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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Sunday, December 31, 2023

चलें यूनिवर्सिटी की सैर पे? 1

बहुतों को शायद यूनिवर्सिटी का मतलब सिर्फ पढ़ाई-लिखाई ही समझ आता है। पढ़ाई भी बोर, उबाऊ, मोटी-मोटी किताबें और लम्बे-लम्बे लेक्चर? अजीबोगरीब लैब्स और उनके अजीबोगरीब पढ़ाकू टाइप जानवर? और यही सोच बहुत से भाग खड़े होते हैं? ऐसे ही जैसे, बहुतों को स्कूल या कॉलेज के नाम से भी ऐसा-सा ही लगता है? ये खास ऐसे लोगों के लिए ही है। खास उनके लिए भी, जिनका नया-नया सिस्टम, गवर्नेंस आदि को समझने में इंटरेस्ट पैदा हुआ है। मेरे जैसे। खासकर, जब ये समझ आने लगे की सिस्टम का मतलब ना तो सिर्फ राजनीती या राजनेता हैं। ना ही सिर्फ नौकरशाह या व्यवसायी। ये तो बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से समाज के हर तबके को अपने में जोड़े हुए है। जिसमें एक तरफ कुर्सी पे बैठे पदाधिकारी हैं, तो दूसरी तरफ समाज का वो आखिरी तबका, जो सबसे आखिर में आता है।

एक तरफ सभ्य कहलाने वाला, साफ दिखने वाला, फैसले लेने या लेने में अहम भुमिका निभाने वाला समाज। तो दूसरी तरफ, वो समाज, जिसकी तरफ ये सभ्य कहलाने वाला या पढ़ा-लिखा समाज कम ही देखता या सोचता है। इन दोनों समाजों के बीच जितना ज्यादा फासला है, उस समाज का उतना ही ज्यादा हिस्सा कम विकसित और गरीब है। उस गरीबी को और ज्यादा गरीबी की तरफ धकेलता इस सिस्टम का ताना-बाना है। शातीर दिमागों द्वारा  बनाया गया वो ताना-बाना या जाल, जो आस्था, विश्वास और रीती-रिवाजों में शोषण को गूँथ देता है। इसलिए अगर किसी भी समाज को आगे बढ़ाना है या ये दो समाजों के बीच की खाई को दूर करना है तो आस्था, विश्वास और रीती-रिवाजों के द्वार पर पढ़ाई-लिखाई और संवाद को रखना होगा। ताकी शातीर लोगों द्वारा इनमें गुँथे गए शोषण पे प्रहार हो सके। शिक्षा के इन संस्थानों का दायरा सिर्फ बोर और उबाऊ किताबों तक ना रखकर, रोचकता की तरफ बढ़ाना होगा। जहाँ जबरदस्ती की बजाए, किसी भी विषय में रुची पैदा करने के तरीके हों। विकसित देशों का शिक्षा संसार शायद वही सब कर रहा है। जिसमें भारत जैसे देश आज भी काफी पीछे हैं। ये फर्क वहाँ के और यहाँ के डिग्री प्रोग्राम्स, उनका सिलेबस, पढ़ाने और सिखाने के तौर-तरीके और सुविधाओं से समझा जा सकता है।                 

पढ़ाई-लिखाई वाला ये सभ्य, साफ-सुथरा, हरा-भरा, वाद-विवाद या संवाद वाला ये संसार, सही मायने में किसी भी संसार की दिशा या दशा तय करता है। जहाँ-जहाँ इस संसार में गड़बड़ है, वहाँ-वहाँ के समाज में भी कुछ-कुछ वैसी-सी ही गड़बड़ है। जितना ये समाज सभ्य है या सही है या अपना योगदान जिस किसी तरह से समाज में दे रहा है, वैसा-सा ही, वहाँ का समाज है। हर जगह सामान्तर घड़ाईयों का समाज कैसा है, ये तो अभी ठीक से नहीं कह सकती। मगर जितना समझ आया, हकीकत हर जगह, कम या ज्यादा ऐसी-सी ही है।              

जब भी जहाँ कहीं आप घुमने जाते हैं, तो क्या सोचकर जाते हैं? आपके दिमाग में उस जगह के बारे में क्या खास होता है? और वहाँ जाने का आपका इरादा क्यों बना? यही सब आपकी उस घुमाई या सैर को परिभाषित करता है। दुनिया भर के अलग-अलग कोनों में, अलग-अलग यूनिवर्सिटी, एक अलग ही तरह के संसार को दिखाती, बताती और अनुभव कराती हैं। शिक्षा के इन संस्थानों में काफी कुछ एक जैसा-सा होते हुए भी, काफी कुछ अलग है और खास है। क्या है वो? चलो जानते हैं, उन्हीं के आँगन से कुछ शब्दों से, कुछ तस्वीरों से, कुछ वीडियो से, कुछ प्रोग्रामों से या उनके सिलेबस से, पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों से, सुविधाओं से या दुविधाओं से? उन्हें चलाने वाले या वहाँ काम करने वाले लोगों के नजरिये से, उनके कामों से और उन्हीं के शब्दों, शोधों या जुबानों से। कैसे शिक्षा के संस्थान वहाँ के समाज को प्रभावित कर रहे हैं या कोई भी दिशा या दशा, उस समाज को दे रहे हैं? कहाँ से शुरू करें?

