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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Friday, March 29, 2024

उनका जहाँ और इनका जहाँ

खुद के लिए हम 

जीव-निर्जीव सब 

हमारे प्रयोग के लिए? 

उनसे पूछे बगैर 

उन्हें बताए बिना 

दुषपरिणाम उनके। 


उनके लिए हम ,

जीव-निर्जीव हमारे सब 

उनके प्रयोग के लिए? 

और हमें पता तक नहीं 

वो कर रहे ये सब 

कैसे? क्यों? और किसलिए?


बचा जा सकता है, इस सबसे 

कुछ एक प्रश्न करके 

मगर सारा दोष शायद यही है 

इनके जहाँ में प्रश्न करना ही 

जैसे कोई गुनाह है। 


बड़ों से तो बिलकुल ही नहीं 

और उन बड़ों के मायने भी 

बड़े ही अजीबोगरीब हैं। 

 शोषक, वो अजीबोगरीब बड़े हैं 

और शोषित हमेशा ही छोटे? 


ठीक ऐसे जैसे 

घर के बड़े 

अड़ोस-पड़ोस के बड़े 

मौहल्ले, समाज के बड़े?

लड़के इन तबकों में 

पैदा होते ही बड़े हो जाते हैं। 


या शायद सही शब्द 

ज्यादातर ठेकेदार लोग, 

जिम्मेदार नहीं।  

क्यूँकि जिम्मेदार लोग, बड़े होके भी 

महज़ ठेकेदार नहीं रहते। 

जिम्मेदारियों के भार उठाए होते हैं। 

Tuesday, March 26, 2024

EC से पास हुआ Resignation Letter Response, जून 2021 (Social Tales of Social Engineering 36)

आगे भी है, काफी कुछ है शायद  




जिसका कुछ हिस्सा कैंपस क्राइम सीरीज़ में पब्लिश हो चुका। और उसके पब्लिश होने के बाद भी काफ़ी कुछ हो चुका। या यूँ कहो Social Tales of Social Engineering का ABCD से लेकर, सामाजिक सामान्तर घड़ाईयोँ वाला हिस्सा उसके बाद ही समझ आया है। और ये भी, की किसी भी बीमारी या मौत में वक़्त या बेवक़्त इस social media culture की क्या भुमिका रहती है। 

EC से पास हुआ Resignation Letter Response, जून 2021 (Social Tales of Social Engineering 35)

  एक है कैंपस क्राइम सीरीज, जो खुँखार परिणामों की वजह से बीच में ही रोकनी पड़ी। 

और एक है, ये EC से पास हुआ Resignation Letter Response जून 2021 का 


इसमें resignation acceptance भी है और liberty to join back भी

कुछ terms और conditions के साथ। 

मुझे लगा नहीं उस वक़्त मुझे वापस join करना चाहिए, खासकर, जिन हालातों में दोबारा resign किया था। मेरा ईरादा डाक्यूमेंट्स पब्लिश करने का था। इसीलिए हालातों के मध्यनजर मैंने छुट्टी के लिए लिखा, जो जिस किसी वजह से accpet नहीं हुई। या शायद मैं फिर से उस साइको को नहीं देखना चाहती थी। उसपे जिन लोगों की वजह से छोड़ा था, फिर से उन्हीं के बीच जाना खटक भी रहा था। ये ऐसा था, जैसे अलग-अलग पार्टियों के बीच पिसना।     


इतना नालायक़ होते हुए यूनिवर्सिटी ने इतनी सहानुभुति दिखाई, शुक्रिया करना चाहिए उसके लिए मुझे यूनिवर्सिटी का?
एक खास बात जो इसमें नोट करने लायक है, वो ये की ये सब समस्याएँ मेरे 2017 के Resignation देने के बाद, बुलाकर फिर से joining करवाने के बाद ही शुरू क्यों हुई? ऐसा कैसे हो सकता है की उससे पहले उस फैकल्टी के खिलाफ ऐसी कोई शिकायत तक ना रही हो? शिकायतों पे कोई committees बैठाना तो दूर की बात?
या इस letter में ये सब कोढ़ है? कौन से ख़ास exams या duties होंगी, जिन्हें उसने करने से मना कर दिया? और उसे Mental Hospital का रस्ता दिखा दिया? 

