Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Friday, June 30, 2023

दिमाग है तो सब है

दिमाग है तो सब है। दिमाग ही तो सब है। 

दिमाग तो सबके पास है। नहीं? हाँ! लेकिन कौन कितना प्रयोग करता है, ये भी तो है। आप शरीर को स्वस्थ रखने के लिए क्या-क्या करते हैं? खासकर बाहरी शरीर को? रोज नहाते-धोते हैं ? ब्रश करते हैं ? जरूरत पड़ने पे नाखुन भी काटते हैं। कसरत करते हैं ? व्याम करते हैं? टहलते हैं या सुबह-श्याम घुमते-फिरते हैं? तैरते हैं? साइकिल चलाते हैं? योगा करते हैं? ध्यान लगाते हैं? और भी कुछ न कुछ तो करते ही होंगे? इन सबमें ज्यादातर बाहरी सफाई है। कुछ में थोड़ी बहुत अंदर की भी होगी शायद?

दिमाग के लिए क्या करते हैं? इस शरीर और ज़िंदगी को पटरी पे रखने के लिए उसका स्वस्थ होना अहम् है। शायद कुछ खास नहीं? या शायद ध्यान लगाना, जैसा भी, जिस किसी तरह का आपके यहाँ होता है? ज्योत-बत्ती करना? मंदिर जाना, भगवान का नाम लेना? भजन या भक्ति-संगीत सुनना? कभी आपने सोचा की वो सब आप क्यों कर रहे हैं? क्या मिलता है उस सबसे? सबसे बड़ी बात, किस तरह का सुन रहे हैं? बाबे, संत-महंत, महाराज तो नहीं पाल रहे? जो न सिर्फ अपनों से दुर करने का काम करते हैं, बल्की संसार से ही मुक्ति दिलाने की तरफ बढ़ा रहे हों? लगता है बहुत परेशान हैं, अपने आसपास से? या अपने जीवन से? ऐसे-ऐसे बाबे तभी सुहाते हैं। या शायद जबरदस्ती भी थोंपे जा सकते हैं? हालात इतने बुरे न हों मगर बनाने या घड़ने की कोशिशें जरूर हों। मगर कौन चाहेगा किसी का बुरा? और क्यों? सोचिए?

इनसे बचने के लिए दिमाग को तंदरुस्त रखना जरूरी है। वो काम, सिर्फ ज्योतबत्ती, ध्यान, भजन-संगीत, पूजापाठ या मंदिर जाने से नहीं हो सकता। दिमाग को समझने से हो सकता है शायद। इसकी मरमत या रख-रखाव कैसे होगा, उसे जानने से हो सकता है।   

मानो दिमाग कम्प्युटर का एक हिस्सा है। कम्प्युटर मानव शरीर है। इसमें कुछ फाइल्स बना के डाल दी गयी हैं। वो कम्प्युटर क्या-क्या कर सकता है, ये इस पर निर्भर करता है की उन फाइल्स में क्या-क्या है। जिन्हें वो फाइल्स पढ़नी या समझनी आती हैं वो उस कम्प्युटर का जानकार है। उन फाइल्स में बदलाव करके उस कम्प्युटर को अपने अनुसार प्रभावित कर सकता है या चला सकता है। दुर बैठा भी, ऐसे -- जैसे उसके सामने बैठा हो। जिसके पास कम्प्युटर हो, हो सकता है उसे उस कम्प्युटर की उतनी जानकारी न भी हो। मगर वो दुर बैठा computer expert वो सब कर सकता है जो आप नहीं कर सकते। कैसे ? जिन्हें कम्प्युटर का थोड़ा बहुत ज्ञान है वो तो समझ गया। जिसे नहीं है उनके लिए कुछ उदाहरण लेने पड़ेंगे। हम सबके आसपास ऐसे-ऐसे कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे। आते हैं इस विषय पर अगली पोस्ट में।            

सामाजिक घड़ाई और तंत्रिका-तंत्र

सामाजिक घड़ाई और तंत्रिका-तंत्र (Social Programming or Engineering and Nervous System)   

किसी भी ईमारत के जैसे मूलभूत अंग होते हैं वैसे ही समाज की कुछ अहम् कड़ियाँ। 

किसी भी शरीर के जैसे कुछ अहम् हिस्से होते हैं। जैसे रीढ़ की हड्डी, जो शरीर को सीधा खड़ा रखती है। दिमाग, जो हर हिस्से को, हर अंग को, जीवन के अलग-अलग वक़्त की जरूरतों के हिसाब से काम करता है। 

तंत्रिका-तंत्र (Nervous System), जो बाहरी संदेश, सुरक्षा या खतरा, शरीर के लिए अच्छा या बुरा भाँपता है और दिमाग तक संदेश पहुँचाता है। दिमाग, जिसपे झट से वापस प्रतिकिर्या देता है। जैसे आपका हाथ जलते तवे पे लगा और तंत्रिका-तंत्र ने तवचा के अंदर भी सन्देश लेकर दिमाग तक पहुँचाया और दिमाग ने तुरंत खबरदार किया। सेकेंड्स के कुछ हिस्सों में ही आपने हाथ तवे से हटा दिया। इतना झटपट निर्णय? वो भी अपने आप? ये तंत्र का अपने आप काम करना है। जिसे आप automation कह सकते हैं। यही तांत्रिक विद्या का अहम् हिस्सा है। जादु जैसा ही तो है। नहीं? मगर है विज्ञान। एक बच्चे को भी पता होता है की यहाँ खतरा है और पीछे हटना है। आगे बढ़ोगे तो नुकसान है। 

इस तंत्र का ज्ञान किसे होगा? जिसने दिमाग और तंत्रिका-तंत्र (Nervous System) पढ़ा हुआ है। जिसका जितना ज्यादा इस दिमाग और तंत्रिका तंत्र का ज्ञान होगा, उतना ही ज्यादा इसके ज्ञान के प्रयोग से जादु करने की विद्या। क्युंकि जादु का मतलब होता है चाल चलना (Trick)। इसे आप छलावा भी कह सकते हैं। चौसर पे चाल चलना भी कह सकते हैं। राजे-महाराजाओं या उनके विद्वान योद्धाओं के लिए तो ये बच्चे को बहलाना फुसलाना जैसा-सा है। वो जो युद्ध लड़ रहे होते हैं या कहना चाहिए की राजनीति खेल रहे होते हैं उसमें आपको, आमजन को आपकी खबर के बिना भी अपनी-अपनी सेनाओं का हिस्सा बना लेते हैं। और आप अपने ही या अपनों के खिलाफ तक काम कर रहे होते हैं मगर आपको उसकी खबर ही नहीं होती। उल्टा ज्यादातर आपको लगता है की आप तो भला कर रहे हैं। कैसे? जानते हैं आगे पोस्ट्स में। कितने ही उदाहरण आपके आसपास बिखरे पड़े हैं।              

Tuesday, June 27, 2023

तकनीकी संसार (दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)

 तकनीकी संसार, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (Delhi & NCR)

अगर हमें दुनियाँ को समझना है, तो उसे समझना अपने आसपास से ही शुरू करना चाहिए। वो सारा ज्ञान आपको आसपास के पर्यटन स्थलों में, उनके आसपास की इमारतों में, और उन सबमें छिपे गूढ़ (गुप्त) ज्ञान में मिलेगा। अगर आप दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या इसके आसपास हैं तो इतना कुछ इस क्षेत्र में और इसके आसपास है, जो शायद पास होते हुए आपने न देखा हो। अगर देखा भी हो तो शायद वैसे न समझा हो, जैसे वो अपने साथ लिए रहस्यों में है। रोहतक से ही शुरू करें?

एक छोटा सा शहर, हालाँकि जनसँख्या और आसपास के इलाकों को मिलाकर बना रोहतक, इतना छोटा भी नहीं। इतिहास के हिसाब से पुराने वक़्त से ही काफी कुछ समेटे हुए है, अपने आप में। चलो उस इतिहास में कुछ नया देखते हैं। वो नया, वैसे तो यहाँ की यूनिवर्सिटीज में, अपने-आप में काफी कुछ समाये हुए है, मगर उस तरह से नहीं जिस तरह से आम पर्यटक किसी भी पर्यटन स्थल को देखता है। तो चलो यहाँ के एक पर्यटक स्थल पे ही चलते हैं। और देखते हैं की आम पर्यटक उसे कैसे देखता है? 

तिलयार झील, रोहतक (Laser Light Show)

सोचिये, महर्षि दयांनंद यूनिवर्सिटी या स्वास्थ्य विज्ञान यूनिवर्सिटी, रोहतक से इसका क्या लेना-देना हो सकता है? मैंने ये Light-show पहली बार 2010 में सिंगापुर के सेंटोसा आइलैंड पर देखा था। तबसे अबतक काफी कुछ बदल चुका है। लगता है, एक बार फिर से देखना चाहिए।   


Songs of The Sea 


तिलयार का ये show उस वक़्त के MP Deepender Hooda का रोहतक को तोहफा है शायद? 
चलता भी है ये? या सफेद हाथी हो चुका? 


अपने बच्चों को जहाँ कहीं भी घुमाने ले जाएँ, सिर्फ पुरानी इमारतें न दिखाएं। थोड़ा बहुत उनके पीछे छिपे ज्ञान-विज्ञान से भी अवगत कराएं।  नहीं तो वो भूत-प्रेतों या माता निकल आई, जैसे भरमों और अन्धविश्वाशों में ही उलझे रहेंगे। 

अगर आप किसी भी तरह की आस्था रखते हैं या भगवान को मानते हैं, तो भी, अंधविस्वासों  से बाहर निकल कर, तकनीकों से रचे गए जालों और उनके आमजन पर प्रभावों को जानने के लिए, नए युग के धार्मिक स्थानों की सैर करें। ये धार्मिक स्थल, न सिर्फ वक़्त के साथ ताल मिलाते नज़र आते हैं, बल्की भव्य हैं और साफ़ सुथरे भी। चारों तरफ विज्ञान से औत-प्रोत, पुराने मंदिर-मस्जिदों से, अलग तरह की कहानियाँ गाते हुए।  

दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या इसके आसपास ही ऐसे कई पर्यटन स्थल हैं। खासकर जो पिछले एक-दो दशक में ही बने हैं। कौन-कौन से ध्यान आ रहे हैं आपको? जानते हैं आगे की किसी और पोस्ट में।  

Sunday, June 25, 2023

मेरा वश चले तो

 मेरा वश चले तो 

हर मंदिर-मस्जिद,

गिरजाघर-गुरूद्वारे की जगह, 

हर हुक्का बैठक, 

और शराब के ठेके की जगह, 

एक पुस्तकालय बना दूँ 

और रख दूँ वहाँ 

वो सब किताबें, वो सब ज्ञान 

जो आम-आदमी को बनाये 

मस्तिष्क से करे बलवान  

सिर्फ भर्म से नहीं।  


मेरा वश चले तो 

हर खाली पड़े मकान, दुकान, 

सरकारी या गैर-सरकारी संस्थान में, 

एक पुस्तकालय बना दूँ  

जहाँ सिर्फ किताबें ही न हों 

बल्कि नयी-नयी तकनीकों का 

सुलभ हो जाए, आमजन को ज्ञान। 


मेरा वश चले तो 

हर खाली पड़े प्लॉट, जमीन-जायदाद को- 

बदल दूँ, एक उद्यान में, बाग़ान में, 

जहाँ हरियाली हो, शुद्ध हवा हो 

खुला-खुला सा, आसमां हो  

कंक्रीट जालों से बाहर, आमजन को साँस मिले 

चहल-पहल रहे जहाँ पक्षियोँ की 

टहल-कदमी बच्चों की, बुज़र्गों की, युवाओं की। 


मेरा वश मतलब, आप-सबका, आमजन का वश है। 

आपका आसपास कैसा हो, ये आपके अधीन है 

सरकारों का इन सबसे लेना देना, सिर्फ खाने-पीने 

या आमजन को निचोड़ने तक ही होता है शायद। 

Immersive Tech (ध्यान-मग्न तकनीक)

ध्यान-मग्न (Immersive Tech) हो जाना। 

ऐसे ही कुछ और शब्द 

Hypnotic सम्मोहन शक्ति 

Alluring, Bewitching आकर्षक, मोहक  

Mesmerizing, Juggling, Casting Spell   मंत्रमुग्ध करना, जादू करना।

Talisman, Amulet Energy/Magic तावीज, ताबीज़ ऊर्जा या जादु 

Totem प्रतीक या चिन्ह 

Immersive Technology के जादू हैं ये। 


योगा या उपासना करना? प्रभु का नाम लेना? और भी कितने ही ऐसे नाम दे सकते हैं, इन तकनीकों के संसार को? उनका, आपकी संस्कृति से क्या लेना-देना है ?   

एक ऐसे संसार में पहुँच जाना, जो हकीकत के थोड़ा दूर हो, थोड़ा मुश्किल लगे जहाँ असलियत में जाना।  मगर फिर भी संभव हो। क्या-क्या तरीके हो सकते हैं, ऐसे संसार में पहुँचने के?   

सपनो की दुनिया ?

आ चलके तुझे मैं लेके चलूँ ?

डूब के जाना है और आग का दरिया है ?

लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा ?

आओ भगवानों और उनकी दुनियाँ के दर्शन करें --


भगवान क्या करता है? 

सुख-शान्ती, धन-दौलत देता है? दुखों से दुर रखता है या दुखों को दूर करता है?  या सिर्फ़ भर्म? जब कोई और सहारा नहीं दिखता, तो इंसान उसे खोजने लगता है, जो सहारा बन सके? शायद कुछ-कुछ ऐसा ही?   