2012, जब आखिरी बार मैं किसी विदेशी यूनिवर्सिटी की दहलीज़ पर थी, मॉस्को, रूस। कुछ कारणों की वजह से, उसके बाद मैंने खुद ही जैसे कांफ्रेंस पे एक फुल स्टॉप लगा दिया। और तय किया की अब कांफ्रेंस में कभी नहीं जाउँगी। जब भी जाना होगा, तो कुछ सिखने या सिखाने, पढ़ाने या शोध करने, थोड़ा लंबे वक़्त के लिए होगा। कम से कम, कुछ महीने या साल। मॉस्को से वापस आते वक़्त, मेरा स्टॉप अल्माटी, कजाकिस्तान था। वो भी पुरे 9 या 10 घंटे का स्टॉप। मैं थकी हुई थी और बुखार-सा अनुभव हो रहा था। दिमागी बुखार शायद। कुछ चल रहा था शायद उस दिमाग में। उन्हीं दिनों के आसपास, मैंने एक अलग-सा विषय उठाया हुआ था, पढ़ने और थोड़ा बहुत उसके बारे में जानने के लिए। ये विषय एक तरह से Bioinformatics से थोड़ा अलग राह चुनने के लिए था। या शायद उसके साथ जोड़ने के लिए। क्यूँकि जब Molecular Lab में समस्याएँ हल होती नज़र नहीं आई तो मैंने Bioinformatics विषय उठा लिया, मगर उसमें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं हो पाया। उसे जबरदस्ती जैसे घसीट रही थी, बस। Evolution और Genetics कभी से मेरे इंटरेस्ट के विषय रहे थे। तो ये उसी इंट्रेस्ट का परिणाम था शायद। इन 9-10 घंटो में शायद ऐसा कुछ ही देख-समझ रही थी। और तो कुछ था नहीं करने को, आते-जाते लोगों को देखने के सिवाय। क्या था वो?   

आम भाषा में कहें तो इंसान का हुलिया। थोड़ी नई-सी ईजाद की गई भाषा में कहें तो IMAGE (छवि?)। जीव विज्ञान की भाषा में कहें तो Evolution of Human. मतलब, इंसान, आज जैसा दिखता है या है, दुनियाँ के किसी भी कोने में, वैसा क्यों हैं? इसकी उत्पत्ति और विकास की कहानी क्या है? सिर्फ किसी इंसान का हुलिया देखकर, हम उसके बारे में कितना कुछ बता सकते हैं? शायद काफी कुछ। जैसे, इतने सारे बदलावों के बावजूद, मैं खुद अपने सिर के बालों से उतना नहीं सीख पाई, जितना मेरी छोटी-सी भतीजी और भांजी के बालों ने मुझे सिखाया या समझाया, किसी सिस्टम के ताने-बाने को, जाल को। एक ऐसा सिस्टम, जो बच्चों तक को नहीं बक्सता। उसके बाद आसपास के कुछ एक और बच्चों की अजीबोगरीब बिमारियों (?) के बारे में भी जाना। और फिर तो जैसे एक के बाद एक छोटे क्या, बड़े क्या, सबकी बीमारियाँ शायद कुछ एक जैसा-सा ही इशारा कर रही थी -- सिस्टम की तरफ। 

तो शुरू करते हैं, इस पढ़े- लिखों की दुनियाँ (यूनिवर्सिटी) की सैर को जिससे शायद समाज के उस आखिरी तबके को सिखने, समझने और जानने को ज्यादा मिले। और पढ़े-लिखों को सोचने को, की विकसित समाज, अपने उस आखिरी तबके को भी कैसे साथ लेके चलता है? ना की सिर्फ उसका शोषण करता है, ज्यादा, ज्यादा और ज्यादा की चाहत में? और आज तक, 21वीं सदी में भी अविकसित या विकासशील देशों के हालात ऐसे क्यों हैं?

Friday, December 29, 2023

मत, विचार, विचारधारा, गुप्त धकेलवाहक संसार और ज़िंदगियों पे प्रभाव

Perspective or a Viewpoint, outlook, point of view, position, projection? 

Editor's Viewpoint?

Writer's viewpoint?

Script Writer's viewpoint?

Storyteller's viewpoint?

Drama's or Theatre persons viewpoint?

Some movie और serial viewpoint?   

Who's viewpoint?

Specific party or person viewpoint on any topic? But they enforce on you like it's your own viewpoint?  