उससे कुछ साल पहले, शायद वो  इंस्टिट्यूट के परीक्षा केंद्र की डिप्टी सुपरिटेंडेंट और सुपरिटेंडेंट तक की ड्यूटी को बखुबी निभा चुकी। और भी ऐसी-ऐसी कई ड्यूटी, डिपार्टमेंटल रिकॉर्ड में होंगी शायद? और वो इंस्टिट्यूट कोई 100, 200 या 400, 500 स्टूडेंट्स का इंस्टिट्यूट नहीं है। बल्की, यूनिवर्सिटी का सबसे बड़ा इंस्टिट्यूट। 2000 के आसपास स्टूडेंट्स। यूनिवर्सिटी का कमाऊ पूत या पुत्री? पता नहीं। 
      
ये Mental Hospital का सर्टिफ़िकेट, शायद मेरे वकील ने भी कहीं जमा करवाया था? कौन-सा केस था वो? या थे? 2 केस शायद? मुझे पता ही नहीं होता, की इन केसों में कोर्ट्स में चलता क्या है। जितना समझ आया, वो ये की सिर्फ ज़िंदगियाँ तबाह होती हैं। फैसले पार्टियों के अधीन या सहमति पे अटके होते हैं। सहमती ना हो, तो Political Paralysis होते हैं। कभी ईधर, तो कभी उधर वालों को। होते हैं या किए जाते हैं, अहम है। बिमारियों के ऐसे-ऐसे राजों को जानकार, जो पागल ना हो, वो हो जाए शायद। और इन राजों को हम (Academicians?) जनता से छुपाना चाहते हैं? बिमारियों का सीधा-सा नाता, जहाँ आप रह रहे हैं, वहाँ के सिस्टम से है और पार्टियों की खिंचतान से। 

यूनिवर्सिटी लिखित में बोले की सहानुभूतिवश और फलां-फलां परिस्तिथियों के मध्यनजर ऐसा हो रहा है। तो कम से कम, उसका पैसा तो रिलीज़ कर देना चाहिए। और वो पैसा भी उसने तब माँगा, जब उसे चारों तरफ से एकॉनॉमिकली ब्लॉक कर दिया गया। और लगा की कहीं इमरजेंसी है। शायद कुछ बिमारियों या अनचाहे बेवक्त हादसों से बचने के लिए जरुरी है। और बच्ची को किसी अनचाहे माहौल से बचाने के लिए भी। नहीं तो शायद, उस थोड़े से पैसे की जरुरत भी नहीं थी, इतनी कॉंफिडेंट थी वो। राजनीतिक पार्टियाँ, डिज़ाइनर परिस्तिथियाँ घड़ने का काम करती हैं। और तो क्या कहा जा सकता है?

सुना है, एक सस्पेंडेड फैक्ल्टी तक को कोई मंथली अलाउंस मिलता है। फिर यहाँ तो resignation है, जैसा भी है। और उसपे एक्सेप्टेन्स भी, जिसे 3 साल हो गए। और कितना इंतज़ार करे कोई, वो भी अपने ही पैसे के लिए? 

Designer World? बुटीक-से मनचाहे डिज़ाइन? (Social Tales of Social Engineering 34)

विवाद खड़े करना, जहाँ कोई विवाद बनता ही ना हो?  Conflict Creations where none exists?

Designer World? बुटीक-से मनचाहे डिज़ाइन? इस पार्टी के और उस पार्टी के और उन सबके बीच अपनी-अपनी छोटी-मोटी सी जरुरतों में पिसते आम लोग?   

डिज़ाइनर संसार या टेक्नोलॉजी के संसार की मार? टेक्नॉलजी जिसे अच्छे के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है और बुरे के लिए भी। लोगों की ज़िंदगियों को आसान भी बनाया जा सकता है और दुर्भर भी।  

आओ कुछ ऑनलाइन नमुने दिखाती हुँ :

"तेरा वो हाल करेंगे की तुम घर के रहो ना घाट के?" 

"तु मर चुकी। तेरा सब दान हो चुका।" 

"तीन महीने की तनख़्वा देके निकालेंगे।"

ऐसे ही और कितने ही Direct-Indirect कमैंट्स और धमकियाँ, सबके सब ऑनलाइन। 

उसके बाद घर के और आसपास? खीँचतान, ईधर, उधर और किधर और किधर? ऑनलाइन संसार पे भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है और ऑफलाइन पे भी। तो जानते हैं इन दोनों संसारों को एक-एक करके।   

मैं जानवर और तुम इंसान? (Social Tales of Social Engineering 33)

मैं जानवर और तुम इंसान?  