Virtual Reality (VR) 

Augmented Reality (AR)

Mixed Reality (MR)

   


शिक्षा, स्वास्थय, घर, ऑफिस, परिवहन, खेलकूद, मनोरंजन, बाज़ार, खेती, राजनीति, रिस्ते-नाते, न्यायपालिका या कोई और नाम लो और पता चलेगा की कुछ भी इससे अछुता नहीं है। हर जगह, इन तकनीकों का प्रभाव है। हर किसी और चीज़ की तरह, इनके भी अच्छे और बुरे दोनों पहलु हैं। जानते हैं, आने वाली पोस्ट्स में एक-एक करके उन अच्छे और बुरे पहलुओं के बारे में। आपके अपने आसपास घटित कुछ चमत्कारों (?) या दुर्घटनाओं के उदाहरणों के साथ। शायद आपको समझ आ सके की कौन, कैसे-कैसे और क्यों, आपको मानव रोबोट्स की तरह प्रयोग कर रहा है?  

ये वो दुनियाँ है, जिसमें काला-जादु, धोला-जादु, हरा-जादु, लाल-जादु, नीला-जादु, पीला-जादु और भी न जाने, कैसे-कैसे जादु संभव हैं। ये तकनीकें मिलजुलकर, आपके मन-मस्तिक को अपने कब्जे में लेती हैं। एक तरह की Mind Programming करती हैं। क्युँकि, इंसान जो कुछ भी करता है, वो उसका दिमाग करवाता है। अब दिमाग में क्या है? क्यों है? कहाँ से आया है या यूँ कहो की कहाँ-कहाँ से लाया गया है? और कैसे-कैसे डाला गया है, आपके दिमाग में ?
अगर इतना-सा समझ आ गया तो ये भी समझ आने लगेगा, की आदमी को राक्षस और राक्षस को आदमी बनाना कितना मुश्किल या आसान काम है ? और हम जिस सिस्टम का हिस्सा हैं, वो सिस्टम हमारे साथ क्या-क्या कर रहा है? वो भी हमें अँधेरे में रखकर या धोखे से बेवकूफ बनाकर या हमें सही-सही जानकारी देकर? 

उस सिस्टम में दुनियाँ की बड़ी-बड़ी कंपनियों का अहम् हिस्सा है, जो सत्ताओं को इधर से उधर पलटने के खेल रचती हैं और खेलती हैं । जो शेयर बाजार को अपने अनुसार ढालने और बदलने के खेलों में अभ्यस्त हैं। मगर, आम-आदमी को वो जितनी तरह से और जितना निचोड़ती हैं, उसका कितना हिस्सा वो उस तक पहुँचाती है? ये किसी भी समाज की गरीब और अमीर के बीच की खाई के अंतर को समझ के समझा जा सकता है। 

Wednesday, June 21, 2023

Book Donation Boxes

Interesting children libraries 

https://worldmazical.blogspot.com/2019/01/cool-kiddos-libraries.html

to 

Book donation boxes outside homes or maybe schools, colleges, universities or maybe at some other places of your likes? Have you seen any such book donation box somewhere nearby you? I came across this interesting video on book donation..


Some kidlu's small boxes or little library ideas:

Monkey Book Box




(All pictures are taken from internet)

In case you have some such idea, then what types of books you will place there? 

Tuesday, June 20, 2023

राजनीतिक रंगमंच और किसान आंदोलन?

पहले भी लिख चुकी की मेरी समझ राजनीति की बहुत ज्यादा नहीं है। हाँ। थोड़ा बहुत समझने की कोशिश जरूर है। खासकर, इस उत्सुकता से की राजनीति, सिस्टम और सामानांतर केसों का आपस में जुगाड़ या आम आदमी पर प्रभाव क्या है? 

राजनीति के रंगमंच पे पधारते हैं। हरियाणा और किसान? चलो उसके साथ लगाते हैं, आंदोलन। हो गया, राजनीतिक रंगमंच? अब अगर किसान का नाम है, तो शायद चौटाला पार्टी का भी जिक्र कहीं न कहीं तो होगा ही? पुरानी राजनीति के नेतालोग, पढ़े-लिखों को शायद कम ही पसंद आते हैं। तो नई पीढ़ी पे आते हैं ना। पुराने राजनेताओं की नई पीढ़ियां ज्यादातर बाहर पढ़ी-लिखी हैं। अपने बाप-दादाओं की विरासत लिए हुए हैं। पुराने से आगे कुछ नया है उनमें? पता नहीं, मगर पीछे कुछ सोशल पोस्ट पढ़के तो शायद ऐसा लगा। 

"शांत दिमाग, मीठी जुबान, आगे बढ़ते कदम,  ........ "   -- कितना सच, कितना झूठ? ये आम जनता पे छोड़ते हैं। मगर कोई भी लठमार पार्टी शायद आज के वक़्त चल पानी मुश्किल है। हाँ ! खतरे कभी-कभी मीठी जुबान के लठ से भी ज्यादा घातक हो सकते हैं।      

 किसान आंदोलन -- 

8, 9 का कोई खेल है क्या ये? 

लव-जिहादों से आगे बढ़के, 

ज़मीन-जिहादों की दासताएँ जैसे?   

हरी-भरी जमीनों को उजाड़के 

रेगिस्तानों में बदलना जैसे? 

या रेगिस्तानों को बना देना हरा-भरा जैसे?  

घरों को बेघर और बेघरों को बसाना जैसा?

जाने क्यों Personal और Home Loan याद आ गया ;) 

आप भी सोच रहे होंगे की ये किसान आंदोलन और समांनातर केस गाते-गाते कहाँ पहुँच गए? 

Frankly Speaking with Dushyant Chautala 

Navika Kumar  on TNNB 


ये मंडी, ये गेहूं 

ये सुरजमुखी, ये MSP 

ये कुरुक्षेत्र, ये महाभारत 

ये बाजरा, ये सरसों 

ये राज के Trans -- 

और माइक्रोसॉफ्ट वाले चांस?   

बहुत पहले कहा था शायद, की नेताओं पे लिखुंगी (किन्हीं suggestions पे)। मगर पहले थोड़ा समझ तो लुं की ये बला क्या हैं? अरविंद केजरीवाल पे लिख चुकी। वो थोड़ा आसान था शायद, क्युंकि अन्ना आंदोलन के वक़्त से पढ़ रही थी। 

ये हो गया BJP की सहयोगी JJP पे। अब दो बड़ी पार्टियाँ बच गई। आते हैं उनपे भी, किन्ही और पोस्ट्स में। और भी बहुत हैं, पर कहा ना, अभी रजनीति की समझ बहुत कम है।     

राजनीतिक रंगमंच और किसान-रोबोट्स ?

सोचो आपकी जिंदगी ठीक-ठाक चल रही हो। बीवी हो, बच्चा हो, घर हो, और गुजारे लायक संसाधन भी। और क्या चाहिए? और धीरे-धीरे या शायद अचानक से जिंदगी, जैसे कोई धोखा दे जाए? आपको लगे की जिंदगी के उसी मोड़ पे पहुँच गए, जहाँ सालों पहले थे? या शायद उससे भी थोड़े बुरे या भले पे? फिर से कोई शुरुआत करना? कितना आसान और कितना मुश्किल?   

आपको लगने लगे --  

भाड़ में गया लगने लगे। हकीकत जानने की कोशिश करो, तो शायद बेहतर रस्ते नज़र आएं। जहाँ फिर से लोगों की कटपुतली बनने की बजाय, कम से कम, थोड़ा-बहुत तो अपने दिमाग से चलो। 

किसान-रोबोट्स

खेती करनी है? किसने बोला? कोई रस्ता ही नजर नहीं आ रहा? जो दिखाना चाहता है, वहां शायद देखना नहीं चाहते? क्यों? बस बड़ा-सा जाल यही है। यही वो जाल है, जिससे बचने की जरुरत है। सोचो, खेती से अगर गुजारा नहीं है, तो ऐसे लोग क्यों उलझाए रखते हैं, बेरोजगारों को खेती के झांसे में? या बेहतर तरीके क्यों नहीं बताते? आप कहेंगे की बताता कौन है? कोई रस्ता नहीं होता, शायद तब करते हैं। हकीकत इसके विपरीत है। बेरोजगारों को यहाँ जो रस्ते दिखाए जाते हैं, वो पार्टियों द्वारा अपने कुत्ते पालने जैसा होता है, बस। ये तक पार्टी निर्णय करती हैं की कौन खेती करेगा (दुसरे काम धंधों पे भी लागु है) और कौन नहीं। क्या उगायेगा, क्या नहीं। मजदुर कहाँ से आएंगे, कब मिलेंगे और कब नहीं। कौन-कौन से खेती के व्हीकल्स या औज़ार खरीदेगा और कौन से नहीं! शायद आप सोच रहे हों की ऐसा कैसे संभव है? ऐसा हो रहा है या कहना चाहिए किया जा रहा है। तभी तो मानव रोबोट्स बोला है। 

ऊपर लिखे ज्यादातर वो उदहारण हैं जिन्हें मैं यूनिवर्सिटी कैंपस के घर पे जाँच-परख चुकी। यहाँ तो बस देखना-पढ़ना भर काफी था, उसी वयवस्था को आगे समझने के लिए। किस दिन, किस नाम का मजदुर मिलेगा। कहाँ पे मिलेगा और कहाँ नहीं। D Park या Labour Chauk?  उसका नाम क्या होगा? वो कहाँ से होगा? यहाँ कहाँ रह रहा होगा? कितने पैसे माँगेगा। आपके घर में क्या-क्या लगा है? क्या-क्या बदलने की कोशिश होगी? या खत्म करने की या टिका रहने देने की । छोटे-मोटे गार्डनिंग के औज़ार क्या हैं? वो भी गुम जाएंगे? या बदल दिए जाएंगे या रहने दिए जाएंगे? 

ये बागबानी (Gardening) या खेती (Farming) तक ही सीमित नहीं है। बल्की चपड़ासी, सिपाही, मजदूर से लेकर प्रधानमंत्री तक ऐसा ही है। किसी भी राजनीतिक सतरंज या रंगमंच को समझने के लिए और उसके बारे में अपनी या किसी भी जगह की जानकारी प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है, ये जानना की वहां कौन-कौन हैं और कौन-कौन से पद पे हैं। नाम क्या हैं, कहाँ से हैं वैगरह-वैगरह। आज के वक़्त में काफी जानकारी सरकारी Websites पर भी मिल जायेगी।  

सोचो, अगर इतना कुछ सतरंज की तरह बिछाया हुआ है चारों तरफ, तो सामान्तर केसों को घड़ना कितना आसान या मुश्किल है? ये सब रिश्तों में भी हो तो? हो तो रहा है। जिस घर में या रिश्ते में जितनी ज्यादा फुट, उतना ही आसान है उसे तोडना, मरोड़ना, बदलना या खत्म करना।  और अगर फुट न हो तो फुट डालना भी बहुत मुश्किल नहीं है, खासकर आज के टेक्नोलॉजी के युग में। उसका पहला तरीका होता है दूर कर देना या किसी भी तरह की दूरियाँ पैदा करना। कैसे के तो तरीके बहुत है। अपने आसपास को ही जानने की कोशिश करो। शायद बहुत कुछ समझ आ जाए। इसीलिए शायद इन सबको मानव रोबोट कहना गलत नहीं होगा।   

मानव रोबोट बनते कैसे हैं? जानते हैं, इसे भी किसी अगली पोस्ट में।  जादु ? कोई जादू-वादु नही है।  Surveillance Abuse (निगरानी के तरीकों का गलत प्रयोग) और अलग-अलग विषयों की जानकारी -- खासकर विज्ञान की अहम् है ।   

Saturday, June 17, 2023

राजनीतिक रंगमंच और नशा-शिकार, मानव-रोबोट्स

आपकी हमारी जिंदगी का हर-पल, हर उतार-चढाव राजनीति और इस वयवस्था के इर्द गिर्द घुमता है और ज्यादातर हमारी जानकारी के बैगर।   

जिंदगी के बहुत से अहम् फैसले ऐसा लगता है की हम खुद करते हैं। मगर ज्यादातर को जिस दिन समझ आने लगा की हकीकत इसके विपरित है तो हैरानी किसे नहीं होगी? खासकर, आम-आदमी के केस में। गाँव में आने के बाद, ये सब जैसे मैं हर रोज होते देख रही हूँ। अनुभव कर रही हूँ। इधर, उधर, उधर, जिधर देखो हर उस तरफ। कैसे संभव है ये? और मैंने इन लोगों को मानव-रोबोट्स का नाम देना शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था, जैसे इंसान जैसा कोई दिमाग है ही नहीं, इन लोगों के पास। जैसे कोई कंप्यूटर या रोबोट काम करता है, उसमें भरी हुयी प्रोग्रामिंग के अनुसार, कुछ-कुछ, वैसे ही सब यहाँ होता नजर आ रहा था।   

मेरे लिए भी अजीब नहीं बल्की बहुत अजीब था ये सब देखना, अनुभव करना, जानना। धीरे-धीरे जब जानकार लोगों ने गुप्त-गुफाओं की तरफ इशारे करने शुरू किये तो जैसे अचानक से काफी कुछ समझ आने लगा। जैसे कंप्यूटर की सैटिंग कर दें की उसे कितनी देर बार अपने आप स्क्रीन ऑफ कर देना है या कब कितने मिन्ट्स के बाद फिर से जाग जाना है। कौन सी फोटो स्क्रीन के बैकग्राउंड पे रहेगी और कौन सी login करने के बाद दिखेगी। कब अपने-आप update हो जाना है और कब तक और कैसे हम उसे रोक सकते हैं? और भी कितना कुछ ऑटो पे रख सकते हैं या पहले से ही होता है। क्या-क्या और कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे बदल सकते हैं? खराब होने पे कैसे- कैसे ठीक कर सकते हैं? जैसे कंप्यूटर जैसी मशीन बताती हैं की क्या-क्या automation पे है और कैसे? क्या-क्या semiautomation पे है और कैसे? और क्या-क्या Enforce या Force किया जा सकता है? 

Alcoholic or Drug Addicts Robots 

नशा-शिकार, मानव-रोबोट्स (सबसे आसान तरीका मानव रोबोट बनाने का)

ऐसा ही कुछ देखा और समझा पीछे कुछ alcoholic या ड्रग्स abuse के आसपास के केसों में। इसमें शायद थोड़ा-बहुत लिखने से काम नहीं चलना। कई किताबें छप सकती हैं, ऐसी-ऐसी सामानांतर केसों की घड़ाई के कारनामों की। उन्होंने कैसे और कहाँ से शुरू किया? कैसे इस रस्ते पे आगे बढे और उसके बाद लोग या कहें ये सिस्टम और राजनीति, कैसे-कैसे use और abuse करती है? कैसे ऐसे लोगों की मदद करने की बजाय, अपनों तक को उनके खिलाफ खड़ा कर देती है?   

