Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Tuesday, October 31, 2023

महुआ मोइत्रा के सवाल पे बवाल? (Heights?)

Question is Experiment, Experiment is Question ?

Rather Questions are Experiments and Experiments are Questions ?

क्या है ये, महुआ मोइत्रा के सवाल पे बवाल?  

प्रश्नचिन्ह तेरे चरित्र पर? 

कल भी थे ? 

आज भी हैं ? 

और कल भी होंगे ? 

सीताओं को वनवास, 

दशरथों की कबूलपुर केकैईयों के, 

भरतों के ताजों पर 

कल भी थे ?

आज भी हैं ?

और कल भी होंगे ?

चीरहरण द्रौपदियों के 

दुर्योधन और दुशाषन द्वारा 

कल भी थे ?

आज भी हैं ?

और कल भी होंगे ?

कायरों की महान सभाओं में 

(eRR अरे इसे सूर्यों, नीडरों, वीरों पढ़े

या राजनीतिक रंगमंच की नौटंकियाँ?)

करण का साथ, मित्र दुर्योधन और दुशाषन को 

कल भी था ?

आज भी है ?

और कल भी होगा ?

क्यूँकि?

स्पेशल लिपस्टिक गिफ्ट (जय बजरंगी बाबा) 

श्रीमती महुआ मोहत्रा को? 

कल भी थे ?

आज भी हैं ?

और कल भी होंगे ?

रावण का ये कमीशन तो, पुराने रामायण के वक़्त से है?

बोलो जय श्री राम? 


   अब इसका मनीष सिसोदिया के शराब घोटले से क्या लेना-देना? 

Heights of Systematic Official Ghotalas?
या Officers Mess ?
किसी के पास ऑफिसियल ID और paasword तक ना हों और शिकायत पे शिकायत हो रही हों, की कोई MDU की ऑफिसियल ऑनलाइन वेबसाइट पे पेपरों का मटेरियल, कैसे अपलोड करे, उसके बगैर? और कोई आपके बैंक खातों तक के login password लिए बैठे हों और खुद ही ऑपरेट कर रहे हों। 

(UPload क्या है ये कोड
मुझे भी थोड़ा लेट समझ आया। सिस्टम कब-कब और कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे update होता है। या नहीं होता या reverse भी हो सकता है ? जैसे reverse-engineering । इसपे भी कई पोस्ट हो सकती हैं, आने वाली पोस्ट में) 

कौन-सी दुनियाँ है? 
Heights of criminals?  

औरत तेरी औकात
कल भी --
आदमी के पैर की जूती से ज्यादा न थी ?
और आज भी न है ?
सत्ताओं की निजी प्रॉपर्टी थी तुम,
कल भी थी ?
आज भी हो ?  
और कल भी रहोगी ? 
तुम्हारे अंग-प्रतंग्यों पर ताले 
कल भी राजनीती के थे ?
आज भी राजनीती के हैं ?
और कल भी राजनीती के ही होंगे ?

उन अंग-प्रत्यंगों के ताले, 
खोलने के लिए चाबियाँ 
कल भी राजनीती बनाती थी 
या बदलती थी 
या चुराती थी ?
और आज भी,
 कुर्सियों की कहानियाँ 
उससे थोड़ा इधर हैं, ना उधर हैं ?   
महान कबीलों की कहानियाँ ?
(अरे देश बोलना था ना?)
फर्क नहीं पड़ता 
वो कबीले कितने अनपढ़ हैं 
या पढ़े-लिखे हैं ?
भारत में हैं, अफगानिस्तान, पाकिस्तान 
या अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, अफ्रीका 
फ्रांस और स्वीडन?   
क्यूँकि 
तुम्हारी ज़िंदगी के फैसले 
कल भी इस महान समाज के मर्द 
या महान-मर्दानियाँ लेती थी ?
और आज भी लेती हैं ?
तुम कितना ही पढ़ लो  
 या कितनी ही डिग्रीयाँ और फरहे रखो 
तुम्हारी औकात, घर की चारदीवारी के अंदर 
या उससे बाहर, शिक्षा के ऊँचे पायदानों तक 
एक नादान बच्चे-सी थी 
जिसके सारे फैसले 
वहाँ के बड़े-लोग लेते थे  
आज भी लेते हैं ?
और कल भी लेंगे ?

प्रेरणा: बड़ा ही रोचक-सा इंटरव्यू सामने आया और ऊपर लिखे शब्द जैसे अपने आप चल निकले। 
सिस्टम और मीडिया के कोढ़ को कैसे समझें (decode)


वैसे महुआ मोइत्रा का spell ज्ञान अंग्रेजी का (किसी शब्द को कैसे pronounce करें), कितना मायने रखता है, वो भी भारत में या इंडिया में ? एक अंडी हरियाणवी न्यू बोला, रै अंग्रेजों ने हरयाणवी सिखाओ, बेरा पाट्य pronounce क्यूकर करा करंअ। जैसे रैली पीटना, राजनीती वालों की या राजनीती वालों द्वारा? मीडिया की, या मीडिया वालों द्वारा? आम आदमी की, खुद आम आदमी द्वारा?     

Monday, October 30, 2023

DEJA VU

DEJA VU Fights/Flights/Sortie and Technology (Crimes of Profiling?)

DEJA VU, पहली बार देखी तो वैसे समझ नहीं आई, जैसे reverse back करके, कुछ साल पहले। क्यूँकि, अब तक मैं काफी सारी फिल्में और serials देख चुकी थी, जुर्म के इस मकड़जाल, सिस्टम और गवर्नेंस को समझने के लिए। कुछ ही वक्त में इतने, जितने पुरी जिंदगी में नहीं देखे। फिल्म-नाटक वगैरह से ज्यादा खबरों का शौक रहा है मुझे। बहुत ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ी बहुत किताबें भी पढ़ चुकी थी। टेक्नोलॉजी की कई सारी किताबें, ऐसी लग रही थी, की ये सब तो तेरे साथ हो चुका, इन्हें भी क्या पढ़ना। जबकि वो टेक्नोलॉजी मेरे लिए नई थी। हो सकता है इसलिए, की उनसे सम्बंधित और बहुत-कुछ पढ़ा जा रहा था। अखबारों में या कुछ blogs में। उसपे असलियत की जिंदगी में अनुभव भी।   

DEJA VU, जब पहली बार देखी तो खुंदक हो रही थी, जैसे फोड़ दे स्क्रीन को। क्यूँकि ये वो दिन थे, जब यहाँ-वहाँ थोक के भाव Privacy Violations, मानवाधिकार उलँघन और किसी द्वारा पीछा करने की शिकायतें हो रही थी। थोड़ा बहुत Map और Google Earth का ज्ञान भी था। जिसे पहली बार 2008 में, अमेरिका जाके ही प्रयोग करना शुरू किया था। तब तक भारत में उसका इतना प्रयोग नहीं होता था। अमेरिका में भी, आप उस शहर में हों, जहाँ रोड पे लोगबाग दिखते ही नहीं, सिर्फ गाड़ियाँ दिखती हैं। और छुट्टी वाले दिन, बस सर्विस भी कम। श्याम को झल्लाहट में, आप किसी दोस्त से चैट पे बताएँ, की दिन में क्या दिक्कत हुई और वो हँसके बोले, बस इतनी-सी बात। गुगल मैप प्रयोग करना शुरू करदे। यहाँ उसके बगैर गुजारा नहीं। देशी दोस्त, अपने ही होम टाउन से, जो वहाँ किसी दुसरे राज्य में रहती थी। फोन रिकॉर्डिंग सॉफ्टवेयर, वो भी थोड़े से डॉलर में और किसी का भी फोन सुन लो। ये भी पहली बार वहीं पता चला था। मतलब, टेक्नोलॉजी और उसकी आम-आदमी तक पहुँच, विकसित देशों में विकासशील देशों से तब भी पहले थी और आज भी। हाँ, कोई Google Earth से घर के अंदर तक कैसे देख सकता है या आपकी डायरी में क्या लिखा है, कैसे पढ़के बता सकता है? या आप छत पर बाहर बैठकर अखबार पढ़ रहे हों और कोई दूर किसी दूसरे शहर में बैठा, ये कैसे बता सकता है की आपने कौन-सा आर्टिकल पढ़ा और उसपे कितना वक़्त लगाया या कौन-सी लाइनों पे फोकस किया? इस फिल्म को देखकर ये समझ आ रहा था, की शायद Google Earth की रेंज ज्यादा है और बहुत से लोगों तक उसकी पहुँच भी। जो आम आदमी के पास नहीं है। कुछ इधर-उधर के आर्टिकल भी, ऐसा-ही कुछ बता रहे थे।   

Scanning की तब तक भी ज्यादा समझ नहीं थी। हालाँकि Molecular Bio में Optics, Classes और Labs में प्रोजेक्टर और Printer-Scanning भी थोक के भाव प्रयोग होता है। मगर किसी के घर में उसका जुगाड़ कैसे?  