मैं 2022 में जब यूनिवर्सिटी से सामान उठा के घर आई और यहीं रहने लगी, तो इंसानों ने ही नहीं बल्की पशु-पक्षी और कीट, पौधो ने भी काफी ध्यान खींचा अपनी तरफ। जो जैसे चीख-चीख के कह रहे हों, इंसान ही नहीं, हम भी भुगतभोगी हैं इस सिस्टम के। वो अलग बात है, वो शायद इंसानो की तरह नहीं चीख-चिला पाते।  

ये सब ज्यादा नज़र आने लगा, जब मैंने कार चलाना ही छोड़ दी। शुरू-शुरू में किसी हादसे के डर से और बाद में? दूसरा यहाँ पे नई लेने का ना ये वक़्त था और ना उस हिसाब का जुगाड़। जब पदैल चलना शुरू किया तो पता चला की कार की सवारी ने कितना काट दिया था, आसपास से। और शायद मुफ़्त के स्वास्थ्य लाभ से भी। गाँवों में ज्यादा शायद? और ये कार पे ही नहीं, बल्की हर तरह के व्हीकल पे लागु होता है। दो कदम चलने के लिए भी हम इनके आदि हो जाते हैं। पैदल चलने के दौरान आसपास के लोगों से भी जैसे बोलचाल ही बंद हो जाती है। चाहे वो सिर्फ नमस्ते, या आप कैसे हैं? घर पर सब कैसे हैं और बाय तक ही सिमित क्यों ना हो। और भी काफी कुछ जो आसपास घटता है, उससे तक़रीबन अनभिग हो जाते हैं। उसमें आसपास का हर जीव और निर्जीव शामिल है। 

निर्जीवों की बात फिर कभी। अभी चुपचाप, इस निर्दयी सिस्टम की मार सहते जीवों की बात करें?

गायों की करें या भैंसों की?

कुत्तों की करें या बिल्लिओं की?

चिडियांओं की करें या कबूतरों की?

नीलकंठ की या मैना, तोता की?

मोर की, या काबर या कोतरी की?

कौवों की या चीलों की? 

बत्तखों की या बटेर की?

चुहोँ की या सुनसनीयों की?

मख्खियोँ की या मच्छरों की?

भिरड़ों की या भुन्डों की?

मकड़ियों की या कॉक्रोचों की?

चमगादड़ों की या सुर्यपक्षीयों की? 

टिड्डियों की या तितलियों की? 

चींटियों की या कीड़े-मकोड़ों की?

मेंढ़कों की या मच्छलियों की?

साँपों की या कानखजुरों की?

या शायद पेड़-पौधों की ही?

ये सब और इन जैसे कितने ही जीव, जो किसी ना किसी रुप में आपके आसपास हैं, आपके आसपास के सिस्टम का हिस्सा है। वो कब आ रहे हैं? कब जा रहे हैं? कितनी संख्यां में हैं? किस हाल में हैं? आपको कैसे फायदा या नुकसान कर रहे हैं? आपसे कोई बीमार ले रहे हैं या दे रहे हैं? इससे आगे भी बहुत कुछ बता रहे हैं। वहाँ के खानपान के बारे में और उसमें छिपे ज़हर या बिमारियों के बारे में। उनके जुबान है या नहीं है? या शायद उनकी जुबान आपको समझ ही नहीं आ रही? या आप समझना ही नहीं चाह रहे? अगर समझने लगोगे तो उनके लिए भी अच्छा होगा और आपके लिए भी। 

जानवर कौन, कौन इंसान? (Social Tales of Social Engineering 32)

23? (23-03-2024)   

से आगे क्या?

31? (31-03-2024)   

क्या बदल जाता है इस दौरान?


ऐसे लग रहा है, जैसे कुछ कह रहा है ये?
क्या भला?
मुझे कहते हो जानवर?
और खुद को इंसान?
मगर,
काम करते हो ऐसे, जैसे शैतान? 

फोटो को ऑनलाइन बैठे हैवानों ने थोड़ा Edit भी कर दिया है 
बिना पूछे और बिना बताए 
सहमती तो फिर दूर की बला है। 
थोड़ा कालिख़ पोत दिया है।    

कान काटकर, कालिख़ पोतना?  
कहावत सुनी-सुनी है ना कोई?
"ये तुम्हारे कान काट देंगे?"    
कान किसने काटा?
किसके कहने पर?
और AI Editing किसने की?
    

और भी शायद कुछ कर दिया है?
AI  प्रकोप?
(Artificial Intelligence)  


इसकी Ho -Li- तो नहीं मना दी?
Sound 
Camera 
Action?
जी हाँ। होली पे एक मासूम जानवर के साथ ऐसा व्यवहार?
वो भी गायों को पूजने वाले इलाके में?  