मानो एक alcoholic है। ज़िंदगी के उस मोड़ पे है, जिसे चाहें जिधर खिसका दें। ऐसी संगति से निकाल लें और कहीं कामधाम पे लगा दें। ये उस खटारा गाड़ी के जैसा है, जो सर्विस और पैसे दोनों माँग रही है। उसके बाद संजय दत्त के जैसे चल सकती है। मगर हर कोई तो संजय दत्त नहीं है। इतना पैसा और इतना जुगाड़ या साधन कहाँ से आएं? आ तो सकते हैं, शायद थोड़े-से प्रयासों की जरुरत है। उसके लिए हमें सरकार की तरफ देखने की जरुरत नहीं है। समाज को अपनी भलाई अगर खुद नहीं करनी आती, तो सरकारें भी तो इसी समाज की देन हैं। वो ऐसी भलाई कैसे करेंगी?

क्या हम संजय दत्त जैसे लोगों, जो ऐसी जिंदगी जी चुके हैं या कहें की उससे निकल बेहतर ज़िन्दगी की तरफ बढ़ चुके हैं, जैसे लोगों को ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा बना सकते हैं? इनमें अगर वो लोग भी जुड़ जाएं जो समाज का और ऐसे लोगों का भला चाहते हैं, तो शायद काफी कुछ हो सकता है। जाने कितने ऐसे पियकड़ जिंदगी जीने से पहले उसे खो देते हैं। घर और आसपास पे मात्र भार बनकर रह जाते हैं, जो खुद समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा हो सकते हैं। 

ठेकों को बंद करवाओ भी उसका एक समाधान हो सकता है क्या? आखिर किसी सरकार को शराब, बीड़ी, पान- जैसे जानलेवा उत्पादों से क्या मिलता है? और जो मिलता है, इतना सारा राजस्व वो कहाँ और किसके काम आता है? हकीकत ये है की समाज की ये बिमारियाँ हैं ही सरकारों की और उनके सहयोगियों की देन। और उन्हीं के भले के लिए हैं। आम-आदमी को इन सबसे दूर रहने की जरुरत है। 

स्वयसेवी संस्थाएं, जो इस दिशा में काम करती हों?

हर छोटे-बड़े अस्पताल का एक हिस्सा deaddiction-सेंटर क्यों न हो? आखिर ये सब हैं तो बीमारियां ही? मगर वो खटारा सरकारी अस्पताल जैसा न हो। या प्राइवेट ठगुओं जैसा। हर किसी के पास इत्ता पैसा कहाँ होता है? बल्की यूँ लगता है, ऐसी-ऐसी बीमारियाँ देन और निशानी ही हर तरह की गरीबी की होती हैं। जहाँ दवाइयोँ से ज्यादा काउंसलिंग और ऐसे बीमार-आदमी की इच्छा-सकती को बढ़ावा देना, ज्यादा काम आता है।   

आगे किसी और पोस्ट में इसके और पहलुओं के बारे में।            

Thursday, June 15, 2023

राजनीतिक-रंगमंच

राजनीतिक-रंगमंच -- जिधर देखो उधर नजर आये। 

ये दुनिया एक रंगमंच है, और सबको अपना किरदार निभाकर जाना है। सुना, सुना-सा लग रहा है ना कहीं? अपना किरदार निभाकर तो जाना है। मगर, वो किरदार कितना आप खुद निभा रहे हैं और कितना आपसे निभवाया जा रहा है? आइए जानते हैं इस राजनीतिक मंच के बारे में -- थोड़ा बहुत जितना मुझे समझ आया। 

आप टीवी या फोन या लैपटॉप पे जो ख़बरें देखते हैं ना, वो ज्यादातर राजनीतिक रंगमंच है। आपके आसपास उन खबरों से जुड़ा, जो कोई अहम् धरना या प्रदर्शन चल रहा है, वो भी राजनीतिक रंगमंच है। उसमें आम आदमी की समस्याएं, इसी राजनीतिक रंगमंच की देन होती हैं जो उसे सुलझाने के नाम पर आज दुसरी तरह का राजनीतिक रंगमंच पेश कर रहा है। जो समाज जितना ज्यादा सरकारों पे निर्भर है या राजनीतिक पार्टियों पे निर्भर है, वो उतना ही ज्यादा गरीब और पिछड़ा है? क्युंकि, बाकी या तो ये सरकारें चला रहा होता है या कहीं न कहीं स्टेकहोल्डर होता है। इस निर्भरता को कम करके आगे बढ़ने के रस्ते किसी और पोस्ट में। 

अभी चलो रंगमंच पे चलते हैं --

आज की ताजा खबर? Breaking News? भूकंप आ गया? बाढ़ आ गयी? तूफ़ान आ गया? आग लग गयी? किसानों का धरना? या शायद मणिपुर हिंसा। इंटरनेट बंद ?

BIPA R JOY -- यूँ लग रहा है सागर में जैसे कहीं आम दिनों की तरह ही आम-सी लहरें हैं। मगर Animated-World ने जाने क्या से क्या बना दिया है। हौवा जैसे कोई? आम-आदमी दहशत में और मीडिया कुटे पैसे! है ना मजेदार? कोरोना भी कुछ-कुछ ऐसा ही था। मीडिया के इस जहाँ में सबकुछ ऐसा ही होता है क्या? जानकारी लेना चाहते हो तो कई जगह वो ज्ञान-विज्ञान भी मिल जाएगा। मगर गुप्त कोड में।   

चलो आप कोड ढूंढो। मुझे तो सागर के नाम से कुछ गाने याद आ रहे हैं --बचपन में सुने होंगे कभी। जैसे ? 

ये सब cryptic है। मतलब गुप्त कोड हैं। अब अलग-अलग चैनल, इनपे अपनी-अपनी, अलग-अलग तरह की स्क्रिप्ट पे काम करते हैं। 

कौन-कौन से चैनल कौन, कौन-सी पार्टी के हैं? ये आप उन पर चल रही खबरों से पता कर सकते हैं, अगर इस गुप्त ज्ञान और पटकथा (scripted) को समझ पाएं। नहीं तो गूगल बाबा या कोई और सर्च इंजन भी बता देगा। इन गुप्त पटकथाओं में कभी-कभी आपको ज्ञान भी मिल सकता है और विज्ञान भी। बाकी मिर्च-मसाला, बढ़ा-चढ़ा कर, तोड़-मरोड़ कर पेश करना तो ज्यादातर चैनल को चलाने के लिए ऐसा लगता है, जैसे पत्रकारिता का धर्म हो? 

राजनीतिक रंगमंच का एक उदहारण पीछे PPF ना निकालने देना या उसपे ड्रामे दिखाना, आप पहले वाली पोस्ट्स में पढ़ सकते हैं। वो राजनीतिक रंगमंच दिल्ली के CM और LG के बीच जैसे कोई फुटबॉल खेल रहा है। कहाँ की फाइल्स, किसका PPF, कहाँ के बैंक, कहाँ की mail या जाने male और कहाँ के सरकारी बाबु? घपलम-घपला प्रेजेंटेशन की So Sorry Script । अब आम आदमी को ये सब कैसे समझ आए?

कुछ-कुछ वैसा ही है ये किसान आंदोलन। जानते हैं अगली पोस्ट में इसके बारे में भी। 

Joke :

एक बै एक अंडी बोला, अक आलिया को यही नहीं पता PM कौन है?

जो पढ़ रहा था वो बोला, की आलिया को ये पता है की आलिया कौन है? 

बोले तो कुछ भी? ईब घणा नै हांसी ना आयी होगी :)  मदीना मैं बैठके हांसी क्युकर आ जागी बावले, वा ते महम तै भी आगै बताई।  

संस्कृति

कभी-कभी कुछ बातों पे यही नहीं समझ आता की दुख प्रकट किया जाए या गुस्सा ? हंसी या गम? 

जब युनिवर्सिटी छोड़, गावँ की तरफ रूख किया तो कई जगह से सलाह आ रही थी, की सोच-समझ के निर्णय लेना। संघर्ष तो हर जगह होगा। मगर किस तरह का और कितना तुम झेल सकते होऔर कितना उस माहौल में तुम्हे समर्थन करने वाले होंगे, इस पर जरूर गौर कर लेना। बहुत से और भी हैं जो वो संघर्ष चुपचाप झेल रहे हैं। तुम कम से कम वो भड़ास तो निकाल पा रहे हो, चाहे आम-आदमी को जागरूक करने के मकसद के माधयम से ही। बहुतों के पास शायद न इतनी हिम्मत है और न ही ऐसा कोई साधन, शायद। 

एक माहौल में अगर जुर्म होता है तो उसके खिलाफ बोलने वाले होते हैं। और जिसके साथ जुर्म होता है, उसके समर्थन में खड़े होने वाले भी होंगे। दूसरी जगह शायद उल्टा ही हो। समझ भी आ रहा था की ये किस तरह की सोच की तरफ इशारा था। मगर मैंने कौन-सा ज़िन्दगी भर ऐसे माहौल में रहने का निर्णय लिया था। शायद उस वक़्त कोई और रस्ता भी नहीं था। या शायद मैंने किसी और तरफ देखा ही नहीं, रस्ते तो बहुत थे। और शायद बेहतर भी? या शायद, जो लिखाई-पढ़ाई मैं कर रही थी, उस हिसाब से ये जगह जानी-पहचानी और आसान थी।   

हर संस्कृति के अच्छे और बुरे पहलु होते हैं, वैसे ही, जैसे हर इंसान के। कोई भी संस्कृति जड़ नहीं है। वो समय और सहुलियतों के हिसाब से बनती-बदलती रहती है। और होना भी चाहिए। जो कुछ समय के अनुसार नहीं बदलता, वो या तो खड़े पानी की तरह, सड़ांध मारने लगता है या ख़त्म हो जाता है। जैसे इंसान रोज ना नहाये-धोये, घर-आसपास को साफ़ ना रखे, तो वो किसी कुरड़ जैसा हो जाएगा। जहाँ सड़ांध ही सड़ांध होती है। जैसे नदिया-झरनो का पानी लगातार बहता रहता है, तो साफ़ होता है। जोहड़, झीलों, मटकों का पानी, अगर वक़्त-वक़्त पर साफ़ करके, फिर से ना भरा जाए, तो सड़ने लगता है। संस्कृति भी वैसे ही है। संस्कृति इंसानो से है, इंसान संस्कृति से नहीं। जैसे-जैसे इंसान की समझ, जरूरते और रहन-सहन के तरीके वक़्त के साथ-साथ बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे ही वो संस्कृति में घुलते-मिलते जाते हैं। 

मुझे याद है, जब 2005 में मेरे छोटे भाई और कुछ और बच्चों ने आसपास लव-मैरिज की थी तो हंगामे और आसपास टिपण्णियाँ किस तरह की थी। बड़े भाई (cousin) ने तो दोनों को स्कूल से ही निकाल दिया था, वो भी अच्छा-खासा धमकाकर। उस वक़्त, भाई-भाभी दोनों उस स्कूल में काम करते थे। साथ वालों को तो जो सुनने को मिला था, सो अलग। उनकी बेइज्जती हो गयी थी शायद? या शिक्षा नामक स्कूली-धंधे पर किसी तरह का असर पड़ने के प्रभावों की वजह से? मतलब स्कूली-धंधे की वजह से कोई cousin अपने ही भाई को बस्ते और आगे बढ़ते नहीं देख सकता था? कैसे रिश्ते थे ये, जो उसके बाद वैसे कभी नहीं हुए। मगर शायद उधर का भी एक पक्ष हो। जिस तरह से इधर-उधर से पैसे इक्क्ठे कर और अपने जेवर तक देकर, बड़ी भाभी ने उस स्कूल की नीँव रखवाई थी। हालाँकि, वक़्त के साथ-साथ, उस स्कूल के भी हिस्से और हिसाब-किताब, घरों जैसे से हो चले थे। वही स्कूल और उसके आसपास घुमती राजनीति, उस लड़की को ही खा गयी, जो अपरिपक्कव किशोरी, इस घर में एक बहु बनकर आयी थी। मगर आज वो इतनी बड़ी हो गयी थी की उस स्कूल के साथ वाली जमीन पे अपना खुद का स्कूल खोलने चली थी? अब भाइयों की जमीनें भी तो आसपास ही होती हैं। अक्सर डौले से डौले मिलते हैं। जैसे घर की छतों से छत। कई केसों में तो घरों के आधे-आधे हिस्से ऐसे होते हैं, जैसे एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब। कुछ-कुछ ऐसे, जैसे राजनीतिक-रंगमंच, संस्कृति, प्यार-जुर्म, लठ-गोली, रार-तकरार के बीच, डर और डरावे भी। शोध-प्रतिशोध, अहम्-अहंकार और उसपे भाईचारा भी। कुछ-कुछ, रामायण और महाभारत जैसा-सा? संस्कृति और संगीत जैसे, अपने आप में कितना कुछ गाता-सा? 


आज गांवों में भी उस तरह की टिक्का-टिपण्णियों का उतना असर नहीं रह गया है। जब मेरा या मेरी तरह कुछ और लड़कियों का पहनावा जींस-शर्ट हुआ तो वो कुछ एक अपवाद थे। आज ज्यादातर घरों में वो कोई वाद-विवाद या तकरार का विषय ही नहीं है। पहले गाँवों में शॉर्ट्स नाम का कोई पहनावा नहीं होता था। कोई डाले दिख भी जाता तो कच्छाधारी बोलकर जलील किया था। आजकल शायद उतना टिक्का-टिपण्णी नहीं रह गयी है। हाँ, औरतों के लिए कुछ-कुछ ऐसे घरों में, अभी तक भी घुंघट तक नहीं गया है। ये अपने भाई-भतीजा लोगों के लिए सोचने का विषय होना चाहिए, या नहीं पता नहीं ? सुना है so-called हिन्दुओं में पर्दा-प्रथा नहीं थी। मुस्लिम आये तो हिन्दू औरतों को उठाने लगे। हिन्दू मर्दों से अपनी बहन-बेटियों की रक्षा ना हो पायी तो उन्हें घुन्घट पकड़ा दिए। क्यों भाई-भतीजा लोगो, आज भी ऐसा ही है क्या?