सबसे बड़ी बात, ये फिल्म 2006 में बन चुकी और मेरी शिकायतें उसके काफी सालों बाद, 2012 से शुरू हुई। मतलब, इतने सालों में तो टेक्नोलॉजी और भी विकसित हो चुकी होगी। इस फिल्म में कुछ और भी है। खासकर, कुछ डॉयलोग, ditto जैसे, "मरने से पहले, आप क्या करना चाहेंगे?" और आपको लगे, ये डॉयलोग? और भी ऐसे-ऐसे कई डॉयलोग। इन सबकी थोड़ी-बहुत जानकारी, अभी पिछले कुछ सालों में समझ आई। जब किसी काफी पुरानी जूनियर ने कुछ hints दिए, की ऐसा कुछ उसके साथ भी हुआ था। ऐसे ही कुछ hints कहीं और से भी। और आपको समझ आए, की ये तो किसी और ही तरह की जंग है। और आप रिवर्स-गियर लेते हैं। ठीक इस फिल्म की तरह, कुछ तारीखों और कुछ बीमारियों की हकीकत जानने के लिए। बाकी तो कोरोना-कोविड का वक़्त, काफी-कुछ उधेड़ के फेंक ही चुका। 

इसके इलावा क्या है, इस मूवी में? Patrol Crime की कोशिश है क्या कहेंगे उसे Rape? Sex with consent? या Experiment, सच जानने के लिए? Experiments on innocent girls to destroy their lives? सिर्फ यही नहीं, बल्की "दिखाना है, बताना नहीं" और उनपे स्टीकर भी तो चिपकाने हैं, अपने कालिख Err Experiments के। अपनी लड़कियों या बहन-बेटियोँ के साथ चाहोगे, ये "सिर्फ experiment"  करवाना? अब बदले की भावना कभी पुरी नहीं होती। हाँ। ज़िंदगियाँ जरूर हो जाती हैं। एक R के बाद और R । 

और जिस समाज को हकीकतों का पता ही नहीं होगा, वो कैसे पेश आएगा, ऐसी EXPERIMENTED लड़कियों से? खासकर एक ऐसा समाज, जिसमें औरतों के वैसे ही बेहाल हैं।     

कुछ जानकारी जो पिछले कुछ सालों में पता चली। फिल्मों को कैसे पढ़ें (सिर्फ देखें नहीं)। क्यूँकि चैट में भी तो कोढ़ रखे होते हैं। सारी जंग ही तो कोढ़ वाली है। 

कुत्ते बिल्ली का खेल?

पंखा, सैक्सोफोन या स्मोकिंग और पिंजरा?   

मंदिर-मस्जिद विवाद

हरिद्वार क्यों, कबुलपुर जा तू ते  

Mi कमीशन? 

मतलब इतने सालों बाद भी बदला कुछ खास नहीं। 

वही ढाक के तीन पात। 

आपने, देशी-अंग्रेज EDITOR 

पता ही नहीं था, ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी EDITING होती हैं 


और भी काफी कुछ है, जो हकीकत-सा है। 
सिर्फ इस मूवी में नहीं और सिर्फ अमेरिकन मूवीज या सीरियल्स में ही नहीं।  

उसपे, रोचक रहा, हमारे SMART COURTS को जानना। जिस तरह से आप सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से इंटरैक्ट करते हैं। माध्यम।  Academics और Courts Interaction । और आप कहें, ये कैसे कोड? ये सिस्टम का कौन-सा कोढ़? सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट ही, अपने आप में रोचक है। वेबकास्टिंग जैसी streaming, जैसे। 

R और कैंसर 2007? 

(बीमारियाँ, कैसी कैसी? बेहाल है दुनियाँ, राजनीतिक बीमारियों से। ये भी कोरोना के बाद ही दिखने और समझ आने लगा है। )   

Pets और नाम?

दूसरी बीवी और Foster Daughters?

सबसे बड़ी बात, कुर्सियों के कोड, सिर्फ यूनिवर्सिटी में ही नहीं, बल्की हर जगह। सुप्रीम कोर्ट में भी। 

टेक्नोलॉजी और राजनीती का रंगमंच? उस वाले पड़ोसी की बाथरूम लाइट on, खिड़की 14? या खाटु झंडा, खिड़की पे। या खाटु झंडा, Satellite पे फहरा रहा है? अब Setellite conncetion Reliance है या Tatasky या ? Google Map का या गुगल Earth का, Stellite से या SMART PHONE से क्या connection? या Live Streaming से? किस तरह की optics हो सकती है? मतलब, इतना कुछ SMART PHONE से ही सम्भव है, आज। सुना है, Remote Sensing भी रोचक विषय है।         

अगली किसी पोस्ट में              

राजनीती के रंग, संस्कृति के संग (DEJA VU Fights and Technology)  

White Black Fight? बहुत तरह के मायने हैं, सफेद और काले युद्ध के। खासकर, किसी जगह की संस्कृति और रीती-रिवाजों के, राजनीती के साथ विज्ञान के तड़कों के। 

Person of Color? 

Black Lives Matter? 

SC, BC, OBC Or General?   

Civil Or Military Products? 

Friday, October 27, 2023

टेक्नोलॉजी की नंग-धड़ंग दुनियाँ

आपको लगे घर की लाइट खराब हो गई और आप किसी बिजली वाले को बुला लें, ठीक करने? वो कहे, लाइट तो बदलनी पड़ेगी। वो पुरे घर की भी हो सकती है, और किसी खास कमरे या एरिया की भी। और कोई एक-आध प्लग की भी। ऐसा 2012 या 2013 में हुआ था, H#16, टाइप-3 में। बिजली विभाग के बन्दे ने बोला, कॉपर तार है, बहुत पुरानी। इसलिए बार-बार, शार्ट-सरकट हो रहा है। आप पुरे घर की बदलवा लो, सही रहेगा। वैसे भी आजकल यूनिवर्सिटी ये खुद करवा रही है, पुराने घरों में, जहाँ वायरिंग बहुत पुरानी हो चुकी। आपको भी लगे, की ये भी सही है। रोज-रोज शिकायत करने से तो। और हो गई नई वायरिंग, पुरे घर की। मगर उसके साथ-साथ, दूसरे तरह की समस्याएँ भी। Privacy Rights Violations और उसपे हद बेहुदा दर्जे की गिरी हुई bullying (बेहुदा साँड़ सिंड्रोम)।आप क्या करोगे? शिकायत, जहाँ कहीं होनी चाहिए। VC ऑफिस के माध्यम से SP, रोहतक। जब वहाँ से कोई जवाब ना मिले, तो DGP, हरियाणा। जब वहाँ से भी कोई खास कारवाही ना होती लगे, तो महिला आयोग, दिल्ली। मानवाधिकार आयोग, दिल्ली। जब वहाँ भी ढुलमुल रवैया लगे, तो CM, PM, MPs इस पार्टी के, उस पार्टी के, न्यूज़ चैनल्स और सुप्रीम कोर्ट।          

इसके साथ-साथ जानकारी जुटाना भी शुरू हो चुका था, यहाँ-वहाँ से, की आखिर ये निगरानी टेक्नोलॉजी (Surveillance) बला क्या है?

इसी जदोजहद में आपको खबर होती है, एक नंग-धड़ंग दुनियाँ की। टेक्नोलॉजी की दुनियाँ, जो दूर बैठे कंट्रोल होती है। इसी दौरान, बहुत से दोस्ताने दूर होने लगते हैं। लोगों के फोन नंबर बदलने लगते हैं। कुछ के शहर और देश भी। बहुतों से आप दूरी बनाने लगते हैं, या शायद दूसरी तरफ से लोगबाग दूर होने लगते हैं, जिस किसी वजह से। कोड की भाषा में इन्फेक्शन का खतरा? जो कोरोना के दौरान समझ आया। अगर आप कोई गुप्त जानकारी बाहर निकालने लगें तो उससे कुछ लोगों को इंफेक्शन का खतरा हो जाता है। इसलिए बहुत से अंजान और अनभिज्ञ लोगों को भी, आपसे दूर कर दिया जाता है। ताकी सही जानकारी उन तक ना पहुँचे। सिर्फ उतनी ही जानकारी दी जाए जो उन पार्टियों के अपने स्वार्थ के लिए जरूरी हो। यही है राजनीती का रंगमंच। 

इसी दौरान कुछ और फिल्में  इधर-उधर से हिंट के रूप में आती हैं। उनमें से एक है, DEJA VU। जब इंवेस्टीगेशन ही, या भी, जुर्म बन जाए?   

सोचो इतना कुछ होने पर भी news channels, वो सब सीधा-सीधा ना दिखाके, गुप्त भाषा में ही प्रशारित करें? धीरे-धीरे, एजेंडा-सेटर्स का भी जाल समझ आने लगता है। ये इधर हैं, वो उधर हैं, वो उधर हैं और वो उधर। कौन-सी दुनियाँ है ये? किस तरह के संसार में हैं, हम? और उस संसार की खबर भी, कहीं न कहीं, इन्हीं माध्यमों से होती है। मतलब दुनियाँ इतनी भी बुरी नहीं, मगर फिर भी इतनी गुप्त क्यों है और उसमें बदलाव उतना क्यों नहीं हो रहा, जितना होना चाहिए?

दुनियाँ एक कोढ़ है। कोडॉन वाला कोढ़। आपसे पहले भी शिकार हुए हैं और आपके बाद भी। और अगर कहीं न कहीं, इस गंदे धंधे वाले गुप्त युद्ध को रोका नहीं गया, कहीं न कहीं टेक्नोलॉजी पे लगाम नहीं लगी, तो आम-आदमी जैसे मरता रहा है, कीड़े-मकोड़ों की तरह, मरता ही रहेगा। और अहम बात ये, की उसे खबर भी नहीं होगी की हकीकत, "दिखाना है, बताना नहीं" से परे है। सीधा-सीधा षड्यंत्र (Implanting) के तरीके या गुप्त तरीकों से मानव-रोबोट घड़के या दोनों साथ-साथ प्रयोग करके।      

Thursday, October 26, 2023

समीक्षा: क्या है, Enemy of The State?