Monday, March 25, 2024

होलिका दहन 24-03-2024 (Social Tales of Social Engineering 31)

वही पिछले साल पहली बार देखा गया तमाशा। ट्रैक्टर पे रंग-बिरंगे पुते लड़के और ट्राली पे आग की लपटें और धुआँ-धुआँ। अंधभक्ति के तमासे और ज्यादातर कम पढ़े-लिखों की भीड़। पढ़े-लिखे जहाँ उसे स्मॉक्स्क्रीन (Smokescreen) का नाम देंगे। युरोप की कुछ खास यूनिवर्सिटीज के मीडिया कोर्सेज बेहतर समझा पाएँ शायद। 

तो कुछ के लिए? किसी घर की तबाही जैसे। ठीक वैसे जैसे, किसी बेवक़्त हुई मौत के दिन, कोई छोटा पूछता है, दीदी ये क्या हो रहा है?" और आप जैसे भड़ास खुद पे ही और अपने आसपास के हालातों पे निकाल रहे हों। "भेझे से पैदल लोगों के साथ इस संसार में ऐसा ही होता है। जिनके पास ना पैसा होता और ना दिमाग।" इससे आगे जो कुछ समझ आता है, वो उस दिन के बाद के हादसों के अनुभवों से। या यूँ कहो की रीती-रिवाज़ों, आस्थाओं और धर्मों के जरिए परोसे गए, पिरोए गए, कदम दर कदम बिछाए गए जालों से, घातों से और हादसों पे हादसों से। आम आदमी उन्हें वैसे देख या समझ ही नहीं पाता। किस्मत या किसी भगवान का दिया, प्रसाद समझ निगल जाता है। ठीक ऐसे जैसे, जहर को आँख बंद कर निगल जाना। परेशान वो शायद ज्यादा होते हैं, जो उन्हें करने और करवाने वालों को देख और समझ रहे होते हैं। हादसों पे जैसे मखोलियों के झुँड और मखोलों में जैसे हादसों को भद्दे से भद्दे रुपों में पेश कर, अपने कारनामों पे ठोकना मोहर। आप ये सब देख और जानकर, सिर्फ सोचते ही रह जायेंगे की ये कैसे इंसान हैं? क्या ये सच में इंसान हैं? या जानवरों के सांचों पे इंसानों के खोल मात्र? और ये कैसी सेनाएँ हैं? आम इंसान को कीड़े-मकोड़ों की तरह रौंदती हुई जैसे। किसके लिए और क्यों?

फाइलों के संसार में और इस संसार में यही फर्क है। वहाँ पढ़े-लिखे (?) और शातीर कढ़े हुए लोग, सिर्फ फाइल-फाइल खेलते हैं, ज़िंदगी भर। और यहाँ? उन फाइलों से निकले हुए स्क्रीप्ट्स, सिर्फ शब्द या कोई नाटक ना होकर, किसी फाइल का हिस्सा भर नहीं, बल्की लोगों की ज़िंदगियों से खेलते हैं। मालूम नहीं कैंपस क्राइम वालों को क्या खतरा है, की आज तक लोगबाग उन डॉक्युमेंट्स को छुपाने की जद्दो-जहद में हैं? वो, जो उन इंस्टीटूट्स की वेबसाइट पे आम जनता को उपलभ्द होने चाहिएँ। समाज में जो कुछ हो रहा है, वो उसका मामूली-सा नमुना भर हैं। उनसे कहीं ज्यादा भद्दे और खुँखार जुर्म तो इन इंस्टीटूट्स की किलाबंद-सी दिवारों के बाहर का समाज भुगत रहा है। जिससे ना कोई खास छिपाने की जद्दो-जहद है और ना ही कोई बचाने की। क्यूँकि पढ़े-लिखे (?) और कढ़े शातीरों को मालूम है, की इन्हें इतनी आसानी से समझ नहीं आना। इसीलिए शायद, समाज के इस तबके को, ये so-called संभ्रांत लोग, कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा समझते ही कहाँ हैं?                           