पहले के हिन्दु घरों में जनाना-मर्दाना, अलग-अलग होते थे। कोई जनाना की तरफ जाता भी, तो खाँस के, या किसी का नाम बोलकर, ये बताने के लिए की वो उधर आ रहें हैं। अब बैडरूम-बाथरूमों तक विशेष तरह के कैमरे (camera)  फिट कर, औरतों के विरोध के बावजूद एक्सपेरिमेंट हो रहें हैं? ये कौन-सी संस्कृति है? ऐसा करने वालों के चरित्र कहाँ हैं? ये तो ऐसे नहीं लग रहा की संस्कृति को कुछ राजनीतिक गुंडों ने, अपनी सहुलियत के हिसाब से, अपने कांडों पे परदे डालने के लिए, खुद को बचाने का हथियार बना लिया है? आपको क्या लगता है?   

 चरित्र प्रमाण-पत्र 

इस माहौल में प्यार के किसी भी तरह के इजहार के लिए, आपको न सिर्फ खास तरह की और खास लोगों से अनुमति चाहिए, बल्की चरित्र प्रमाण पत्र भी चाहिए, शायद। लगता है, हरियाणा या हरियाणा जैसे किसी सरकारी स्कूल में प्रवेश कर चुके हैं आप या शायद छोड़ के कहीं और जा रहे हैं? मगर लठैत लोगों को न किसी की कहीं से अनुमति चाहिए और न ही किसी तरह का चरित्र प्रमाण पत्र? वो तो मर्दानगी की निशानी है शायद? उस सबकी वजह से न घर-मौहल्ले का वातावरण खराब होता? न वो सब बिमारियों की वजह होता? न बच्चों पे कोई बुरा असर पड़ता? और शांति या भाईचारा तो कहीं का भंग नहीं होता? आखिर हमारी संस्कृति का हिस्सा है ना ये सब तो?       

पहले हुक्का बैठक तक ही होता था। अब तो वो कहीं भी जा सकता है। बैठकों के बाहर, चबूतरों की शोभा या so-called जनाना तक में। बच्चों या औरतों तक वो धुएँ के गुब्बारे जा रहे हों, ये परवाह तक ना किए बैगर। सुना है, पहले हिन्दुओं में स्वयंवर प्रथा थी? सुना है, देखा थोड़े ही है। आजकल उसकी जगह थोंपो-प्रथा ने अपनी जगह बना ली है क्या? ये एक, दो, तीन, चार जैसा एक्सपेरिमेंटेशन तो ऐसी ही किसी प्रथा का हिस्सा हो सकता है। सुना है, पहले विवाह होते थे, लड़कियों से पुछकर। अब कोई गंधर्व-विवाह के नाम पे टुच्चागिरि-एक्सपेरिमेंटेशन और विडियो मार्केटिंग (Women Trading) ने ले ली है क्या? क्या ऐसी औरतों के कोई अधिकार हैं आपकी इस महान संस्कृति में ? सुप्रीम कोर्ट बता सके शायद? या वो भी कुत्ते-बिल्ली के खेलों में वयस्त है? इंसानों की फ़िक्र करने या उन्हें न्याय देने कोई और आएगा शायद।     

संस्कृति के नाम पे बहुत कुछ घिनौना और विकृत है। खासकर, जब किसी संस्कृति के नाम पे राजनीती होने लगे, तब। राजनीतिक-रंगमंच (Political Theatres) के बड़े-बड़े इंस्टिट्यूट हैं, दुनियाभर की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज में। भारत में वो अभी पिछले दशक या कुछ सालों में ही शुरू हुआ है, शायद?  क्या संस्कृति को हम राजनीतिक रंगमंच से देख सकते हैं? या राजनितिक-रंगमंच और संस्कृति अलग-अलग विषय हैं? दोनों को एक करना मतलब, गुड़ का गोबर करना। 

क्या हो अगर राजनितिक-रंगमंच, आम-आदमी की ज़िंदगी का अहम् हिस्सा हो जाएँ?  जानते हैं, अगली किन्ही पोस्ट्स में। 

Tuesday, June 13, 2023

कहाँ हो? ये क्या चल रहा है?

कुछ समझ आए तो मुझे भी बताना। मेरी एक, दो, तीन, चार वालों में ना कभी रुची थी, ना है और ना होने वाली। हाँ। जितना ज्यादा, इस वाले जुए को जानना या समझना शुरू किया है, उतनी ही ज्यादा इससे नफरत जरूर होने लगी है। और इसके दुस्प्रभावों को जानने की उत्सुकता भी। खासकर, जबसे बेहुदा और घिनौने लोगों का लूट, कूट, पीट और खदेड़ बाहर कर का, हर जगह तमाशा समझ आना शुरू हुआ। वो चाहे क्लास में रहा हो, लैब्स में रहा हो। मिटिंग्स में रहा हो। पत्राचार या इमेल्स में रहा हो। रोड पे रहा हो। बाजार में रहा हो। कैंपस घर में रहा हो या अड़ोस-पड़ोस में रहा हो। ऑनलाइन रहा हो। गूगल सर्च में या किसी और सर्च इंजन में रहा हो। यूट्यूब पे रहा हो। इधर-उधर के सोशल मीडिया पे रहा हो। नेशनल या इंटरनेशनल मीडिया में रहा हो। गवर्नमेंट्स या नॉन गवर्नमेंट्स की websites पे रहा हो। 

इन्हीं सब ने शायद मुझे इंटरनेशनल organizations और उनकी websites पे घुमाया। शायद ये जानने के लिए की यहाँ से निकल भी गए तो आगे क्या होगा? क्या चल रहा है वहाँ? कहाँ जाया जा सकता है? स्तर अलग-अलग हैं। किस स्तर को झेलने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी? और कहाँ इस सबसे निकलके आगे बढ़ने के भी अवसर होंगे? और यही खोजते-खोजते, पता नहीं कहाँ-कहाँ पहुँच गई और क्या-क्या पढ़ा या थोड़ा बहुत समझ आया। उसके साथ ये भी, की ये मोदी क्यों उड़ रहा है और ये राहुल गाँधी? ये प्रोग्राम अचानक होते हैं क्या? पढ़ा, यहाँ-वहाँ थोड़ा बहुत कहीं। अब हकीकत तो जानकार ही बेहतर बता पाएंगे।   

हर जगह Grey एरिया नहीं है। कहीं नारंगी है -- जैसे UF, USA? कहीं हरा है, कहीं पीला है, कहीं काला है, कहीं नीला है। तो फिर कहीं सफेद भी है, जैसे Nordic Region? और कहीं न कहीं, उन सबके programms, सिलेबस और रिसर्च भी उसी विचारधारा से, शायद, कुछ न कुछ मिलता जुलता-सा लगता है? कोड जैसे? जैसे मीडिया स्टडीज़ या रिसर्च की ही बात करें तो Screen Media या Smoke Screen कहाँ है ? Digital Communication?  कहाँ whiteboard specility हैं और कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे तारों के जंजाल भी? फाइबर फिल्टर्स कहाँ हैं और रेडिओ या टीवी कहाँ?  AI on focus and related? और IOT का लोटा कहाँ-कहाँ रखा हुआ है? लैब 4 स्पेशल जोन में क्या है? 1, 2, 3 etc. में क्या और कहाँ-कहाँ? Storytellers specialities कहाँ हैं? कहाँ अच्छी-खासी information मिल रही है, बैगर किसी दाएँ-बाएँ के भेदभाव के? और कौन इधर tilted है या उधर tilted है और बहुत ज्यादा prejudiced भी। इसके इलावा भी बहुत कुछ है। ये सब जानकारी उनके लिए जिनके प्रश्न थे, ये चल क्या रहा है और तुम हो कहाँ? 10-15 दिन US,  10-15 दिन यूरोप और ऑस्ट्रेलिया भी। क्यों वक़्त बर्बाद कर रहे हो खामखाँ या कुछ खास मिल गया? मिला कुछ नहीं, बस थोड़ी कोशिश है, थोड़ा बहुत जानने-समझने की।     

यहाँ कबुतर बहुत हैं, अड़ोस-पड़ोस में। उड़ाते रहो, बस उन्हें। एक दिन जाने क्यों उन्हें भगाते हुए कुछ याद आ गया। 

दी, थोड़ा इधर। 

हूँ?

अरे, अब थोड़ा ईधर। 

क्या है?

थोड़ा उधर?

पर क्यों?  

वो कबुतर था सिर पे, उसे हटा रही थी। खामखाँ, बीट कर जाता सिर पे। 

और आप ऊपर देखते हुए, यहाँ कहाँ है?

उड़ा दिया। 

कुछ भी? बच्चों वाली हरकतें। 

अरे मज़ाक कर रही थी।   (R Zone)

I am kinda searching, थोड़ा ईधर, और थोड़ा उधर Zone.                 

Sunday, June 11, 2023

कितने अवतार हैं तुम्हारे?

कितने अवतार हैं तुम्हारे? 

रावण के कितने सिर और हाथ थे? 

संतोषी माँ के? दुर्गा के? काली के?  

और भी कितने ही देवी, देवताओं या राक्षसों के कितने सिर और हाथ हो सकते हैं?  

या शायद शरीर ही बदल सकते हैं ? विष्णु के कितने अवतार हैं, हिन्दु धर्म के अनुसार? या कृष्ण के कितने हैं? शरीर बदलने वाले अवतारों को क्या कहते हैं? छलिया? या कुछ और?

चलो ये तो बड़े-बड़े, देवी-देवताओं की बातें हुई। क्या आम आदमी भी ऐसा कर सकता है? सम्भव है? शायद, वैसे ही जैसे बड़े-बड़े, देवी-देवता कर लेते हैं? इंग्लिश में कुछ शब्द हैं, जैसे  

Alter Reality

Alter Ego

Reality Bending


Warping

Reality Warping: To manipulate Reality 

Operation Warp Speed (Corona), USA 

अंग्रेजी के इन खास शब्दों या इसी तरह के और  शब्दों और इनके करने के तरीकों का जिक्र किन्ही और पोस्ट में।  

हकीकत को बदलना या बदलने की कोशिश करना। 

चलो फिर से नाटकों के किरदारों पे आते हैं। या शायद हकीकत के किसी और वयक्ति पर? क्यों न खुद से ही शुरू किया जाए?  

असली ज़िंदगी में विजय दांगी एक लड़की है। टीचर है, बायोटेक्नोलॉजी में। थोड़ा बहुत लिख लेती है। और आगे की उम्मीद भी लिखाई-पढ़ाई के आसपास ही घुमती है।   

क्या वो या उसके साथ कुछ और जोड़-तोड़-मरोड़ कर कोई और इन्सान या किरदार घड़ा जा सकता है? जो लड़की भी हो सकता है मगर किसी और फील्ड में, बहुत अमीर या उससे बहुत गरीब। जरूरी नहीं आसपास ही हो। किसी दूसरे शहर या दूसरे देश में भी हो सकता है। जरूरी नहीं पढ़ाई-लिखाई के आसपास ही हो। हो सकता है, पॉलिटिक्स में हो। बिज़नेस में हो। खेलों में हो। या किसी और फील्ड में। जरूरी नहीं उम्र, सुरत या कुछ और ही मिलता हो। वो बच्चा भी हो सकता है और बुजुर्ग भी।  और ये भी जरूरी नहीं की लड़की ही हो। वो लड़का भी हो सकता है या ट्रांसजेंडर भी। जैसे ?    

जया?

साध्वी?

प्रियंका?

रिया चकर्वर्ती?

श्री देवी?

गोलु?

विजय मालया?

मायावती?

कविता 

बबिता 

नविता और भी पता नहीं क्या-क्या !

हकीकत क्या है? और घड़े हुए किरदार? कुछ भी मेल नहीं खाता ना? मगर क्या हो आम आदमी असली इंसान की बजाय घड़े हुए किरदारों को उस इंसान पे हकीकत में थोपने लग जाए तो? सोचने को तो कुछ भी सोच लो मगर किसी भी असली इंसान को किसी और का किरदार थोपने से बचे। क्यूंकि थोपने की कोशिश मतलब उस इंसान को कुछ-कुछ वैसा ही बनाने की कोशिश। कभी-कभी ऐसा करना खतरनाक भी हो सकता है या कहो की अक्सर होता है। तो जहाँ तक हो सकता है बचें, किसी पे भी कुछ भी थोपने की कोशिशों से। क्युंकि, ऐसे उदाहरण आसपास भरे पड़े हैं, जिनपे कुछ का कुछ थोपने की कोशिशें हुई हैं या अभी भी हो रही हैं। जिनके परिणामस्वरूप वो जिंदगियाँ तबाह हुई हैं या अभी भी हो रही हैं।    

हर इंसान अलग है, विशेष है। अपने आप में अद्भुत है। वो कोई और हो ही नहीं सकता। और न ही कोई उसका स्थान ले सकता। इसलिए कोशिश हर इंसान की खास विशेषताओं को आगे बढ़ाने की होनी चाहिए। न की उसे कोई और बनाने की।   

Cryptic Women Trading?

 अगर आपको पता चले की कोई आपको धंधे में धकेलने की कोशिश कर रहा है या कर रहे हैं तो आप क्या करेंगे? उसपे पता चले की ये कुछ नया नहीं है, बल्की बहुत पुराना खेल है। 
उसपे पता चले की यहाँ तो defence, judiciary, government, opposition सब लगे पड़े हैं ?
कहाँ जायेंगे आप complain करने?
पिछले कई दिन से कोशिश कर रही हूँ ICICI का ये विडिओ अपलोड करने की    


Cryptic Trading Ways?

