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Saturday, September 30, 2023

ये गुप्त-गुप्त, महागुप्त सिस्टम और छद्दम युद्ध (गुप्त युद्ध)

छद्दम युद्ध मतलब, छुपकर युद्ध या गौरिल्ला युद्ध। ये चीते, शेर जैसे जानवरों की तरह आसपास ही घात लगाकर और अचानक धावा बोलकर भी हो सकता है। और आज के युग में खासकर, दूर बैठकर भी। और वो भी आपको और आपके अपनों या आसपास वालों को साथ लेकर। जैसे, घर में घुस कर मारना। एक तरह आपको साथ लेकर अपने अनुसार चलाना, अपने फायदे के लिए। वो भी ऐसे की जिसमें आपका या अपनों का नुकसान हो। और आपको पता भी न चले, की ऐसा हो रहा है। यही हैं गुप्त तरीके से मनोस्थिति घड़ने के तरीके। 

छदम युद्ध आपके आसपास चारों तरफ फैला होता है। गुप्त कोड समझ आने लगें तो समझना थोड़ा-सा आसान होता है। ये प्रभाव हर स्तर पे होता है। खास तरह के प्रभावों या दुस्प्रभावों को बढाने-चढाने के लिए। Amplification, Hype,  Manifestations और भी पता नहीं क्या-क्या तरीके युद्ध स्तर पर प्रयोग होते हैं। ये छद्दम युद्ध और इसके कोड, आपके आसपास की जगह के खाने-पीने में मिलेंगे। बीमारियों और दवाइयों और अलग-अलग तरह के इलाजों में मिलेंगे। कृषि और खेत-खलिहानों, वाहनों में मिलेंगे। इमारतों, परिवहन के साधनो, परिधानों और किताबों में मिलेंगे। धर्म और इससे जुड़े रीती-रिवाज़ों और उनमें वक़्त के साथ आए बदलाओं में मिलेंगे।   

कोड अगर नहीं भी समझ आते, तो कुछ मोटी-मोटी और छोटी-छोटी  बातें समझ लें। शायद काफी कुछ समझ आने लगेगा। कहीं किसी के खिलाफ चल रहा था, कैंपस वाले घर से निकालना और ऐसी-तैसी करना। क्युंकि, वो बंदा या बंदी शायद कहीं थोड़ा reserved है और कैंपस मतलब, खास तरह के बचाव वाले माहौल में भी। हालाँकि खास तरह के बचाव के माहौल में ऐसे समय में अलग तरह के खतरे होते हैं। उस जाने-पहचाने माहौल से निकाल के, किसी खास तरह के माहौल में धकेल कर, काफी कुछ करना, खासकर गुप्त तरीके से करना, आसान हो जाता है। मगर लोगबाग बारबार कोशिशों के बावजुद ऐसा नहीं कर पाए। साम-दाम तो लगाकर देख चुके थे। फिर आता है दंड-भेद। मार-पिटाई और जबरदस्ती नौकरी से निकालने के तरीके। वो भी जैसे-तैसे हो गया। मगर उसके साथ-साथ बाहर निकल के आ गई कैंपस क्राइम सीरीज, वो भी official documents के साथ। झंड पे झंड। इधर वालों की भी, और उधर वालों की भी? जितना और जैसे भी हो सका, आदमखोर-तरीकों से काफी हद तक, काफी कुछ बीच में ही रुकवा भी दिया। या शायद कहना चाहिए, जितना हो सके, उतने वक़्त के लिए दबा दिया। खुलम-खुल्ला, खून-खराबा और मारकाट, वो भी संसार भर में। छद्दम युद्ध, अब उतना भी छद्दम नहीं रहा। ऐसे-ऐसे युद्धों में वैसे तो बचना मुश्किल होता है, खासकर, आम-आदमी के लिए। इतना कुछ भुगतने के बावजुद, अगर थोड़ा-सा भी जो कुछ हुआ, उसे समझने की कोशिश करेंगे, तो शायद कुछ हद तक समझ पाएं, इस छद्दम को। गौरिल्ला युद्ध को। खासकर अब जो चल रहा है उसे। 

कहीं किसी से कैंपस का घर छुड़वाने की कोशिश हुई, तो किसे साथ लेकर? लोगबाग क्या करना चाहते थे और क्यों, तुम्हें बताया क्या? बाबा-लोग, भोले लोगों को ऐसे ही जालों में उलझाते हैं। किसी को नौकरी से निकालने की कोशिशें हुई, तो साथ किसे लिया और क्या बताकर? नौकरी से निकाल कर बेघर करने की कोशिशें हुई, क्या-क्या और कैसी-कैसी आग लगाकर? नौकरी से निकालकर, बचत का पैसा ब्लॉक करके, financially खत्म करने की कोशिशें हुई, किन्हें साथ लेकर? किन्हें और क्यों बोला गया की इसे पैसे मत देना, वो भी ऐसे लोगों को, जिनकी उसने हमेशा मदद की हो? क्या-क्या भड़काकर, डराकर, क्या छुपाकर या कैसी-कैसी आग लगाकर? और इस सबके परिणाम किस-किसने भुगते? 

कौन-कौन और कहाँ-कहाँ पीटी? सामान्तर घढ़ाईयाँ। 

कौन-कौन और कैसे-कैसे, घर आकर बैठी? सामान्तर घढ़ाईयाँ।  

कौन-कौन और कैसे-कैसे, तकरीबन इधर के न उधर के, हुए या हुई? सामान्तर घढ़ाईयाँ।    

कौन-कौन, कब और कैसे-कैसे, दुनियाँ से उठा या उठी? सामान्तर घढ़ाईयाँ। 

किस-किस की नौकरी या जो महीने में जैसी भी सैलरी आती थी, वो खत्म हुई? सामान्तर घढ़ाईयाँ। 

कौन-कौन और कैसे-कैसे, देश से बाहर जाने की फिराक में हैं? सामान्तर घढ़ाईयाँ।  

आपका अपना और आपके आसपास वालों का, इसमें कैसा या क्या रोल रहा है, जाने या ज्यादातर अनजाने? सामान्तर घढ़ाईयाँ। 

हाँ। फिर वो भी तो हैं, जिन्होंने ऐसी-ऐसी परिस्थितियों में यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ सहायता की। उनके यहाँ क्या चल रहा है? सामान्तर घढ़ाईयाँ।    

ऊपर दिए गए ज्यादातर केस, समझने वालों के लिए, दोहरी, तेहरी और पता नहीं, कैसी-कैसी मार हैं, छद्दम और छल के तरीके से। जहाँ आप अपने या अपनों के लिए काम न करके, जुआरियों और शिकारियों के राजनीतिक जाल में फंस जाते हैं।    

ऐसा भी नहीं है, की सबकुछ बुरा ही बुरा है। कुछ अच्छा भी हुआ है, शायद। कहाँ और कैसे? जानेंगे इसे भी, किसी अगली पोस्ट में, क्युंकि ये ज्यादा अहम है। खासकर, एक खराब दौर से, बेहतरी की तरफ बढ़ने के लिए।  

इन सबको अगर आप बारीकी से और शांत दिमाग से, समझने की कोशिश करेंगे, तो शायद पता चले, की जो-जो आपने किया या अनजाने में या किसी भी तरह के दबाव या डर, लालच, आवेश या तुनकमिज़ाजी में आपसे करवाया गया, वैसा ही कुछ-कुछ, बढे-चढ़े रूप में, आपके अपने साथ या आसपास हुआ। कौन थे, जो ये सब करवा रहे थे? और कौन थे, जो सावधान कर रहे थे?  

अगर मैं कहूं 

हर कदम, हर घटनाक्रम, एक नौटंकी है  

राजनीतिक पार्टियों की 

तो मैंने पुछा ही नहीं, की तुम क्या कहोगे?

क्यूँकि जिन्हें मालुम है 

वो हंस रहे होंगे, ये सोचकर

लगे रहो, इतना भी आसान नहीं 

आम-आदमी को ये सब दिखाना-समझना ?

ये गुप्त-गुप्त और महागुप्त सिस्टम। 


जिन्हें थोड़ा-थोड़ा मालुम है, शायद मेरी तरह 

वो जानने-समझने की कोशिश में होंगे 

जिन्हें बिलकुल नहीं मालुम, अभी तक भी 

वो तो शायद यही कहेंगे 

पागल है, पागल है, ये लड़की पागल है। (अपनी पसंद का गाना नहीं ये) 

अच्छा कौन-कौन पार्टी, किधर-किधर फैल रही है या कोशिश कर रही है? AAP दिल्ली के बाद पंजाब और साउथ भी। JJP कुछ वक्त से राजस्थान दिख रही है। और? कितना कौन पार्टी, किधर फैलने में कामयाब होंगी, ये तो वक़्त बताएगा। ये सब आप जानने-समझने की कोशिश करें और समझ आए तो मुझे भी बताना। 

उसके साथ-साथ इसपे भी, की अभी आसपास क्या चल रहा है ? कुछ भनक भी है?  

शायद वृन्दावन के फैलाव से लेकर, कुछ खास तरह की बीमारियों से जुझते लोगबाग? कुछ उड़ान के लिए तैयार, इधर या उधर? और कुछ, एक पैर इधर, तो दूसरा किधर? पता चले तो इसकी भी खबर देना।    

तुलसी का 25 से क्या लेना-देना?

पीछे मैंने कई पोस्ट में लिखा की ज्यादातर जो आपके पेड़ पौधों, जानवरों, पशु-पक्षियों के साथ हो रहा है, वही या कुछ-कुछ वैसा ही, इंसानों के साथ भी। अपने आसपास के पेड़-पौधों, पक्षी-जानवरों को जानने-समझने की कोशिश करें। बहुत कुछ समझ आएगा। आओ एक खास पौधे से शुरू करते हैं, थोड़ा बहुत जानना। 

तुलसी, मेरे आँगन की? वो नाटक वाली नहीं, बल्की वो छोटा-सा पौधा जो ज्यादातर घरों में देखने को मिलता है, उत्तरी भारत में खासकर। जिसे पवित्र माना जाता है। जो औषधी के रूप में भी प्रयोग होता है। अक्सर जिसके पत्तों को चाय में डालकर पिया जाता है। जिसे जुकाम, भुखार में भी लाभदायक माना जाता है। 

तुलसी का 25 से कोई लेना-देना है क्या? तुलसी को अंग्रेजी में Basil कहते हैं और ये कई तरह की होती है। 

BA 

IL     

या BAS  IL? 

25 को और क्या खास है जो आपको याद है? Christmas? Birth of Jesus Christ? 25 दिसंबर? 