होलिका दहन का ये रुप, एक ऐसा ही छोटा-सा नमुना भर है। पहले देखते सुनते थे, की होलिका दहन श्याम को होता था। अब तो इसका खास वक़्त भी है शायद। कितने बजे, किस रुप-स्वरुप में, कहाँ से और किस गली से होकर गुजरेगा।   

रीती-रिवाज़ वहाँ के समाज की मानसिकता का आईना भी हैं। अब होली को ही समझने की कोशिश करो और पता चलेगा, लठमार होली का रिवाज़ कहाँ-कहाँ है, आज तक? और बेहुदा रंगों, गंदे पानी का चलन आज तक भी कहाँ-कहाँ बचा हुआ है? जहाँ एक तरफ, रंगों के नाम पे ग्रीस और कीचड़ तक से लथ-पथ प्रदर्शन देखें है। तो दूसरी तरफ, डंडे और रस्सी के कोलडों की मार झेलते लोग। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता था, जैसे, होली ना खेलकर, लोग साल भर की दबी-छुपी, अंदर की भड़ास निकाल रहे हों। यही नहीं, बल्की कुछ केसों में, इससे भी थोड़ा आगे चलकर, रंग लगाने के नाम पे बेहुदगी और धक्का-मुक्की तक। जहाँ किसी के हाथ टूटे मिलें, तो किसी के दाँत। कोई लहु-लुहान मिले तो कोई, कई-कई दिन तक कोलडों के निशान और दर्द लिए। अच्छा है, वो सब आजकल तकरीबन यहाँ तो खत्म-सा है। मगर अभी जो राजनीती का घिनौना प्रदर्शन ट्रैक्टर-ट्राली के नाम पे होने लगा है, वो भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, जैसे एक दूसरे के खिलाफ कोई दबी-छुपी सी ख़ीज निकालना। खीज़? वो भी रीती-रिवाज़ों के नाम पे? धर्म आस्थाओँ के नाम पे?  

पता है, थापे दिवार पे कब लगते हैं और पेपर पे कब? थापे में वायरस भी छुपकर बैठा होता है? और घी और मेहँदी के थापे में अलग-अलग तरह की मोहर भी होती है? मेहँदी पे बुलेट (गणेश) भी छिपा हो सकता है? और घी पे वायरस? और भी कितना कुछ, एक छोटा-सा थापे का रिवाज़ बता सकता है? रीती-रिवाज़ों के कोढों पे एक नहीं, बल्की कितनी ही किताबें लिखी जा सकती हैं। और इन कोढों में छुपा ज्ञान-विज्ञान, आम आदमी को कैसे-कैसे ढालने के काम आता है, इन सेनाओं के? और राजनीतिक पार्टियों के? सामने होकर भी, आपकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा होकर भी, छुपा हुआ ये रहस्य्मयी संसार। कौन चला रहा है इसे? भगवान? चलो, भगवान ही नाम दे देते हैं, इन रहस्य्मय शैतानों को। मगर कहाँ कौन-सा या कहना चाहिए की कौन-से वाले भगवानों की पार्टियाँ या कम्पनियाँ (फ़ैक्टरियाँ) काम पे लगी हैं, उन्हें भी जानो-पहचानों। हम धीरे-धीरे आपके बहुत आसपास से होकर, दूर, आपसे बहुत दूर बैठे, उन भगवानों या भगवानियों, देवों या देविओं से मिलाने या उनके हूबहू दर्शन करवाने चलेंगे। तो अगर आपको वो दर्शन चाहियें, तो साथ रहिएगा इस यात्रा पे। 

Saturday, March 23, 2024

क्या रास्ता है, तानाशाहों के जाल से मुक्ति का? (Social Tales of Social Engineering 30)

रंगो को मिलाओ ना ऐसे, 

की वो कालिख़ बन जाएँ। 

उन्हें सजाओ तुम ऐसे, 

की वो इंदरधनुष-से खिल जाएँ। 

कुछ दिन पहले कॉल आती है, किसी पब्लिकेशन हाउस से। उसके बाद एक ईमेल मिलती है। और दिमाग कहीं अटक जाता है, कॉन्ट्रैक्ट के नमुने पे। क्या है ये? पैसे के लिए, कितना गिरा जा सकता है? मुझे कुछ ऐसा ही समझ आया। बाकी हकीकत वही जानें। हो सकता है, कुछ पॉइंट्स मेरी समझ से बाहर हों। 

जब आप economically चारों तरफ से ब्लॉक हों, तो सीधी सी बात, पैसे तो चाहिएँ। इस संसार में पैसे के बैगर ज़िंदगी कहाँ चलती हैं? हाँ। रेंगती जरुर हैं। या कहीं-कहीं शायद चलती भी हैं? खैर। या यूँ कहिये की इकनॉमिक ब्लॉक अच्छा तरीका है, किसी को अपनी terms and conditions मनवाने का? 