किसी पार्टी का या किसी का मत या विचार ये है, की फलाना-धमकाना को, फलाना-धमकाना का पानी नहीं पीना चाहिए। खाना नहीं खाना चाहिए। उनके घर नहीं जाना चाहिए। उनसे बात नहीं करनी चाहिए। उनका कोई भी काम नहीं करना चाहिए। 

या इससे भी थोड़ा आगे चलकर उनको उलटी-सीधी, टिक्का-टिपण्णी करनी चाहिए। उनके काम में अवरोध पैदा करना चाहिए। उनका बनता काम भी बिगड़ना चाहिए। उन्हें आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए। उनके आपस में जूत बजवाने चाहिएँ। उनको पीटना चाहिए। उनके सामान को खराब करना या तोड़ना-फोड़ना चाहिए। उनको बुरी आदतों की तरफ धकेलना चाहिए। उनके पैसे यहाँ-वहाँ बर्बाद करवाने चाहिएँ। उनके आपस में मनमुटाव पैदा करना चाहिए। उनकी नौकरी, घर, जमीन-जायदाद, धोखाधड़ी से या जबरदस्ती मारपिटाई कर, अपने नाम कर लेनी चाहिए। उनके घर के आदमियों को खत्म करना और खदेड़ना शुरू करना चाहिए। और ये सब ऐसे करना चाहिए की लगे, की ये तो वो खुद कर रहे हैं। 

इसे क्या कहते हैं?

AI? Artificial Intelligence 

IOT? Internet of Things

Psychology, Human Behavior

Interdisciplinary Sciences (Including Social Sciences)  

Complex of Science, Arts, Commerce या सीधी-सी भाषा, ज्ञान (knowledge)   

Surveillance Abuse?

शायद इस सबसे ज्यादा कुछ? ये हमारा आज का संसार है।  

मगर आम-आदमी इसे कैसे देखता या समझता है?              

इससे पहले एक पोस्ट में सुशीला कार, शिव शक्ति बाजार की कहानी सुनाई। और भी बहुत तरह के कोड हैं उसमें।  

सिर्फ कहानी?

हकीकत?

हकीकत के आसपास?

या कोई नाटक?

किसी एक पार्टी का?

मत, विचार, पक्ष, किसी एक पार्टी का। जरूरी नहीं, कोई और उससे सहमत भी हो। या हो सकता है, बहुत ज्यादा विरोधाभास हो। मगर, कितनों को समझ आया की वही सच है?

सच है। कुछ हद तक। मगर किसका सच है? और किसपे थोंपने की कोशिश की गई है?

उससे भी अहम, किस, किस की ज़िंदगी को इस सच के आसपास घुमा दिया गया है? और किसने? और उससे भी अहम, क्यों? जिसकी या जिन किन्हीं की ज़िंदगियों को इस स्क्रिप्ट के आसपास घुमा दिया गया है, उनका अपना उस घुमाई में क्या योगदान है? सामाजिक सामान्तर घड़ाईयाँ। 

अगर आपको वो समझ आ जाएगा, तो आप इस सबसे दूर हो जाएंगे। और अपनी ज़िंदगी को अलग तरह से सही करने की कोशिश करेंगे। उसके लिए आपको ऐसे-ऐसे कुछ और स्क्रिप्ट्स के बारे में पता होना चाहिए। जो शायद विरोधी या दूसरी पार्टियों ने रचे हुए हैं, आपके आसपास भी। और जहाँ गड़बड़ है या ऐसा माहौल बनाया गया है, वहाँ भी।                        

Science Fiction Vs Reality?

Book from hostel?

Or maybe hotel?

cannot write all?

have to hide identity?

else game would not be game?

कौन सा जहाँ है ये? पता नहीं।  

आगे आते हैं, एकाध ऐसी ही पोस्ट पे। हॉस्टल से बुक लानी है। किसी ने उसको होटल बना दिया हो शायद? जाना था किसी होटल, पहुंचा दिया किसी और शायद। अब ये होटल की बजाय कोई घर या लाइब्रेरी या कोई और जगह भी हो सकता है। ऐसे ही बुक की जगह कुछ और भी हो सकता है। 

या Inn Lodge? आपने गलती से दरवाजा खुला छोड़ दिया या कुछ गड़बड़ घोटाला? जानेंगे इधर-उधर के, इसके या उसके किस्से कहानियों के बारे में। कोशिश रहेगी की लोगों की पहचान गुप्त रहे। अजीबोगरीब, गुप्त-गुप्त संसार। मगर इतना गुप्त होकर भी, इतनी सारी निगाहों और कैमरों के बीच। 

World of Surveillance? System? Strange Politics throughout world?   

मत ही मताधिकार है? आप किसका मत डाल रहे हैं?  

उम्मीदें, 2024 से?

ये रोचक ऑनलाइन ट्रैवेल, ये तो रहेगा ही रहेगा। उसके साथ-साथ हो सकता है, थोड़ा बहुत ऑफलाइन भी हो जाए। यहीं तो धकाया जा रहा है? Get Out of India? Better Word, Exile, I Guess? जैसे हालात हैं, मेरे भारत में? राजनीतिक लकवा जैसे? Political Paralysis?        

इस साल, यहाँ ना रहें, शायद तो ही अच्छा? इस साल कौन-कौन यहाँ बच पाएगा? और किस-किस को ये राजनीतिक साल खा जाएगा, शायद मुश्किल है कहना? Push to that extreme जैसा-सा कुछ, चल रहा है शायद यहाँ? यहाँ? नहीं। उन कुर्सियों पे बैठे आदमखोरों का धकाया हुआ और पेला हुआ जहाँ है ये?   

