कहीं पुस्तैनी जमीन जायदाद के झगडे, तो कहीं सरकारी भी हमारे बाप की प्राइवेट लिमिटेड?
नागीन-सपेरा? 100-100 नाग पड़े रहं गल मैं, सामान्तर घड़ाई? जहाँ-जहाँ नाश उठाना हो, वहीं छुपम-छुपाई खेल शुरू हो जाते हैं?
कमजोर वित्तीय स्थिति के लोगों के विवाद हैं ये? ऐसे विवाद, तब ज्यादा होते हैं, जब एक ही घर हो और उसे प्रयोग करने वाले कई। सबके अपने-अपने घर होंगे, तो ऐसे विवाद ही कहाँ से पनपेंगे? बढ़िया है ना, की अपने-अपने घर ढूँढो या बनाओ। इन पुस्तैनी जमीनों के वाद-विवादों से दूर कहीं।
मगर उसके हिसाब से पैसा चाहिए। उसपे जहाँ आप रहना चाहते हैं, उसके हिसाब से पैसा चाहिए। वो तो कमाना पड़ेगा। बगैर, काम-धाम या मेहनत किए तो कुछ नहीं हो सकता। मगर यहाँ पे अजीबोगरीब तरह के किस्से-कहानियाँ हो सकते हैं। जैसे, दो भाई या दो बहन हों। एक मेहनत करके खाए। दूसरे ठगु को पता ही ना हो, वो क्या बला होती है? गलती शायद बहुत ज्यादा उसकी भी ना हो। माहौल, संगत, जो अच्छे भले लोगों को कामचोर और अपाहिज बना देता है। ज्यादातर गरीब इलाकों की या गरीब लोगों की अलग-अलग तरह की अजीबोगरीब सोच। जिसका इलाज सिर्फ और सिर्फ मेहनत है। ये तो हुई पुस्तैनी घरों या जमीनों की बात।
तुम, खास किस्म के महान लोग, कब-कब और कहाँ-कहाँ, कह सकते हो उसे, की मेरे घर से निकल? वो भी पुस्तैनी मकान या जमीन पर बने घर से? ये कहानी भी, किसी एक औरत की नहीं है यहाँ। हर कमजोर औरत की? कमजोर औरत? या शायद कमजोर तबका। फिर वो चाहे औरत हो, या पुरुष?
क्या हो अगर आपको पुस्तैनी चाहिए ही नहीं? आपके पास सरकारी हो और उस मकान के कोई खसम बने बैठे हों?
एक वजह
राजनीती के मकड़जाल और सामान्तर घड़ाईयों की सोच की पैदा की गई सोच है। जिसमें, जिसकी लाठी, उसकी भैंस का महान मंत्र है। सोचो, आप यूनिवर्सिटी में टीचर हों। वहाँ का कर्मचारी होने की वजह से कैंपस घर, आपकी नौकरी की वजह से, बहुत सारी और सुविधाओं की तरह ही, एक सुविधा हो। कुछ अलग से खास नहीं। और आपको किन्हीं ऐसे लोगों से सुनने को मिले, "मेरा घर खाली कर", जिनकी कम से कम योग्यता भी, उस नौकरी के आसपास ना हो? और ना ही वो यूनिवर्सिटी के कर्मचारी, किसी भी स्तर पर। एक बार तो आप यही सोचेंगे, की खिसके हुए बन्दे हैं। या अगर कोई लड़की हो, जो ससुराल से घर आ बैठी हो, तो शायद ज्यादा ही दुखी है, ससुराल वालों से। शायद इसलिए दिमाग खराब हो गया है। थोड़ी मेहनत घर के कामकाज की बजाय, अगर ध्यान पढ़ाई पे दे, तो शायद कुछ भला हो जाए, ऐसे-ऐसे लोगों का भी। क्यूँकि, ऐसा भी नहीं है, की दिमाग या मेहनत की कमी है। मेहनत, घर के वाद-विवादों और कामकाज में व्यस्त है। और दिमाग, मानव रोबोट वाली राजनीतिक सामान्तर घड़ाईयों का मारा। मानव रोबॉट, खुद का दिमाग ही नहीं प्रयोग हो रहा हो, जैसे। मतलब गड़बड़ फिर से माहौल, मीडिया (वही बायो वाला मीडिया), जिसके मकड़जाल में लोगबाग हकीकत और भावनात्मक-भड़काव तक का फर्क नहीं महसूस कर पाएँ। चलती-फिरती गोटियाँ या मानव रोबॉट।
यूनिवर्सिटी के माहौल से निकलने के बाद, आपको वहाँ का माहौल ही, अपने लिए सबसे बड़ा अवरोध नजर आने लगे। आपको लगने लगे की उस माहौल से निकलना भी जरूरी है। क्यूँकि, आप उस नौकरी की वजह से, खुद को मकड़जाल में फँसा हुआ अनुभव करने लगें?
दूसरी साइड/वजह
कहीं से नेक सलाह, वो भी धमकी की तरह जैसे। वो भी फिर किसी ससुराल से घर बैठी हुई लड़की से। कितनी नेक? " तुम्हारे पास और कोई विकल्प नहीं है। ये नौकरी या भारत से बाहर।" ये नौकरी का मतलब है, यहाँ-वहाँ, कोरे पन्नो पे दस्तखत। जो पहले ही बहुत नहीं हो चुका? वही साइको तमाशा। और सोचो, ये सब हमारे महान सुप्रीम कोर्ट और सरकार की देखरेख में हो? बाकी पार्टियाँ भी पार्टी हों, ऐसे-ऐसे समझौतों में? बहुत से प्रश्न खनकने लगते हैं, ये सब जानकर या सोच समझकर।
कमजोर वित्तीय स्थिति के लोगों के विवाद? या जुआरियों और शिकारियों की वजहें हैं, इन सब विवादों की? क्यूँकि, देश तो हैं ही नहीं। ना ही कोई कानुन। बस जुआ और शिकार? जिसका दाँव चल जाए, जैसे भी, जहाँ कहीं भी। और महान देश के कर्ता-धर्ता कहें, इस जुए से बाहर कोई दुनियाँ ही नहीं है। मतलब, समस्या ही समाधान है? या समाधान भी समस्या?
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