उसी दिन तुलसी दिवस? या कुछ हेरफेर है? हिन्दुओं की ईसाइयों से किसी तरह की प्रतियोगिता थी क्या? ऐसा कुछ और भी बता सकते हैं क्या? मटरू-पिटरु दिवस? ओह हो। माता-पिता दिवस? हिन्दुओं के यहाँ त्योहारों की कमी पड़ गई क्या जो किसी और के त्यौहारों पे अपने थोंपना चाहते हैं ? या शायद ये थोंपम-थोंप हर धर्म में है? धर्म? राजनीतिक घढ़ाईयाँ और अधर्म के रस्ते? गुनाहों को पनाहों के रस्ते? ऐसा ही कुछ रीति-रिवाजों के हाल शायद? बाजारों के हवाले, हर रीति-रिवाज़, हर उत्सव-त्यौहार। आपको क्या लगता है?

चलो वापस तुलसी पे आते हैं। कितनी तरह की हैं तुलसी (BASIL)? या TULSI ? अच्छा औषधीय पौधा है। घर में लगाएं, मगर बच्चों को आशाराम बापु वाला तुलसी दिवस और रविवार का खास पानी रिवाज वैज्ञानिक तरीके से बताएं और समझाएँ। उनकी उत्पत्ति और वक़्त और राजनीतिक जरुरत के हिसाब से उनमें आए या लाए गए बदलावों को भी बताएँ। 

सुना है 2014 में और भी बहुत कुछ बदला था। जैसे ? भाइयो और बहनो . .. ? आगे तो आप समझ ही गए होंगे। पेड़-पौधो को जरुरत के अनुसार पानी दें। रविवार को देना या न देना वाला रिवाज़ राजनीती की अपनी तरह की मजबुरियां हो सकती हैं। अपने घर और आसपास के जीवों को राजनीतिक जीव (राजनीतिक कीड़ा) ना बनाकर, प्रकति के जीव ही रहने दें। वो फिर चाहे पेड़-पौधे हों, पक्षी या जानवर या फिर कोई और जीव। अक्सर राजनीती की जरूरतें और जीवों की जरूरतें अलग-अलग होती हैं। अपने धर्मों और रीति-रिवाजों को, जहाँ तक हो सके राजनीती और बाजार के प्रभावों (दुष्प्रभावों) से बचाएँ। हालाँकि थोड़ा असंभव-सा है। क्युंकि राजनीती तो जैसे कण-कण में है, किसी खरपतवार की तरह।        

गुगल दर्शन या गीता ज्ञान? 




Friday, September 29, 2023

प्रतिबिम्ब घढ़ाई (Simulations)

ज्यादातर ज्ञान, फोटो समेत, गुगल बाबा से लिया गया है। इसमें आप Artificial Intelligence (AI) धमाल भी देख सकते हैं। आएंगे उसपे भी किसी और पोस्ट में।  

What is the simulation concept?

A simulation is the imitation of the operation of a real-world process or system over time. Simulations require the use of models; the model represents the key characteristics or behaviors of the selected system or process, whereas the simulation represents the evolution of the model over time.

कुछ ज्यादा ही controlled search version नहीं हो गया ?

नकल करना (Imitation): जैसे बच्चा या तोता सामने वाले की नकल करके बोलना सिखता है। बच्चा चलना-फिरना, बैठना, खाना-पीना सीखता है। 
जैसे आदमियों के डम्मी, दुकानों पे कपडे पहने खड़े रहते हैं। जैसे प्रसिद व्यक्तियों के डम्मी टाइप, wax museum में होते हैं। 
प्रतिबिम्ब घढ़ाई  (Simulations) जैसे से और भी काफी मिलते-जुलते से शब्द जैसे --
नकलची, छद्दम, अनुकृति (Mimicry)  
नकल (Copy, Ape) 
नकल उतारना (Emulate) 
गूँज, प्रतिध्वनि,  (Echo) 
प्रतिकृति (Replica) 
कॉपी बनाने की प्रकिर्या (Replicate)

Counterfeit
Imitate to do fraud
Fraudery, deceit, trickery, like magic is nothing but a trick to deceive the watchers,  designed to deceive games

Enigma Code/Machine 
The Nazi Code

Imitations in birds and European Industrialization
Imitation in living beings (Animals, Plants, Birds, Amphibians etc. )  
Human health and diseases (और कॉपी करना?)  मतलब जन्म और मौत भी कॉपी हो सकते हैं? जी हाँ। यही है हमारे समाज और इस सिस्टम की राजनीती का सच। एक ऐसा सच, जो न सिर्फ क्रूर और निर्दयी है, बल्की अगर उसकी बारीकियों को समझने लगेंगे तो भद्दा भी। 

प्रतिबिम्ब घढ़ाई  (Simulations), अच्छाई के लिए भी हो सकती है और बुराई के लिए भी। 

मशीने 
जो कहीं न कहीं या तो जीवों की हुबहु कॉपी हैं या कॉपी जैसी दिखती हैं और काम भी वैसा सा ही करती हैं। जैसे --
पंछी और हेलीकाप्टर, प्लेन, ड्रोन 
इंसान का दिमाग और कम्प्युटर का दिमाग 
सफाई वाले कीड़े-मकोड़े और रोबो क्लीनर्स  

प्रतिबिम्ब घढ़ाई प्रिंटर, स्कैनर, लिखने वाली मशीन 
जीव करेलिआ (Chameleon), सतह के रंग के अनुसार रंग बदल लेता है। कोयल जैसे कितने ही जीव, दूसरे जीवों जैसा-सा दिखने का फायदा उठाते हैं। कुछ जहरीले साँप, जहर रहित सांप जैसे दिखते हैं। ऐसे ही बहुत से पेड़-पौधे। 

अगली पोस्ट में आते हैं ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, असली ज़िंदगी के केसों और राजनीतिक घुमाओं पे।  

Tuesday, September 26, 2023

मनोस्थिति घड़ाई के प्रयोग और दुरूपयोग

आपकी सहमती का निर्माण, आपकी जानकारी के बिना और अपनी ही तरह के सच के पुख्ता सबुत जुटाना, वो भी आपसे हकीकत छुपाकर।  

(Manufacturing Consent and Fortifying Own Kinda Truth)  Money, Muscle and Power Gambling   

यहाँ-वहाँ और पता नहीं कहाँ-कहाँ टुकड़ों में पढ़ा जैसे, और फिर आँखों के सामने होता हुआ देखा भी। या कहो की इस सिस्टम के जानकारों द्वारा दिखाया गया। वो भी किसी एक केस में नहीं, बल्की, कई सारे केसों में। धीरे-धीरे आएंगे, ऐसे केसों पर भी। 

चलो एक फोटो लेते हैं 

एक लाइन में, एक तरफ भुपेंदर हुडा और स्वेता मिर्धा (ससुर और लड़के की बहु), दूसरी तरफ दीपेंदर हुडा और आशा हुडा (माँ और बेटा)। इन चारों के बीच में दीपेंदर हुडा और स्वेता मिर्धा के बेटे को गणेश का रूप देकर बिठा दो। ऐसे ही आप, किसी भी रिश्ते को इधर-उधर बिठा सकते हैं और वो कोई भी आम-आदमी या खास-आदमी हो सकते हैं। फोटो में यहाँ-वहाँ बैठने से, न तो रिश्ते यहाँ-वहाँ हो जाते और न ही उनकी पवित्रता खत्म हो जाती। मगर      

ऐसा ही कुछ हम राजनीतिक मायाजाल वाली नौटंकियों में घड़ना शुरू कर दें तो? वहाँ तो बस XYZ वाले रिश्ते होते हैं। हो गया गड़बड़ घोटाला शुरू। लोगों की ज़िंदगियाँ उल्ट-पुल्ट होना शुरू। बीमारियाँ और मौतों तक की घड़ाई शुरू। और उनकी ज़िंदगियों पर, उनके परिवारों और उस आसपास के समाज तक पर, लोगों को फसाना और दोहरी, तेहरी मार शुरू। हकीकत में राजनीतिक पार्टियाँ या कोई खास पार्टी, माचो.., बहनचो.., छोरीचो.., और भी पता नहीं कैसी-कैसी सामान्तर घड़ाई के भद्दे और कुरूप घड़ने में लग गई समझो।    

ये प्रभाव हर स्तर पे होता है। दुस्प्रभावों को बढाने-चढाने के लिए। Amplification, Hype,  Manifestations और भी पता नहीं क्या-क्या तरीके युद्ध स्तर पर प्रयोग होते हैं। मगर छद्दम युद्ध, गुप्त युद्ध। ये छद्दम युद्ध और इसके कोड, आपके आसपास की जगह के खाने-पीने में मिलेंगे। बीमारियों और दवाइयों और अलग-अलग तरह के इलाजों में मिलेंगे। कृषि और खेत-खलिहानों, वाहनों में मिलेंगे। इमारतों, परिवहन के साधनो, परिधानों और किताबों में मिलेंगे। धर्म और इससे जुड़े रीती-रिवाज़ों और उनमें वक़्त के साथ आए बदलाओं में मिलेंगे।      

धर्म और उनसे जुड़े रीति-रिवाज: एक तरफ इंसान इन सबसे जुड़ता है, अपने मन और आचरण की शुद्धि के लिए। तो दूसरी तरफ, शांति और शायद धन-दौलत पाने के लिए। वैसे तो ये सब ऐसा है, जैसे जो आपके अपने पास या घर में नहीं हो, उसे बाहर ढूंढना। मृगतृष्णा जैसे। बजाय की घर और आसपास में वैसा माहौल बनाने की कोशिश करना। मगर फिर भी अगर आपकी कहीं श्रद्धा है तो उसे अंधे-बहरे और दिमाग से पैदल होकर अपनाने की बजाय, थोड़ा उसके बारे में जानने की कोशिश करें। आप या आपके आसपास कौन-कौन, कौन-कौन सी तारीख को, किसके या कैसे वाहन में, किसी धार्मिक स्थान पे जा रहे हैं ? भला इनका राजनीतिक सामान्तर घढ़ाईयों से कोई मतलब हो सकता है ? अगर हाँ तो किस तरह का ? भला राजनीति को आमजन से क्या लेना देना ? क्या ऐसे-ऐसे धार्मिक प्रोग्राम या रीती-रिवाज राजनीती का रंगमंच हो सकते हैं ? वो भी आमजन की जानकारी के बैगर? अगर हाँ तो आम आदमी के रिस्ते नाते, खुशियाँ और गम, जन्म और मौतें, बीमारियाँ और हादसे भी, इसी राजनीतिक रंगमंच का हिस्सा है। वो भी आम-आदमी की जानकारी के बैगर। आम-आदमी राजनीती के इन रंगमंचों की कठपुतली मात्र हैं। कठपुतलियाँ, जिनमें अपना दिमाग प्रयोग नहीं होता। दिमाग प्रयोग करने वाले, कहीं न कहीं उन्हें चला रहे होते हैं, उनकी जानकारी के बैगर, उनकी इजाजत के बैगर, उनका भला या नुकसान देखे बैगर।        