लिखना और पढ़ना, जब सिर्फ शौक नहीं, बल्की अहम जरुरत बन जाए। वो भी ऐसे, जैसे, किसी और जहाँ की जरुरत ही ना हो? बस, ऐसी-सी ही उम्मीदें हैं, 2024 से?  

तो चलते हैं, एक ऐसी सैर पे? क्यूँकि, जिस संसार की तरफ मैंने रुख किया है, वो सच में बहुत रोचक है। 

बिन कहे बहुत कुछ कहता है 

बिन सुनाए बहुत कुछ सुनाता है 

बिन दिखाए, बहुत कुछ दिखाता है 

पास ना होकर भी, 

कितना कुछ अहसास कराता है 

और 

कैसी-कैसी दुनियाँ की सैर पे लेकर जाता है?

उसी बिन कहे, बिन सुनाए, 

बिन दिखाए के अहसास को, 

यहाँ-वहाँ से चुन-चुन कर, 

शब्दों या मल्टीमीडिया के द्वारा, 

अगर आप तक भी पहुँचा पाई 

और अहसास करवा पाई 

समझा पाई, की संसार कहाँ है?

21वीं सदी में?

और आप, आमजन, आम-आदमी  

थोड़े विकासशील, 

या शायद थोड़े या ज्यादा ही पिछड़े कहाँ हैं? 

तो ये साल और ये उड़ान, 

उन उम्मीदों पे खरी उत्तरी समझो।                                  

शिव-बाजार?

शिव कौन है?

क्या जानते हैं आप, इस इंसान या भगवान (?) के बारे में?

भगवान शादी करते हैं? 

भगवान के बच्चे भी होते हैं?

कितनी शादी करते हैं?

अब भगवान हैं, तो कितनी भी करें?

या भोले हैं, एक में ही गुजारा कर लेते हैं?

या परिस्तिथिवश दो, तीन, चार या ज्यादा भी कर सकते हैं?

परिस्तिथिवश? परिस्तिथियाँ, भगवानों के भी काबु से बाहर होती हैं? कैसे भगवान हैं ये? ये तो बड़े इंसान-से हैं। नहीं?

वैसे आपके भगवान पुरुष हैं या औरत? भगवान हैं तो भगवानी भी होंगी? मतलब, देव हैं तो देवियाँ भी होंगी? श्री देवी जैसी शायद? कुछ भी।     

अगर पुरुष या औरत भगवान हो सकते हैं, तो हिज़ड़े भी भगवान हो सकते होंगे? है कोई? या उन्हें ऐसा कोई हक़ नहीं होता?   

अरे भगवान को इस या उस लिंग की जरुरत ही कहाँ? 

वो तो जैसे पौधों में Hermaphrodite होते हैं ना, मतलब, द्विलिंग, एक में ही दोनों औरत और पुरुष के लिंग, वो भी हो सकते हैं? नहीं? ना शादी करनी। ना किसी औरत की या पुरुष की जरुरत। ना औरत-पुरुष वाले जलन वाले झगड़े। शादी वाले सास-बहु सीरियल। और ना ही पति या पत्नी वाली तू-तू, मैं-मैं। सारे वाद-विवाद ही खत्म। कुछ-कुछ करण जौहर जैसे? फिर से कुछ भी? वैसे श्री देवी और करण जौहर दोनों ही मस्त हैं या रहे हैं अपनी-अपनी ज़िंदगी में। मेरा इरादा, यहाँ किसी खास इंसान या एक्टर या एक्ट्रेस पे कोई कटाक्ष या किसी तरह की खामखाँ टिका-टिप्पणी नहीं हैं। सिर्फ विषय पे कटाक्ष कह सकते हैं -- भगवानों या भगवानियों के भी बाजार?     

कैसे-कैसे विवाद होते हैं ना ये? पुरे समाज को उलझाए रखते हैं, अपने में। और तो जैसे कोई काम ही नहीं होते दुनियाँ में? कहीं पंचायतें लगी पड़ी हैं। हमारे जैसे so-called पढ़े-लिखे, जिन पंचायतों को कंगारू कोर्ट्स भी कहते हैं। और फिर अच्छी खासी सुनते भी हैं, अपने इधर-उधर के बुजर्गों से। इन ज्यादा पढ़े-लिखों के ज्यादा दिमाग खराब हो जाते हैं। समाज-वमाज में तो रहना नहीं होता। पड़े रहते हैं, यूनिवर्सिटी या कैंट्स में ज़िंदगी भर। उनसे बाहर भी दुनियाँ होती है। कोई समझ ही नहीं होती इनको, दुनियाँदारी की। थोड़ा बहुत बोल दो, तो देश छोड़ देंगे की धमकियाँ। मतलब?

