी जिंदगियों को सच में खतरे हों या भरण-पोषण तक की नौबत हो, लड़ाई उनके लिए नहीं, बल्की बड़े लोगों की लड़ाईयाँ अपने घमंड और लालच के लिए। दूसरों की जिंदगियों को खत्म कर या रौंद कर भी सत्ता, कुर्सी और ज्यादा पैसों और वर्चस्व की चाहत के लिए। ये सिर्फ और सिर्फ इंसानो के जहाँ में होता है।    

लेखकों की कल्पना ने तरह-तरह के किरदार इज्जाद किये हैं। जैसे रामायण में रावण का रूप बदलना। मतलब, छल-कपट करके जीतना या जीतने की कोशिश करना। छलिया, मतलब सामने वाले को पता ही ना चले, आप कौन हैं और आप अपना काम निपटा जाएँ। शायद इसीलिए रावण के 10 सिर बताए गए हैं? आम आदमी का तो एक ही होता है न। ऐसे ही इंसान की ईजाद या कहना चाहिए की लेखकों की कल्पना ने, कितनी ही देवियाँ, जिनके 4, 6 या 8 तक हाथ दिखाए गए हैं। कैसे खुरापाती या Innovative दिमागों की ऊपज होंगी ना ये? Sci-fi (Science Fiction या कल्पित विज्ञान) लिखने वाले जैसे? हालाँकि, आज का Sci-Fi, आने वाले कल की हकीकत के आसपास ही घुमता है। अब लिखने वाले कल्पनाशील हों, तो उनके लिए अच्छा है। मगर लोग इन्हें हकीकत मानना शुरू कर दें तो? राजनीती के शातीर लोग, लोगों का दुरुपयोग करने लगेंगे। या कहना चाहिए की राजनीति यही तो करती आ रही है। जितनी पुरानी राजनीती है, उतने ही इसके षड़यंत्र।आम आदमी को राजे-महाराजाओं के लिए प्रयोग और दुरुपयोग करने के तरीके। 

आम आदमी ने इन राजे महराजाओं के चुँगल से निकलने के लिए, लोकतंत्र बनाए। मगर पता चला, शातीर लोग उसे भी गुप्त तरीके से, अपने हिसाब से चला रहे हैं। आम आदमी की सोच से बहुत दूर, सिस्टम का हर हिस्सा गुप्त कोडों के जाले के अधीन है। इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक उस कोढ़ के जाले में। दुनियाँ के सब जीव और निर्जीव उस जाले के अधीन। अहंकार की हद की सब हदें पार, जैसे।   

तो आपके कितने alter ego हैं ?

हेरफेर, परिवर्तन, बदलाव, चाहा या अनचाहा या कैसा? (Alter)

हम मशीनी युग में हैं। मशीनों को अपनी सेवा में लगाने के लिए, इंसान दिन-प्रतिदिन, नए-नए अविष्कार कर रहा है। अब ज्यादातर ये अविष्कार, कम पढ़ा-लिखा आम-आदमी तो करता नहीं, क्यूँकि उसके पास सोच इतनी विकसित नहीं है। वो छवि में या अपनी रोजी-रोटी में ही उलझा रहता है। 

ज्यादातर ये भी नहीं सोच पाते, की छवि का मतलब क्या है? क्या मायने हैं उसके? भावनात्मक भड़क, से ज्यादा कुछ नहीं? क्यूंकि, अगर सही में जाने की छवि, इमेज या किसी का चरित्र क्या है, तो मापदंड तो पता होने चाहिएँ, उसे जाँचने के लिए। आदमी की जिंदगी से बड़ा क्या है? बड़े-बड़े लोग, बड़ी-बड़ी कुर्सियों पे बैठकर, जिंदगियों से खेलें या क्रुर और निर्दयी लोगों को खेलने दें? तब भी उनकी छवि आम-आदमी के लिए क्या है? साहब? कैसे साहब? आदमखोर जानवर बोलो उन्हें। वो जिन्हें अपनी कुर्सियों के इलावा बच्चे, बुजुर्ग, अपाहिज, लाचार कुछ भी ना दिखे? दूसरी तरफ, कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े हुए लोग, राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर, आदमी रुपी मशीनों को, मानव रोबोट की तरह प्रयोग और दुरूपयोग कर रहे हों। और उस आम-आदमी को उसका पता तक ना हो। बड़े लोग और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ चाहें, की वो सब छुपा हुआ ही रहे। तो छवि, इमेज या चरित्र के मायने क्या हैं, ऐसे संसार में? इंसान, उत्पाद मात्र रह गया, राजनीती और टेक्नोलॉजी के इस मशीनी युग में। जबकी उसी टेक्नोलॉजी और उन मशीनों को सिर्फ कुछ तबके तक सेवा में न रखकर, सभी के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। उनके दुरूपयोग को कम से कम किया जा सकता है। 