धर्म के नाम पे राजनीतिक मायाजाल

धर्म से जुड़े ज्यादातर लोग भगवानों से डरते हैं शायद, चाहे वो डर फिर कैसा भी हो। भगवानों को इंसानों की मुर्तियों के रूप में पूजते हैं। मगर अपने ही आसपास वाले इंसानो को? भगवान या तो कहीं है नहीं या हर इंसान और जीव में। अगर इसे मानकर चलेंगे तो इंसान द्वारा मूर्ति के रूप में घड़े गए भगवानों की न याद आएगी और न ही जरूरत पड़ेगी, शायद।   

कीर्तन, भजन, जगराते और वृन्दावन: ज्यादातर दुखी और असाहय और बुजर्गों के सहारे हैं। इन सब में भी राजनीतिक कोड छुपे होते हैं। मगर जिन्हें वो समझ नहीं आते। ठीक वैसे ही जैसे भजनों के साथ, कौन से बाबे-साबों की फोटो रख दी, किसने और क्यों? वो भी किन्हीं बुजर्गों के मोबाइल में? उन फाइल्स और बाबों की फोटो की बुजर्गों को कोई जानकारी नहीं। ये हमारे महान भारत देश के वृँदावन जैसा-सा है। जहाँ घर से निकाली गई या बेहुदा समाज के कुरूप को दिखाती बेसहाय-सी औरतें मिलेंगी। जिन्हें कहीं और ठिकाना नहीं मिलता। और न जाने, शायद कैसे-कैसे हादसों से गुजरी हुई या शोषित हुई। अपने घरों को और आसपड़ोस के माहौल को, वृन्दावन बनाने से बचें और बचाएँ। क्युंकि ये राजनीती के जालों की सामांतर घढ़ाईयाँ आ गई हैं , जिनका काम होता है, चीज़ों को बढ़ाना-चढ़ाना, तोडना-मड़ोरना और भद्दे से भद्दे रूप में ला छोड़ना या पेश करना। शायद कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे लाला वाले तालाब के घोड़े, चलते-चलते, किन-किन मोड़ों पे और कैसे-कैसे केसों में उलझे (सामान्तर घढ़ाईयाँ)? शायद कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे, उसका दूसरा राजनीतिक बिगड़ाव या रूप शराब और ड्रग्स के हवाले। वक़्त रहते ऐसी दिशाओं को मोड़ दिया जाए या छोड़ दिया जाए, तो बेहुदा सामान्तर घढ़ाईयोँ से बचा और बचाया जा सकता है।

क्या वृन्दावन का भद्दा रूप कहीं और घड़ा जा सकता है ? 

क्या शराबी और ड्रग्स के केस घड़े हुए होते हैं या घड़े जा सकते हैं ?

ऐसे ही कितनी ही और तरह के क्या हो सकते हैं। जैसे क्या बीमारियाँ घड़ी जा सकती हैं ? क्या दुर्व्यवहार करने वाले या बलात्कारी भी घड़े जा सकते हैं? अगर हाँ, तो कैसे ? और अगर इतना कुछ बुरा घड़ा जा सकता है, तो अच्छा भी शायद? मगर कैसे?    

मानसिक स्थिति घड़ कर। मगर क्या किसी की मानसिक स्थिति घड़ी जा सकती है। या ऐसा पहले से हो रहा है समाज में? प्रश्न फिर वही, कैसे संभव है इतना कुछ? उसके लिए कुछ सामान्तर केसों को समझना पड़ेगा। इन आमजन के केसों में भी Loopholes वैसे ही मिलेंगे, या शायद ज्यादा ही, जैसे कैंपस क्राइम सीरीज में।      

तड़का गुप्त राजनीतिक रंगमंच का

अदा, अभिनय, साँग, नाटक

और मायाजाल वाला प्रदर्शन 

तड़का राजनीतिक रंगमंच का 

और आपको, आमजन को दिखेगा क्या?


कहीं पे किसानों का 26 जनवरी को, 

प्रदर्शन, दिल्ली के लाल किले पे। 

तो कहीं, राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा 

कहीं, पंजाब में घुसते प्रधानमंत्री मोदी के, 

काफिले को सुरक्षा का खतरा 

तो कहीं, फर्जी हस्ताक्षर वाला राघव चड्डा का एपीसोड 


दुष्यंत के हवाले DI-GI-TAL 

मंच संचालन दिग्विजय के? 

AAP के हवाले दिल्ली के स्कूल? 

तो शिक्षा मंत्री, 

मनीष सिसोदिया हुए,

किस के जुर्म में, जेल के अंदर?

अरविंद की बिजली, और वो खंबे पे चढ़, 

Engineer वाला बिजली ठीक करने का नाटक? 

तो बेवड़ा मान, चमका कैसे पंजाब में? 

(बेवड़ा क्यों कहा, अगली किसी पोस्ट में)  


आओ जाने मोटा-मोटा, अपनी सरकारों को (?)

या रईसों और टेक्नोलॉजी के मायाजाल वाली सरकारों को?

और इस सिस्टम को --

जिसे चलाता है, कुछ-कुछ, कठपुतलियों की तरह 

समाज के दिमाग वाला हिस्सा (Intelligentsia) 

थोड़े घने पढ़े-लिखे और कढ़े-लोग 

वो फिर सिविल हो या चाहे हो फ़ौज 

और चलता है, चलती-फिरती गोटियों की तरह 

हर समाज का आमजन, आम-आदमी

जैसे लिए हुए, कन्धों से नीचे का हिस्सा सिर्फ।  


किसान को बोलो अपने हक़ के लिए, दिल्ली चलो 

वो लाल किला, जिसे देखते-सुनते आए थे बचपन से  

की 26 जनवरी को तो,

चिड़िया तक, आसपास भी पैर नहीं मार सकती 

ट्रैक्टरों का प्रदर्शन देखता है, और किसी किसान की मौत भी 

मौत? या?


ऐसे ही, कितने ही प्रर्दशन, हम और आप रोज देखते हैं 

राजनीती के रंगमंच के, 

जहाँ आम आदमी होता है, कठपुतली मात्र 

किसी भी नाम पे, और उसे पता तक नहीं चलता, की, 

वो राजनीतिक रंगमंच के स्टेज पे उतार दिया गया है  

और खास-आदमी, खेलता है उन कठपुतलियों से 

अपने शातिर और लालची दिमाग से  

ज्यादातर कुर्सी के लिए या धन-दौलत के लालच के लिए 

सत्ता के हेरफेर के लिए, 

अपने और अपने बाप-दादाओं के नाम, उकेरने के लिए

यहाँ-वहाँ और न जाने कहाँ-कहाँ?

 

या शायद, वो नेता ये भी कह सकते हैं 

की हम तो खुद कठपुतलियाँ हैं, 

और खुद नहीं पता, कौन चला रहा है?

या हमें तो विरासत में ऐसा ही सिस्टम मिला है 

मालुम ही नहीं, की इससे बाहर निकल, कैसे काम किए जाएँ?

तड़का है इस गुप्त राजनीतिक रंगमंच का 

दुनियाँ के चप्पे चप्पे पे। 


तड़का गुप्त राजनीतिक रंगमंच का 

खुद इस गुप्त राजनीतिक रंगमंच को समझने की जिज्ञासा भी है और जरुरत भी। गलत-सही जितना समझ आता है यहाँ-वहाँ से, कोशिश है, उसे आमजन से बाँटने की। जितना आमजन जागरूक होगा, उतना ही उसका अपना भला होगा। उतना ही, वो इसके दुस्प्रभावों (हादसों, बीमारियों और कितनी ही तरह के नुकसानों) से बच पाएगा। और अपना हिस्सा इस सिस्टम में सुनिश्चित कर पाएगा, बजाय की सिर्फ कठपुतली बनने के। 

Sunday, September 24, 2023

इमर्शन मीडिया (Immersion Media)

आपका इमर्शन मीडिया (Immersion Media) क्या है?

आपकी ग्रोथ, उन्नति, तरक्की इसी पे निर्भर करती है। इसीपे किसी भी परिवार या समाज की खुशहाली या बदहाली निर्भर करती है। अगर आप सही तरक्की कर रहे हैं, खुशहाल हैं, तो आपका इमर्शन मीडिया (Immersion Media) सही है। अगर ऐसा नहीं है, तो उसे बदलने की जरुरत है। इमर्शन मीडिया (Immersion Media) एक तरह की संचार किरणे हैं, जो आपके शरीर के आरपार होती हैं। बुरी संचार किरणे, बुरा प्रभाव छोड़ती हैं। अच्छी संचार किरणे, अच्छा। जैसे वातावरण में अशुद्ध वायु या शुद्ध वायु। जैसे शुद्ध खाना या संक्रमित खाना। जैसे शुद्ध पानी या अशुद्ध पानी। वैसे ही जो कुछ आप देखते या सुनते हैं या महसुस करते हैं, उसका शांत करने वाला असर या भड़काने वाला। एक तरह की संगत भी। सोचने-समझने को प्रोत्साहित करने वाला या आँख बंद कर भेड़चाल चलाने वाला? आगे बढ़ाने वाला प्रभाव या पीछे धकेलने वाला। संवाद को बढ़ावा देने वाला असर या तानाशाही को, छुपम-छुपाई खेलने वाला? साथ लेकर चलने वाला असर या कुछ को साथ, कुछ को एक तरफ धकेलने वाला? 