मतलब,  ऐसा जहाँ या दुनियाँ भी है, या देश हैं, जहाँ शिव के नाम पे कुछ भी नहीं चलता? या शायद शिव को मानते ही नहीं? या हो सकता है, वहाँ के शिव अलग तरह के हों? मतलब दुनियाँ तो बड़ी है, हमारे बुजर्गों की दुनियाँ से? उन्हें उस दुनियाँ की खबर कम है और इन so-called ज्यादा पढ़े-लिखों को इनकी (अपने ही बुजर्गों की), इस दुनियाँ की? यही गड़बड़ है? एक ही घर के या आसपास के माहौल में, इतनी ज्यादा असमानता? किसी भी तरह की जितनी ज्यादा असमानता, उतने ज्यादा विवाद। वो भी ज्यादातर बेवजह के? इसमें कितना सच है और कितना झूठ, ये आप सोचें।  

चलो, ये तो समझ आया की समस्याएँ, सिर्फ इंसान को नहीं होती। इंसानों के भगवानों और भगवानियों को भी होती हैं। उनकी भी परिस्तिथियाँ, खुशी और गम वाली हो सकती हैं? वैसे ही जैसे, कभी खुशी, कभी गम, वाले इंसानों को होती हैं। परिस्तिथियाँ, उनकी भी औकात से बाहर हो सकती हैं? 

अब शिव को ही लो। सती मर गई। शिव को मालूम ही नहीं की उसे ज़िंदा कैसे करे? मचा दिया ताँडव? चल पड़ा उठा के सती के मर्त शरीर को? और बिखरा दिए उसके टुकड़े, यहाँ-वहाँ और कहाँ-कहाँ? जहाँ-जहाँ वो टुकड़े गिरे, वहीँ घड़ दिए मंदिर? New age, Nuclear Wars and Temples? और मंदिरों के नाम भी हर जगह अलग-अलग? नाम भी कैसे-कैसे? वो भी बदलते रहते हैं शायद, समय और राजनीती के हिसाब-किताब से? अब ये कहानियाँ घड़ने वाले या किताबें लिखने वाले लोग महान हैं? शातिर हैं? ज्यादा या कम पढ़े-लिखे हैं? या आम आदमी हैं? ये आप जानने की कोशिश करें और पता चले तो मुझे भी बताएं। किस किताब में क्या लिखा है? या किस मंदिर की कैसी या क्या श्रद्धा या रीती-रिवाज़ हैं? और उनका ज्ञान-विज्ञान, उस वक़्त की या राजनीती की जरुरतों से क्या लेना-देना हो सकता है या है? क्यूँकि, मैं खुद भी जानने की कोशिश में हूँ, भगवानों के नाम पे बाजार को या राजनीती को।   

भोला खड़ा बाजार में  

देख रहा रंग कैसे-कैसे?

रण (युद्ध) कैसे-कैसे?  

या रच रहा, रण कैसे-कैसे?  

एक तरफ, आज भी 

सर्प-मणि को मानने वाले 

Kinda Money-Honey? 

या? सच के भोले? 

(अनभिग-अज्ञान, आम-आदमी?)  

तो दूसरी तरफ,

सर्प-मणि के पीछे 

कैसी-कैसी तरंगों के खेलों वाले, शातीर दिमाग? 

रेडियो तरंगे, टीवी, सॅटॅलाइट, wi-fi, bluetooth, internet, infrared, fibre-optics etc. और भी पता नहीं कैसी-कैसी टेक्नोलॉजी का बाना पहने चालें, घातें और छल-कपट।     

क्या है ये? 

शिव? या शिव-बाजार? 

या इंसानी-सी जरुरतें और उन जरुरतों और वक़्त के हिसाब से हिसाब-किताब? 

Thursday, December 28, 2023

2023, कैसा रहा?

कुछ के लिए अच्छा शायद? कुछ उलझ गए कहीं थोड़ा और ज्यादा शायद? कुछ के लिए बुरा, शायद बहुत बुरा?

मेरे लिए ये एक साल नहीं था, बल्की एक चल रहा दौर है। Kinda some continuity, since 2021 or 2019 or maybe since that joining back in 2017?  जिसको बुरा, बुरा और बहुत बुरा होते भी देखा है। तो कहीं, कहीं न कहीं, न सिर्फ संभलते, बल्की वापस शायद, थोड़े बहुत अच्छे की तरफ मुड़ते भी। या शायद कहना चाहिए, की सिस्टम की चालों और घातों को, अपने और अपने आसपास के ऊपर से गुजरते, बहुत करीब से देखा है। गुप्त तरीके से शातिर इंसानों द्वारा, अनभिग-अंजान लोगों का शिकार करते देखा है। वो भी मानव रोबोट बनाकर। वो राजनीती जिससे नफरत करती थी, उसे थोड़ा और ज्यादा नफरत के करीब देखा है। मगर दूर होकर नहीं। बल्की उसका हिस्सा ना होकर भी, कहीं न कहीं उसे, शायद आम-आदमी से भी झुझते देखा है। थोड़े अजीबोगरीब रूप में। जिससे लगा की मुश्किल तो है, मगर असंभव नहीं, अगर आम इंसान भी ठान ले तो। इस खुंखार, बेरहम और आदमखोर सिस्टम को भी कोई दशा या दिशा देना। थोड़ा ज्यादा हो रहा है ना? हाँ। ये साल थोड़ा ज्यादा ही था। 