समीक्षा (Review)

क्या है, Enemy of The State?  

Surveillance, हर कदम पे निगरानी। मगर, ये मूवी थोड़ी पुरानी हो चुकी। इसमें chips, कैमरा, टेलिस्कोप और Setellite पे फोकस है, अगर टेक्नोलॉजी की बात करें तो। Smart फोन तब तक आए नहीं थे। इसीलिए, पेजर वाली दुनियाँ पे अटकी हुई है। Chips भी थोड़े बड़े दिख रहे हैं। 

कुत्ते-बिल्ली का खेल है, अमेरिका में। कुत्ते और बिल्ली पे गौर फरमाएँ, की कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे, रूप, स्वरूप में आ रहे हैं। State, राज्य या देश नाम का जैसे कुछ रह ही नहीं गया है। एक तरफ पॉलिटिक्स है, और दूसरी तरफ Ex-Intelligence। मतलब, खेल यहाँ भी दिमाग वालों का है, या राजनीती का। और खास तरह के किसी खून की कहानी है। 

कुछ-कुछ ऐसी कहानी, जैसी गाँव में लोगबाग किसी खास कॉन्टेक्स्ट में बोलते हैं, "गई भैंस पानी में"। कोई धोखे से इंजेक्शन ठोक के, ये दिखाने की कोशिश करे की गाड़ी में ड्रग्स मिले हैं। और ड्रग्स की वजह से हुआ है।   या शायद ये, की, पियक्कड़ मोदी ने भैंस 28000 में बेच दी और सारे पैसे भी उड़ा दिए।  

जब ये मूवी देखी, तब तक भी मेरी निगाह में लोकतंत्र जैसी, कोई चीज़ होती थी। और पुलिस, मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग जैसी एजेंसी, विस्वास के लायक। दिमाग खराब होना शुरू हुआ, जब इन आयोगों के धक्के खाने शुरू किए। जब इनके हाल जाने और टालमटोल वाला रवैया और तरीके। क्यूँकि, तब तक भी मैं सिस्टम की हकीकत से बहुत दूर थी। उसके बाद तो, धीरे-धीरे जो कुछ पढ़ा, देखा, सुना या अनुभव किया, तो राज्य या देश की अवधारणा ही खत्म हो गई। जो समझ आया, वो ये की दुनियाँ में आज भी छोटे-बड़े कबीले हैं। कुछ थोड़े कम पढ़े-लिखे, तो कुछ थोड़े ज्यादा। राजनीतिक सीमाएँ, आम-आदमी का फद्दू काटने के लिए हैं। United Nations जैसे संगठन भी, दुनियाँ के रईसों और शक्ति-प्रदर्शन के जमवाड़े मात्र हैं। दुनियाँ भर के बाकी संगठनो और नाम मात्र के देशों की तरह, यहाँ भी अपनी ही तरह का राजनीतिक-रंगमंच चलता है।          

Enemy of The State? या देशद्रोही तो वहाँ लागू होता है, जो दुनियाँ को इस गुप्त सिस्टम की हकीकत दिखाने की कोशिश करते हैं। इसके कोड़ों का कोढ़, दिखाने या समझाने की कोशिश करते हैं।  

पिछले 10-15 साल में टेक्नोलॉजी का जिस तेजी से विकास हुआ है, उसी रफ़्तार से कुछ लोगों के आगे बढ़ने के रस्ते खुले हैं। तो कहीं लोग ज्यादा शिकार हुए हैं या पीछे धकेले गए हैं। आगे बढ़ने वालों में टेक्नोलॉजी की जानकारी वाले समुह या समाज हैं। पीछे रहने वालों में ज्यादातर, इस दुनियाँ से अनजान और अज्ञान लोग हैं। तो शायद ज्यादा जरूरी हो जाता है, ऐसे लोगों को टेक्नोलॉजी और विज्ञान से कदम ताल मिलाती, राजनीती से अवगत कराना। जब सामाजिक सामांतर घड़ाईयाँ या यूँ कहो मानव रोबोट्स कैसे बनते हैं, समझ आना शुरू हुआ, तभी ये ब्लॉग हिंदी अपना चुका था। क्यूँकि ज्यादातर ऐसे आमजन को, जिन्हें टेक्नोलॉजी का ABC नहीं पता था, अंग्रेजी भी नहीं आती। तो जरूरी हो जाता है उस भाषा में बात करना, जो उसे समझ आती हैं। उसी दिशा में अगला कदम है, ऐसी-ऐसी फिल्मों, नाटकों और किताबों की समीक्षा। जो कोई ऐसा आसान आमजन की भाषा में कर रहे हैं, अपना लिंक भेझ सकते हैं, Reference के लिए। 

Tuesday, October 24, 2023

दशहरा

त्यौहारों के रंग, राजनीती के संग? तथ्य, अपने-अपने तो रीती रिवाज़ भी अपने-अपने? 

कहानियाँ, जो लिखी किसी ने। फिर पढ़ी किसी ने। फिर बढ़ी आगे ऐसे ही, पीढ़ी दर पीढ़ी। त्यौहार, जिनमें छुपी होती है, अच्छाई की जीत, बुराई पे। त्यौहार जिनपे होती है, साफ-सफाई घरों की, दफ्तरों की, आसपास की, मोहल्ले की। त्यौहार, जिनपे होती है साज-सज्जा, बनते हैं अच्छे-अच्छे पकवान। त्यौहार, जिनपे होते हैं लोगबाग खुश, और बँटती हैं खुशियाँ चारों और। यही जानते हैं ना हम सब, त्यौहारों के बारे में?    

या फिर कुछ और भी?

त्यौहार जिनके बदलते हैं, किस्से और कहानियाँ वक़्त के साथ? त्यौहार, जिनकी बदलती हैं तारीखें, सत्ताधारी पार्टी के अनुसार? त्यौहार, जो सजते हैं और ढलते हैं, बाज़ारी ताकतों के अनुसार? त्यौहार, जिनके शुभ और अशुभ मुहूर्त निकलते हैं, सत्ताधारी पार्टी के अनुसार? त्यौहार, जिनके रीती-रिवाज़ बदलते हैं, राजनीतिक तथ्यों के अनुसार? त्यौहार, जिनके रूप, स्वरूप, किस्से होते हैं, अलग-अलग,अलग-अलग राज्यों या देशों में। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे, जो हमारे भगत सिंह हैं वो उनके आतंकवादी? या जो उनके आतंकवादी हैं वो हमारे भगत सिंह? हम पूजें राम को और वो रावण को? हमारे मंदिरों में राम, तो उनके मंदिरों में रावण? इनका दश हरा तो उनका विजय दशमी? त्यौहार, रीती-रिवाज़ और बाजार? त्यौहार, रीती-रिवाज़ और राजनीती? हर त्यौहार पे, हर रीती-रिवाज़ पे, थोड़ा-सा संवाद जरूरी है, शायद? उनके बदलते रूप-स्वरूपों और उनके रीती-रिवाज़ों के, ढलते बाजारू ताकतों के इर्द गिर्द या राजनीती के अनुसार? जैसे किसी इंसान के दश सिर होना, तर्कसंगत नहीं है। वैसे ही, जैसे देवी या देवताओं के दो से अधिक हाथ होना। लिखने वालों ने कहानियों के किरदारों में कितनी कल्पना का प्रयोग किया होगा? और वक़्त के अनुसार, उनमें क्या-क्या नया जुड़ गया होगा? या जोड़ दिया गया होगा? या शायद कुछ पुराना मिट गया होगा या मिटा दिया गया होगा? शायद, धर्म या रीती-रिवाज़ पढ़ाते वक़्त, तर्कशील होना भी, शिक्षा का अहम उद्देश्य होना चाहिए।

तो आज जब आप रावण, मेघनाथ या कुम्भकरण के पुतले फूंकेंगे, उसके साथ अपने बच्चों को, उनके बारे में क्या बताएँगे? रावण के दश मुँह क्यों? या उन दश मुँहों से लेखक ने क्या कहना या बताना चाहा होगा? या हमें उनसे क्या शिक्षा लेनी चाहिए या अपने बच्चों को देनी चाहिए? श्री लंका या  दक्षिण भारत या कई और देशों में रावण को क्यों पूजते हैं? और बाकी भारत या और कई और देशों में राम को क्यों? और भी कितने ही ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, कितने ही तो प्रश्न हो सकते हैं। अगर आपको मौका मिले, तो आप किन-किन के पुतले फूँकना चाहेंगे? आपके भी अपने ही राम और रावण हो सकते हैं?  

क्या फायदा इतने पुराने पुतलों के फुंकने का? आज के रावण ढूंढों और उनके पुतले फूंको। या शायद उन बुराईयों के, जो आप फूँकना चाहते हैं। ये सदियों पुराने तो कबके फुंके नहीं जा चुके?   

तो इंटरनेट का एक फायदा ये भी है की हम, हर त्यौहार के बारे में कितना ही तो जान सकते हैं। और अपने बच्चों को सिर्फ अपने यहाँ वाला ज्ञान ना पेलकर, उनके, उनके और कितने ही तरह के ज्ञानों को पेलकर, हकीकत उनमें से खुद निकालो, वाले निचोड़ पे छोड़ सकते हैं।   

Wednesday, October 11, 2023

क्या आप सिस्टम के कोढ़ का चूहा हैं?