इसके लिए शायद खुद राजनीती वालों को और उनके साथ या उनके लिए काम करने वाले लोगों को या उनसे अपने काम निकलवाने वाले लोगों को सोचना होगा। अगर मानव-संसाधन का दुरूपयोग की बजाय, उपयोग किया जाए, तो फायदे का सौदा है, राजनीतिक पार्टियों के लिए भी और उस समाज के लिए भी। जबसे मैंने आरक्षण को समझना शुरू किया है, तभी से समझ ये रही है की आरक्षण किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। बल्की, समस्या को सालों-साल, पीढ़ी दर पीढ़ी, ज्यों का त्यों रखना है। इसके बजाय अगर पैदायशी सबको, एक जैसी सुविधाएँ और आगे बढ़ने के मौके प्रदान किए जाएँ, तो बहुत-सी समस्याएँ अपने आप खत्म हो जाएँगी। शिक्षा में सुधार ही उसका ईलाज है। शिक्षा ऐसी हो की बच्चे उसे बोझ ना समझें, बल्की खेल या शौक समझे। मानसिक तनाव अगर एक स्तर से ज्यादा होता है तो फायदा नहीं करता बल्की नुकसान करने लगता है। बहुत ज्यादा होने पर वही बीमारी बन जाता है। बोझ बनने पर बच्चे शिक्षा से भागने लगते हैं और बड़े ज्यादातर झेलते जाते हैं, जब तक खत्म ना हो जाएँ। लोग व्यस्त बहुत ज्यादा दिखते हैं, मगर फायदा उतना होता नहीं। ऐसे ही, जैसे डिग्रीयों की तरह, लोगों के पास रिसर्च पेपरों की भरमार मिलेगी, मगर फायदा किसे? प्रमोशन में कुछ पॉइंट्स की गिनती के इलावा कुछ नहीं।  

अगर शिक्षा का मतलब सिर्फ जैसे-तैसे डिग्रीधारी होना है तो ऐसी फौज तो भारत जैसे देशों के लिए, वैसे ही बहुत है। मगर उसका प्रयोग कहाँ है? सिर्फ और सिर्फ दुरुपयोग है। ये काम अनपढ़ वाले राजनीतिक करें, तो समझ आता है की सोच उतनी ही है, जितना उनका ज्ञान का दायरा। मगर, अगर वही काम पढ़े-लिखे नेता लोग करने लगें, वो भी, वो पढ़े-लिखे, जो अपने आपको दुनियाँ की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी से डिग्रीधारी कहें। बड़े-बड़े देशों में रहने और घुमने के अनुभव वाला बताते हों, मगर फिर भी अपनी सोच और काम में वो अनुभव ना दिखाएं या लाएँ तो उनमें और भारत जैसे देशों के येन-केन-प्रकारेण डिग्रीधारियों में फर्क क्या हुआ? मशीनों के इस स्मार्ट युग को ना तो रोकना संभव और ना ही तर्कसंगत। मगर, इनकी बुद्धिमता (बुद्धिमता या छल, कपट, साम, दाम, दंड, भेद?) से उपजी बीमारियों और आम-आदमी पर बढ़ते दुस्प्रभावों पे लगाम लगाना, शायद उतना मुश्किल भी नहीं। 

