राजनीती के साँचे में ढलते त्यौहार, धर्म और रीती-रिवाज? राजनीती के अनुसार बदलते, पुरातन में लिखी गई कहानियों के अवतार, भगवान? हों चाहें फिर वो, राम-शिव, हनुमान या दुर्गा, संतोषी और काली। समय के साए में रमते, बाजार की राह चलते, हर तरह के रीती-रिवाज। राजनीती की जरूरतों के अनुसार बदलते, होली-दिवाली। वो लगाएंगे तड़के, तुम्हारी भावनाओं पे ऐसे भी, और वैसे भी। और तुम बहते जाना इन भावनात्मक भड़काओं में, बगैर सोचे-समझे, उनके पीछे छुपे षड़यंत्र। राजनीती वाले सेकेंगे उनपे, अपनी-अपनी कुर्सियों के लिए चालें और घातें। तुम्हें क्या मिलेगा उनमें? ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे प्रसादों के पीछे क्या छुपा होता है? वैसे ही जैसे, आपको नहीं मालुम, की ये LEGEND और HERO क्या होता है। और इसका उल्टा PLATINUM या SPLENDER या ऐसा कुछ और नहीं होता। बल्की अज्ञानता के दायरे से बाहर निकल, अपने-अपने कामों पे आगे बढ़ना होता है। भावनात्मक भड़क नहीं लेनी होती।
ट्रैक्टर-ट्रॉली शो। वो भी दिवाली पे? वो भी राम के नाम पे नहीं, बल्की शिव के नाम पे? धुआं-धुआँ? कितना धुआँ? इनका उल्टा POP-UP शो नहीं होता। ना ही पटाखे या फुलझड़ी शो होता है। बल्की, दिमाग की वो बत्तियाँ on करनी होती हैं, की तुम्हारे आसपास कैसा समाज है? कैसे लोग हैं? और क्या कुछ करते हैं या व्यस्त कहाँ रहते हैं? क्युंकि, उसका कुछ ना कुछ असर तो आपपे भी होगा। राजनीती लोगों से क्या करवा रही है और क्यों? और लोगों को कहाँ व्यस्त रखती है? जितने ज्यादा कम विकसित समाज या लोग होंगे, उतने ही ज्यादा ऐसे-ऐसे राजनीतिक भावनात्मक भड़कों के जालों के आसपास मिलेंगे। ऐसे जालों से थोड़ा दूर रहना है, निकलना है। ना की उनका हिस्सा हो जाना।
दिवाली मुबारक हो राम और सिया वाली। बुराई पे अच्छाई वाली। दीयों वाली। ना की बाजारू दिखाओं वाली या राजनीती की अजीबोगरीब भावनात्मक भड़क, आम इंसान में पैदा करने वाली। दिवाली ना तो भंडेलों का तांडव है और ना ही गरीबों का दोहन। एक तरफ सुना है, वो योद्धा होते थे, जो अपने से ज्यादा ज्ञानवान का सम्मान करते थे, दुश्मन होते हुए भी। एक तरफ आज के भंडोले हैं, जो कुछ ना आता जाता हो तो भी कहें, की बस हम ही हम हैं।
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