क्या होगा अगर --

किताब को अगर प्यार या रोमांस कहोगे?

ड्रग्स, स्मैक को कहोगे live-in, step-in   

या हुक्का गुड़गड़ाना? 

जुए को पढोगे खेल?

योन-शोषण को मारपिटाई या डंडा?

रखैल रखने या दो के बीच सैंडविच करने का 

मतलब हो अगर BA-IL?

कम्बल को कालिख (डोरी) पे टाँग 

लटकाओगे जेली से, डोरी को ऊँचा कर 

तो उसे कहते हैं JA-IL?  (Stand up Commedy)  

बाप-बेटी, बहन-भाई, माँ-बेटा, चाचा-भतीजी 

बुआ-भतीजा, जैसे रिश्तों को कहोगे in?

अंदर आ गया या आ गई?  

पैदा होते ही, बच्चे को कहो  

किसी का खसम या किसी की लुगाई?

तो क्या होगा?


सोच कहाँ है? 

दिमाग कहाँ है?

दूसरों को क्या बनाने में ? 

या कहाँ व्यस्त करने में?


फिर वो जो हैं, उत्पाद मात्र 

जिनपे ऐसे-ऐसे प्रयोग होने हैं 

या कहो होते हैं 

या थोपे जाने की कोशिश होती है 

उनके दिमाग में घुसाते हैं ऐसे 

जैसे चूहे फंसाने के लिए 

रोटी का टुकड़ा पिंजरे में। 

चूहा अंदर, गेट बंद 

जैसे दिमाग की बत्ती गुल 

जैसे शराबी का दिमाग गुल 

ड्रग, स्मैक वाले का भेजा 

मांगे बस शराब, ड्रग्स

ना चाहिए रोटी, ना कपड़ा 

क्या करना काम या मकान का? 

भिखारी हो, भीख पे पलो, मालिकों की 

पालकों की या जेलरों की?

अगर मंजूर नहीं तो --   

ऐसे-ऐसे चूहों का काम तमाम? 

कितनी देर लगेगी करने में?

ऐसे जाल में फसाने वालों को?

जब चाहे काम तमाम कर दो 

जब तक चाहे जीने लायक टुकड़ा, 

डालते रहो, या    

जब चाहे, जितनी देर चाहे भुखा रखो 

और फिर अपने सिस्टम के कोढ़ के अनुसार 

-- खिसका दो। 

मुश्किल है क्या ?   

पिंजरा और चूहा - चूहा, बाहर या अंदर? क्या आप सिस्टम के कोढ़ का चूहा हैं?  

सोचो सिस्टम चल ही ऐसे रहा हो? 

बीमारियाँ ऐसे ही, जैसे किसी लैब के अंदर पैदा की गई हों?

उनका ईलाज या खात्मा भी, फिर किसके कंट्रोल में होगा? खासकर, अगर आपको ना ऐसी सामाजिक लैब (Social Engineering) की खबर और ना उससे निकलने या बचने के रस्तों की खबर? तो ईलाज भी कैसे पता होगा? ये सब उन्हें पता होगा जो सिस्टम को ऐसे चला रहे हैं। कौन हैं वो? जरूरी है ना उन्हें जानना?        

Tuesday, October 10, 2023

R in g!? अखाड़ा? जुआ? या सिर्फ खेल?

 R in g!?

अखाड़ा?

जुआ? 

या सिर्फ खेल?  

अगर आप यहाँ, यहाँ घुमेंगे (online), जैसे मैं करती हूँ, तो फलाना-धमकाना website grey ही grey मिलेगी। Grey, मतलब, कुछ-कुछ स्लेटी? Silver के आसपास? मतलब वो कहना चाह रहे हैं, या शायद कह रहे हैं, कोई अभद्रता, किसी तरह की छेड़छाड़ या बलात्कार नहीं हुआ? जो हुआ, सब सामने वाले की इजाजत से हुआ? यही ना? हो सकता है, मुझे कुछ गलत समझ आया हो? आप सही कर सकते हैं। ऐसा कहने वाले मैथ्स प्रयोग करते हैं, शायद?  

(और भी कई तरह के कलर और चिन्ह या सिगनल हो सकते हैं, अलग-अलग वेबसाइट पे। जानेंगे उसके बारे में भी आगे किसी पोस्ट्स में)  


मैथ्स के साथ और भी बहुत कुछ प्रयोग होता है। वो भी पुलिस और न्ययालय की निगरानी में? दोनों तरफ, नीचता और गिरे हुए स्तर के उस पार का जुआ? जुआ या सिर्फ और सिर्फ खेल? ये कैसे न्ययालय या कैसी पुलिस? टेक्नोलॉजी के प्रयोग और दुरुप्रयोग (Use and Abuse of Tehnology). मतलब, पैसा और टेक्नोलॉजी हो तो कितना भी और कितनी भी तरह का गिरा हुआ, चु *@#$%^&+_ बना सकते हैं?    

कुछ गलत तो नहीं कह दिया मैंने साहब लोगो?  साहब लोगों से ही सीखा है, ऐसे लिखना भी। धन्यवाद करूँ क्या उनका ? या शायद अपनी औकात से बाहर जाकर, साहबों के खिलाफ, उन्हीं की जुबाँ में लिखना, एक अच्छे शिष्य की सही पहचान है। पढ़ा है कहीं।  लिखाई प्रभावित होती है, हर उस लिखाई से, जिसे हम पढ़ते हैं। शायद वैसे ही जैसे, जो हम देखते हैं, सुनते हैं या अनुभव करते हैं? हो सकता है, थोड़ा ज्यादा लिख दिया हो। क्यूँकि, इन सबके दुरूपयोग और इतने बड़े स्तर पर, इस राजनीतिक, टेक्नोलॉजी और पैसे के कंट्रोल को काबु न कर पाने की विवशता भी, काफी लोग यहाँ-वहाँ, जताते मिलते हैं।   

कई पोस्ट होंगी आगे, ऐसी-ऐसी टेक्नोलॉजी के आम-आदमी पर दुस्प्रभावोँ की। और क्यों जरूरी है, उन कंपनियों पर कम से कम, कुछ हद तक नकेल कसना। खासकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के शोषण पर। मुझे पढ़ने-लिखने की जगह पसंद है। तो ज्यादातर, ऐसी ही जगहों की ONLINE सैर पे होती हूँ। मुझे साफ-सुथरी, हरी-भरी, उन्नत और विकसित जगहें और देश पसंद हैं। उसके साथ-साथ, सीधा-सपाट बात करने वाले लोग। सही को सही और गलत को गलत कहने वाले लोग। चाहे फिर वो खुद आप ही क्यों न हों। हाँ। कुछ ऐसी ही जगहों की ONLINE सैर पे होती हूँ, मैं। आप खुद जब कम विकसित और पुरानी सदी में रहने वाले इलाके से आते हों, तो शायद और भी जरूरी हो जाता है। वक्त से ताल मिलाने के लिए, खुद आगे बढ़ने और आसपास को भी रस्ता दिखाने के लिए। 

आपकी ज्यादातर ज़िंदगी, जब एक खास तरह के माहौल में पली-बढ़ी हो तो शायद थोड़ा सा मुश्किल भी होता है, कभी-कभी तो शायद संवाद तक कर पाना, उसके विपरीत माहौल में। खासकर ऐसे विषयों पर, जिनका उन्हें ABC तक ना पता हो और कहें ना पता करना। या ऐसा कुछ है ही नहीं। तो शायद, ये माध्यम अच्छा है। Science Communication, आम-आदमी की भाषा में, ऐसे इलाकों के लिए ज्यादा जरूरी है। ऐसे लोगों को बताने और दिखाने के लिए, की दुनियाँ का बहुत बड़ा हिस्सा, आपकी दुनियाँ से बहुत अलग दुनियाँ में रहता है। और उसका कुछ हिस्सा, दूर बैठकर भी आप लोगों को कंट्रोल करता है। आपका शोषण करता है, वो भी आपकी जानकारी के बैगर। ऐसे में अज्ञानता नहीं, बल्की जानकारी ही उस कंट्रोल और शोषण से बचा सकती है। जैसे ऐसी बीमारियों के जाल में उलझ जाना, जो हों ही ना। और फिर खामखाँ के इलाजों पर घर लुटाना या अपने आदमी ही खो देना। ऐसे वाद-विवादों और झगड़ों का हिस्सा हो जाना, जो आपकी ज़िंदगी को उसी में उलझा के रख दें। आगे बढ़ाने की बजाए पीछे धकेल दें या धकेल रहे हों। 

सामान्तर केस मतलब, सामान्तर, हकीकत के नहीं। इसलिए, जो यहाँ खो गया या खत्म हो गया, वो वापस नहीं मिलता, हकीकत वालों की तरह। इसलिए बार-बार कहा जा रहा है, अपने आपको सामान्तर केस बनाने से बचाएँ। आप वो नहीं हैं, जो वो आपको बना रहे हैं या अनुभव करवा रहे हैं। दूर बैठकर भी, वो सब अनुभव करवाना ही रिमोट-कंट्रोल है, जिसकी ज्यादातर को जानकारी ही नहीं। इन रिमोट कंट्रोल के तौर-तरीकों और टेक्नोलॉजी की समझ या जानकारी ही उस शोषण से बचा सकती है। कैसे? जानते हैं आगे आने वाली पोस्ट्स में।      

(मुझे 15 वाले 2% में भी कोई रुची नहीं है, खासकर कोरोना को जान, देख और समझ कर। बल्की कहना चाहिए की नफरत हो गई है, ऐसे लोगों से।)  

Tuesday, October 3, 2023

कौन-सा कोड कहाँ बैठेगा?