कोई भी नई टेक्नोलॉजी, जब आप समाज में प्रयोग करने के लिए आम आदमी को थमाते हैं तो पहले उसके दुस्प्रभावों के बारे में आम-आदमी को सचेत करना भी जरूरी है। मगर ऐसा नहीं है। इसीलिए, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ, आम आदमी का इतना शोषण करने में समर्थ हैं और वो सब भी, उसकी जानकारी के बगैर। जैसे लैब में जाने की अनुमति से पहले, सतर्कता के पहलुओं को जानना जरूरी होता है, वैसे ही किसी भी टेक्नोलॉजी को समाज के बाजार में लाने से पहले, आम आदमी को उसके दुस्प्रभावों से सचेत करना जरूरी है। क्यूँकि, समाज इन बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपनी खुली प्रयोगशाला बनाया हुआ है। अपना और सिर्फ अपना फायदा, किसी भी कीमत पर, जिंदगियों को खा कर भी। राजनीती और कोर्ट्स की जानकारी के होते हुए, या कहना चाहिए, उनको साथ लेकर? ये वैसे ही है, जैसे लैब में किसी बीमारी की दवाईयां तैयार हों और उनके ट्रायल, आम आदमी पर, वो भी उसकी जानकारी के बिना। ये वैसे ही है, जैसे विकसित देशो का इलेक्ट्रॉनिक कचरा, विकासशील देश भुगतें। अब ये तो इन विकासशील देशों को देखना होगा की वो अपने समाज को कचराघर बनाना चाहते हैं, या विकसित करना। नहीं तो विकसित देशों के लिए, पहले भी ये देश सस्ते मजदूरों के अड्डों से ज्यादा कुछ नहीं थे और आगे भी नहीं होंगे।  

तो alteration तो चाहिए, मगर कैसा और कौन से वाला ? और किसमें? आम आदमी में? राजनीतिक पार्टियों में? उनके लड़ने के तरीकों में और खुद नेताओं में? खासकर पढ़े-लिखे नेताओं में? बदलाव चाहिए, आम आदमी की रैलियाँ पीटने वालों या पिटवाने वालों में। आगे बढ़ते हुए लोगों को भी, अर्श से फर्श की तरफ धकेलने वालों में। ना की पीछे रहने वालों को भी, साथ लेकर चलने वालों में।     

Tuesday, November 7, 2023

डाटा क्या है?

डाटा क्या है? 

डाटा मानव रोबोट घड़ने की फैक्ट्री है 

डाटा जो साँस आप लेते हैं, वो है 

जो पानी आप पीते हैं, वो है 

जो खाना आप खाते हैं, वो है  

जैसी हवा में आप साँस लेते हैं, वो है 

जैसा पानी आप पीते हैं, वो है 

जैसा खाना आप खाते हैं, वो है 

उनमें विधमान तत्वों का मिश्रण है, डाटा 


डाटा

जो पसीना आप बहाते हैं, वो है 

जो पसीना अपने आप बहता है, वो है 

आपकी खबर के बिना 

जो गैस आप निकालते हैं, वो है 

जो कान से, नाक से या मुँह से मैल 

अपने आप या आपकी जानकारी के बिना 

आप निकालते हैं, वो है 

चौकिये मत ! (Health Data, Use and Abuse) 


डाटा 

जो तत्व या रसायन आपके शरीर से 

किसी भी रूप में निकलते हैं या अंदर जाते हैं 

आपकी मर्जी से या आपकी जानकारी के बिना 

डाटा, आपकी तवचा या बालों का रंग है 

उनका घनत्व, बनावट, पतले-मोटे, रूखे-सिल्की      

आपके नैन-नक्श, लम्बाई-चौड़ाई-उंचाईं 

आँखों का रंग, नाखूनों का रंग या प्रकार  

आपका बोलने, बैठने, उठने, चलने, दौड़ने 

हाव-भाव या शारीरिक भाषा है, आपका डाटा 

आपकी आवाज, मोटी-पतली, ऊँची या धीमी 

या बोलने का तरीका   

आपके रहने की जगह, पढ़ने-लिखने, 

काम करने, खेलने या वर्जिस करने की जगह   

और इनसे जुडी हर छोटी-बड़ी जानकारी है डाटा 


आपके कपड़ों की परिभाषा

उनका रंग-रूप, बुनाई, कटाई, सिलाई, लम्बाई 

खादी, सिल्क, सिंथेटिक या कोई और 

आपके आसपास की हर चीज 

और उसके बारे में हर जानकारी 

वो फिर जीव-जन्तु हों या निर्जीव 

रिश्ते-नाते हों या सिर्फ जानकार 

उन सबके गुण-अवगुण हों 

या घरों, स्कूलों, ऑफिसों के पते 

आप और आसपास के लोगों के 

विचारों में कितनी समानता है या कितने मतभेद 

किसके, किससे, कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे 

मतभेद या समानता 

आपका या आपके आसपास के लोगों के 

संसाधन, जीविका, कमाई, प्रॉपर्टी या धन-दौलत

आप लोगों को काम पे रखते हैं 

या खुद किसी के यहाँ काम करते हैं 

आपका आपस में या इधर-उधर का लेनदेन 

 कैसा और कितना और किस तरह का है 

कंजूस हैं या दानी हैं 

खुद किसी पे निर्भर हैं 

या आपपे कोई निर्भर हैं 

आपके पास अपना घर, गाड़ी 

या ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे संसाधन हैं

 या नहीं है, या कितने हैं?      