जब ज्यादा कुछ होता है तो शायद सीखने को भी काफी होता है। और बड़बड़ाने को भी, मतलब लिखने को भी।  ऑनलाइन ट्रैवेल का शौक थोड़ा और आगे बढ़ा, खासकर दुनिया भर की यूनिवर्सिटीज का। यूनिवर्सिटीज के बारे में या किन्हीं भी ऐसे संस्थानों के बारे में एक खास जानकारी जो हासिल हुई, वो ये की शायद ज्यादातर ये संस्थान, जो सही में किसी भी समाज को कोई भी दशा या दिशा देते हैं, खुद को ज्यादातर एक अलग ही वातावरण में रखते हैं। silos type environment. समाज और इनके अंदर का पर्यावरण या माहौल जितना अलग होता है, बाहर का समाज उतना ही ज्यादा इनके लिए फैसलों को भुगतता है। इनके लिए फैसले? या सही शब्द, इनके ना लिए फैसले? या  सही शब्द, शायद, ज्यादा समझदार लोग बेहतर बता सकते हैं?    

Tuesday, December 26, 2023

ख्याली छवियाँ घड़के, इंसानों में उतारना या कोशिश करना (मानव रोबोट घड़ाईयाँ)

Character Animation to Real Characters Changes

Image Design

Image Movers

Character Animation to Real Characters Changes and manipulations

Media Immersion (अहम हिस्सा cult politics का) kinda, they practice baptism? 

Assisted Murders or Well Designed Murders?

सोचो किसी कहानी के बारे में इतने सारे लोगों को पता हो, की ऐसा हुआ तो ऐसा होगा और ऐसा हुआ तो ऐसा। और हर एक अगले कदम पे वैसा ही हो रहा हो? तो उसे क्या कहेंगे? Ditto lab practical practices.  

Assisted Murders?

या Well Designed Murders?

केस सुशीला कार   

कॉलेज के दिनों की बात है। YD, किसी को बहन कहता था। सुन्दर नयन-नक्श, सफेद रंग, अच्छी खासी लम्बी,  चेहरे पे ज्यादातर हंसी और मीठा बोलने वाली लड़की। सुष्मिता सेन या ऐश्वर्या राय की सुंदरता उसके सामने पानी भरे। मेरे से सीनियर। मुझे छोटी बहन मानती थी। P, नाम के किसी लड़के को पसंद करती थी। मगर उसे शायद कोई और पसंद करता था, JD। लव मैरिज हुई, मगर बहुत ही जल्दी तलाक भी हो गया। शायद 6-महीने या साल भर के अंदर ही। होना ही था शायद। इतने रूढ़िवादी माहौल में जो आई थी। उसके बाद कोई खबर ही नहीं हुई। कहाँ गई? क्या हुआ? क्यूँकि, अगर ज़िंदा होती तो ऐसा तो सम्भव ही नहीं था की एक फोन तक ना हो। क्यूँकि, मुझे वो बहुत पसंद करती थी। आसपास के जोकरों (दोस्तों) से पूछा भी, मगर किसी ने कोई सही-सा जवाब नहीं दिया। कई बार ऑनलाइन कुछ हिंट्स मिले, खासकर उन दिनों, जब मैं खुद suicidal थी। H#16, टाइप-3, 2013 या 2014 शायद, मेरी यहाँ-वहाँ, उस घर और surveillance abuse की शिकायतों के दौर से पहले। हिंट्स ये की वो सुसाइड कर चुकी। ऐसे ही कुछ हिंट्स फिर से आने शुरू हो गए, वही ऑनलाइन, जब मैंने ये कार ली, जो कुछ महीने पहले 14 को ब्रेक फेल हुई। मगर, ये हिंट्स थोड़े डरावने थे। कोई ख्याली (Image Creation, alternation, manipulation to extreme) घड़ाई? क्यूँकि, यहाँ तो इन्हें सामान्तर घड़ाई भी नहीं कहा जा सकता। P और JD दोनों मुझे बहन मानते थे। दोनों से छोटी (जूनियर) भी थी। जिस JD से उन्होंने शादी की, वो तो था ही गाँव से। उन दिनों ऐसा कोई गोबर या कीचड़ नहीं मचा हुआ था, जो समझ से परे, बहुत परे, लोगों ने इतने सालों बाद मचाया। जाने कैसी राजनीतिक लड़ाईयों का हिस्सा। 

जिस दिन मेरी कार के ब्रेक फेल हुए, मेरे दिमाग में उस वक़्त कोई और नहीं, बल्की सुशीला दीदी ही थे। एक तो वो जगह, उसपे पहले से ही ऐसे ऑनलाइन हिंट्स, खासकर पानीपत एक्सीडेंट के बाद। ये ब्रेक फेल वाली जगह, और वो रोड, उस जगह से बस थोड़ा-सा ही आगे था, जहाँ वो मैरिज करके आए थे। तब शायद मैं M.Sc. में ही थी या शायद PhD शुरू हो चुकी थी। 