हर इंसान कोड? हर कुर्सी कोड? हर रस्ता, हर जीव और निर्जीव एक कोड? खाने-पीने, पहनावे से लेकर, बोलचाल की भाषा तक, जन्म-मरण से लेकर, बीमारियों और उनके ईलाज़ों तक। दवाईयों, डॉक्टरों, हस्पतालों, स्कूलों, विद्यालयों और यूनिवर्सिटी तक, सब कोढ़ से कोड। आपका ईलाज क्या और कैसे होगा, इसके भी थोंपे हुए से कोड, इधर के या उधर के। तो आपके आसपास जो कुछ भी है, वो सब आपके आसपास का, एक खास तरह का काम्प्लेक्स राजनीतिक कोड। कौन सा कोड कहाँ बैठेगा, कौन किससे बोलेगा या नहीं बोलेगा, ये भी अक्सर रंगमंच पे दिखाना है, बताना नहीं, जैसा-सा ही कोड होता है। ज्यादातर गुप्त रूप से, लोगों की मनोस्थिति घड़कर या जानभूझकर करवा के भी। 

और ये सब वहाँ की राजनीति, उस वक्त का राजनीतिक माहौल बताएगा। ठीक ऐसे ही जैसे, नेता लोग विधानसभा या राज्यसभा में बैठते हैं। ऐसा-सा ही, कुछ-कुछ नेता लोग कोशिश करते हैं, अपने रोजमर्रा के कार्यकर्मों में दिखाने या सुनाने का। ऐसा ही कुछ, जब वो मंच पर बोल रहे होते हैं, तब चल रहा होता है।     

कौन-सा कोड कहाँ बैठेगा, ये भी ये गुप्त सिस्टम बताता है। पढ़ा, यहाँ-वहाँ और फिर देखा-समझा भी। आप भी जानने-समझने की कोशिश कर सकते हैं। 

जैसे किसी के कान बिंधे हों, कुछ भी बेतुका-सा बताकर और एक तरफ मतलब हो "पीट दी संगीतमय रैली-सी"  और दूसरी तरफ हो, रीती-रिवाज़। एक तरफ शौक, और दूसरी तरफ, अपना एजेंडा लागू करवाना। या अपनी ही तरह की मोहर ठोकना। 

ऐसे ही बीमारियों और ईलाज़ों का है। कैसे बेतुके से इन जालों से, बाहर निकलने में फायदा है या इनके साथ समावेश बनाने और अपने आपको ढाल लेने में। वैसे ढल तो हम खुद ही जाते हैं क्यूंकि ज्यादातर का सही अर्थ और उदेश्य या छिपा हुआ फायदा या नुकसान पता ही नहीं होता। आएंगे उसपे भी, किसी और पोस्ट में।  

रैली निकालना (राजनीतिक-विज्ञान वाली)

Degrading, meanness, demeaning, goonish, pejorative, offensive, criminal mindset and conduct, puzzling tricks to score in demeaning way? सीधी-सीधी भाषा में बोलें तो गुंडों वाली भाषा और तरीके, या शायद शातीर राजनीतिक, नीचा दिखाने के तरीके? 

ऐसी-ऐसी, वैसी-वैसी और ना जाने कैसी-कैसी रैलियाँ, खासकर आम आदमी की। यहाँ-वहाँ और न जाने कहाँ-कहाँ, निकलती ही रहती हैं।  

हर नेता का अपना खास एरिया और उसके लिए खास तरह के प्रोग्राम या specialty मिलेंगी। जानने-समझने की कोशिश करें उन्हें, शायद सिस्टम का कोढ़ कुछ समझ आए। उन्हीं में कहीं न कहीं, छिपे होते हैं, अपमानजनक, तुच्छ बताने या दिखाने वाला या बनाने वाला, बेहुदा तरीके से नीचा या छोटा दिखाना, तिरस्कार करने की या इस तरह की मोहर ठोकने की अपनी ही तरह की कोशिश। शायद ऐसे ही कुछ अच्छा भी होता होगा। आएंगे उसपे भी, किसी और पोस्ट में। 

जैसा आप सोचते हैं या आम आदमी को दिखता या समझ आता है, वैसा नहीं, बल्की उसके बिलकुल उल्टा। भद्दा और बेहुदा भी। जले पे नमक जैसे? और आपको दिखे या समझ आए? 

राजनीती वाली रैलियाँ   

Digital and graves (3D)? 

एक दिन ऐसे ही क्लास में किसी टॉपिक पर बात हो रही थी। हर क्लास में कुछ ऐसे तत्त्व हमेशा होते हैं, जो हद से ज्यादा झल्लाहट पैदा करने वाले हों। हालाँकि, वक़्त और तजुर्बे के हिसाब से टीचर ऐसे तत्वों से निपटना भी सीख जाते हैं। वक़्त के साथ, ये भी समझ आता है की well behaved and soft spoken students की बजाए, ऐसे rude तत्वों से ज्यादा सीखने और समझने को मिलता हैं। Life Sciences या BioSciences में ऐसा, शायद ही देखने-सुनने को मिले। मगर साथ में जहाँ Engineering मिल जाता है, वहाँ कुछ भी संभव है। शायद इसीलिए, इस डिपार्टमेंट को मैं कभी अपना नहीं पाई। हमेशा ऐसा अनुभव होता रहा, की आप गलत जगह हैं। सबसे बड़ी बात, यहाँ पे joining ही बड़े बेमन से की थी। पहले ही दिन का अनुभव ही ऐसा था। खैर, वापस क्लास पे आते हैं। किसी स्टुडेंट ने कुछ बड़ा अजीब-सा शब्द प्रयोग किया। Indirectly, जो गिरे हुए स्तर का था। और पता नहीं क्यों मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आ गया, जो कम ही होता है। और मैंने कुछ वैसे से ही शब्द प्रयोग कर दिए, जो शायद एक टीचर को नहीं करना चाहिए, चाहे जो भी परिस्थिति हो। मैंने बोला, "ज्यादा बकवास की तो यहीं गाड़ दुंगी। हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?" और उसने वापस बोला, "मैडम गाड़ा हुआ तो आपको already स्टूडेंट ने ही है। आपको पता ही नहीं, उस ग्रेवयार्ड का?" एकदम सही शब्द ध्यान नहीं, पर कुछ-कुछ ऐसा ही। हालाँकि बाद में, कुछ स्टूडेंट्स ने सॉरी भी फील किया, उस स्टूडेंट के behalf पे। क्यूँकि उसे मैं क्लास से निकाल चुकी थी। पर वो शब्द जाने मुझे कैसी-कैसी graveyards पे ले गया। 

उसके बाद तो ये graveyard, कई जगह, कई तरह से सुनने-समझने को मिली। ईधर-उधर की, कुछ पोस्ट में, एक खास तरह की सोशल फोटो में, जहाँ हड़ियाँ ही हड़ियाँ पड़ी हैं और कोई कुत्ता जैसे कह रहा हो, और ये सब बिल्ली (या बिल्ला शायद?)  ने किया है (And cat did it all)? तब तक भी मुझे किसी छद्द्म-युद्ध का अंदाजा नहीं था। हाँ। ये सब चल क्या रहा था, जानने की जिज्ञासा जरूर बढ़ गई थी। मेरे दिमाग में कोई 16 घुम रहा था। या कहना चाहिए की घुमाया गया था, शायद? 

16, Type-3   

16. 04. 2010 

16. 06. 2010 

उसके बाद तो पता ही नहीं, ऐसी-ऐसी कितनी ही तारीखें या नंबर थे, दिमाग को घुमाने के लिए। जिनमें से ज्यादातर के बारे में, मेरी समझ बहुत कम थी। 

इस सबके कुछ साल बाद, एक किताब मिली पढ़ने को, किसी जानकार की लिखी हुई। और फिरसे graveyards दिमाग में घुमने लगी। दो पैराग्राफ, उसमें काफी कुछ गा रहे थे। एक किसी शादी का scene और दूसरा किसी की grave। तीन किताबों में से, ये ज्यादा interesting थी, शायद। पढ़कर ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे, किसी बहुत ज्यादा नफरत करने वाले इंसान ने लिखी हो। छोटी-सी, मगर, बड़ी-ही, अजीबोगरीब-सी किताब। एक मैंने किसी सलाह पे खरीदी। किसी ने पढ़ने को माँगी। मगर जिस हिसाब से उसे लेने कोई आ रहा था, वो जाने क्यों और भी ज्यादा अजीब था। और मैंने बहाना बना, की मैं तो घर पे हूँ ही नहीं, वो नहीं दी। शायद ही कभी हुआ हो, की किसी ने कोई किताब माँगी हो और मैंने मना कर दिया हो। चल क्या रहा था, ये सब? राजनीतिक रंगमंच? अब तक शायद थोड़ा-बहुत समझ आने लगा था, की इन्हें राजनीतिक रंगमंच कहा जाता है। फिर उस इंसान का तो थिएटर से शायद खास लगाव रहा है।      

उस अजीबोगरीब किताब में, शायद एक ऐसी शादी थी, जिसमें दूल्हे ने अपनी सगाई की फोटो फाड़ कर, FB पे चिपकाई थी, हकीकत में। और शादी की फोटो में पति और पत्नी को एक दूसरे के विपरीत दिशा में मुँह किए। उस FB पे काफी कुछ आता है आज तक। थोड़ा-बहुत समझ आता है शायद, और थोड़ा-बहुत नहीं भी। इतने सालों के उतार-चढ़ावों का आईना जैसे। कुछ ज़िंदगियों की, कोई अजीबोगरीब कहानी गाता हुआ जैसे।  

अब असली वाली राजनीती वाली रैलियों पे आते हैं।   

Digital and graves, कहाँ सुनने को मिलता है? DIGITAL libraries के यहाँ वहाँ पैसे बाँटते और उदघाटन करते? और श्मशान घाटों के रखरखाव के लिए ? किसानों की रैलियाँ?   