बैंक के employee काम करना तो दूर बात ही न करें?
सिर्फ इधर-उधर के धक्के।  

Saturday, June 10, 2023

व्यस्त कहाँ हैं (जुबान, खेल और काम)

गरीब के पास आप गरीब होते जाएंगे, और अमीर के पास अमीर। अब ये गरीबी और अमीरी भी बहुत तरह की हो सकती है। गरीबी दिमागी भी हो सकती है। जैसे धन-दौलत होते हुए भी गरीब होना। और गरीबी सिर्फ संसाधनों की भी हो सकती है। दिमागी गरीब, कम उभर पाते हैं। दिमाग है, तो संसाधनों की कमी, आनी-जानी चीज जैसी भी हो सकती है। या शायद यूँ कहना चाहिए, की बहुत से कारण होते हैं, जो आगे बढ़ाते हैं। ऐसे-ही बहुत से कारण होते हैं, जो पीछे या पिछड़ेपन की तरफ लेके जाते हैं। इनमें अच्छे तरीके भी हो सकते हैं, आगे बढ़ने के और बुरे तरीके भी। मगर पिछे धकेले जाने के सिर्फ और सिर्फ बुरे तरीके होते हैं, शायद।  

आप कहाँ रहते हैं?  

बजरापुर और स्कूलपुरा? 

डंडापुर और  किताबपुरा ?

बदजुबानपुर और मिश्री जुबानपुरा ?

शांती पुर और कलहपुरा ? 

भंडोलापुर और मंडोलापुर?  

गोबरपुर और गुडपुर?  

स्क्रीनपुर और गनपुरा? 

मंगलपुर और मातापुरा? 

रामपुर और रावणपुरा? 

कटी-पतंगपुर और पैरागलाइडरपुरा? 

भुन्डुपुर और सुरत या सुंदरपुरा 

बलपुरा और मनपुरा? 

हरिद्वार या 

लिख ही रही थी की 

कहीं से आवाज आई कबुलपुर? 

अभी इतना ही, बाकी फिर कभी।  

बच्चों के अनोखे खेल

 बच्चों के अनोखे खेल सिर्फ बच्चे ही खेल सकते हैं। 

लक्ष्मणरेखा से यहाँ-वहाँ, बड़े-बड़े गोले बनाओ, चप्पल निकालो और दे पटापट। 

अर्रे, क्यों मार रहा है इन्हें? किसी ने काट लिया ना तो बहुत रोएगा। उठ यहाँ से। 

ये मुझे काटेँगे? अच्छा। और फिर से शुरू, उसी चप्पल से, दे पटापट। आसपास के इकट्ठे हुए मकोड़ों को एक गोल सर्कल में घेरकर मारना। 

लक्ष्मणरेखा, वही चौक, जो कीड़ी-मकोड़ों को भगाने के काम आता है। बच्चों के लिए खेल भी हो सकता है? बच्चे भी कैसे-कैसे खेल इज़ाद कर लेते हैं ना?


अब एक ये भी:

क्या कर रहे हो तुम इतनी देर से उस अलमारी में? क्या मिल गया ऐसा वहाँ?

चुप करो मिल गया, गुस्से में। सबकुछ इधर-उधर पड़ा है। ठीक कर रही हूँ। हर चीज़ अपनी जगह होनी चाहिए। ऐसी अलमारी में क्या मिलेगा? 

मेरी अम्मा, जो जहाँ है, वही रहने दे। नहीं तो मुझे फिर से सब सेट करना पड़ेगा। 

अर्रे, सब वहीँ का वहीँ है। हम तो सिर्फ खेल रहे थे। बस ये, यहाँ से यहां। ये वहां से वहां। ये इधर। ये उधर। और ये थोड़ा-सा इधर। आये बड़े, करना पड़ेगा फिर से सेट। और हाँ ये बाहर भी इतना कुछ फैला रखा है। चलो, ये तुम करो। इसमें भी टाइम लगेगा, दूसरे बच्चे को बोलते हुए। 

Wednesday, June 7, 2023

व्यस्त कहाँ हैं, आप? और इन राजनीतिक-पार्टियों की जान लोगे?

रोचक किस्से, कहानियाँ और सामाजिक घढ़ाईयाँ 

जब गाँव रहने के लिए आई, तो शुरू-शुरू में तो बहुत ज्यादा हैरानी होती थी, उटपटांग पे उटपटांग सुनकर, देखकर, समझकर। वो भी तब, जब अपने आपको पढ़े-लिखे और कढ़े कहने वाले लोगों को, इतने सालों से देख-सुन और भुगत भी चुकी थी। वो उटपटांग यहाँ जब ज्यादा होता लगता था, तो गाड़ी उठाके उड़ जाती थी, उसी जहरीली जगह, जिसको पीछे छोड़ चुकी थी। उसपे, यहाँ के उटपटांग की उस वक़्त समझ भी कम ही थी। क्यूँकि, इस दुनियाँ को इस रूप में कम ही देखा था। 

यूँ लग रहा था, जैसे हर कोई, हर किसी का दुश्मन हो। ये इसका भला भी नहीं चाहता या चाहती, उसका भी नहीं, उसका भी नहीं और उसका भी नहीं। यार, क्या खुंदक हो सकती है? ये तेरे घर वालों के भले में हैं और हर किसी को टांगा हुआ है, छोटी-छोटी बुराईयों को या कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर, एक दुसरे को गा-गा कर। ये भी बुरा, वो भी बुरा, वो भी बुरी और वो भी। बच्चों और बुजर्गों तक को नहीं बख्सते। कैसे लोग हैं ये? जबकि, इनके अपने हाल कहीं न कहीं, इस घर से ज्यादा बुरे हैं, ऐसी-ऐसी कमियों पे। अपना नहीं दिखता? और फिर आपको लगता है की खामखाँ ज्यादा सोच रहे हैं। उनके अपने हाल बुरे हैं, शायद इसीलिए, ज्यादा जहरीले हो रहे हैं। मगर फिर समझ आता है, सामाजिक घढ़ाईयाँ। जो ज्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ करवा रही है। मतलब, जहर भी वही घोल रही हैं? फुट भी? लोग खुशियाँ भी जैसे छुप-छुप के मनाते हैं? कहीं किसी की नजर ना लग जाए? कितना अजीबोगरीब माहौल है ना? हालाँकि सब एक जैसे नहीं हैं। कुछ खास घरों में ही ये ज्यादा है। तो सीधी-सी बात, राजनीतिक जालों का दुष्प्रभाव भी वहाँ ज्यादा है।              
   
राजनीती के षड़यंत्र ने छलाँगे मारनी शुरू की और लोगों को खाना भी, बिलकुल आदमखोरों की तरह। उस ताँडव को इतने पास से देखना और क्या हो रहा था वो जानना-समझना, किसी भी आम इंसान को हिलाने के लिए काफी था। मगर राजनीती के लिए शायद आम बात। 

एक जिज्ञास्या जो शुरू हुई थी, कहीं न कहीं उस सोशल पोस्ट से शायद, जहाँ कुत्ता ढेरों हड्डियों के पास बैठा है और उसपे लिखा है (जैसे कह रहा हो), ये सब बिल्ली (या बिल्ला) ने किया है। 
कुछ तारीखें, जैसे कुछ कहानियाँ-सी और कुछ बीमारियाँ। सच में बीमारियाँ? बच्चों के बालों का रंग और बनावट (Texture) बदलना। बच्ची को छाती में सीमेंट अटक गया, क्यूँकि घर बन रहा था। बच्चे को एलर्जी हो गई, पाँच साल तक शैंपू या साबुन प्रयोग नहीं करना। ये तो सिर्फ शुरूवात थी, इस अजीबोगरीब जहाँ को जानने-समझने की। इसके बाद तो पता ही नहीं, लोगों को क्या-क्या होते देखा या सुना। उसी जंग में, पढ़े-लिखे और कढ़े हुओं की गुप्त जंग में, एक छोटी-सी बीमारी खुद भी ले आई। बीमारी? या Chemicals Abuse? और कितने ही तो लोग भुगतते हैं, ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, इन पढ़े-लिखे SMART लोगों को? कहाँ व्यस्त रखते हो, दुनिया को? मतलब खुद भी कहाँ व्यस्त रहते हो? दुनिया को जहर परोसने में और गुप्त तरीकों से मारने-काटने में? इसी को INTELLIGENCE कहते हैं?          
    
सामाजिक घड़ाईयों के सच में छिपा है -- "आप व्यस्त कहाँ हैं?" जब आप किसी को कुछ दिखा-बता या सुना रहे हैं, तो कुछ घड़ भी रहे हैं, खुद अपने लिए और अपने आसपास के लिए।  

इन रोचक किस्से-कहानियों में ही सामाजिक घढ़ाईयाँ छिपी हैं।  
आशीर्वाद आटा 
Happiness Helmet 
Comfort Washing Zone 
डिब्बा-तंत्र 
झंडुलीला 
गिरपड़ रहा है झंडा जैसे। कभी यहाँ, तो कभी वहाँ? 

दण्डातंत्र 
ढ़क्कन-डंडा, जाली पे सफेद पेंट। वैसे क्या संभावनाएं हो सकती हैं, इस सामान्तर घड़ाई की? शायद, फिशिंग वाली घड़ाई तो हो चुकी?   
और AC कट्टा कवर?
 
पंखा स्लेटी, सफेद, गोल्ड या सिल्वर?   
कुलर सलेटी, काला या सफेद? 

भैंसोलोजी 
भैंस ने दूध ना दिया 
दिवास-दूध

रवि-लोजी (Ravilogy): बच्चे को नहीं मालूम, उससे क्या करवा रहे हैं और क्यों? उसे मजा आ रहा है और वो कर रहा है। ये Ravilogy शायद बहुत पुरानी है। और ये हिंदी वाला रवि है या शायद R avi?
   
तेरा दादा, मेरा दादा। मेरा दादा भी, तेरा दादा। वैसे तो कुछ बुरा नहीं, पर ऐसे तो -- Special Kinda Enforcement World 

कितने ही तो लोगों को तो काम पे लगाया हुआ है? बताओ और इन राजनीतिक पार्टियों की जान लोगे, अब तुम? राजनीतिक पार्टियाँ आपको मुफ्त में, वो भी उल्टे-पुल्टे कामों पे रखती हैं।  

एक होता है संवाद करना और एक लोगों को विवाद या झगड़े पे लगा देना। एक होता है, कोई ढंग का काम देना या बच्चों को खासकर, खेल-खेल में कुछ सीखने को देना। और एक होता है, उल्टे-पुल्टे कामों में लगा देना। तो जिंदगी क्या होंगी उनकी?
  
Process of Dehumanization of a Society     

सत्ता और सामाजिक व्यवस्था?

सत्ता और सामाजिक व्यवस्था  (Governance, System, Files, Ordinance, Revolving or Fighting Chairs)  

क्या कोई फाइल्स की खिंचतान कुछ ट्रेनों के एक्सीडेंट की वजह हो सकती है? पता नहीं। मगर So Sorry जैसी सीरीज हमारे सिस्टम और गवर्नेंस के बारे में जरूर काफी कुछ बताते हैं। 

क्या किसी की PPF ट्रांसफर एडजस्टमेंट या सर्विस और यूनिवर्सिटी आर्डिनेंस, दिल्ली में CM और LG के बीच की विवाद की वजह हो सकते हैं? या ओडिशा में किन्ही रेलों के हादसे की?

मालूम नहीं। आपको क्या लगता है?







क्या सत्ता का मतलब सिर्फ सट्टा बाजार है ?
तो जो वो इलेक्शन का ड्रामा होता है, वो क्या है ?
और crypts में सट्टा या खुलेआम बोली कैसे लगती है?

ज्यादा तो अपनी समझ अभी तक आया नहीं, लेकिन जितना आया, वो तो आम लोगों के साथ बाँटा ही जा सकता है। अगली किन्हीं पोस्ट में।  

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 3

एक और माहौल लेते हैं और जानते हैं की कुछ खास तरह के सफल या असफल लोगबाग व्यस्त कहाँ हैं? 