अब भला इतना कुछ एक ही जगह मिलना कहाँ संभव है? ये तो Optimum (ऐसा इमर्शन मीडिया, जिसपे सबसे अधिक तरक्की संभव हो) हो गया। ऐसी स्थिति या वातावरण तो लैब में ही संभव है। हर इंसान के लिए, खासकर आम इंसान के लिए ऐसी लैब संभव कहाँ है? आम इंसान की ज़िंदगी तो मूलभूत सुविधाएँ जुटाने में ही निकल जाती है। फिर लैब के जीव बाहर के वातावरण को कहाँ आसानी से झेल पाते हैं? मगर मूलभूत सुविधाओं तक वंचित जीव भी कहाँ आसानी से जी पाते हैं या फलफूल पाते हैं? दोनों ही स्थितियाँ इंसान के लिए सही नहीं हैं। 

इमर्शन मीडिया (Immersion Media) को कुछ-कुछ ऐसे भी समझ सकते हैं। जैसे 

दही जमाना (Curd formation)

उसके लिए दूध का सही तापमान होना, जामण लगाने के लिए सही दही या लस्सी का होना और एक खास वक़्त तक जामण लगा के छोड़ देना। अब उस दही का स्वाद कैसा होगा ये किसपे निर्भर करता है? जामण में किस तरह के और कौन से कीटाणु थे। कितनी मात्रा में थे। दूध का तापमान क्या था? जामण लगाने के बाद कितनी देर तक बाहर रखे रहने दिया या फ्रीज में रख दिया? मतलब तापमान में बदलाव कर दिया। ज्यादा देर बाहर या उसी तापमान पे या ज्यादा तापमान पे, मतलब ज्यादा तीखा या खट्टा स्वाद। जमने के तुरंत बाद फ्रीज, मतलब कम तापमान पे रख दिया। मतलब दही बनाने वाले जीवों की ज्यादा वर्धी पे पाबन्दी लगा दी। तो कई दिन तक स्वाद को एक स्तर पे फिक्स कर सकते हैं। सिर्फ तापमान का हेरफेर कितना कुछ बदल सकता है? 

ऐसे ही अलग-अलग तरह के आटे गुंथने की विधियाँ हैं। रोटी के लिए अलग, पुरी के लिए अलग, भटुरे के लिए अलग, अलग अलग तरह के ब्रेड के लिए अलग, केक के लिए अलग। एक तरफ एक गृहिणी यही सब रोज करती है। और दूसरी तरफ? Food Tech कम्पनियाँ। फ़ूड टैक, अपने आपमें दुनियाँ का बहुत बड़ा व्यव्साय है। क्युंकि, खाने के बैगर तो इंसान जीवित ही नहीं रह सकता।   

ऐसे ही जैसे अलग-अलग तरह के पौधे उगाने के लिए अलग-अलग तरह के बीजों का अलग-अलग तरह का रोपण। अलग-अलग तापमान, अलग-अलग पानी की मात्रा की जरुरत। और किसी को कम, तो किसी को ज्यादा वक़्त देना आदि। 

एक होता है, किसी भी विधा को अपने आप सीख जाना। मतलब उसके लिए इमर्शन मीडिया (Immersion Media) है वहाँ। जैसे जिनके घर में खाना पकता है, वहाँ ज्यादातर बच्चे, खासकर हमारे भारतीय समाज में लडकियां, अपने आप खाना बनाना सीख जाती हैं। जी हाँ ! ऐसे भी समाज के कुछ तबके होते हैं, जहाँ खुद खाना बनाना अहम नहीं होता। या तो उन्होंने रसोइये रखे होते हैं या ज्यादातर खाना बाहर खाते हैं। तो खाना बनाना कोई औरत प्रधान काम नहीं है। सीख लो तो एक तरह की विधा ही है। ज़िंदगी में कभी भी, कहीं भी काम आ सकती है। 

वैसे ही जैसे खाना उगाना (खेती करना), कपडे बुनना या सिलना, साफ-सफाई करना आदि। जो समाज जितना पुराने ढर्रे पर है, वो उतना ही ज्यादा ये सब काम ज्यादातर खुद करता है --गुजारे के लिए। जो समाज का तबका, जितना ज्यादा किसी एक या दो विधा में निपुण होता जाता है, वो उतना ही उस विधा पर फोकस करता है, और बाकी का काम औरों से करवाता है। मतलब उस विधा में निपुण होने के लिए या दक्षता हासिल करने के लिए इमर्शन मीडिया (Immersion Media) है वहाँ।

फिर एक समाज का वो तबका भी है जो शायद उस चूहा दौड़ का हिस्सा रह चुका, जहाँ हर कोई अंधाधुंध, आगे बढ़ने के लिए, दूसरे को कुचल कर निकलता है। वो शायद वापस किसी संतुलन पर आना चाहता है। जैसे विकसित देशों में औद्योगीकरण के बढ़ते जहरीले प्रभावों के बाद, वापस आर्गेनिक फार्मिंग की तरफ के रुख। तो आर्गेनिक फार्मिंग भी एक विधा है, कला है। 

वैसे ही जैसे  डॉक्टर, टीचर, वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों के बच्चे उन्हीं क्षेत्रों में आसानी से आगे बढ़ते हैं। क्युंकि उनके आसपास वो सब बनने के लिए इमर्शन मीडिया (Immersion Media) है। उसके लिए बहुत ज्यादा कुछ अलग करने की जरुरत नहीं होती। 

ऐसे ही बड़ी-बड़ी कंपनियों और राजनीतिक पार्टियों या घरानों के पास मानव रोबोट घड़ने की दक्षता है। उसके लिए उन्हें बहुत कुछ अलग से नहीं करना पड़ता। हाँ ! वक़्त के साथ-साथ, जैसे-जैसे, प्रौद्योकी (Technology) में नई-नई खोजें हो रही हैं, उनको जरूर साथ लेकर आगे बढ़ना होता है। आखिर दूसरी पार्टियों से प्रतिस्पर्धा में भी आगे निकलने की दौड़ है। उन तकनीकों के प्रयोगों से मानव रोबोट बनाने और आसान हो रहे हैं। 

कैसे? इमर्शन मीडिया (Immersion Media) समझ आ गया? तो वो भी आ जाएगा और आप खुद उसे होता देखेंगे, हर रोज, अपने ही आसपास या शायद खुद पर ही। उसके लिए इन बड़ी-बड़ी कंपनियों और पार्टियों के जालों को और समझना पड़ेगा। टेक्नोलॉजी और मानव संसाधनों का प्रयोग और दुरूपयोग, दोनों को समझना अहम है।   

Saturday, September 23, 2023

मनोस्तिथि घड़ना

मनोस्तिथि घड़ना मतलब, सामान्तर घड़ाई करना भी हो सकता है। और बिना किसी सामान्तर घड़ाई के, छल, कपट के तरीके से, अपना काम निकालना भी हो सकता है। 

क्या कोई किसी की मनोस्तिथि घड़ सकता है? अगर हाँ तो कैसे?

इसका राज छुपा है इसमें --

एक तरफ दिखाना है मगर बताना नहीं 

और दूसरी तरफ  ना दिखाना, ना बताना, सिर्फ रचना है। वो भी गुप्त तरीके से। 

इसे बोलते हैं, उतना ही बताओ, जितना अपना काम निकालने के लिए जरूरी हो। न उससे कम और न ही ज्यादा।धूर्त और चालाक लोग करते हैं ऐसा। वो ऐसा न सिर्फ युवाओं के साथ करते हैं, बल्की बच्चे-बुजुर्ग कोई हों, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो घड़ाई से मतलब है।    

आपने क्या देखा, सुना या अनुभव किया, किसी इंसान के बारे में, किसी संस्था, पार्टी या जगह के बारे में ? वो सब, उन सबके बारे में आपकी मनोस्थिति घड़ता है। उस मनोस्थिति के घड़ाव में आपके अपने विचारों की ट्रेनिंग, परिवेश का भी प्रभाव भी  पड़ता है। ये खाने-पीने से लेकर, पहनावे, रहन-सहन, वित्तीय स्तिथि, सफाई वाली खुली जगहें या गंदगी और तंग जगहें, बोलचाल के तरीके और रिश्तों तक को प्रभावित करता है। मतलब, आपकी ज़िंदगी कैसी होगी, ये सब आप कैसे माहौल या समाज में रहते हैं, उस पर काफी हद तक निर्भर करता है। 

वो समाज आपको क्या दिखाता है, क्या बताता है, मतलब आपको व्यस्त कहाँ रखता है? आप ज्यादातर वक़्त किस बारे में सोचते हैं? और आपके परिवेश के प्रभाव स्वरूप आपके विचार क्या हैं? आपकी ज़िंदगी उसी दिशा में बढ़ती जाती है। वहाँ का राजनीतिक ताना-बाना इसमें अहम भूमिका निभाता है। ये राजनीतिक ताना-बाना या मायाजाल किसी भी समाज को दिशा या कोई खास दशा देता है। वहाँ के लोगों के जीवन को आसान या मुश्किल बनाने का काम भी यही करता है।  

एक तरफ, क्या दिखाता है या बताता है, और दूसरी तरफ? क्या छुपता है और गुप्त तरीके से रचता है, और भी ज्यादा अहम है।   

इस छुपम-छुपाई के छदम युद्ध में राजनीती और पार्टियों की घिनौनी मानसिकता और कारनामे छुपे होते हैं। इसमें ये पार्टियाँ, आम आदमी का दुरूपयोग करती हैं। ये सामने वाले की मानसिक स्तिथि और विचारों को, उनकी खामियों और ताकत का आंकलन कर,  उनकी मानसिक स्थिति घड़ने का काम करती हैं।  इसमें वो सामने वाले को स्थिति स्पस्ट नहीं करते, बल्की हकीकत छुपा कर रखते हैं। जो ये आम आदमी से करवाते हैं, उसके परिणाम और उनकी ज़िंदगी पर दुसप्रभाव नहीं बताते, बल्की  सिर्फ फायदा बताते हैं। किसी भी तरह का लालच, लाभ, अच्छाई या डर दिखाते हैं। जो जितना ज्यादा इस मायाजाल में उलझता जाता है, उस इंसान, परिवार या समाज की स्थिति, उतनी ही ज्यादा बदतर होती जाती है। 

जहाँ ये छुपम-छुपाई या छदम-युद्ध, जितना ज्यादा कम होता है, पारदर्शिता जितनी ज्यादा बढ़ती है, उतना ही वो इंसान, परिवार या समाज, खुशहाली और तरक्की की तरफ बढ़ता जाता है।    

आओ मनोस्थिति घडें,  अगली पोस्ट।    

राजनीतिक मायाजाल (गुप्त भूतिया-राजनीती)

एक तरफ दिखाना है, मगर बताना नहीं  ये वो संसार है, जो आपको दिखता है या सुनता है या आप अनुभव करते हैं। ये संसार एक बड़ी स्टेज है, चलती-फिरती गोटियों वाली, कठपुतलियाँ जैसे। 

और दूसरी तरफ  

ना दिखाना, ना बताना, सिर्फ रचना है। वो भी गुप्त तरीके से।

ये इन चलती-फिरती गोटियों को चलाने वाले लोग हैं। बिलकुल वैसे, जैसे कठपुतलियों के खेल करने वाले। ये आपको ना दिखते, ना आप इन्हें सुनते और ना ही इनके होने का अहसास करते। कौन हैं ये? भगवान? देवी या देवते? शैतान या राक्षस? या आप और हम जैसे इंसान? ये वो हैं, जिनके पास थोड़ी-सी जानकारी ज्यादा है, आम इंसान से। ये वो हैं, जो आम इंसान को दूर बैठे देख सकते हैं। सुन सकते हैं। और आपकी मनोदिशा घड़ सकते हैं। उसमें अलग-अलग तरह के बदलाव कर सकते हैं, और वो भी गुप्त तरीके से, आपकी जानकारी के बैगर। चाहें तो ये आपको आगे बढ़ा सकते हैं और चाहें तो खत्म कर सकते हैं। 

कहीं कुछ फाइल्स में जो हो रहा है या कहीं जिसपर कोई संवाद या वाद-विवाद हो रहा है, वही आम इंसानों के समाज में हकीकत में बढ़-चढ़ कर या घुम-फिर कर, तोड़-मोड़ कर हो रहा है। अपने आप नहीं हो रहा, बल्की किया जा रहा है।  

कैसे?