हर नेता का अपना खास एरिया और उसके लिए खास तरह के प्रोग्राम या specialty मिलेंगी। जानने-समझने की कोशिश करें उन्हें, शायद सिस्टम का कोढ़ कुछ समझ आए। 

एक रैली वो जिनमें आम आदमी जाता है, और राजनीतिक नेता करते हैं। 

एक वो, जिसे किसी की रैली निकालना कहते हैं। या और ठेठ या लठमार भाषा में कहें तो, "या किस की रैली-सी पीट-री है"? ये ठेठ लोग (सिर्फ ठेठ? या जाहिल-गँवार?), ऐसा किसी भी माहौल और मौके पे कह या कर सकते हैं। क्यूंकि यहाँ मौका नहीं, राजनीतिक चौके-छक्के देखे जाते हैं। ये लगा चौका, इस पार्टी के खिलाफ। ये लगा छक्का, उस पार्टी के खिलाफ। अरे, पार्टी की बजाए, देश बोलना था ना शायद?  जितनी भी रैलियाँ होती हैं, उनमें किसी न किसी की रैली निकल रही होती है, गुप्त रूप से। राजनीती के लोगबाग, राजनीतिक रंगमंच पर रैलियाँ निकाल रहे होते हैं, हम उसे क्या सोचते हैं? और वो वहाँ नौटंकी, क्या कर रहे होते हैं? या शायद उनसे भी कोई करवा रहे होते हैं ? 

और ये अजीबोगरीब रैलियाँ सिर्फ राजनीतिक रैलियों में ही नहीं निकलती बल्की जोकरों की तरह यहाँ-वहाँ, जाने कहाँ और कौन-कौन लगे ही रहते हैं। 

कभी सोचा रैलियों में कौन जाते हैं? इतने ठाली भला कौन होते हैं? आओ किसान रैली पे ही आते हैं किसान रैली मतलब? किसान की रैली निकाल रखी है। खासकर ऐसी रैली, जैसे लालकिले पे 26 जनवरी को किसानों का रैली में ट्रेक्टर प्रदर्शन। उसी रैली में किसी किसान की मौत भी। ऐसे ही जैसे, इससे काफी पहले अरविंद केजरीवाल की रैली और किसी किसान का उसी रैली में फांसी लगाना। ऐसे-ऐसे, सिर्फ किसान ही नहीं बल्की और भी कितनी ही तरह की रैलियाँ और उनके कितनी ही तरह के कारनामे मिल जाएँगे। एक बार जानने-समझने तो लगो, इस गुप्त सिस्टम और राजनीती के गुप्त कोड़ों को। 

26 जनवरी वाली लाल किले पे ट्रैक्टरों वाली रैली और किसान की मौत। मगर कैसे? या थोड़ा और पीछे चलें? अरविंद केजरीवाल की रैली और किसी किसान का उस रैली में ही फाँसी लगाना। मगर कैसे? और क्यों? अभी पीछे कुछ विडियो देखे, दुष्यन्त चौटाला की FB पेज पे और दीपेंदर हुडा के FB पेज पे। स्टेज पे कितना कुछ स्टेज होता है ना? कोई गाए, उन्होंने पीटा और कोई ये बताए की इसे क्यों पीटा और उसे क्यों पीटा। और भी काफी कुछ आता ही रहता है, कभी अरविंद केजरीवाल के पेज पे तो कभी मोदी के। बड़ी कुर्सियों पे बैठे लोग और बड़ी-बड़ी बातें ? या शायद बड़ी कुर्सियों पे बैठे लोगों की, कितनी छोटी-छोटी सी बातें? हमेशा तो नहीं, पर शायद बहुत बार। राजनीती के इस स्टेज को आम-आदमी भला कैसे समझे? अब उसे क्या पता है की पिटने का यहाँ मतलब क्या है? खुद मुझे बहुत वक़्त के बाद समझ आया।  

विज्ञान वाली रैलियाँ 

जैसे? अभी पीछे वो कोई चंद्रयान को किसी कक्षा में बिठा रहे थे, अपने कौन-से वाले नेता लोग? मतलब ये वैज्ञानिक सिर्फ stand up कॉमेडी ही नहीं करवाते या करते, बल्की चाँद-सूरज को भी कक्षाओं में बिठाते हैं। या चंद्र और सूरज-ग्रहण भी खास वाले और खास तरीके से करवाते हैं। जब वैज्ञानिक ऐसा कर सकते हैं तो नेताओँ को क्या बोलें? 

कहने वाले तो युं भी कह दें, पता है ये DIGITAL और GRAVE का क्या रिस्ता है? और इनका दुष्यंत चौटाला से क्या लेना-देना हो सकता है ? नेताओँ के प्रॉपर्टी, घर, खेती या व्यवसाय वाली जमीन, कितनी और कौन-कौन सी गाड़ियाँ और किसके नाम हैं ? सबकुछ जानकार ऐसे लगेगा, राजनीतिक कोढ़-सा जैसे।  

अब कहने वाले तो ये भी कह दें की DLF और वाड्रा का क्या कनेक्शन? वो भी राजनीती से? या हुडा का गुडगाँव की प्रॉपर्टी के झमेलों से? एक तरफ राजनीती है, तो दूसरी तरफ, इधर और उधर का मीडिया। ऐसे-ऐसे और भी पता नहीं कैसे-कैसे, राजनीतिक किस्से-कहानियों वाले कोढ़ हर नेता के मिलेंगे। 

अब अरविंद केजरीवाल, अपने साथ ये शराब के घोटाले वालों को क्यों लिए घुमता है? जरूरी है, इतने शराब के ठेके खुलवाना, वो भी इतनी रात तक? एक तरफ प्रचार-प्रसार स्कूल और दूसरी तरफ शराब और ठेके? हज़म नहीं हो रहा ना? वैसे ही जैसे, एक तरफ DIGITAL, किसान और दूसरी तरफ GRAVES के लिए खास पैसे देने में रूची? शायद जाने वालों के लिए सम्मान की भावना? और तो क्या ही कहें?

राजनीती भी और विज्ञान भी। हो गया राजनीती-विज्ञान?  

ऐसे ही, किसी भी नेता के स्पेशल राजनीती वाले interests को जानने और समझने की कोशिश करें। और जिन्हें थोड़ा ज्यादा पता है, वो अपना ज्ञान इधर बाँटते रहें। 

ये तो हुआ राजनीतिक-विज्ञान वाली खास तरह की रैलियाँ। ऐसे ही आम आदमी भी, ऐसी-ऐसी रैलियाँ पीटता ही रहता है। मगर उससे ऐसा ज्यादातर, अनजाने में होता है। और शातीर लोग करवा रहे होते है, छल-कपट से।  उसके खुद के खिलाफ, अपनों के खिलाफ और भी ना जाने किस-किस के खिलाफ। उसमें हमारे आसपास की हर वस्तु, जीव, निर्जीव, रीती-रिवाज और भी पता नहीं क्या-क्या होता है। जानेंगे उसे भी आने वाली कुछ पोस्ट में।         

Sunday, October 1, 2023

आओ मानसिक स्थिति घडें (मोटा-मोटा सा ज्ञान)

व्यस्तता   

आप कहाँ व्यस्त हैं? मनोदशा काफी हद तक इस पर निर्भर करती है की आप व्यस्त कहाँ हैं? कोई काम कर रहे हैं, जो आपको आगे बढ़ा रहा है? कुछ नया सीखा रहा है, जो आपकी ज़िंदगी पर किसी भी रूप से सकारात्मक प्रभाव छोड़े या नकारात्मकता की तरफ धकेल रहा है? आप जो कर रहे हैं वो आपको, आपके परिवार और समाज को क्या बाँट रहा है? आपकी ज़िंदगी और आसपास के माहौल को सुकून, सुख और शांति की तरफ चला रहा है, या अशांती की तरफ धकेल रहा है? 