यहाँ अहम प्रश्न, मुझे उस दिन दीदी ही याद क्यों याद आए? दिलाए गए। दिमाग में ऐसा डाला गया। ये कार किसने और क्यों दिलाई? क्यूँकि, लेने वालों को ऐसा कुछ नहीं मालूम, जैसा मेरे दिमाग में इन हिंट्स ने डाला। मैंने किसी को इस सुसाइड वाले हिंट और उससे किसी कार का कनेक्शन जोड़ने वाला ऑनलाइन हिंट बताया ही नहीं। क्या इसे सिर्फ surveillance abuse कह सकते हैं? या दिमागों को ऐसे alter करना की आसपास या जानने वालों को खबर तक ना हो, की हुआ क्या है। और हिंट्स भी कैसे? Google Search । आप सर्च इंजन में कोई शब्द लिख रहे हैं, उसके अलग-अलग, मतलब जानने के लिए और वहाँ अजीबोगरीब enforcements या हिंट्स मिलेंगे। एक छोटा सा कार बिल और आसपास कितने ही लोग कितना कुछ नौटँकी कर चुके उसके आसपास। और जिनसे नौटंकी करवाई जाती हैं, उन्हें शायद कुछ मालूम ही नहीं होता की वो सब क्या कर रहे हैं? शायद से उन्हें कुछ और ही बताया जाता है। ऐसा क्या खास है उस कार खरीदने वाले बिल में? किसी के लिए कोई कार इतनी डरावनी? मगर किसी और के लिए बहुत अच्छी भी हो सकती क्या? शायद? और शायद इसीलिए किसी ने माँगी भी? आप कोई और लेलो, ये मुझे देदो। या ये घढ़ाईयाँ ही अहम हैं, खासकर, अगर बचाव के रस्ते समझ ना आएँ तो? क्यूँकि, ऐसा ही कुछ रचके, लोगों से घर, जमीने और आदमी तक लिए गए हैं। कई किस्से हैं ऐसे भी, यहाँ-वहाँ से, वो फिर कभी।                 

वैसे, इस कार के उस 14 वाले ब्रेक फेल के बाद, कुछ और भी घुमा दिमाग में। YD ने शायद कोई हिंट दिया था, किसी बात के दौरान, "जानते हो ऐश्वर्या राय कौन है"? कौन है? उस वक़्त मुझे कुछ समझ नहीं आया। 

राय-गढ़? उस दिन उस कार में मेरे साथ रायगढ़ दरबार था? पड़ोस से वही स्कूटी वाली लड़की और उसकी छोटी-सी गुड़िया। रायगढ़, जिसने शुरू से ही V को उल्टा टांगा हुआ है? मेरे अपने घर में ही नहीं, बल्की आसपास के घरों में भी? ये अब जबसे घरों और इमारतों को पढ़ना शुरू किया, तब से कुछ-कुछ ऐसा ही समझ आया। सबसे बड़ी बात, इस V को उल्टा टाँगने में, उनके अपने यहाँ हादसे हुए हैं।      

ऐसा ही कुछ-कुछ ये रेखता है शायद? पता नहीं लोगबाग, कैसे-कैसे कोड, घररर कोढ़ लिए घुमते हैं? वो भी, अच्छी-खासी दोस्त थी (One of the best)। फिर क्या हुआ? पता नहीं। बहुत पहले ही (दिल्ली टाइम्स) कोई Hebrew-Webrew जैसे, कोढ़ चलने लगे थे वहाँ। ये किस्सा फिर कभी। 

Tuesday, December 19, 2023

सूक्ष्म प्रबंधन बड़े स्तर पर (Micromanagement at large scale) 5

कौन हैं आप? मालूम है आपको?  

शायद हाँ? शायद ना? संशय है? पक्का नहीं पता?

या पता है? आपको पता है की 

आपका नाम क्या है? 

जैंडर क्या है?

आपके माँ-बाप कौन हैं?

भाई-बहन कौन हैं?

रिश्ते नाते, कौन चाचा-चाची है? कौन ताऊ-ताई है? कौन जीजा या साला है? कौन भतीजा या भतीजी है? आपका पता क्या है? कहाँ रहते हैं? पढ़ते हैं? या नौकरी करते हैं? या कोई भी काम करते हैं, किसान हैं, खाती हैं, लुहार हैं, कुम्हार हैं, या अपना कोई व्यवसाय है? या हो सकता है, इनमें से कुछ भी ना करते हों?

आपको ये सब पता है। अपने बारे में और अपने आसपास के बारे में भी। 

मगर क्या हो, अगर कोई इसमें संशय पैदा करने लगे या जबरदस्ती थोंपने लगे? मतलब वो शंशय पैदा करने वाला इंसान, आपके दिमाग को बदलने (alter) की कोशिश कर रहा है या कहना चाहिए की कर रहे हैं। मतलब आपकी alter ego बनाने की कोशिश, उनके अपने फायदे के अनुसार। जरुरी नहीं की उसमें आपका फायदा हो, नुकसान भी हो सकता है। अगर आपने वो मानना शुरू कर दिया, तो क्या होगा?