विकसित, मतलब ज्यादा पढ़े-लिखे देशों की ज्यादातर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ दिमाग वालों के हवाले मिलेंगी। टेक्नोलॉजी की दुनियाँ, जो दुनियाँ पे राज करती हैं, अपनी टेक्नोलॉजी की ही वजह से। और दुनियाँ भर के बेहतरीन दिमागों को अपने यहॉँ काम करने के लिए आकर्षित भी करती है। ज्यादा पैसा और सुख-सुविधाएँ देकर। हालाँकि, वहाँ भी बहुत तरह के वाद-विवाद हो सकते हैं। क्यूंकि, हर चीज़ के दो पहलु होते हैं। 

जहाँ शिक्षित वर्ग है वहां पथ्थर, रोड़े, खूंटे या खूंटी नहीं, महाबली, बजरंग जैसी blockchain मिलेंगी। ऐसी बाधाएं, जो किसी भी तरह से सामने वाले को आगे बढ़ने से रोक सकें। महाबली, बजरंग जैसे नाम अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे वर्ग को जाल में फंसाने के लिए। जाल Fishing जैसे भी हो सकते हैं। जैसे किसी पड़ौसी की खिड़की पे काली डोरी को कांटे की तरह टांगना। आम आदमी की भाषा में। ये यहाँ सिर्फ "दिखाना है, बताना नहीं।" इसके पीछे के कारनामों या जुर्मों को। मतलब, ये सामाजिक सामान्तर घड़ाई है, जिसमें राजनीती गुप्त तरीके शामिल है। उसके असली मतलब या जुर्म को समझने के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा। तभी तो राजनीतिक विज्ञान बनेगा।राजनीती को, विज्ञान वाले जुर्मों या कर्मों को, सामान्तर सामाजिक घढ़ाईयों के साथ, जोड़ने-तोड़ने और मरोड़ने का, जो जाल या ताना-बाना है, उसमें तकरीबन सब तरह के विषय, जीव-निर्जीव और सामाजिक श्रेणियाँ आ जाती हैं। रंक से लेकर राजा तक। कीड़े-मकोड़े से लेकर, इंसान तक। पेड़-पौधे, पक्षी, रेंगने वाले जीव-जंतुओं से लेकर, पानी और पृथ्वी दोनों पर रहने वाले भी। आपके घर और आसपड़ोस से लेकर बगीचों-पार्कों तक, खेतों से लेकर जंगलों तक। सुई-धागे से लेकर हवाई-जहाज तक। और भी वो सब, जो कुछ भी आप अपने आसपास देखसुन सकते हैं या अनुभव कर सकते हैं। है ना कितना अजीबो-गरीब ये राजनीतिक विज्ञान का ताना-बाना? और हम सोचते हैं, हमारा राजनीती से क्या लेना देना? हमें तो ये पसंद ही नहीं। ना कोई इसमें हमारे घर या आसपास से। और फिर भी हमारी ज़िंदगी के हर पहलु को ये प्रभावित करती है। इसीलिए कुछ भी लेना-देना हो या ना हो, कम से कम, कुछ हद तक तो समझाना जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत जरूरी है। 

चलो थोड़ा विज्ञान और टेक्नोलॉजी से शुरू करते हैं। किसी ने कहा की, "कोई भी आपकी ज़िंदगी में न तो अपने आप आता है और न ही अपने आप जाता है। उसका एक खास मकसद होता है। वो मकसद पूरा हुआ और वो इंसान भी।" आप सोच में पड़ जाएँ की भला इसमें क्या खास है? लगे दार्शनिक बातें झाड़ने। खासकर, जब तक हमें उस दुनियाँ की खबर नहीं होती जो ये सब करती या करवाती है। Migration, वो भी जबरदस्ती? आप कब तक कहाँ रहेंगे और कहाँ नहीं। ये आपका पसंद-नापसंद का विषय ही नहीं है। बल्की, किसी खास जगह पे आपको परोसा क्या जा रहा है और कैसे, वो विषय है। अपने आसपास से इधर-उधर गए हुए या आए हुए लोगों को जानने की कोशिश करोगे तो शायद समझ आ जाए। थोड़ा-सा समझ आने लगेगा, तो शायद थोड़ा बहुत सावधान भी रहने लगोगे, कुछ खास तरह के लोगों से और जगहों से। कौन बच्चों के आसपास नहीं फटकना चाहिए और कौन घर के या आसपास के मौहल्ले के भी। और कौन वहाँ के लिए सही हैं। मगर ज्यादातर इंसान अपने आप बुरे नहीं हो जाते। बहुत से केसों में उन्हें धकेला जाता है, बुरा बनने के लिए। हालाँकि सभी केसों में नहीं। और धकेला ऐसे जाता है, की वो सब तकरीबन अद्रश्य होता है। इसीलिए, कितनी ही सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयाँ, यहाँ-वहाँ देखने को मिलती हैं। अलग-अलग लोग, अलग-अलग विचार, अलग-अलग जगहें, अलग-अलग केस। मगर फिर भी लगे, जैसे एक जैसे-से। एक जैसे-से, ना की एक। 

टेक्नोलॉजी को थोड़ा जानने-समझने लगोगे तो पता चलेगा, कितनी ही तो खामियाँ हैं इन घढ़ाईयों में। और सबसे बड़ी बात। इन इतने पढ़े-लिखे और विकसित कहलाने वाले लोगों ने भी दुनियाँ को व्यस्त कहाँ किया हुआ है? और क्या ये खुद कर रहे हैं, इतने सारे resources के दोहन से? चलो थोड़ा-सा ऐसी-ऐसी टेक्नोलॉजी को समझना शुरू करते हैं, जो आम इंसान को बेवकूफ बनाती है। 

आओ थोड़ा जादू देखें? जादू मतलब चालाकी (trick) । जिसके पीछे विज्ञान है। आप जो देख रहे हैं, जरूरी नहीं वो सच ही हो। भूतकाल का जो कल्पित विज्ञान (Sci-Fi) है, वो आज की हकीकत भी हो सकता है। या कहो की ज्यादातर ऐसा ही हो रहा है। जैसे कल कोई सोचता की पानी के नल को खोलने या बंद करने की जरूरत ही ना पड़े। हाथ नल के नीचे किए और पानी आ गया। हाथ हटाए और पानी गया। लाल निशान वाले नल के नीचे हाथ किए तो गर्म पानी आ गया। हरे या नीले संकेत वाले नल के नीचे हाथ किए तो ठंडा। ऐसे ही साबुन के डिब्बे के नीचे जितने देर हाथ किए, उतना साबुन, शैम्पू, या डिश वॉशर  आ गया। Sanitiser के डिब्बे के नीचे जितनी देर हाथ किए उतना ही Sanitizer आ गया। दरवाजे के पास गए और दरवाजा अपने आप खुल गया। आप अंदर गए और दरवाजा अपने आप बंद हो गया। शावर के नीचे गए और पानी अपने आप आ गया। गर्म शावर के नीचे गए तो गर्म और ठन्डे के नीचे गए तो ठंडा। कोमोड के पास गए और उसका ढक्कन अपने आप खुल गया गया। आप उठे और अपने आप बंद हो गया। आपके बिना हाथ लगाए फ्लश भी हो गया। जादू है क्या ये कोई?

ऐसे ही आपके ड्राइंग रूम से लेकर रसोई घर, शयन कक्ष, खेती-बाड़ी, गाड़ी और अन्य वाहनों में भी कितना कुछ अपने आप होता है या सोचो की हो सकता है? ऐसे ही स्कूल-विद्यालयों और  हॉस्पिटलों में। तरह-तरह के व्यवसायों के automation का तो पूछो ही मत। बहुत-सी दुनियाँ है, जिसे ये सब ना सिर्फ मालूम है, बल्की अपने रोजमर्रा के काम में इसे उपयोग भी करती है। तो आज भी दुनियाँ का एक बहुत बड़ा हिस्सा, इसे जादू मान सकता है। या मजाक की तरह ले सकता है। उन्हें नहीं मालूम की ये सब हकीकत है और इसके पीछे है विज्ञान। चलो यहाँ तक तो फिर भी सही है। आप चिल्लाने लगें की शातीर, धूर्त, चालाक पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े हुए लोग, आम आदमी की जिंदगी से खेल रहे हैं। उन्हें मानव रोबॉट बना रहे हैं। क्या होगा? वही शायद जो हो रहा है? वो ऐसे इंसानो को बिल्कुल खत्म ना कर पाएँ तो इधर-उधर अवरोध खड़े कर, यहाँ-वहाँ तो खिसका ही सकते हैं। 

आम लोगों की समझ के लिए, चलो, ऐसे-ऐसे टेक्नोलॉजी के जादुओं को ABC से समझना शुरू करते हैं। जो आपकी ज़िंदगी को अदृश्य तरीकों से प्रभावित कर रहे हैं, वो भी बुरे के लिए। यहाँ सफल कहे जाने वाले लोग, असफल कहे जाने वाले लोगों की ज़िंदगियों को और कठिन बना रहे हैं। बजाए की उनमें कोई अच्छा बदलाव लाने के। और शायद दुनियाँ के इतने बड़े हिस्से के, कहीं न कहीं पिछड़ेपन की वजह भी यही हैं। तो फर्क क्या पड़ता है, की आप सफल हैं या असफल हैं? आप व्यस्त कहाँ हैं, और दुनियाँ पे अपनी किस तरह की छाप या प्रभाव छोड़ रहे हैं? वो दुनियाँ, आपका आसपास भी हो सकता है, थोड़ा दूर भी और दुनियाँ का दूसरा कोना भी।        

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 2

ये सफल-असफल से बहुत दूर के प्राणी हैं। हट्टे-कट्टे होते हुए भी लाचार, बेकार, अपाहिज जैसे। वयस्क होते हुए रोजमर्रा के कामों के लिए भी, दूसरे पे निर्भर। जानवरों और पक्षियों से भी कमतर। इंसान ही न रहें जैसे। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी अपना पेट  भरने लायक तो कर ही लेते हैं और घर भी बना लेते हैं। मगर इस किस्म के खास प्राणी, वो भी नहीं कर पाते। बेचारे जैसे। 

ये वो किस्में हैं, जो घर की औरतों के कहीं जाने पे भुखे मर सकते हैं, मगर बना के नहीं खा सकते। चाहे पूरा दिन ठाल-म-ठाल हों। इन बेचारों की परवरिश खास-म-खास होती है, जो इन्हें ऐसा बना देती है। क्यूंकि पशु-पक्षी भी अपने बच्चों को खाने का बंदोबस्त करना तो कम से कम सीखा ही देते हैं। मगर पता नहीं ये कौन से रीती-रिवाज या सामाजिक प्रथा है, जो आज तक अपने लड़कों को इतना तक नहीं सीखा पाती। या शायद रीती-रिवाज़ के नाम पे बहाना।  

एक खास सोच, पुरुष-प्रधानता। जो बहुत जगह लड़को को लड़कियों से ज्यादा खास बनाती है या अधिकार देती है। ऐसे समाज में इन खास लड़कों के रस्ते का रोड़ा भी, वही सोच बनकर खड़ी होती है। वो कहते हैं ना, की हर चीज के दो पहलु होते हैं। लड़कियाँ छोटी-सी ही उम्र में जहाँ, पढ़ाई के साथ-साथ, घर का और अपना काम भी, अपने आप करने लग जाती हैं। तो ये खास परवरिश वाले लड़के, इतने दूसरे इंसान पे आश्रित होते जाते हैं, की उस घर की औरतें, अगर एक दिन भी कहीं बाहर चली जाएँ, तो बेचारे भूखे मर जाते हैं। पता नहीं, इसमें वो कौन-सा ईज्जत कमाते होते हैं? हट्टे-कट्टे होते हुए, अपाहिज़ जैसे। एक तरफ अपाहिज़ भी, अपने सम्मान के लिए काम करते मिलेंगे। और दूसरी तरफ, ये पुरुष-प्रधान समाज के मर्द? नीरे निठल्ले, कामचोर, लुगाई-पताई करते। उसपे भारी-भरकम शब्दों को ढोते गँवार जैसे, और कहते खुद को मर्द। मुझे तो मर्द शब्द ही जैसे, घिनौना लगता है, वैसे ही जैसे साहब। जैसे फद्दू होते हुए, तानाशाह होना? या शायद तानाशाह का मतलब ही लठ के बल या फद्दू ही होता है? जिनमें भेझे की कमी होती है? क्यूंकि तानाशाही, खासकर, लठमार वहाँ होती है, जहाँ सामने वाले को दिमाग की सूझबुझ से मना लेने की क्षमता नहीं होती?

ऐसे लोग ज्यादातर उल्टे-सीधे कामों में लगे मिलेंगे। खुद को ही नहीं, बल्की अपने आसपास को भी पीछे धकेलते जैसे। ऐसा भी नहीं की ऐसे लोगों में कोई गुण नहीं होता या कोई भी अच्छाई नहीं होती। बेवजह की अकड़ और खास किस्म के माहौल की देन, उन्हें आगे बढ़ने ही नहीं देती। ठाली की इधर-उधर की बैठकों में या गली-चौराहों पे, दूसरों की बुराईयाँ करने या लुगाई-पताई करने के लिए ठाली जैसे। न कुछ करने को, न कुछ सीखने को। तो किसी को सीखाने को भी क्या होगा ? इन्हीं में से कुछ उल्टे-सीधे कामों में या तोड़फोड़ में शामिल मिलेंगे। जो कोई कमा नहीं सकता, उसे भला तोड़ने-फोड़ने का अधिकार किसने दिया? सबसे बड़ी बात, तोड़फोड़ ज्यादातर वही करते मिलेंगे, जो सीधे-रस्ते कमाना नहीं जानते। जिन्हें कमाना आता है, उन्हें मालुम है की उस सबके लिए मेहनत के इलावा कोई दूसरा रस्ता नहीं होता। 

अब जो तोड़फोड़ में शामिल नहीं होंगे, वो क्या करते मिलेंगे? कुछ न कुछ बनाते, सजाते, सवांरते, अच्छा करते या आगे बढ़ते और बढ़ाते। हाँ। इतना फर्क हो सकता है की किसी माहौल में कम करके भी ज्यादा मिलेगा। और कहीं बहुत मेहनत करके भी रुंगा जैसे। ये निर्भर करता है, की वो कैसे माहौल से और लोगों से घिरे हुए हैं। अगर किसी को लग रहा है, की बहुत मेहनत करके भी, कुछ खास नहीं मिल रहा, तो माहौल बदलना होगा। और कोई चारा नहीं। नहीं तो जो है, उसी में खुश रहना सीख लो। यहाँ महज़ बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री बनना से मतलब, सफल होना नहीं है। इसीलिए पहले ही लिखा है की अलग-अलग लोगों के और अलग-अलग समाज के सफलता और असफलता के पैमाने भी अलग-अलग हो सकते हैं। मगर ठीक-ठाक जीने के लिए, अपनी आम जरूरतों तक को पूरा न कर पाना, जरूर असफलता है। सिर्फ ऐसे तबकों या इंसानो की ही नहीं, बल्की उस समाज की भी। एक और आम बात जो यहाँ सुनने को मिलेगी, वो ये की लड़कियाँ तो यहाँ फिर भी सफल हो जाती हैं या कम से कम कोशिश तो कर ही रही होती हैं, इन सांडों (लड़कों, यहाँ जुबाँ ही ऐसी है, बहुतों की, शायद इसीलिए लठमार बोली कहा जाता है) का क्या करें। यहाँ भी लड़के और लड़कियों के माहौल को जानने की कोशिश करेंगे, तो काफी कुछ समझ आएगा। 