आत्मनिर्भरता

आत्मनिर्भरता, किसी भी तरह की, इस सबमें अहम भूमिका निभाती है। आत्मनिर्भरता आपको संतुलित रखती है। वो विरोधाभास वाले माहौल और परिवेश में भी आपको लड़खड़ाने नहीं देती। आप या आपका परिवार और आसपास का समाज आत्मनिर्भर है, तो बाहर की तरफ किसी भी तरह की सहायता के लिए, कम ही देखेगा। वो आत्मनिर्भरता मानसिक भी हो सकती है और आर्थिक भी। और भी कई तरह की हो सकती है। जैसे की कोरोना के बंद के दौरान देखने को मिली। जिस परिवार या समाज के पास ये नहीं होता, वो ज्यादातर बाहर की तरफ देखता है। उसकी ज़िंदगी, उस बाहर के अनुसार ही पलती, ढलती और चलती है। जैसे बड़े-बड़े देशों पर, छोटे देशों की निर्भरता। अगर वो बाहर अच्छा है, तो ज़िंदगी भी अच्छी होती है। और अच्छा नहीं है, तो ज़िंदगी भी अच्छी नहीं होगी। इसीलिए कहते हैं, की इंसान पर उसके माहौल और उसकी संगति का, बहुत असर पड़ता है। 

राजनीती 

किसी जगह की ज़िंदगियों और समाज को वहाँ की राजनीती भी काफी प्रभावित करती है। इससे फर्क नहीं पड़ता की आपकी राजनीती में कोई रूची है की नहीं। उससे कोई लेना-देना है की नहीं। फिर भी, राजनीतिक पार्टियों का और राजनीती का आपसे लेना-देना है। क्यूंकि, राजनीती का हर जगह की कुर्सियों से लेना-देना है। वो कुर्सियाँ, फिर चाहे मंदिर-मस्जिद की हों, या मेडिकल की। किसी शिक्षा संस्थान की हों, या फिर फौज की। बाजार की समिति की हों, या फिर सरकार की। इसलिए राजनीतिक माहौल का भी, हर इंसान और समाज की मानसिक दशा पर प्रभाव पड़ता है। 

मीडिया 

आप क्या देख और सुन रहे हैं? टीवी पर, रेडिओ पर, इंटरनेट पर, अखबारों में, खबरों में, नाटकों में, सिनेमा में या ऐसे किसी और माध्यम से। बड़ी से बड़ी MNC से लेकर, छोटे-मोटे सोशल मीडिया पेज तक, आपकी मनोस्थिति घड़ने का काम करते हैं। किसी भी विषय के बारे में, आपके विचारों को दिशा देते हैं। मतलब मनोस्तिथि घड़ते हैं।

बहुत बार आप वो खरीदते हैं, जो आपको पसंद नहीं होता और एक वक़्त के बाद उसी को पसंद करने लगते हैं। इसमें किसी भी वस्तु के रंग से लेकर, उसके डिजाईन तक हो सकते हैं। उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ, आपकी पसंद-नापसंद ना देख, पसंद-नापसंद घड़ने का काम करती हैं। ये कम्पनियाँ, ऐसे-ऐसे उत्पाद बेचने में सक्षम होती हैं, जो बहुत अच्छे नहीं होते। मगर जिनमें कंपनियों को काफी फायदा होता है। हालाँकि, खरीदने वाले का नुकसान होता है और उसे खबर तक नहीं होती। सब तकनीकों के प्रयोग और दुरूपयोग से। 

मीडिया ज्यादातर प्रोपेगंडा रचता है, इस पार्टी का या उस पार्टी का। उसे फर्क नहीं पड़ता, आम आदमी पे उसका असर कैसा पड़ रहा है। ऐसा ही राजनीतिक पार्टियाँ और इनकी गुप्त-गुफाएँ या शाखाएँ, आम-आदमी का फद्दू बनाने में रहती है। ऐसे तरीके और तकनीकें, राजनीतिक सामान्तर घढ़ाईयोँ में भी प्रयोग और दुरूपयोग होते हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे कहीं कोई एक्सीडेंट के बाद बिस्तर पर पड़ा हो और हिलडुल तक ना सकता हो। और कहीं दूर, कोई हमबिस्तर सामान्तर घड़ाई चल रही हो। मेडिकल छुट्टियाँ खत्म होने के बाद भी, तकरीबन एक साल आपकी फिजियो और Cycling हो, फिर से, अच्छे से चलने-फिरने के लिए। आपका भांजा-भांजी आपको ऑफिस छोड़ते हों, या लेने जाते हों। स्कूल जाने वाला बच्चा (भांजा), आपकी मदद के लिए आपके पास रहता हो और पता चले कहीं दूर, live-in सामान्तर घढ़ाईयाँ हो रही हों। गाँव में आने के बाद, कैसे-कैसे लोगों के अजीबोगरीब किस्से-कहानियाँ, राजनीतिक सामान्तर घड़ाईयों के सुनने-समझने को मिले। यही नहीं, कुछ लोगों के दिमाग की प्रोग्रामिंग ही आपके खिलाफ, इतने भद्दे तरीके से हो रखी हो, की आपको समझ ही नहीं आए, की इस घड़ाई का, या उस घड़ाई का, मेरे से क्या लेना-देना? या ये सब कैसे मिलता-जुलता है? और फिर इधर-उधर से पता चले, की लोगबाग हकीकत की ज़िंदगी नहीं, राजनीतिक रंगमंच के किस्से-कहानियों वाली ज़िंदगियाँ जी रहे हैं। उन्हें हकीकत जानने में कोई रुचि ही नहीं है। एक अलग ही दुनियाँ है, जिसमें वो रहते हैं। इसीलिए इतनी आसानी से बेवकूफ बन रहे हैं। यही "दिखाना है, बताना नहीं", का सच है। जिसमें गुप्त क्या है, या गुप्त तरीके से जुर्म कैसे रचे जाते हैं, वो नहीं बताना। ऐसी-ऐसी सामान्तर घड़ायों से निकालने के लिए या बचाने के लिए, हकीकत दिखाना और बताना जरूरी है। जैसे ही वो दिखाना और बताना शुरू हुआ, वैसे ही दुनियाँ भर में राजनीतिक ताँडव शुरू हो गया। आखिर ऑफिसियल डाक्यूमेंट्स, ऑफिसियल होते हैं। यहाँ-वहाँ से, कही-सुनी, दूर-दराज की बाते नहीं।   

शायद ऐसे ही जैसे, कहीं कोई नौकरी से resign (enforced resign) के बाद, घर बैठकर कैंपस-क्राइम-सीरीज या सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयोँ पे, किताब लिख और छाप रहा हो। और दूर कहीं, किन्ही घर वालों या भाइयों द्वारा, लड़कियों की खरीद-प्रोक्त और पैसों के लेन-देन के किस्से और सामान्तर घढ़ाईयों को मीडिया आम जनता को परोस रहा हो। जैसे पहले भी बहुत बार कहा, की सामान्तर केसों में अक्सर, बढ़ाना-चढ़ाना, तोडना-मरोड़ना, और भद्दे से भद्दे रूप में पेश करना या ला छोड़ना होता है। वो सब हकीकत के आसपास हो भी सकता है, और हो सकता है, बहुत कुछ ना मिलता हो। या शायद, एकदम नई सामान्तर घढ़ाईयाँ हों।राजनीतिक पार्टियों या मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता, की ऐसी-ऐसी सामान्तर घढ़ाईयों का उन असली की ज़िंदगियों पे क्या प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक पार्टियों और मीडिया का तो ये काम है। आम इंसान को खुद को, इन सबके दुष्प्रभावों से बचने के लिए जागरूक होना होगा।          

अगर आप अपनी और अपनों की ही ज़िंदगी में व्यस्त हैं, और आत्मनिर्भर भी हैं, तो बाहरी तत्वों के दुस्प्रभाव कम होते हैं। वो फिर राजनीती हो या मीडिया की घढ़ाईयाँ और उनके दुस्प्रभाव। लेकिन अगर आप राजनीती और मीडिया के जाले में हैं, और अपनी या अपनों की ज़िंदगी से कोई लेना-देना ही नहीं है, तब तो कौन बचा सकता है? ये वो घर या अपने होते हैं, जहाँ आपस में आना-जाना, मिलना-जुलना या बोलचाल ही कम होती है। अपनों की खबरों के लिए भी, बाहरी सहारे होते हैं। एक-दूसरे के काम आना तो दूर। मतलब, आपको ना मीडिया की समझ है, और ना ही राजनीति की, इसीलिए उनके जालों में हैं। ये तो थी बड़ी-बड़ी चीज़ें, जो मानसिक दशा को प्रभावित करती हैं, या घड़ती हैं।   

उसके बाद आती हैं, बहुत ही छोटी-छोटी चीज़ें या बातें, जो मानसिक दिशा घड़ती हैं। आते हैं उनपे अगली पोस्ट में।

सामान्तर घड़ाईयाँ (आभाषी ज्यादा, हकीकत कम)

मानव रोबोट बनाना कितना आसान या मुश्किल? 

शायद बहुत आसान तो नहीं। खासकर जब आप या आसपास के लोग सजग हों। मगर जिस तरह राजनीति ने अपने जाले फैलाए हुए हैं, उसे देखकर लगता है की बहुत मुश्किल भी नहीं है। खासकर एक्सपर्ट लोगों के लिए। 

सामान्तर केसों का अगर आप अध्ययन करेंगे तो समझ आएगा की तथ्यों को रखने में बहुत ज्यादा हेरफेर है। हर पार्टी अपनी-अपनी तरह के तथ्य घड़ने की कोशिश करती है। और उन तथ्यों को पेश करने में वो सामने वाले को किसी भी हद तक चौंधिया सकती है, बेवकूफ बना सकती है। इस तरह की हेराफेरियाँ कैंपस क्राइम केसों में आसानी से देखी-समझी जा सकती हैं। क्युंकि वहाँ सिर्फ लोगों की कही गयी जुबानी बातें नहीं है, बल्की official documents है, जो कहानी खुद-ब-खुद गा रहे हैं। जैसे हस्ताक्षर करने वाले विधार्थी उस दिन उस शहर में ही न हों। या छुट्टी वाले दिन (जिस दिन हरियाणा बंद हो) टीचर ने नहीं पढ़ाया, की लिखित में कम्प्लेन हो। दिवाली पे हॉस्टल बंद हो और लिखित में टीचर की कम्प्लेन हो, क्लास नहीं ली। एक-दो को छोड़ बाकी विधार्थियों के हस्ताक्षर उन एक-दो ने ही कर दिए हों। ऑफिस के बाद ताला खोल, लैब से dissertation चुरा लें और अगले ही दिन final viva भी हो जाए। वो भी जब वो टीचर, किसी केस की तारीख पे कोर्ट में बुला लिया हो और officially छुट्टी पे हो और डिपार्टमेंट कोऑर्डिनेटर खुद छुट्टी पे हो। ये सब आप कभी भी साबित कर सकते हैं। 

मगर जहाँ सिर्फ कहे सुने गए तथ्योँ के आधार पे कहानियाँ घड़ी जाएँ, वहाँ तो क्या कुछ तो सम्भव नहीं है?        