आप कितने पढ़े-लिखे हैं, कितना कमाते हैं 

कितना उड़ाते हैं या इधर-उधर लगाते हैं 

कितना घुमते हैं या ज्यादातर एक जगह स्थिर रहते हैं 

कितनी भाषाएँ आती हैं 

देसी हैं, शहरी हैं या ग्लोबल  

आस्तिक हैं और किसी भगवान में विश्वास रखते हैं 

भगवान में रखते हैं या भगवानों में या नास्तिक हैं 

या फर्क नहीं पड़ता, 

विज्ञान को मानते हैं और तर्कसंगत हैं  

हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं, जाट हैं, चमार हैं, धानक हैं 

महाराष्ट्रियन हैं, आसामी हैं, तमिल हैं या कश्मीरी हैं 

ये सब आपका डाटा है 


बाकी जितनी भी आपकी ID हैं, वो तो हैं ही 

जितनी ज्यादा ID, उतना ही ज्यादा डाटा 

फिर जहाँ रहते हैं, उस जगह की अपनी ID है 

जिस स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी पढ़ते हैं 

उनकी अपनी और उनमें आपकी अपनी  

जहाँ नौकरी करते हैं, उनकी अपनी 

और वहाँ पे आपकी अपनी IDs 

जहाँ-जहाँ, आते-जाते हैं, उन सबकी अपनी

और वहाँ पे आपकी अपनी IDs  

मतलब, हर कदम पे, डाटा ही डाटा है  

इसमें ज्यादातर डाटा आपका अपना है 

आपकी अपनी प्रॉपर्टी 

और कितनी ही एजेंसियाँ उस डाटा का 

प्रयोग और दुरुपयोग, आपकी जानकारी के बगैर 

पैसा कमाने में कर रही हैं 

कुर्सियां इधर-उधर करने में कर रही हैं 

आपके और आपके अपनों के खिलाफ कर रही हैं 

रिश्ते-नाते, तोड़ने-जोड़ने और मरोड़ने में 

ना हुई बीमारियाँ घड़ने में, 

घर से डॉक्टर या हॉस्पिटल तक पहुँचाने में  

और वहाँ से जाने कहाँ पहुँचाने में। 

और ये पढ़े-लिखे और कढ़े हुए लोग चाहते हैं 

की आम आदमी को इसकी भनक भी ना लगे ? 

या जितनी कम जानकारी उस तक पहुँचे, उतना सही। 


है ना अजब-गजब दुनियाँ?  

इसे जितना जानोगे, उतना ही आपका अपना भला है। तो आते हैं, एक-एक करके, घर से ऑफिस तक, खेत से बाजार तक, सरकार से प्राइवेट कम्पनियों तक, सिविल से डिफेन्स तक, देश से विदेशों तक, कौन-कौन और कैसे-कैसे और क्यों और किनकी ईजाजत से, ये डाटा इक्कठा कर रहे हैं। और उसे कहाँ-कहाँ प्रयोग या दुरुपयोग कर रहे हैं? डाटा आपका, लाभ किसी और का और नुकसान आपका, आपके अपनों का या आपके आसपास के समाज का। मेरे आसपास बहुत से लोग ऐसे ही दुनियाँ से उठे हुए हैं या कहना चाहिए की उठाये हुए हैं। आसपास के ज्यादातर रिश्तों के बिगाड़ की या कोर्ट्स के केसों की वजह यही है। तो दूर भी ऐसा ही कुछ होगा? जिन्हें फायदा हो रहा है, सिर्फ अपने डाटा से नहीं, बल्की औरों के डाटा से भी, सोचो वो कौन हैं? वो, डाटा खुदाई में लगे हुए, यहाँ-वहाँ LEGEND हैं या HERO हैं? या उनके आसपास के लोगबाग? पता चले तो मुझे भी बताना :)