जैसे एक तरफ लिखित में कोई ज्ञान या विज्ञान है। किसी ने कहा या कहो घड़ा की ऐसा संभव है। ऐसा हो सकता है। Theory या Hypothesis 

इसके बाद आता है उसको प्रमाणित करो Experiment, Practical 

कोई सच्चा वैज्ञानिक अगर प्रैक्टिकल करेगा तो हकीकत लिखेगा या दिखाएगा। मगर जब राजनीती वाला विज्ञान (Political Science), ऐसा कुछ करेगा तो क्या लिखेगा या दिखाएगा, सुनाएगा और बताएगा? वो वैज्ञानिक थोड़े ही है। राजनीतिक है, जो विज्ञान के ज्ञान का  दुरूपयोग अपने मत या स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए करेगा। इसीलिए राजनीतिक विज्ञान में साम, दाम, दंड, भेद सब होता है। मगर उससे न विज्ञान का भला होता और न ही आमजन का। इसीलिए आमजन को, इस गुप्त भूतिया राजनीती को समझना सिर्फ जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत जरूरी है। 

Wednesday, September 20, 2023

राजनीतिक सर्कस के जोकर

जैसे सर्कस में होते हैं 

अलग-अलग तरह के जानवर 

अलग-अलग तरह के किरदार 

वैसे ही राजनीती के सर्कस में भी 

निभाता है हर कोई जीव, 

अपनी ही तरह का किरदार। 


कोई हँसाता है, कोई रुलाता है 

कोई करतब दिखाता है, 

कोई उनसे करतब करवाता है 

कोई चलता है, कोई चलाता है 

तो कोई-कोई अपनी ही धुन में 

जैसे खुद ही झुलता रहता है।  


जितना सर्कस में सबकुछ नियंत्रित होता है 

वैसे ही इंसानो के इस समाज में भी। 

जैसे सर्कस को नियंत्रण करने वाले कम ही दिखते हैं 

वैसे ही इंसानों के इस समाज को नियंत्रित करने वाले। 

जैसे स्टेज पे सिर्फ वो दिखता है, जो दिखाया जाता है 

वो सुनता है, जो सुनाया जाता है 

वैसे ही राजनीती के इस सर्कस में भी। 


हाँ। जो सर्कस हम देखते हैं उसमें 

और जिस राजनीतिक सर्कस का हम हिस्सा हैं उसमें 

(हिस्सा, जाने या अनजाने, ज्यादातर अनजाने में)  

अहम फर्क ये है, की वहाँ सर्कस का हिस्सा होने वालों को 

सर्कस करवाने वालों की और ट्रैंनिंग देने वालों की जानकारी होती है 

जबकि राजनीती के इस सर्कस में  कितना कुछ गुप्त रहता है। 


जो सर्कस हम देखते हैं, 

उसका दायरा और स्टेज बहुत छोटा होता है 

मगर, राजनीती की दुनियाँ रुपी ये सर्कस बहुत बड़ा है। 

छोटे दायरे में सिमटी चीज़ों को समझना आसान होता है 

दुनियाँ रुपी बड़े दायरे में फैले राजनीतिक सर्कस को 

इसके किरदारों को, और उन किरदारों रुपी इंसानो को 

गोटियों की तरह चलाने वाले दिमागों को, जानना और समझना 

उतना ही मुश्किल, जितना बड़ा उस स्टेज का दायरा। 


वो इस पार्टी या उस पार्टी में बंटे, चलाने वाले दिमाग, 

आपको, चलती-फिरती गोटियों को, कैसे चला रहे हैं? 

उसे समझने के लिए अपनी दिनचर्या पर गौर फरमाएँ 

हो सके तो किसी डायरी में नोट करें 

दिन, तारीख, महीना, वक़्त 

आपके साथ या आसपास होने वाले घटनाक्रमों को 

अपने खुद के और उनके व्यवहार को और कर्मों को 

और उसके फलस्वरूप 

आपकी और आसपास की ज़िंदगी पर पड़े प्रभावों को 

जानने और समझने की कोशिश करें। 


वक़्त के साथ सब समझ आने लगेगा 

कौन तुम्हें (चलती-फिरती गोटियों को) चला रहा है?

कौन तुम्हें बेवकूफ बना रहा है? 

कौन हितैषी हैं?  

कौन सिर्फ अपना काम आपसे 

और आपके अपनों से निकलवाकर 

सिर्फ अपना मतलब साध रहे हैं?

जो सिर्फ फायदे दिखा रहे हैं, मगर नुकसान छुपा रहे हैं। 


कौन फायदे-नुकसान दोनों दिखा रहे हैं ?

और सावधान भी कर रहे हैं, आगे खड़ी मुसीबतों से ?

ज्यादातर बीमारियों और हादसों के राज 

रिश्तों के उतार-चढ़ाओं के राज, इन्हीं में छुपे हैं 

जरुरत है उन्हें शांत दिमाग से देखने और समझने की 

अशान्त या जल्दी भड़काऊ दिमागों के पास 

ये सब देखने और समझने की शक्ति खो जाती है 

भड़ाम-भड़ाम और शांत-शांत में, इतना-सा 

या कहो, की कितना-सा फर्क होता है?

गुप्त फाइल्स वाली "भूतिया-राजनीती"

मोबाइल वाली फाइल्स, 

भजनों के साथ, कौन से बाबे-साबों की फोटो रख दी, किसने और क्यों? वो भी किन्हीं बुजर्गों के मोबाइल में? उन फाइल्स और बाबों की फोटो की बुजर्गों को कोई जानकारी नहीं। वैसे ही जैसे, हम जैसे ज्यादातर लोगों को नहीं पता होता की हमारे मोबाइल या लैपटॉप में, कैसी-कैसी गुप्त फाइल्स या रजिस्ट्री आ चुकी या जा चुकी। वैसे ही जैसे घरों, बाजारों, सड़कों, चौराहों पे गुप्त तरीके के कोडों का आम आदमी को नहीं पता होता। कौन करता है ऐसे? आपका भला चाहने वाले या आपके अपने और अपनों के खिलाफ षड्यंत्र रचने वाले? वो भी गुप्त तरीके से, बिना बताए और बिना दिखाए। ये एक तरह का उस पार्टी द्वारा, अपने किए गए कांडों पे, अपनी ही तरह की मोहर ठोकने का तरीका भी है और मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालना भी या कहो दुस्प्र्भाव। ऐसे-ऐसे गुप्त तरीकों से और भी बहुत तरह के काँड हो सकते हैं। जैसे हमारे इस अनोखे संसार में, सरकारें और सिस्टम का ये गुप्त कोडों वाला पहिया काम करता है। इसीलिए जो दुनियाँ के इस कोने में हो रहा है, वैसा ही कुछ दुनियाँ के दूसरे कोने में। सोचो भारत का चीफ जस्टिस  कहे policies changes के लिए अपने लैपटॉप की रजिस्ट्री चैक करो। और दूर कहीं  कोई कहे, अरे चीफ जस्टिस के खुद के कोड चैक करो, --धन्ना सेठ कहीं का। अजीब है ना? और इधर ये Nation state? देश कहाँ है, वही जो हमने पढ़ा या सुना या अब जो  बच्चे पढ़ रहे हैं? ये तो कबीले नहीं हो गए या शायद International gangsters? फिर ये democracies क्या  हुई? Demo of Currencies शायद? फिर ये currencies के कोड और  सट्टा (या सत्ता?)  बाजार क्या हैं ?   

एक तरफ दिखाना है मगर बताना नहीं और दूसरी तरफ ना दिखाना, ना बताना, सिर्फ रचना है। वो भी गुप्त तरीके से। इसे बोलते हैं, उतना ही बताओ जितना अपना काम निकालने के लिए जरूरी हो। न उससे कम और न ही ज्यादा। धूर्त और चालाक लोग करते हैं ऐसा। वो ऐसा न सिर्फ युवाओं के साथ करते हैं, बल्की बच्चे-बुजुर्ग कोई हों, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो घड़ाई से मतलब है।         

दूसरी तरफ, गुप्त तरीके राजनीतिक कहानियों के किरदारों को, अपने अनुसार घड़ने के लिए होते हैं। वो उन्हें हद से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा भी सकते हैं। फुला भी सकते हैं, ऐसे, जैसे किसी गुब्बारे में हवा भरना। और तोड़-मरोड़, जोड़-घटा भी सकते हैं, ऐसे, जैसे दूध से मक्खी निकालना। फुलाए हुए गुब्बारे को पिंच करके फोड़ना। तितलियों को धागा बांधके पतंग की तरह उड़ाना। धागे को छोटा-बड़ा करके, उनके उड़ान के संघर्ष को देखना। कीड़े-मकोड़ों के चारों तरफ लक्ष्मण रेखा लगा, जीवन-मरण का सँघर्ष देखना। पिंजरे में रोटी का टुकड़ा रख, चुहों को फंसाना। तोते या चिड़ियाओं को पिंजरे में रख, बोलना या अनुशासन सिखाना। चीनी के दाने डाल, चिंटिओं को बुलाना। अनाज के दाने डाल, पक्षियों को बुलाना। पानी में काँटा छोड़, मछलियों को फसाना जैसे। गुप्त तरीके, जहाँ दिखता कुछ है, और करने वालों का इरादा कुछ और ही होता है। 