थोड़ा और समझने के लिए, जहाँ कैंपस क्राइम सीरीज पब्लिश की हुई है, उसी जगह फिर जाओ। और उन केस स्टडीज़ को फ्री ज़ोन से मुक़्त करके देखो। अब इतने महान पब्लिकेशन कहाँ होते हैं, की आप हों भारत में और वो कहें, फलाना-धमकाना किताब हमने किसी शुक्र, शनि, चाँद, या मंगल ग्रह पे पब्लिश कर दी हैं? और फलाना-धमकाना वाली किताब आप पब्लिश नहीं कर सकते। क्यूँकि, वो शब्दों ही शब्दों में हमारी असलियत का नमुना दिखा रही है। हथियारों वालों को किताबों से डर? अरे भारत जैसे देश में तो वैसे ही किताबें पढ़ने वाले कितने हैं? और राजनीति के बाजार में तो वैसे भी, कुछ का कुछ होता है या बनता है।  

इन राजनीतिक पार्टियों की भाषा में ही बात करें, तो कुछ-कुछ ऐसे है, जैसे तम्बाकु, गुटका, पान जैसे धंधों के उत्पादन वाली पार्टियों की तुलना, हथियारों के उत्पादन के धंधों वाली पार्टियों से करना।    

Oh No! सिर्फ़ यही कह सकते हैं, आप? खासकर, इस दौरान जो घटनाक्रम चलते हैं उनपे। क्या हो रहा ये सब? या हो सकता है, मुझे ठीक से समझ नहीं आया हो? 

क्या रास्ता है, तानाशाहों के जाल से मुक्ति का?  

ऐसा भी नहीं की मुझे कोई राजनीतिक पार्टी खास पसंद है। मगर बीजेपी? ये तो आदमखोर हैं। और किसी भी हाल में आदमखोरों से मुक्ति चाहिए। थोड़ा सीधा-सीधा अगर कोई समझा पाए? और क्या रास्ता है इस "Economic Block Zone" से निकलने का, बेहुदा अवरोधों को या उनके परिणामों को झेले बग़ैर?

या शायद एक संसार ऐसा भी हो जहाँ पैसे के बिना भी ज़िंदगी ठीक ठाक चलती हों? 

Tuesday, March 5, 2024

Mind Programming for Social Engineering 29

बड़े बच्चों को करते देखा था, मना करने के बावजूद। जुबानी और लिखित में अवरोधों के बावजूद। उससे भी भद्दा कुछ छोटे बच्चों के साथ होता देख रही हूँ। इतने छोटे स्कूल के बच्चे की इनके compare में यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स को बच्चा नहीं कहा जा सकता। 

मुझे समझ नहीं आता था, जब माँ-बाप को एक दो नंबरों के लिए आपस में बहस करते देखती थी। चिढ़ मचती थी, खासकर, जब उन्हें इतने छोटे बच्चों को डाँटते या मारते-पिटते देखती थी। जब गाँव आई, तब शुरू-शुरू की बात थी। भाभी ज़िंदा थे उस वक़्त। आसपास में ये सब आम-सी बात जैसे।  

उनके जाने के बाद जो देखा, उससे चिढ़ नहीं होती थी, बल्की घिन मचती थी। क्यूँकि मैं अपनी classes में बड़े स्टूडेंट्स को वो सब, नहीं, उससे कहीं ज्यादा कुछ करते, कहते काफी वक़्त झेल चुकी थी। बहुत कुछ समझ आ रहा था, की गुड़िया के साथ क्या हो रहा था। जो साथ थे, वो उस सबसे अंजान थे। उनके हिसाब से कुछ गलत नहीं हो रहा था। सब सही चल रहा था। क्या था वो?

आप क्या पढोगे? कितने बजे पढोगे? या नहीं पढोगे? कब तक कहाँ खेलोगे या रहोगे। ये कहीं और के ही आदेशों का पालन हो रहा था। बिना उसके परिणाम जाने, गँवारपट्ठे  इधर से भी और उधर से भी लगे पड़े थे, बड़े लोगों के आदेशों का पालन करने। जबसे गुड़िया को पढ़ाना शुरू किया तो समझ आया, ये कौन-सी पढ़ाई है। और उसे उस स्कूल में ही क्यों भेजा गया? वैसे तो आसपास के हर बच्चे और स्कूल के साथ कुछ-कुछ ऐसा ही है। मगर यहाँ शायद थोड़ा ज्यादा हो रहा था। या शायद कोई उस सबको ध्यान से देख-समझ रहा था, इसलिए ज्यादा समझ आ रहा था।  इतने छोटे बच्चों की किताबों को पढ़ने का मौका भी बहुत सालों बाद था, खासकर लगातार इतने समय तक। हर अध्याय जैसे अपने आप कुछ गा रहा हो। उन किताबों के अंदर गलतियाँ या जबरदस्ती जैसे कुछ खास प्र्शन, अपने आप में किसी जबरदस्ती की तरफ इशारा जैसे कोई। खास तारीखों को खास तरह के प्रोग्राम। खास वाले डांस प्रधान हैं तो आईटी पढ़ाना ही नहीं। या सिर्फ ये वाला हिस्सा पढ़ाना है। मैथ में बच्चा ठीक-ठाक हो, तो भी भूत दिमाग में बिठा देना है। अपने आप भागने लगेगा दूर। नहीं भागे तो भगाओ। बहुत तरीके हैं उस सबके। कैसे? आओ जानते हैं, एक-एक करके की यहाँ बच्चों के और बड़ों के साथ क्या-क्या हो रहा है।                  

