हम मशीनी युग में हैं। मशीनों को अपनी सेवा में लगाने के लिए, इंसान दिन-प्रतिदिन, नए-नए अविष्कार कर रहा है। अब ज्यादातर ये अविष्कार, कम पढ़ा-लिखा आम-आदमी तो करता नहीं, क्यूँकि उसके पास सोच इतनी विकसित नहीं है। वो छवि में या अपनी रोजी-रोटी में ही उलझा रहता है।
ज्यादातर ये भी नहीं सोच पाते, की छवि का मतलब क्या है? क्या मायने हैं उसके? भावनात्मक भड़क, से ज्यादा कुछ नहीं? क्यूंकि, अगर सही में जाने की छवि, इमेज या किसी का चरित्र क्या है, तो मापदंड तो पता होने चाहिएँ, उसे जाँचने के लिए। आदमी की जिंदगी से बड़ा क्या है? बड़े-बड़े लोग, बड़ी-बड़ी कुर्सियों पे बैठकर, जिंदगियों से खेलें या क्रुर और निर्दयी लोगों को खेलने दें? तब भी उनकी छवि आम-आदमी के लिए क्या है? साहब? कैसे साहब? आदमखोर जानवर बोलो उन्हें। वो जिन्हें अपनी कुर्सियों के इलावा बच्चे, बुजुर्ग, अपाहिज, लाचार कुछ भी ना दिखे? दूसरी तरफ, कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े हुए लोग, राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर, आदमी रुपी मशीनों को, मानव रोबोट की तरह प्रयोग और दुरूपयोग कर रहे हों। और उस आम-आदमी को उसका पता तक ना हो। बड़े लोग और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ चाहें, की वो सब छुपा हुआ ही रहे। तो छवि, इमेज या चरित्र के मायने क्या हैं, ऐसे संसार में? इंसान, उत्पाद मात्र रह गया, राजनीती और टेक्नोलॉजी के इस मशीनी युग में। जबकी उसी टेक्नोलॉजी और उन मशीनों को सिर्फ कुछ तबके तक सेवा में न रखकर, सभी के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। उनके दुरूपयोग को कम से कम किया जा सकता है।
इसके लिए शायद खुद राजनीती वालों को और उनके साथ या उनके लिए काम करने वाले लोगों को या उनसे अपने काम निकलवाने वाले लोगों को सोचना होगा। अगर मानव-संसाधन का दुरूपयोग की बजाय, उपयोग किया जाए, तो फायदे का सौदा है, राजनीतिक पार्टियों के लिए भी और उस समाज के लिए भी। जबसे मैंने आरक्षण को समझना शुरू किया है, तभी से समझ ये रही है की आरक्षण किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। बल्की, समस्या को सालों-साल, पीढ़ी दर पीढ़ी, ज्यों का त्यों रखना है। इसके बजाय अगर पैदायशी सबको, एक जैसी सुविधाएँ और आगे बढ़ने के मौके प्रदान किए जाएँ, तो बहुत-सी समस्याएँ अपने आप खत्म हो जाएँगी। शिक्षा में सुधार ही उसका ईलाज है। शिक्षा ऐसी हो की बच्चे उसे बोझ ना समझें, बल्की खेल या शौक समझे। मानसिक तनाव अगर एक स्तर से ज्यादा होता है तो फायदा नहीं करता बल्की नुकसान करने लगता है। बहुत ज्यादा होने पर वही बीमारी बन जाता है। बोझ बनने पर बच्चे शिक्षा से भागने लगते हैं और बड़े ज्यादातर झेलते जाते हैं, जब तक खत्म ना हो जाएँ। लोग व्यस्त बहुत ज्यादा दिखते हैं, मगर फायदा उतना होता नहीं। ऐसे ही, जैसे डिग्रीयों की तरह, लोगों के पास रिसर्च पेपरों की भरमार मिलेगी, मगर फायदा किसे? प्रमोशन में कुछ पॉइंट्स की गिनती के इलावा कुछ नहीं।
अगर शिक्षा का मतलब सिर्फ जैसे-तैसे डिग्रीधारी होना है तो ऐसी फौज तो भारत जैसे देशों के लिए, वैसे ही बहुत है। मगर उसका प्रयोग कहाँ है? सिर्फ और सिर्फ दुरुपयोग है। ये काम अनपढ़ वाले राजनीतिक करें, तो समझ आता है की सोच उतनी ही है, जितना उनका ज्ञान का दायरा। मगर, अगर वही काम पढ़े-लिखे नेता लोग करने लगें, वो भी, वो पढ़े-लिखे, जो अपने आपको दुनियाँ की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी से डिग्रीधारी कहें। बड़े-बड़े देशों में रहने और घुमने के अनुभव वाला बताते हों, मगर फिर भी अपनी सोच और काम में वो अनुभव ना दिखाएं या लाएँ तो उनमें और भारत जैसे देशों के येन-केन-प्रकारेण डिग्रीधारियों में फर्क क्या हुआ? मशीनों के इस स्मार्ट युग को ना तो रोकना संभव और ना ही तर्कसंगत। मगर, इनकी बुद्धिमता (बुद्धिमता या छल, कपट, साम, दाम, दंड, भेद?) से उपजी बीमारियों और आम-आदमी पर बढ़ते दुस्प्रभावों पे लगाम लगाना, शायद उतना मुश्किल भी नहीं।
कोई भी नई टेक्नोलॉजी, जब आप समाज में प्रयोग करने के लिए आम आदमी को थमाते हैं तो पहले उसके दुस्प्रभावों के बारे में आम-आदमी को सचेत करना भी जरूरी है। मगर ऐसा नहीं है। इसीलिए, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ, आम आदमी का इतना शोषण करने में समर्थ हैं और वो सब भी, उसकी जानकारी के बगैर। जैसे लैब में जाने की अनुमति से पहले, सतर्कता के पहलुओं को जानना जरूरी होता है, वैसे ही किसी भी टेक्नोलॉजी को समाज के बाजार में लाने से पहले, आम आदमी को उसके दुस्प्रभावों से सचेत करना जरूरी है। क्यूँकि, समाज इन बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपनी खुली प्रयोगशाला बनाया हुआ है। अपना और सिर्फ अपना फायदा, किसी भी कीमत पर, जिंदगियों को खा कर भी। राजनीती और कोर्ट्स की जानकारी के होते हुए, या कहना चाहिए, उनको साथ लेकर? ये वैसे ही है, जैसे लैब में किसी बीमारी की दवाईयां तैयार हों और उनके ट्रायल, आम आदमी पर, वो भी उसकी जानकारी के बिना। ये वैसे ही है, जैसे विकसित देशो का इलेक्ट्रॉनिक कचरा, विकासशील देश भुगतें। अब ये तो इन विकासशील देशों को देखना होगा की वो अपने समाज को कचराघर बनाना चाहते हैं, या विकसित करना। नहीं तो विकसित देशों के लिए, पहले भी ये देश सस्ते मजदूरों के अड्डों से ज्यादा कुछ नहीं थे और आगे भी नहीं होंगे।
तो alteration तो चाहिए, मगर कैसा और कौन से वाला ? और किसमें? आम आदमी में? राजनीतिक पार्टियों में? उनके लड़ने के तरीकों में और खुद नेताओं में? खासकर पढ़े-लिखे नेताओं में? बदलाव चाहिए, आम आदमी की रैलियाँ पीटने वालों या पिटवाने वालों में। आगे बढ़ते हुए लोगों को भी, अर्श से फर्श की तरफ धकेलने वालों में। ना की पीछे रहने वालों को भी, साथ लेकर चलने वालों में।
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