ऐसे ही गुप्त तरीकों से ये राजनीतिक पार्टियाँ बहुत कुछ आपकी ज़िन्दगी में या उसके आसपास कर रही होती हैं। वो खाने-पीने, पहनने, रहने, पढ़ने या आपके काम करने की या और कोई जगह हो, सब जगह किसी न किसी रूप में चल रहा होता है। कहीं इस पार्टी का, तो कहीं उस पार्टी का।  मतलब, ज़िंदगी का हर लम्हा, हर कदम, कहीं न कहीं, राजनीतिक कोडो के दायरे में होता है। आपकी ज़िंदगी की कोई भी घटना या दुर्घटना, ज्यादातर केसों में किसी न किसी सामान्तर घड़ाई का हिस्सा होती है। ऐसी सामान्तर घढ़ाईयाँ जो किसी न किसी रूप में यहाँ भी चल रही हैं , वहाँ भी चल रही हैं। और न पता कहाँ-कहाँ चल रही हैं। जिसे जरूरत पड़ने पर ये पार्टियाँ अपने हिसाब से चलाने, मोड़ने, तोड़ने या जोड़ने की कोशिश करती हैं। ऐसे ही कहीं न कहीं ये पार्टियाँ, जो चल रहा होता है, खुद उसके आसपास घुम रही होती है। मतलब ऐसा भी नहीं की सबकुछ राजनीतिक पार्टियों के पास ही होता है। आम आदमी भी इस सिस्टम के पहिए को कहीं न कहीं, थोड़ा या ज्यादा, किसी न किसी रूप में घुमा रहा होता है। जितना ज्यादा वो जगरूक होगा, उतना ही उसके अपने भले में होगा। आम आदमी की इसी ताकत को कम करने के लिए ये पार्टियाँ गुप्त तरीकों से काम करती हैं। जहाँ का सिस्टम जितना ज्यादा गुप्त है, वो उतना ही कम आम आदमी के भले में है। गुप्त सिस्टम, गुप्त कीटाणुओं के रोगों जैसा-सा है, जो समाज में कितनी ही तरह की बीमारियां और समस्याएँ, गुप्त कीटाणुओं की तरह परोसता है। बीमारी तो दिखती हैं, मगर वो कीटाणु सबको नजर नहीं आते। कीटाणु भी कैसे-कैसे? Covid-corona वाले pandemic को ही लो। राजनीतिक बीमारियाँ, वो भी दुनियाँ भर के कोर्ट्स की जानकारी के बावजूद? इसे आप गुप्त फाइल्स या कोडों वाली "भूतिया-राजनीती" भी कह सकते हैं। 

दिखाना है, बताना नहीं, वाली "भूतिया-राजनीती"

क्या है भूतिया-राजनीती?

राजनीति के बताए हिसाब-किताब

भूल जाओ तुम कौन हो 

और क्या काम करना है 

जिंदगी को जीना है अपने हिसाब से? 

या राजनीति के बताए हिसाब-किताब में उलझना है? 


भूतिया राजनीती और इसके प्रभाव

भूत जो है ही नहीं। जो अक्सर दिखता भी नहीं। जो भ्रम या आभाष मात्र है। मिथ्याभाषी है या है कोई डरावा। बस, उसी आभाष को बढ़ाना-चढ़ाना, तोड़ना-मरोड़ना है, कोई हकीकत घड़ने के लिए। राजनीतिक हकीकत। हकीकत, इस पार्टी की या उस पार्टी की। मतलब, एक ही विषय पर हकीकत भी कोई एक नहीं, बल्की, अलग-अलग पार्टी के हिसाब से, अलग-अलग हकीकत।      

एक ऐसा जहाँ, जहाँ पे लोग आपको, जो आप हैं, बस वो नहीं रहने देना चाहते। पता नहीं और क्या-क्या बनाना चाहते हैं? सारा राजनीतिक खेल, इस अदले-बदले के गोटियों के जुए के इर्द-गिर्द ही घुमता है। यही है शायद, नाम में क्या रखा है (What lies in a name, place or IDs)?  मानो तो बहुत कुछ और ना मानो तो कुछ नहीं। बशर्ते, कोढ़ वाली घटिया राजनीती जीने दे। 

जैसे सामान्तर केसों में जहाँ नाम, जगह और कारनामे मिलते-जुलते से होते हैं, मतलब वहाँ काफी कुछ हकीकत के आसपास भी लग सकता है या हो सकता है। जहाँ नहीं मिलते, मगर फिर भी घटनाओं को एक जैसा-सा दिखाने की कोशिशें हों, मतलब mutant घड़ाई हो सकती हैं। हकीकत में वैसा कुछ भी न हो, किरदार एकदम से नया घड़ दिया हो। जैसे, "देख तेरे भाभी चाली जा" या "फलाना-धमकाना Live-in वाले रिश्ते में हैं।" और भी कैसे-कैसे जैसे हो सकते हैं। जैसे, कोई एक्सीडेंट के बाद बिस्तर पे पड़ा हो, हिलडुल तक ना सकता हो और कहीं किसी और ही तरह के हमबिस्तर घड़ दिए हों। कहीं किसी की पहली कमाई ही 20000 हो  और कहीं किसी middle क्लास वाले किसी रईस को पॉकेट-मनी भी इससे ज्यादा मिलता हो या आसपास हो। कहीं किसी को बोला जाए की ये live-in रिश्ते में हैं। बोला जाए, जैसे देख तेरी भाभी चाली जा, न की हकीकत। और कहीं किसी का पहली शादी का सालों से केस चल रहा हो और दूसरी ले आएं। और कोई बोले ये तो live-in हैं। मतलब कोई भी केस एक जैसा नहीं होता। हाँ ! राजनीतिक पार्टियाँ वैसा घड़ने की कोशिश जरूर करती हैं। पता नहीं ऐसा करने से उनके कैसे-कैसे नंबर बनते हैं।          

"दिखाना है, बताना नहीं", न सिर्फ जुर्म को छिपाने का काम करती है, बल्की बढ़ाने का काम भी करती है। ये खेल नहीं, सोचे समझे षड्यंत्र होते हैं। जहाँ तक हो सके इनसे बचने की कोशिश होनी चाहिए। ज्यादातर लोग इसका हिस्सा अनजाने में होते हैं। तो बहुत से शायद जानभुझकर भी?   

"दिखाना है, बताना नहीं" की राजनीती मतलब, "भूतिया राजनीती", मानव रोबोट बनाने की प्रकिर्या का हिस्सा भी है।  

भूतिया राजनीती, भूत घड़ती है, अपने फायदे के लिए। उस राजनीती को कोई फर्क नहीं पड़ता की जिन लोगों पे वो ये भूत घड़ रही है, इसका असर उनपे कैसा हो रहा है। ये भूतिया राजनीती, ऐसी बीमारियाँ पैदा करती है, जो होती ही नहीं।  लोगों को दुनियाँ से ऐसे उठा देती है की यकीन करना ही मुश्किल हो, ऐसा कैसे संभव है? ये राजनीती झूठ, छल, कपट, छलावा और भी पता नहीं क्या-क्या करती है, सत्ता पाने के लिए या बचाने के लिए।   आम आदमी को इससे बचने की जरुरत है, न की हिस्सा होने की। जितना आप इसका हिस्सा बनते जाएंगे, उतना ही ज्यादा दुस्प्रभाव ये आप पर छोड़ती जायगी। खासकर जब आपको उन दुस्प्रभावों से बचने के तरीके नहीं मालुम।     

Tuesday, September 19, 2023

आओ मानव रोबोट घडें?

ऐसा क्यों है की कहीं किन्हीं राजनीतिक कहानियों में जो हो रहा है, आपको लग रहा है की वैसा-वैसा कुछ मेरी ज़िंदगी में भी हो रहा है? Copy या Clone बनाना पता है क्या होता है ? और कैसे होता है ? बस आपके साथ वही हो रहा है। और आप खुद उस Process और Programming का हिस्सा बने हुए हैं -- जाने या अनजाने। 

यही नहीं, कहीं न कहीं, अपने बच्चों और बड़ों को भी बना रहे हैं -- जाने या अनजाने। 

कैसे ?

आओ मानव रोबोट घडें? 

एक तरीका है 

Copy, Cut और Paste  आओ मानव रोबोट घडें? 

हो गया ? अरे यही तो लिखना था आओ मानव रोबोट घडें? 

बनाना हो तो?  

पौधों से शुरू करें? क्या-क्या तरीके हैं पौध बनाने के?  

एक तो वही Copy, Cut और Paste

दुसरा तरीका?

तीसरा तरीका?

और भी कितने तरीके हो सकते हैं? आप पौधों के बताओ या सोचो। तब तक -- 

चलो एक कागज लेते हैं और नाव बनाते हैं। बचपन में बनाई होगी ना? या शायद हवाई जहाज? 

आता है तो किसी और को सिखाओ। और अगर नहीं आता? तो किसी से सीख लो। 

क्या-क्या सामान चाहिए? क्या प्रकिर्या होगी ? और कैसे उस प्रकिर्या को करना है ? Programming और Process.  

ऐसे ही एक इंसान के या पार्टी की रची कहानी को, किसी और इंसान पे थोपा जा सकता है क्या? थोंपना क्यों है? उसे अपने साथ लो और थोड़ा बहुत किसी भी किस्म का लालच या डर दिखाओ। अब वो इंसान, आपका कहा या रचा करता जाएगा। और आपका काम हो गया। बस एक शर्त। उतना ही बताओ, जितने में आपका काम हो जाए। उससे ज्यादा पता लग गया तो मुश्किल हो जाएगी। मतलब, जितना बताना जरूरी है, उतना ही छुपाना भी जरूरी है इस धंधे में। और हो गई कॉपी। बन गया क्लोन। मानव रोबोट। कितने ही मानव रोबोट घड़ सकते हैं ऐसे। राजनीतिक पार्टियाँ और ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बस यही सब कर रही हैं, आमजन के साथ।

एक छोटा सा उदहारण लें, शायद आपके भी आसपास ऐसा कुछ हो रहा हो?