हेराफेरी 

Trickeries: Setting narratives are like setting news-agendas by different parties media. टीवी खबर देने वाले चैनल कैसे ब्रेकिंग न्यूज़ देते हैं? 

अलग-अलग चैनल्स पे, एक ही वक़्त में अलग-अलग ब्रेकिंग न्यूज़ क्यों होती है? ज्यादातर खबर चैनल इसलिए नहीं चल रहे की आम इंसान को दुनियादारी की असली खबर हो। बल्कि इसलिए चल रहे हैं, की उन्हें और उनकी पार्टियों को फायदा हो। इसीलिए अगर एक चैनल पे तबाही-तबाही मची हो, तो भी दूसरे चैनल पे यहाँ सब शांति-शांति है, हो सकती है। ऐसे ही आम लोगों की ज़िंदगियों के साथ अलग-अलग पार्टी खेल रही होती है। खासकर, जब सामांतर केस घड़ाई की बात हो। 

अपना पक्ष रखना, किसी बात या पहलु को अपने हिसाब से रखना, बताना या दिखाना  (Narrative) 

किसी भी विषय के कितने पहलु हो सकते हैं? जितने आदमी हों, उतने ही। जितनी पार्टी उतने ही। जितने मुहँ, उतनी बात। या शायद उससे भी ज्यादा? क्युंकि कुछ पक्ष उनसे इधर-उधर भी हो सकते हैं।     

एक पक्ष 

2019 में मार-पिटाई, एक सामांतर घड़ाई, और सज्जन की पत्नी (?) का सज्जन ज्ञान। मतलब, ऐसे लोग जिनसे आप पहली बार मिल रहे हों, सिर्फ आपके बारे में ही नहीं, आपके माँ-बाप के बारे में भी कुछ गा रहे हों। जाहिल इंसान ही किसी के माँ-बाप तक जा सकता है। फिर जो मार-पिटाई तक चले गए, वहाँ बदजुबान क्या महत्व रखती है? कहा क्या उसने और क्यों, उसपे क्या सोचना? वो एक तरह का तरीका (Narrative) था किसी बात को रखने का, किसी सामांतर घड़ाई में, किसी एक पार्टी का। 

उस औरत ने जो कहा, क्या वो अहम था? हाँ! वो एक पुरुष प्रधान समाज का बेहुदा रूप दिखा और बता रहा था।  

कितने ही पक्ष 

गाँव में आई तो और कई तरह के सामान्तर केसों को समझने का मौका मिला। ये भी की माँ को ऐसा कुछ या इस तरह का बोलने वाले लोग कौन हैं? खासकर किस पार्टी के हैं? गाँव में ऐसे-ऐसे नमूनों की नुमाईश ज्यादा ही दिखेगी। क्युंकि, यूनिवर्सिटी में वो जो स्तर पहुंचा हुआ है, वो ऐसी ही किसी जगह से पहुंचा हुआ है। ऐसे कुछ लोगों को आप बचपन से जानते होते हैं। कुछ वक़्त के साथ अपना रंग दिखाते हैं। उनमें से कुछ वक़्त की अलग-अलग तरह की मार भी झेल चुके होते हैं। तो शायद, कुछ हद तक थोड़ा सभ्यता, विनम्रता और सौम्यता की तरफ भी मुड़ चुके होते हैं।  

मगर कुछ, कुछ और ऐसे ही और सामान्तर घड़ाईयों में प्रयोग या दुरूपयोग हो रहे होते हैं। उन प्रयोगों या दुरुपयोगों में सामने वाले के पास जानकारी क्या है और क्या नहीं है, अहम भुमिका निभाती है। क्युंकि, जैसे ही जानकारी बदलती है, वैसे ही सामने वाले का व्यवहार भी। Narratives change with information. जानकारी बदलना मतलब व्यवहार बदलना, मतलब mind programming .  व्यवहार बदलना, मतलब, मानव रोबोट घड़ना। 

Hide some information, feed some information. मतलब Deceptive Designs, चालबाज़ी। इसीलिए हेराफेरी आसान हो जाती है। क्युंकि जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। 

मेरे गाँव आने के बाद किसी और सज्जन की कहानी सामने आई। बताने वाले जैसे बता रहे थे, उससे यूँ लगा (लगा मतलब आभाषी, जरूरी नहीं हकीकत ही हो)  की कहीं-कहीं थोड़ा बहुत मिलता-जुलता सा केस है।  थोड़ा बहुत, बस। बाकी कुछ नहीं मिलता। ये बताएँगे तो केस घडाई ऐसे है और वो बताएँगे, तो ऐसे। 

उसके कुछ महीनों बाद भाभी की मौत और एक और ड्रामा शुरू होना। या कहना चाहिए की ऐसा लग रहा था, जैसे ड्रामा ज़िंदगी के हर कदम पर साथ-साथ चल रहा हो। पर मैं तो कभी इन ड्रामों की या रंगमंच की कभी इतनी शौकीन नहीं रही। जिनके आसपास था या जो अब उस ड्रामे का हिस्सा थे, वो शायद ये तक न जानते हों, ये रंगमंच क्या होता है? फिर ये लोग क्यों शामिल हो गए थे? इन्हें क्या कहके शामिल किया गया था? इनके पास किस तरह की जानकारियाँ थी? अहम, कौन-सी जानकारियाँ इनसे छुपाई जा रही थी? सबसे बड़ी बात, क्या-क्या तोड़मोड़-जोड़घटा कर पेश किया गया था?

आईये, आभाषी दुनियाँ को हकीकत में कैसे परोसते हैं ये जानने की कोशिश करें 

भाभी की मौत के अगले ही दिन एक ex MLA और उसके स्टैनगन वाला ड्रामा। उसके अगले ही दिन औरतोँ की पिटाई, कुटाई, लुटाई और खरीद फरोक्त कर दूर-दूर से लायी गयी औरतों की कहानियाँ। सबसे बड़ी बात, कौन तबका किस दिन आ रहा था या शायद कहना चाहिए की किस पार्टी से संभंधित था। और उनकी बातें (कहानियाँ, narratives), किन-किन विषयों के आसपास घुम रहे रहे थे। मैंने इस गाँव को या इन कहानियों को इस रूप में पहले शायद ही कभी देखा-सुना हो। ऐसा नहीं है की ऐसी-ऐसी कहानियाँ पहले नहीं सुनी थी। यहाँ इस रूप से मतलब, राजनीतिक चेहरे और मोहरे और उनके दिए पक्ष (narratives).  जो मानो आपको खास दिखाने और बताने को ही पेश किय जा रहे हों। या शायद, अब इस राजनीति को थोड़ा बहुत समझना शुरू कर दिया था। इससे पहले ये वाली समझ न थी। तीसरे ही दिन शायद, थोड़ा दूर और एक और औरत की मौत और उसके आसपास घुमते Narratives के ये पक्ष, वो पक्ष। 

कुछ-कुछ वैसे ही चल रहा था, जैसे news media करता है? इस पार्टी के एजेंडा को दबाने के लिए, अपने चैनलों पे अपना एजेंडा जोरशोर से शुरू करदो। शोर ही शोर। ब्रेकिंग ही ब्रेकिंग (न्यूज़)  शायद इसीलिए इन न्यूज़ का नाम ब्रेकिंग (Breaking) पड़ा हो? ऐसा ही कुछ ये छदम युद्ध वाले, आम लोगों की ज़िंदगियों में शुरू कर देते हैं। करता दिखता है कौन? आम आदमी। मगर, हकीकत में इन विषयों और narratives को divert कौन करता है? ज्यादातर केसों में राजनीति। शायद इंसान ही धरती पे एक ऐसा प्राणी है, जिसके लिए ऑक्सीजन तक खत्म हो जाती है। ऑक्सीजन के लिए भी मारामारी होती है? सोचो, इससे बेहुदा राजनीति और क्या हो सकती है?          

यही होते हैं, Deceptive designs, एक तरह का छदम युद्ध। छुपम-छुपाई। इसका सबसे आसानी से देखा जाने वाला उदाहरण, कहीं न कहीं आपके आसपास ही मिल सकता है। जैसे किसी इंसान का अचानक से चले जाना या आ जाना। किसी इंसान का अचानक से इतना व्यस्त हो जाना की आपको मिलने, बोलने, बैठने या साथ खेलने (बच्चे के केस में) या साथ खाने-पीने तक का वक़्त न हो। ये सब अक्सर अपने आप नहीं होता। ये तरीके होते हैं लोगों को, रिश्तों को पास या दूर करने के, शातिर लोगों द्वारा। आम आदमी, वक्त रहते जिन्हें कम ही समझ पाता है। इसे कहते हैं, संशाधन आपके, चाहे इंसान हों या भौतिक चीज़ें और फायदा शातिर लोगों का?