कम पढ़े-लिखे होने का मतलब असफल या फेल होना नहीं होता, जो अक्सर हमारे समाज में बताया या सिखाया जाता है। जो कम पढ़े-लिखे हैं, वो भी नकारा या कामचोर नहीं होते। कम पढ़ाई का मतलब, बेकार होना भी नहीं है। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे, बड़े-बड़े व्यवसायों और कंपनियों के मालिक मिलेंगे और ज्यादातर ज्यादा पढ़े लिखों को काम पर रखे। विडम्बना (Irony)? खासकर, कम विकसित देशों में। यहाँ ज्यादातर राजनीतिक नेताओं के भी यही हाल मिलेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के। तो आपका पढ़ा-लिखा होना या ना होना सफलता या असफलता की निशानी हो भी सकता है और नहीं भी। मगर हट्टे-कट्टे होते हुए अपाहिजों की तरह जीवन व्यतीत करना जरूर असफल होना है। कम पढ़ा-लिखा इंसान मतलब, पढ़े-लिखों से किसी खास विषय में थोड़ा कम आता हो या उस विषय का ज्ञान ना हो। जो पढ़ते हैं, उन्हें भी सब कहाँ आता है? बहुत से विषयों में वो भी अनपढ़ों जैसे ही होते हैं। जैसे किसी की पढ़ाई बायोलॉजी या हिंदी में हो, तो भी कानून में तो वो इंसान भी अनपढ़ ही होगा। मगर हमारे समाज में कम पढ़ा-लिखा होने का मतलब, शायद असफल होने की मोहर लगाने जैसा-सा है। कम पढ़े-लिखे भी न सिर्फ एक-दूसरे का काम बाँटते हैं, बल्की अपने सारे काम भी एक उम्र के बाद खुद करते हैं। छोटा-मोटा, जैसा-भी काम मिले, उसे करके न सिर्फ अपना काम चलाते हैं। बल्की कभी-कभार जरूरत पड़ने पे, आसपास के भी काम आते हैं। ये ज्यादातर वो लोग होते हैं, जिनके लिए कोई भी काम, छोटा या बड़ा नहीं होता। कोई भी काम औरत या मर्द का नहीं होता, जब तक उसमें प्राकृतिक जेंडर वाली बाधा नहीं है। 

वो जो आपके यहाँ साफ-सफाई करने आते हैं। वही, जिन्हें आप हीन भावना से देखते हैं। वो ऐसे-ऐसे नकारा और अपाहिजों से बेहतर हैं। वो जो आपके खेतों में मजदूरी करते हैं। वो जो रहड़ी या खाने-पीने के सामान का ठेला लगाते हैं, दो पैसे कमाने के लिए। अपना और अपनों का गुजारा करने के लिए। वो जो बिजली का, प्लम्बर का काम करते हैं। वो जो तरह-तरह की दुकाने सजाए बैठे हैं। वो जो इमारतें बनाते हैं, कपड़े सिलते हैं, नाई का काम करते हैं। और भी कितनी ही तरह के छोटे-मोटे काम करते हैं। कोई भी काम छोटा नहीं होता। उसको करने या देखने का नज़रिया छोटा हो सकता है। और ऐसे काम करने वाले लोग, किसी भी ठाली और उसपे यहाँ-वहाँ बकवास करते, हट्टे-कट्टे होते हुए भी अपाहिजों जैसों से, बहुत बेहतर हैं। हालाँकि ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, हट्टे-कट्टे  अपाहिजों का भी ईलाज है। उन्हें थोड़ा उनके सिकुड़े जहाँ से बाहर की जानकारी देकर या सैर करवाकर। थोड़ा-बहुत काम-धाम सीखाकर। इनमें से भी बहुत से चल निकलेंगे, शायद।     

PPF -- Transfer-Adjustment?

आप बैंक में पैसा क्यों जमा करवाते हैं? ताकी जरुरत पड़ने पे आपके काम आ सके। घर पे सुरक्षित नहीं होगा। बैंक में सुरक्षित होता है? उसपे थोड़ा बहुत ब्याज भी मिलता है। 
या कोई और वजह भी हो सकती है? 

मान लो, आपके दो बैंको में अकाउंट हैं। आप नौकरी करते हैं और एक बैंक की शाखा (SBI)आपकी कंपनी या इंस्टिट्यूट में भी है। उसी में आपकी तन्खा भी आती है। आपका अपने इंस्टिट्यूट या कंपनी से कोई झगड़ा चल रहा है। आपने नौकरी छोड़ भी दी और नहीं भी। अब इंस्टिट्यूट या कंपनी ने आपकी 10 -15 सालों की जो बचत है उसे रोक दिया। जब तक आप वहाँ से उनकी TERMS और CONDITIONS के अनुसार नहीं निकलेंगे, तक तक आपको हर तरह से बिठा दिया। न आप अपने मुताबिक कहीं कुछ कर सकते। न भारत छोड़ कहीं बाहर जा सकते। उसपे झूठे केसों में जेल में पटक देंगे, के डरावे अलग से। 
  
एक होता है PPF, जिसमें इंस्टिट्यूट या कंपनी का कोई लेना-देना नहीं होता। क्युंकि वो आपका अपना अलग से बचत खाता है। आप उसे तो निकाल ही सकते हैं ना? SBI वाले बताते हैं की ऐसा नहीं हो सकता। थोड़ा-सा पैसा है और वो भी फलाँ-फलाँ नाम पे हज़म हो जाएगा। फिर कहीं से सलाह मिलती है की दूसरे बैंक में ट्रांसफर करवा लो, तब तो मिल सकता है। ये भी सही है और आपने PPF ट्रांसफर के लिए अप्लाई कर दिया। SBI वाले इधर-उधर के नखरे और धक्के खिलाते हैं। जो काम मुश्किल से आध-पौने घंटे का था उसे 3-4 दिन में करते हैं। पहले बोलते हैं आप चैक ले जाना और दूसरे बैंक में जमा करवा देना। और हो गया काम। मगर फिर कुछ फ़ोन आते हैं, और विकास वाली 25-नंबरी नौटंकी चलती है। फिर आपको बताया जाता है की चैक आपको नहीं दे सकते और किसी प्रदीप को बुलाके बोलते हैं, की ये दे आएगा। आप 3.00 PM पे ICICI चले जाना और आपका काम हो जायेगा। 6th-मई को अगर आप News-24 देखेंगे तो शायद करनाल स्पेशल कोई न्यूज़ मिल जाए। मैडम बाथरूम में छुप गयी और काम नहीं कर रही। 

9th मई से शुरू होते हैं ICICI के धक्के अपना ही पैसा निकलवाने के लिए। दो दिन, 4 दिन, 10-दिन, 20-दिन। आखिर थोड़ा-सा पैसा, अपने ही अकाउंट से निकलवाने के लिए और कितने दिन? 
Are not we living in the age of Online ease of doing work?  इत्ते से काम के लिए आखिर कितने धक्के और बहाने?

एक महीने बाद, मतलब कल 6th जून, आप फिर से जाते हैं। 2-3 घंटे की बहस के बाद आपको बोला जाता है की Sunday तक पैसे आपके saving account में आ जायेंगे। आप पूछते हैं उस रविवार की तिथि क्या है? और बताया जाता है 9!  कितनी तारीख़ है आने वाले रविवार की? खैर, आप काफी बहस के बाद वापस घर आ जाते हैं।   
 
आज फिर से फ़ोन आता है की मैडम आपके SBI ने जो पैसे काटे हैं, आपने वो नहीं बताया। जबकि मैं SBI PPF की ऑनलाइन statement निकाल कर दे चुकी !

उसपे मोहतरमा बोलती हैं स्टेटमेंट तो SBI ने चैक लगाके भेजी हुयी है। 
तो आप मुझे क्यों धक्के खिला रहे हैं?
हमारी back end team कह रही है की आप इस साल का withdrawal कर चुके! दुबारा नहीं हो सकता! 
Interesting?  
   
आपने PPF ट्रांसफर ही इसलिए किया है की SBI में संभव ही नहीं था। पैसा हजम हो जाता। अगर वहां पैसा निकाल देते तो PPF Transfer की नौबत ही न आती। 
कितना पैसा SBI ने काट दिया, मुझे बताये या पूछे बैगर? 24000 से थोड़ा उप्पर। क्यों? उसपे लिखा है transfer-adjustment! 

मैंने SBI में कोई फॉर्म नहीं भरा withdrawal के लिए तो withdrawal संभव है क्या? फिर ये क्या है? SBI वालों ने बताया की अबकी बार का हमारा interest हमने वापस रख लिया। Interest आपको आगे वाला बैंक देगा। आगे वाला बैंक तो पैसे ही नहीं दे रहा। Interest को मारो गोली। 

शुरू में ICICI बैंक वालों ने बोला एक महीने बाद ले लेना, नहीं तो 590 रूपए कट जाएंगे। मैंने कहा कटने दो, मुझे अभी चाहिएँ। मगर नहीं। अब तो एक महीना भी हुआ। अब क्या?

आज मैडम बोलती हैं आपका SBI में Closure नहीं हुआ है। घररररर 
अब इन्हें कौन बताए की मैं पहले ही बहुत फाइल्स के closure झेल चुकी। तुम बक्स दो मुझे कहीं तो!

लो देखो, आपके अपने समाज का आम आदमी क्या-क्या झेलता है, इस crypts के जुआ बाजार में : 

या कॉपी पेस्ट https://www.youtube.com/watch?v=MFjmbGyF6zk 

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 1

आप व्यस्त कहाँ है? यही सब आपकी सफलता या असफलता निर्धारित करता है। हालाँकि सफलता और असफलता के अलग-अलग लोगों और अलग-अलग समाज के लिए, अलग-अलग पैमाने हो सकते हैं। मगर कुछ तो सब जगह एक समान होगा। वो है आम जरुरत के संसांधन, शांती और आगे बढ़ने के मौके।  

आओ दो अलग-अलग तरह के माहौलों पे गौर फरमाते हैं। शायद दोनों ही आपके इधर या उधर हों। आपके आसपास या शायद थोड़ा दूर हों। आप उनमें से किधर का हिस्सा हैं?  

ये सब उनके लिए शायद, जो कहते हैं की हमने तो बहुत किया अपने बच्चों के लिए। मगर फिर भी नालायक निकले। खासकर, गाँवों में ऐसे-ऐसे नालायकों की फौज की फौज होती हैं। जिनके बच्चे सफल होते हैं और जिनके नहीं होते, जिनके घर अक्सर शांत रहते हैं और जिनके अक्सर लड़ाई-झगड़े के घढ़, उनकी अगर तुलना करोगे तो काफी कुछ समझ आएगा। ऐसे घर भी, जो किसी वक़्त काफी शांत रहे हैं, और किसी वक़्त झगडे और लड़ाई के घढ़। मतलब, एक ही घर के भी,अलग-अलग तरह के वक़्त हो सकते हैं। अपने ही घरों की उन अलग-अलग परिस्थितियों को जानने-समझने की कोशिश करेंगे, तो बहुत कुछ समझ आने लगेगा, की ऐसा क्यों?  

अगर ज्यादातर घरों को दो तरह के घरों में बाँट दें, शांत और अशांत। तो फर्क शायद ये देखने को मिलेगा की शांत घर के लोग आपस में वक़्त ज्यादा बिताते हैं। बजाय की बाहर वालों के साथ। एक साथ खाते-पीते हैं। एक-दूसरे के भले-बुरे में साथ खड़े होते हैं। अगर वो दूर-दूर रह रहे हों तो भी आपस में बातचीत तकरीबन रोज होती मिलेगी या कोशिश करते होंगे, जितना ज्यादा एक-दूसरे के हालचाल जान सकें। या दूर बैठकर भी एक दूसरे के काम आ सकें। अशांत घरों में सबके अपने-अपने, अलग-अलग, ठिकाने मिलेंगे। एक-दूसरे के लिए वक़्त कम ही होगा। कोई इनके यहाँ, तो कोई उनके वहाँ मिलेगा। अब इनके और उनके यहाँ का माहौल ही इनकी ज़िंदगी की दिशा और दशा निर्धारित करेंगे। 

अगर माहौल आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त है, तो वो आगे बढ़ते मिलेंगे। अगर माहौल ही पिछड़ा और पीछे धकेलने वाला है, तो वो पिछड़ते और पीछे रहते मिलेंगे। मतलब, आप जहाँ-कहीं भी रहें, वहाँ का माहौल आपको और आपकी ज़िंदगी को बहुत प्रभावित करता है। एक माहौल आपको हर वक़्त कुछ नया और कुछ अच्छा सिखाता मिलेगा। वो भी बिना कोई ज्यादा मेहनत किए। तो एक माहौल, आपकी मेहनत पे भी पानी फेरता मिलेगा। थोड़ा बहुत सीखने के लिए भी, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। एक माहौल आपको अपने आप शांत बनाता मिलेगा। और एक माहौल तू-तड़ाक, गाली-गलौच, मार-पीट की तरफ हाँकता। एक माहौल, आपको कुछ नया बनाने या सजाने-सवांरने और साफ़-सफाई की तरफ लेकर जाएगा। तो एक माहौल बने हुए को भी तोड़-फोड़ की तरफ।सुन्दर, साफ-सुथरे को भद्दा बनाने में व्यस्त मिलेगा। एक माहौल, आपको उड़ना सिखायगा, आपके सपनों को पंख देता मिलेगा। तो दूसरा जकड़ना, बाँधना, जेल जैसे। कुछ तो ऐसे-ऐसे धन्ना सेठ भी मिल जाएंगे, जो शायद अपने दामादों के बारे (कोई और रिस्ता भी हो सकता है) कहते मिलें, "गले मैं मोटी चैन यूँ अ ना डाल रखी।" पैसे का इतना गरूर? आग लगा दो, ऐसे भीख (gift?) के सोने को। ऐसे लोग शायद फिर कहीं न कहीं, अपने ही बच्चों की खुशियों का भी गला घोटते मिलें। ऐसी-ऐसी, और जाने कैसी-कैसी, शानो-शौकत के चक्कर में? अमीर-गरीब या शायद ऊँच-नीच के भेदभाव में? या शायद वक़्त, उन्हें भी विनम्र होना सीखा देता है? वक़्त हमेशा एक जैसा कहाँ रहता है? इसलिए, शायद सही रहता है, दोनों तरह के वक़्तों में थोड़ा स्थिर रहना। अपने अच्छे वक़्त में किसी और को नीचा दिखाने की कोशिश ना करें और बुरे में, किसी के ज्यादा दबाव में ना रहें।    