कुन्डलीमार लोगों के लिए (M?)

 2021, सुना Resignation accept हो चुका।     Post Written on 21-11-2023

मई 2023, घर भी खाली कर दिया। और लिखित में और फोन पे बताया भी जा चुका। 6 महीने बीत चुके, मगर बचत पे कुंडली, अभी भी कायम है। क्यों? कितना और वक्त लेंगे, जाहिल, आदमखोर लोग, किसी Employee की एक छोटी-सी बचत को भी देने में?   

सुना फिर से वही, भारद्वाज के यहाँ कहीं फाइल अटकी पड़ी है?  कुछ धंधे की "फलाना-धमकानाओं" को, अभी तक लग रहा है, की कोई धंधा करने आएगी, उनके लिए? सच में?  

   

 28-11-2023

आज बहुत वक़्त बाद फोन उठा भारद्वाज मैम का। वो भी ये बताने को, की अब फलाना-धमकाना सुपरिंटेंडेंट है, वहाँ। कुछ नया नहीं। वही घिसे-पिटे पुराने पैंतरे, फाइल्स को महीनों, सालों या लोगों की मौत तक अटकाए रखने के।  

4-12-2023

M ?

M हैं क्या आप? जैसे रोड़ा कोई? या खूंठा? महाबली तो नहीं कहते आप खुद को?  या 10 -15 % से भी थोड़ा आगे निकलके, 50 % या 100 % कमीशनखोर? वही घिसे-पिटे पुराने पैंतरे, फाइल्स को महीनों, सालों या लोगों की मौत तक अटकाए रखने के।   

19 से आगे क्या आता है? 29? 39? 49? 59 ? 69? 79? 89? 99? और कितने ही 9999999?


बचत पे कुंडली, अभी भी कायम है। क्यों? कितना और वक्त लेंगे, जाहिल, आदमखोर लोग, किसी Employee की एक छोटी-सी बचत को भी देने में?

04.03.2024

ऐसा भी नहीं है की सिर्फ मेरी बचत के साथ ऐसा हो रहा है। बाकी जो घर में बचे हैं उन्हें भी किसी ना किसी तरीके से ठिकाने लगाने का काम चल रहा है। उन्हें शायद अभी तक समझ नहीं आ रहा। मुझे दिख भी रहा है। सबकुछ घर में उन्हीं द्वारा (?) उन्हीं के खिलाफ रखा जा रहा है।  घर की हर चीज़, हर हलचल जैसे चीख-चीख के बोल रही हो, सबको खाने की तैयारी चारों तरफ से चल रही है। 

Social Tales of Social Engineering  

ये तो कुंडलीमार से आगे भी कुछ हो गया। कुंडलीमार की बजाय आमदामखोर लोगों के लिए लिखना चाहिए। Assisted Murders में ये सब आता है, जो आम-आदमी को ना दिखता और ना ही समझ आता है, मगर होता है बड़े ही गुप्त तरीके से।   

Monday, March 4, 2024

तमाशे के क ख ग घ (Social Tales of Social Engineering) 28

तमाशे के क ख ग घ (ABCDs of Farce)

व्यक्ति, समाज अथवा राजनीती पर मखौल, मजाक, व्यंग्य या उपहास। उसे बढ़ाचढ़ा कर, तोड़मरोड़ कर, विचित्र या विकृत कर, भद्दा बना, हास्यास्पद या हास्यजनक बनाकर। किसी चीज का गलत वर्णन, उसका मखौल उड़ाने के लिए। आम आदमी की भाषा में, रोजमर्रा के कामों द्वारा। रीती-रिवाज़ों या धर्मों-कर्मों के माध्यम से। पढ़ाई-लिखाई या कला-कृतियों के माध्यम से। प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से। जैसे चित्रों, सांगों, किस्से-कहानियों, नाटकों, कार्टूनों, हास्यचित्रों या चलचित्रों के माध्यम से। अट्ठे का ठठ्ठा जैसे। या अठ्ठे पे नहला, नहले पे दहला या दहले पे नहला।