कोई बच्ची पैदा हुई और कोई बोले, की ये हो गई, फलाना-धमकाना की लुगाई पैदा। वो जैसे अपना राजस्थान में या शायद हरियाणा और NCR तक में आज तक होता है? पैदा होते ही शादी तय? या शायद शादी जैसा-सा कुछ? या शायद उसके नाम पे कुछ और? या शायद पैदा होने से पहले ही? की लड़की हुई तो हमारे यहाँ आएगी और लड़का हुआ तो तुम्हारे यहाँ? मतलब, अगर लड़का हुआ तो फलाना-धमकाना का खसम। अबे गधे से दिमागो, उन्हें थोड़ा बड़ा होने दो। खुद इस दुनियादारी को समझने दो। उसके बाद शायद उनसे पूछने की भी नौबत आए और जो तुम घड़ रहे हो, वो उन्हें पसंद ही ना आए। फिर? जबरदस्ती करोगे क्या? आसपास जो समझ आया वो ये की बच्चों के जन्म तारीख और नाम के हिसाब से, पता नहीं इस पार्टी या उस पार्टी ने ऐसी-ऐसी कितनी ही घड़ाईयाँ की हुई हैं। और खुद के उनके अपने परिजन, नौटंकियों के नाम पे, उनकी नुमाईश ऐसे कर रहे हैं, जैसे सर्कस के कोई जोकर। अब तेरा नंबर। अब तेरा। आज तेरा। कल तेरा। परसों तेरा। ये सिर्फ गाँव की कहानियाँ नहीं है। बल्की यूनिवर्सिटी में भी कुछ ऐसे-ऐसे पीस थे या कहो हैं। 

एक दिन बॉस से कुछ झगड़ा हो गया। होता ही रहता था वहां तो। रोज ऑफिस में यही तो ड्रामे चलते थे। पढ़ाई-लिखाई थोड़े ही चलती थी। इस पार्टी या उस पार्टी के कलाकार कुर्सियों पे और शीतयुद्ध फाइल्स का। यहाँ-वहाँ रोड़े अटकाने का। जो जितना बढ़िया रोड़े अटकाऊ और चापलूस, उसका उतना बढ़िया और जल्दी प्रमोशन और सुविधाएँ। जो हरामी डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठकर ये कहे की डिपार्टमेंट में पढ़ाई या रिसर्च का वातावरण देना उसका काम नहीं है और फिर भी इतना वक़्त उस कुर्सी पे टिक जाए। कैसे-कैसे लालच ना? एक दिन बॉस से थोड़ी बहुत कहासुनी हो गई। बुला लिए अपनी पार्टी के newspaper के सिपाही, और अपने लड़के के साथ फोटो चिपकवा दी। और आप सोचें, इस चापलूस इंसान ने, एक छोटी-सी बात पे, अपने ही बच्चे को भी बीच में क्यों घसीट लिया? राजनीति के ड्रामों के बाप, बेटे, दादे, पोतों की कहानी, थोड़ा बाद में समझ आई। और बच्चों की ज़िंदगियों पर उन ड्रामों में शामिल करने के असर की थोड़ा और लेट। खासकर, गाँव में आने के बाद। बच्चों की बीमारियों से।      

गाँव वाले बेचारे अपने बच्चों की ज़िंदगियाँ और रिश्ते बचाने में ही व्यस्त हैं। बैगर संसाधनों और दिमाग के लोग। कितने ही केस भुगत रहे हैं, जिनमें राजनीतिक पार्टियों के सामांतर तड़के हैं। कितने ही युवाओं की ज़िंदगियाँ, उन सामांतर तड़कों की घड़ाई में खराब हो चुकी या हो रही हैं। और वो पढ़े लिखे शिकारी? इनसे भी माल लूटने में, इधर भी और उधर भी? उन कुर्सियों पे बैठकर, वो कौन से समाज का भला करते हैं? उसका, जिसने उन्हें वो कुर्सियां दी हैं? या उसका, जिसके नाम पे वो कुर्सियां दिखाने भर को सजी हैं? बस? मुझे ऐसे पढ़े लिखे गँवार और जुर्म पैदा करने वाले या छिपाने वाले समाज का हिस्सा नहीं होना। 

किसी भी समाज की बदहाली या खुशहाली का फर्क, इतना-सा ही है शायद, की इस जिम्मेदार कहे जाने वाले वर्ग ने अपने समाज के लोगों को व्यस्त कहाँ किया हुआ है? कैसे कामों में लगाया हुआ है? और दिखावे और हकीकत में फर्क कितना है? 

इन्द्रियों का ज्ञान -- उपयोग और दुरूपयोग

इन्द्रियों का ज्ञान -- उपयोग और दुरूपयोग 

(Mind Programming and Nervous System-- मानव रोबोट बनाना और उसमें तंत्रिका तंत्र की भुमिका। अलग-अलग तकनिकों का प्रयोग कर उसके क्या उपयोग और दुरूपयोग हो सकते हैं? या हो रहे हैं? 

Mind Programming and Editing -- Brainwash 

मानव रोबोट बनाने में इनका प्रयोग या दुरूपयोग कैसे होता है? 

Interactive and Immersive World

प्रस्तुति पे निर्भर करता है (Presentation Matters) की आपको क्या समझ आता है और क्या हकीकत होती है। बहुत बार जो दिखता या सुनता है, वो होता नहीं, और जो होता है, वो दिखता नहीं। दुनियाँ में तकनिकों का विकास और प्रयोग जिस तरह से हो रहा है, उनके बुरे प्रभावों पे नकेल उतनी तेजी से विकसित नहीं हो रही।  

संवादत्मक (Interactive) या एक ऐसा संवाद या इस तरह से एक-दूसरे से मिलना या विचारों का आदान-प्रदान करना, की वो आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हों। ऐसा संवाद या ऐसे संवाद का प्रभाव इंसानों पर जीव भी करते हैं और निर्जीव भी। 

आपका सामने वाले के साथ रिस्ता कैसा है ? ये इस बात पर निर्भर करता है की आप सामने वाले को अनुभव कैसा करवाते हो।  

अच्छे से पेश आते हो या बुरे से ? 

चीज़ों या तथ्योँ को छिपाते हो या साफ और सीधे इंसान हो ? 

सामने वाले का भला चाहते हो या अंदर ही अंदर काले हो, घात या द्वेष रखते हो ? 

सामने वाले के नजरिए की कद्र करते हो या अपना नजरिया थोपने में विश्वास रखते हो ? 

आगे बढ़ने और बढ़ाने की बातें करते हों। या खुद भी उलझ-पलझ हो और सामने वाले को भी उलझाकर रखते हो या रखना चाहते हो ?  

किसी के भी पास जो होता है, वो ज्यादातर वही बाँटता है। जैसे बच्चा बचपन, बुजुर्ग अनुभव, वयस्क आगे बढ़ने और जोखिम ले पाने की ऊर्जा और क्षमता। वैसे ही, आपका वातावरण भी आपको बहुत कुछ बाँटता है। हमारे चारों तरफ वो दुनियाँ जिससे हम घिरे रहते हैं, असलियत में (Real World), हमें कैसे प्रभावित करती है?   

अगर आप एक अच्छे घर या कॉलोनी में रहते हैं, तो साफ़-सफाई, स्वच्छता और शायद दान, ज्ञान जैसा कुछ बांटते हों? अब जरूरी नहीं की हर इंसान वहाँ एक जैसा हो। तो इंसान-इंसान पे निर्भर करता है। ये तो हुई जीव की बात। 

निर्जीव क्या बांटेंगे यहाँ? सफाई, स्वच्छता, शुद्ध हवा, पानी, हरियाली, हर इंसान या कहना चाहिए जीव के लिए, अच्छा-खासा रहने, फलने-फूलने और आगे बढ़ने का वातावरण। वहाँ इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि वहाँ रहने वाले ज्यादातर जीवोँ के लिए ऐसा वातावरण मिलेगा। वहाँ घर से बाहर आवाज़ें भी कम ही आती हैं और हाथापाई तो शायद ही कभी देखने को मिले। बोलने में भी ज्यादातर शालीनता मिलेगी। इनके बीच में भी कितनी ही तरह के संसार हो सकते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो इसका मतलब, वो घर या कॉलोनी उतनी अच्छी नहीं है। 

इसके विपरित किसी घर या कॉलोनी में चलें? जहाँ मुश्किल से सर छुपाने को छत हों। साफ पीने के पानी तक की सुविधा न हो। बिजली भी कम आती हो। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे या मात्र डिग्रीधारी लोग रहते हों। मतलब डिग्री जैसे-तैसे प्राप्त तो कर ली हों, मगर उनका उपयोग न आता हो। साफ़-सफाई भी कम रहती हो। मतलब संसांधनों की या तो कमी या जैसे-तैसे काम चल रहा हो। वहाँ संघर्ष ज्यादा होंगे और फलने फूलने या आगे बढ़ने के सन्साधन कम। ऐसा वातावरण क्या बांटेगा? बिमारियां, अंधविश्वास, जीने के लिए संसाधनों के लिए लड़ाई-झगडे आदि। ऐसा नहीं है की लड़ाई-झगडे पॉश कॉलोनी या समृद्ध घरों या देशों में नहीं होते। मगर वो वर्चस्व के लिए होते हैं। जिदंगी को थोड़ा और ढंग से जीने के लिए नहीं।     

ये तो हुई उस वातावरण की बात, जो हम असलियत में महसुस करते हैं या जहाँ रहते हैं (Real World)। उनमें इंसान, जीवजंतु और निर्जीव संसांधन जैसे घर, स्कूल, ऑफिस, परिवहन, रोड़, पानी, कचरा के बंदोबस्त जैसी कितनी ही सुविधाएँ भी शामिल हैं। आप जिस किसी वातावरण में हैं उसे असलियत में सिर्फ महसुस नहीं करते, बल्कि जीते भी हैं और झेलते भी हैं।  

उसके बाद आता है वो संसार, जहाँ आप हैं भी और नहीं भी -- आभासी दुनियां (Virtual World) । महसूस करते भी हैं, मगर ऐसा होता दिखता भी कम है। उस महसुस करने में अलग-अलग इन्द्रियों का अलग-अलग प्रभाव है। 

यहाँ देखना-सुनना अहम् है। 

इस संसार में क्या आप एक दुसरे को छु सकते हैं ? 

या कोई गंध मह्सूस कर सकते हैं ? 

या चख़ कर मीठा-कड़वा, फीका या तीखा आदि का ज्ञान करवा सकते हैं ?

या -- 

इन सब इन्द्रियों के ज्ञान से बने मिश्रण को किसी खतरे या फायदे के लिए उपयोग या दुरूपयोग कर सकते हैं ?

अगर हाँ तो कितना ? 

और आपके आसपास ऐसे-ऐसे, कौन से तकनीकोँ वाले उपकरण हैं, जो ये सब करने में मदद करते हैं ?