आप अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में कहाँ व्यस्त हैं, उससे आसानी से पता किया जा सकता है की आप आगे बढ़ने में व्यस्त हैं या पीछे। आओ अलग-अलग माहौलों को अपनी दिनचर्या से जानते-समझते हैं। 

आपको किसी ने बोला यहाँ पत्थर या रोड़ा रखना है? और आपने रख दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ खूंठा गाड़ना है? और आपने गाड़ दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ गोबर मचाना है? आपने मचा दिया? आपको किसी ने बोला, इस गाड़ी का पेंट उतारना है? पहिया बदलना है? पहिया पैंचर करना है? सीट फाड़नी है? इसका शीशा फोड़ना है? इसका साइड वाला शीशा उखाड़ना है या खराब करना है? कोई पेंच निकालना है? पेट्रोल निकालना है? इसकी बैटरी बदलनी है? इसके ब्रेक फेल करने हैं? इसको रगड़ लगानी है? या इसको ठोकना है? वो ऐसा इंसानों के साथ करने को भी बोल सकते हैं। और आपने कर दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ से ये बर्तन ले जाना है? कोई और वस्तु भी हो सकती है। ये डिब्बा ले जाना है और किसी और को देना है? इस कुकर की सीटी बदलनी है या खराब करनी है? इसका ढक्कन उठाना है और कहीं और छुपा देना है? ये बल्ब फोड़ने हैं? ये चकला फोड़ना है? उनकी छत पे टायर फेँकना है ? बोतल फेंकनी है? बीड़ी, सिगरेट फेंकनी है या उनका डिब्बा वहाँ-वहाँ रखना है? वहाँ माचिस रखके आनी है? उनके पानी में गोबर-कीचड़ या कुछ और डालना है? उनकी टंकी वाली टैप खोलके आनी है? यहाँ, यहाँ और यहाँ डंडा रखना है? या पिस्तौल जैसा कुछ या स्टेनगन जैसा कुछ रखना है? यहाँ नारियल सुखा के रखने हैं? यहाँ केले के छिलके फेंकने हैं? यहाँ पॉलिथीन गिरा के आने हैं? यहाँ काला पॉलिथीन रखना है? यहाँ सोडा की या शराब की खाली बोतल? यहाँ खराब हुए पैड या नैपकीन फेंकने हैं? इस काले तार की घुंडी का 9 या 4, 5, 6, 7 या कुछ और बनाना है? इन तारों का जीरो? इन तारों का V या Y, X, Z या K। और भी बहुत शब्द हैं, बनाने या घुमाने के लिए। इन तारों में बोतल लपेट दो? इन तारों को गली से नहीं लेके जाना। बल्की इस घर की खूंठी से गाँठ बांधके, उनकी छत से होके, वहाँ उसपे इतने पथ्थर रखके और उनके घर के आगे से लेके जाना है? चाहे गली से छोटा रस्ता पड़ता हो। यहाँ, यहाँ, सफाई नहीं करनी? यहाँ, यहाँ से कूड़ा नहीं उठाना? इसपे या उसपे ये, ये कमेण्ट्री करके जाना है? उसको ये, ये, भला-बुरा कहना या संकेत करना है या दिखाना है? और भी कितना कुछ ऐसा ही, आपके अपने घर में या आसपास में तो नहीं हो रहा? 

तो सावधान। सामने वाले का तो पता नहीं, उससे क्या नुकसान होना है और क्या नहीं। आप और आपका आसपास जरूर तोड़फोड़ या उलटी-सीधी चीजों में व्यस्त है। वो जितना ज्यादा इस सबमें व्यस्त है, उतना ही ज्यादा, उन्हें पीछे धकेला जा रहा है। या गलत और बुरे प्रभावों वाले सामान्तर केसों का हिस्सा बनाया जा रहा है। आपके अपने यहाँ पिछड़ा और मारपिट का और आलतू-फालतू केसों का माहौल बनाया जा रहा है। और आपको खबर भी नहीं? ऐसे कैसे? जो भी आपसे करवाया जा रहा है, उसका मतलब है, "दिखाना है, बताना नहीं". मतलब, वो आपकी रैली पीट रहे हैं और आपसे खुद से पिटवा रहे हैं। उस सबको, वो इधर-उधर दिखा भी रहे हैं और बता भी रहे हैं। मतलब उसके मजे भी ले रहे हैं।  

समझ में आया कुछ? 

व्यस्त कहाँ हैं? कुछ और माहौल जानने की कोशिश करते हैं, आगे कुछ और पोस्ट में। 

व्यस्त कहाँ हैं?

बनाने में व्यस्त हो 

या गिराने में, 

आप और आपका आसपास?

हो चाहे, जाने में या अन्जाने में 

ज़िंदगी उसी दिशा में चलेगी। .


सिखने या सिखाने में व्यस्त हो 

कुछ अच्छा या कुछ बुरा ? 

अपनों के साथ मिलके काम करने 

या करवाने में व्यस्त हो ?

या किसी और के भरोसे छोड़ने में?


कौन, कहाँ और किसके साथ वक़्त बिताता है?

कौन, कहाँ और किसके साथ काम है?

किसके साथ खेलता या खाता-पीता है? 

किससे ज्यादातर बात करता है? 

अगर वहाँ ज्यादा विरोधाभाष नहीं है 

तो ज्यादातर, वहीं का हो रहता है। 


खून तुम्हारा है, से फर्क क्या पड़ता है? 

जब कोई जुड़ाव इतना कम है 

(या शायद कम करवाया जा रहा है) Enforced visibly or invisibly 

की वो इंसान, अपनी ज्यादातर जरूरतें 

कहीं और से पूरी करता है। 

ज़िंदगी की जरूरतें, जहाँ-कहीं से पूरी करता है 

उसकी ज़िंदगी भी, वहीं जैसी-सी ही हो रहती है 

और लगाव भी वहीं रहता है। 

Politics of Persuasion ?

Politics of Persuasion मतलब किसी को ऐसे बोलो, दिखाओ या सुनाओ, की वो जहर को अमृत समझ खा जाएँ और अमृत को जहर समझ ठुकरा दें। ये तरीके बहुत से विषयों के मिश्रित ज्ञान की देन हैं। जिन्हे राजनीति ही नहीं, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी प्रयोग करती हैं, अपना सामान बेचने के लिए। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी तरफ लुभाने के लिए। अपनी साख बनाये रखने के लिए। 

PR (Public Relations), Communications, मीडिया : प्रचार-प्रसार के माध्यम, इन सबका अहम् हिस्सा हैं। आम आदमी आज आपस में बात करने की बजाय, इन सब पर ज्यादा वक़्त बिताता है। तो क्या होगा? वही जो हो रहा है।

Google बाबा के अनुसार

Persuasion: वह अंतर्वैयक्तिक या सामाजिक प्रक्रिया होती है जिसमें एक व्यक्ति, समूह या संगठन किसी अन्य व्यक्ति, प्राणी, समूह या संगठन को तर्क, बल या प्रभावित करने के अन्य मार्गों द्वारा उनके दृष्टिकोण, विचारों या व्यवहारों को किसी विशेष दिशा में ले जाने का प्रयत्न करता है।

बहुत से विषयों का मिश्रित ज्ञान इसके लिए प्रयोग होता है। जिनमें विज्ञान, कला, सामाजिक विज्ञान सब है। इन विषयों का मिश्रित संसार टेक्नोलॉजी के विकास के साथ-साथ, आज के इंसान के तकरीबन हर वाद-विवाद से जुड़ा है। दिमाग से जुड़ा हर विषय उसमें अहम् भुमिका निभाता है। चाहे फिर वो जैव विज्ञान हो, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान या कोई और। अलग-अलग तरह के विषयों की खिचड़ी, अपने आप में अलग तरह का विषय बना देती हैं। उस सबका अध्ययन, नए-नए आयाम, अवसर और अवरोधों का स्त्रोत होता है। दिमाग भी ऐसे ही है। अलग- अलग वातावरण में अलग-अलग तरह से काम करता है। वो दिमाग है तो सबके पास, मगर उसका उपयोग कहाँ, कैसे, कितना और किस दिशा में होता है, इसपे निर्भर करता है, इंसान का पूरा अस्तित्व। समाज की दशा और दिशा। अगर उस दिमाग को आप प्रयोग करें तब तो सही। मगर आपकी बजाय अगर वो किसी और के अधीन काम करने लगे तो? सम्भव है क्या ये?  

आप किसी के बारे में क्या सोचते हैं? ये इस पर निर्भर करता है की आपको उसके बारे में क्या-क्या पता है? और इस पर भी की किसी विषय पर आपकी सोच क्या है? अब एक ही विषय पर एक देश और दूसरे देश के आदमी की सोच अलग हो सकती है। और एक ही घर में बच्चे और बड़े की सोच भी अलग हो सकती है। 

जैसे Enjoy एक बच्चे ने बोला तो उसके लिए इसका मतलब होगा, खेलना, थोड़ी-सी घुमाई अपनी पसंदीदा जगहों पे, जैसे वाटर पार्क और हो सकता है कोई कंप्यूटर गेम, कोई serial, cartoon सीरीज, शायद थोड़ी बहुत खरीददारी, थोड़ा अपनी पसंद का खाना। 

बड़ों के लिए भी कुछ-कुछ ऐसा ही होगा। अपनी-अपनी पसंद और उम्र के हिसाब से। 

किसी के लिए उसका मतलब 3-IDIOT के Joy सुसाइड के खिड़की सीन पे टिक सकता है क्या? बताया ना निर्भर करता है, की उस बन्दे की जानकारी किसी विषय वस्तु की कितनी है, और वो उसे कैसे समझता है?   

कुछ बातें या चीज़ें हो सकता है आपको बताई, दिखाई या समझायी ऐसे जा रही हों, जो आपके लिए सही न हो। जिन्हे आप या तो बहुत पीछे छोड़ चुके या वो सब इतना और इस तरह से हो चुका की महत्व ही खो चुका हो। इन्हीं बातों और तरीकों में क्रुरता भरी होती है। राजनीतिक पार्टियों की ये क्रुरता किसी भी भले-बुरे वक़्त पे सामने आ सकती है। वो मौत पे स्टेनगन दिखाने पहुँच सकते हैं, और शादी पे, मौत के सौदागर बनकर। हिन्दुओं को मुसमानों की तरह के तरीके जोड़-तोड़ कर फूँक सकते हैं और मुसलमानों को हिन्दुओं की तरह। उनके दिमाग की क्रुरता अक्सर उनके पहनावे, आसपास के संसाधनों, कामों को करने के तरीकों में झलकती है। ऐसे सामाजिक ताने-बाने अक्सर औरतों और कमजोर समझे जाने वाले वर्ग को बल के तान धकेलते हैं। क्युंकि दिमाग ऐसे लोगों के काम कम ही आते हैं। उनके हाथो में डंडे जैसे या इससे भी खूँखार साधन मिलते हैं। ऐसे लोग औरतों के नाम पर या कमजोर कहे जाने वाले तबकों के नाम पे पद पाते हैं। और बनने के बाद उन पदों को अपने ही नाम लिख लेते हैं। सोचो, ऐसी सोच औरतों को क्या समझती होगी और उनसे कैसे पेश आती होगी? फिर चाहे अपने ही घर या आसपास की औरतें क्यों न हों?    

राजनीती अक्सर ऐसे केसों में काले धागे फेंकती है और कहती है चमार-चूड़े (Lower Cast) आ गए। इस तरह के धागे और जातियाँ और धर्म, राजनीति की घिनौनी देन ज्यादा हैं। इसमें भी अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के, अपने-अपने उदेश्य भुनाने के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। राजनीति के लिए कुछ भी अछूत नहीं है। 

वो भाइ-बहन, बाप-बेटी, दादा-पोती, माँ-बेटा जैसे रिश्तों कों तार-तार करने की कोशिश कर सकते हैं। कौन हैं ये लोग? पहले तो इन कुंठित मानसिकताओं को पहचानों। और जितना हो सके, अगर दूर न हो सको तो कम से कम सावधान जरूर रहो। कोड्स की भाषा में BC, MC, CC, SF, MF और भी पता नहीं क्या-क्या होता है। सामने वाले के प्रयोग और नज़रिये पे है। अब अगर लोगबाग ऐसे-ऐसे नाटक लिखेंगे या तोड़-मरोड़ कर समाज में पेश करने की कोशिश करेंगे तो उस समाज में या ऐसे तबके में औरतों या इस कमजोर कहे जाने वाले वर्ग की स्थिति क्या होगी? शायद आप कहें शिक्षा उसका समाधान हो सकती है? क्या पता ऐसे लोग शिक्षा में भी घुसे हों? और उनके लिए वो शिक्षा की बजाय धंधा मात्र हो? उसपे बाहर छवि ये बना ली हो की हम तो लोगों के उत्थान के लिए, भले के लिए काम करते हैं?     

ऐसी सोच मुर्दाघरों से मुर्दे निकाल बेच सकते हैं और ज़िंदा लोगों को मुर्दा घरों में सजा सकते हैं। वे माता कह के ले सकते हैं और रातों जगराते करवा सकते हैं। काम ख़त्म होने पे उन्ही सजी-धजी मुर्तियों का विषर्जन कर सकते हैं। मतलब, वोटों के लिए हर तरह का गंद फैला सकते हैं। आम आदमी की ऐसे लोगों के बीच जीत हो ही नहीं सकती। क्यूंकि, आम-आदमी उतना नहीं गिर सकता। वो सफ़ेद धागों को ब्रामणों या जाटों या राजपूतों या किसी भी ऊँची जाती का धागा गा सकते हैं। ऊँची जाती कितनी ऊँची? क्या पैमाने हैं उस उंचाईं के? नीची जाती कितनी नीची? कितनी गहरी खुदाई है उस जाती की? अगर वो आपको इन सब जालों में उलझा रहे हैं, तो बचो उनसे। उनका तो धंधा है ये। हाँ! पर गन्दा है ये।