C aricature, e xaggerated, d istorted, d eformed, w arped, p erverted, p erverse, e ccentric, r idicule, m ock, i mitate, l udicrous, a bsurd, d erogatory, g rotesque, p arody, s atire, t ravesty, s quab, s end up, t ake off, p asquinade, p ejorative, l ampoon). Any treatment or imitation, that makes a serious thing seem ridiculous. 

Burlesque, an absurd or comically exaggerated imitation of something, especially in a literary or dramatic work, like Parody, Mimicry, Skit, Play, Mime, Cartoons, Serial or Movie and nowadays in trend Stand Up Comedies, Spoof, Meme. Like some T rivial matters, F rivolous Matters of elites by forgetting the real issues of poor people?

Seeing the tragedies of people's real lives and the way they play with them. 

What they call that? 

System?

That's the way system works? 

System works? 

For whom?     

Friday, March 1, 2024

सरकारों का बनना और सरकारों का गिरना? (Social Tales of Social Engineering) 27

सरकारों का बनना और गिरना या बनाना और गिराना?  Formation and Breakdown of Governments?

2018, में काफी कुछ ऐसा सुना, देखा और अनुभव किया जो दिमागी तौर पे हिलाने वाला था। तब से पता ही नहीं की कितनी तरह से और कैसे-कैसे, ये दिमाग हिला है या रौंदा गया है। 

जैसे पहले भी कई पोस्ट में लिखा, वो एक अलग दुनियाँ की सैर थी, उसी दुनियाँ में रहते हुए जिसे बचपन से सुना, देखा, पढ़ा या अनुभव किया था।   

क्या था वो सब? थोड़ा 2018 और उसके बाद लिखी गई पोस्ट पे फिर-से गौर फरमाते हैं।  

FRIDAY, DECEMBER 18, 2020

The Politics of Control and Hacked Lives!

TUESDAY, OCTOBER 29, 2019

Elections, Governments, Governance and Defence Affair Battlefield

 My Questions (with 99% possibility is yes):

Elections are farce?
Governments and chairs are puppets?
Governance is circus? 
Courts very much part of that?
Defence agencies playing what?

So many deaths are murders? Bio-Physio-Chem-Psycho and Electronics war is going on at its worst since long! In the process, so many innocent lives are being played on day by day! 
What are the corrective measures? 

SUNDAY, AUGUST 4, 2019

Being Unique Vs Cloning and Quantification!


*"Exposing well a dissertation game over the years!" Then you knew things were wrong. Some thieves were stealing chemicals or replacing them with expired ones, stealing documents from lab, office room, enforcing such ways that you cannot progress in any direction. You had almost given-up so-called academics. Then you came to know the digital-gamble and the puzzle sequenced itself without much efforts. (Latest gamble happened on 01.08.2019, will be part of Raaz-blog soon.)

TUESDAY, FEBRUARY 26, 2019

Presentation is all that makes a difference.

कॉन्टेंट डेवलपमेंट कितने तरह का होता है? किस्से-कहानियाँ और सामाजिक सामान्तर घड़ाईयाँ शायद उस दिन लिखे गए कॉन्टेंट डेवलपमेंट से कहीं आगे काफी कुछ बताते हैं।  

SUNDAY, JULY 19, 2020


The World of Gambling!
Complex crime webs/World!
Numbers, Alphabets & Gambles!

I had little idea about these parallel cases though had doubt a few times but ignored. First time experienced in some arguments with earlier VC and warning and consequent high drama of calling some senior Profs and security and


And then came across so many cases day by day:
VC Sajjanar Encounter/Students marks
And countless stories of such parallel cases!

MONDAY, FEBRUARY 11, 2019

Kinda (नायक भी हम, खलनायक भी हम ही?
We broke your home-roof 
(And did special type of concrete roofing)
We broke your window glass 
(Campus first home)
And ahsaan on that to save you!
hmm Adam ruins everything!

And now a days it's Ketto adv.
Oops! Ketto!
(Current home dhamaal, old home kamaal!)
Kinda declaring cancerous and blah, blah
Bachao Abhiyan!

Gratitude to people for special care!