ज्यादातर आम-आदमी को आज भी ये सब नहीं मालुम। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, इन सबका प्रयोग या ज्यादातर दुरूपयोग, अपना उत्पाद बेचने में करती हैं। मगर वो कैसे लुभाती हैं ? और उसके परिणाम या कहना चाहिए दुष्परिणाम या नुकसान क्या हैं ? आम आदमी को वो सिर्फ फायदे गिनाती हैं, नुकसान नहीं। जबकि नुकसान ज्यादातर ज्यादा बुरे और कभी-कभी तो घातक भी होते हैं। इस संसार को आभासी दुनियाँ (Virtual World) कहते हैं। 

इस आभासी दुनियाँ में अगर कुछ और तकनिकों के ज्ञान के तड़के लगा दें, तो ये आम-आदमी को रोबोट बना देती है। वो भी आम-आदमी की जानकारी के बिना। ईजाजत लेना तो बहुत दूर की बात है। उसपे, आम-आदमी को लगता है, की वो सब खुद ही कर रहा है। उसे नहीं मालुम की उसे रोबोट बनाया जा चुका है और वो सिर्फ वो कर रहा है, जो उससे करवाया जा रहा है। आम-आदमी उसके दुष्परिणाम बहुत जगह झेलता है। 

 Interactive and Immersive World (आग का दरिया है और डुब के जाना है?) 

इस आग के दरिया में ज्यादातर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ या राजनीतिक पार्टियाँ घी डालने का काम करती हैं, अपनी-अपनी सहुलियत के अनुसार। समझो एक समंदर में आपको धकेल दिया है। अब आप उस समंदर में जीवित भी रह पाते हैं या नहीं, ये किसपे निर्भर करेगा? सिर्फ जीवित रह पाने के संघर्ष में लगे हैं या ज़िन्दगी ढंग से भी चला पा रहे हैं? ये कौन-कौन सी चीज़ों पे निर्भर करेगा? उसके लिए आपको कौन-कौन से संसधानों की जरूरत होगी?  

जैसे समुन्दर में पानी में हैं तो उसके बाहर जहाँ हम रहते हैं, वहाँ पानी की बजाय हवा होती है। हम साँस लेते हैं मगर हमें पता नहीं होता की हम उसकी वजह से ज़िंदा है। उसका शुद्ध होना कितना जरूरी है। और अगर वो शुद्ध न हो तो कैसी-कैसी समस्याएँ आ सकती हैं?

Interactive मतलब आपके चारों तरफ क्या है जिसके संपर्क में आप आते हैं या रहते हैं। जो किसी भी तरह से आपको प्रभावित करता है। जीव और निर्जीव। जी हाँ !निर्जीव भी अहम् हैं और प्रभाव डालते हैं। 

Immersive जिससे बाहर कुछ दिखाई ही न दे। एक तरह का ऐसा वातावरण जो आपको घेर कर रखता है और जिसमें आपकी आगे बढ़ने की क्षमता वैसे ही निर्भर करती है, जैसे किसी शिशु का एमनियोटिक फ्लूइड (Amniotic Fluid)। एक तरह से संगत भी और उससे थोड़ा आगे बढ़के जैसे ध्यान लगाना। या शायद भुलावा भी, छलावा भी, और एक तरह का जादु भी। कुछ के लिए भक्ति या शायद भगवान भी। और भी कैसे कैसे प्रभावित करता है ये immersion? इस सबके पीछे कौन-कौन सी तकनीकें हैं या विज्ञान है?      

आम आदमी इस immersive और interactive वातावरण के प्रभाव में रहता है। जिसको उससे पुछे बिना, बताए बिना बदला भी जा सकता है और कितनी ही तरह के हेरफेर भी किए जा सकते हैं। अब वो उन सबके प्रभावों या खासकर दुस्प्र्भावों से कितना बच पाता है और कितना नहीं ? ये इन तकनीकोँ के ज्ञान और उसके प्रभावों से बच पाने की समझ पर निर्भर करता है। 

आप सोचिये इस वर्चुअल वर्ल्ड (Virtual World) और उससे जुडी अलग-अलग तरह की तकनीकों में प्रयोग या दुरूपयोग होने वाले, अपने आसपास के उपकरणों के बारे में। और आपकी ज़िंदगी पर उनके प्रभावों के बारे में। आते हैं इस दुनियाँ पर भी, आगे किसी पोस्ट में। 

Monday, September 18, 2023

जानकारी अहम है, मानव-रोबोट बनाने के लिए।

किसी को कहीं बुलाने के लिए। किसी को किसी से मिलाने के लिए। किसी को कहीं से भगाने के लिए। किसी को कहीं उगाने के लिए। किसी उगे हुए को उजाड़ने के लिए। दिखेगा ऐसे, जैसे वो जीव (इंसान भी) ऐसा खुद कर रहे हों। मगर हकीकत, गुप्त तरीके से की गई Programming और Processing (Invisibly Directed Show) भी हो सकती है। 

अगर आपको किसी जगह के सिस्टम के बारे में जानकारी चाहिए, तो वहाँ के पेड़-पौधों, पक्षियों-जानवरों को पढ़ना शुरू कर दिजिए, मिल जायेगी। जीव विज्ञान (Biology) या इससे जुड़े लोगों के लिए समझना शायद आसान हो। आम-आदमी इसे कैसे समझे? क्युँकि इसी में उनकी ज्यादातर समस्याएँ और उनके समाधान भी हैं। 

खेतों को जब नुलाते हैं या पानी देते हैं तो वहाँ कोई खास तरह के तरह के पँछी आते हैं क्या? शायद बगुला, बतख जैसे? क्यों? 

खाली पड़े घरों या हवेलियों में मकड़ी के जाले, चूहों, सांपों के बिल, चमगादड़ रहते  हैं क्या?

शमशान घाटों के आसपास, बड़े ऊँचे पेड़ों या टॉवरों पे गिद्धों के समुह मँडराते हैं क्या?

गर्मी में छत पे या ऊँची दीवारों पे पानी रख दिया तो खास एरिया में कुछ खास तरह के पंछी आने लग जाते हैं क्या?

ज्यादा हरियाली, खुली जगहों और ऊँचे पेड़ों के आसपास मोर दिख जाते हैं क्या?    

हर जीव का एक खास तरह का जीवन साईकल है। जिसमें अहम है, सुरक्षा, खाना-पानी और रहने की जगह। उसके बाद जीवन को आगे बढ़ाने के लिए, अपने जैसे जीवजंतु। ये तो मोटी-मोटी जानकारी है। जो आमजन तक को पता होती है। जिसे बच्चे भी समझ सकते हैं। इस तरह की बारीकियों की जानकारी बहुत कुछ नियंत्रण में कर सकती है। इंसानो को भी। वो भी ज्यादातर इंसानों की जानकारी के बैगर। 

दुनिया का सिस्टम कुछ इस तरह से automation पे है, की बहुत कुछ, इधर-उधर, वहाँ की बड़ी-बड़ी राजनीतिक ताकतें और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ करती हैं। सरकारी या प्राइवेट, सब संसाधनों पे उनका नियंत्रण है। मतलब, काफी हद तक वहाँ के इंसानों पर भी। यही मानव-रोबोट बनाने में अहम भुमिका निभा रहा है।  

जितनी ज्यादा इस सिस्टम की जानकारी होगी, उतना ही ज्यादा आप इस सिस्टम के कब्जे से कुछ हद तक बाहर रह पाएंगे। इसके फायदों को ले पाएंगे और नुकसानों से बच पाएंगे। जितने ज्यादा इससे अज्ञान और अंजान रहेंगे, उतने ही ज्यादा इसके रोबोट बने रहेंगे।  

राजनीती की चलती-फिरती गोटियाँ

कोई इंसान किसी परिवार, खास तरह के तबके या समाज में कितना अहम या फालतु हो सकता है? आपकी अपनी भुमिका वहाँ क्या है? या क्या बना दी गई है? या प्रस्तुत की जा रही है? इधर के लोगों द्वारा या उधर के लोगों या पार्टी द्वारा? और हकीकत क्या है? 

K Control? 

N Control? 

यहाँ के लोगों को, परिवारों को, उनकी ज़िंदगियों को, उतार-चढ़ाओं को, संघर्षों को, दो तरह की पार्टियाँ नियंत्रित कर रही है। चलो, इन्हें नाम दे देते हैं A पार्टी और B पार्टी। जितनी भी पार्टियाँ हैं, उन्हें इन दोनों में बाँट दो, इधर या उधर। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे INDIA और BJP। या शायद, कुछ एक धड़ों को इनसे अलग रखने की भी जरुरत है?

ये सब पार्टियाँ क्या कर रही हैं?

इन लोगों के लिए काम कर रही है? 

या इन पार्टियों का अपना, अपनी ही तरह का कोई मायावी संसार है? एक ऐसा संसार, जिसे वो इन लोगों पर और इनकी ज़िंदगियों पर थोंप रही हैं? थोंपना भी ऐसे, की लोगबाग अपनी ज़िंदगी न जी कर, इन पार्टियों की घड़ी कहानियाँ और उनके किरदार जी रहे हैं। किरदार भी ऐसे-ऐसे, जो हकीकत के आसपास भी न हों। या अगर थोड़ा बहुत उन किरदारों के आसपास भी हों, तो किन्हीं लोगों का कोई गुजरा भूत हों। भूत भी शायद कोई बहुत अच्छा नहीं। हकीकत वाले उन इंसानों के लिए, उनकी ज़िंदगी में जिसका महत्व किसी खरपतवार से ज्यादा न हो। ये पार्टियाँ, इन लोगों को अपनी गोटी से ज्यादा कुछ समझते ही कहाँ हैं। 

राजनीतिक पार्टियाँ, जिन्हें मालुम है की इंसान के खोल में, भेझे से पैदल या कहो अज्ञान और भोले लोगों को अपने अनुसार चलाना कैसे हैं। उन राजनीतिक पार्टियों को धेला फर्क नहीं पड़ता, की इन लोगों की जरूरतें क्या हैं। क्युंकि वो इन्हें इंसान थोड़े ही समझती हैं। सिर्फ अपनी गोटियाँ समझती हैं। अब अगर आपको तरीके मालुम हैं, उन चलती-फिरती गोटियों को चलाने के, तो कैसे भी चला दो। या और भी बढ़िया, अपनी-अपनी चालों में, ऐसे उलझा दो, जैसे मारने वाले खुंखार सांडों के बीच झाड़। या शायद चक्की के दो पाटों के बीच पीसने के लिए दाने। 

इस घटिया और घिनौनी राजनीती से परे, इन लोगों की जिंदगी की बुनियादी जरूरतें क्या हैं? वो क्यों पीस रहे हैं इन्हें, अपने राजनीतिक सांडों और इनके रचे मायावी संसार में? कितना मुश्किल है, ऐसी बेहुदा राजनीती के जालों-जंजालों से निकल पाना? और अपनी ज़िंदगी की बुनियादी जरूरतों तक को पुरा कर पाना? सच में इतना मुश्किल है, जितना इन्हें लग रहा है? या इसे मुश्किल, इस राजनीतिक-सर्कस ने बना दिया है?