इसे हम कपड़ों के साइज या अलग-अलग प्रकारों से समझ सकते हैं। जैसे 

आपका साइज क्या है?   

छोटा (XSS) ?

थोड़ा बड़ा (XS) ?

बीच का (X)?

उससे थोड़ा बड़ा (XL)?

उससे थोड़ा और बड़ा (XLL)?

बहुत बड़ा (PLUS)?

क्या हो अगर आपका साइज बीच का हो और कोई कहे PLUS है? या XSS या XS है? अब कपड़ा तो छोटा-बड़ा फिर भी चल जाएगा। मगर क्या हो अगर 

आप जींस-शर्ट या कुर्ता-पायजमा डालने वाले पुरुष हैं। और कोई आपको हरियान्वी धोती-कुरता डालने को बोले? या शायद दक्षिण वाली धोती-कुरता? या इससे भी थोड़ा आगे चलके औरतों वाली धोती (साड़ी)? या औरतों वाला कुर्ता-सलवार? वैसे तो क्या फर्क पड़ता है, तन ही तो ढकना है? या पड़ता है? 

ऐसे ही औरतों के केस में अगर कोई हरियाणा, राजस्थान या यूपी के गाँवों से रूढ़िवादी घर से सलवार-कमीज और चुन्नी डालने वाले घर से हो और उसे शॉर्ट्स डालने को बोलें? या शायद स्विमिंग सूट किसी गाँव के तालाब में या रजभाये या नहर में? हाय-तौबा मच जाएगी ना? चलो ये तो फिर भी कपड़े हैं।                 

 क्या हो अगर कोई सनक की हद के पार छवि घड़ने वाले (Crazy Alter Ego Creators), अलग-अलग तरह की छवियों की घढ़ाईयाँ (Alter Egos Creations) करने लगें। जैसे ये IN, OUT PROCESSING वाले?    

आप लडका हैं या लड़की? 

क्या ये भी अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है? वो भी एक ही इंसान के केस में? आपकी जेंडर की पहचान तो पैदायशी ही हो जाती है ना? आपकी ज्यादातर IDs में लिखा होता है ये। या ऐसा भी हो सकता है की  एक ID में आप महिला हों और दूसरी में पुरुष या हिज़ड़ा? अगर आपकी छवि पर सनक की हद के पार प्रहार हुए हैं, तो शायद लोगबाग सिर्फ आपके माँ-बाप के नाम या दादा-दादी या नाना-नानी के नाम तक नहीं बदल सकते, बल्की आपका जेंडर तक बदला हुआ बोल सकते हैं। सोचो, ऐसे लोग आपसे कितनी नफरत करते होंगे? इतना ही नहीं, वो आपके परिवार या कुनबे को ही खून के रिश्तों में ही यौन सम्बन्ध (incest) वाले बोल सकते हैं। बोल ही नहीं सकते, बल्की ऐसे-ऐसे रिश्ते घड़ने तक की कोशिश कर सकते हैं। अब कितना सफल हों पाएं और कितना ना अलग बात है। वो किसी और पोस्ट में। मतलब, हद के पार लोगों की छवि घड़ने वाले लीचड़ लोग? राजनीतिक सामान्तर घड़ाईयों के लीचड़ वाले संसार में ये सब आम है। 

आपका रंग, रुप, नयन नक्श, बालों की बनावट, रंग क्या है? 

ये सब पैदायशी ही तय होता है। और भी ऐसे ही बहुत से पैदाइशी गुण। भार, वक़्त-वक़्त पे बदल सकता है। या एक ही वक़्त पे, अलग-अलग पार्टियों के हिसाब-किताब से अलग-अलग भी हो सकता है? बालों का रंग या बनावट बदल सकते हैं, कृत्रिम रुप से। या अपने आप भी बदल सकता है, किन्हीं खास परिस्तिथियों में? वो भी जब आप खुद ना बदल रहे हों, गुप्त रूप से ऐसा किया जा सकता है क्या? कैसे? ये रंग-रुप, नयन-नक्श, बालों की बनावट जैसे बदलाव भी, आपकी छवि घड़ने में प्रयोग हो सकते हैं क्या? राजनीतिक पार्टियों की जीत की कहानियों के किरदार, किसी भी हद को पार कर सकते हैं। और हूबहू वो आपको आपकी जानकारी के बगैर उन किरदारों में ढ़ाल सकते हैं। इसलिए बहुत ही जरुरी होता है, अपनी और अपने आसपास वालों की पहचान को बिगाड़ने वालों को जवाब देना या उनसे दूर रहना। क्यूँकि, आप वो नहीं हैं, जो वो आपको बनाना चाहते हैं। आप वो हैं, जो आप अपने आपको समझते हैं या बिना किसी द्वेष भाव से जो लोग आपको जानते हैं। 

मगर क्या हो, अगर आप राजनीतिक पार्टियों के घड़े किरदारों को मानना शुरू कर दें? बहुत अहम है ये पॉइंट। मानना शुरू कर दें? और आपको खबर तक ना हो, की जो किरदार उन्होंने घड़ा है, आपका या आपके आसपास के किसी भी इंसान का, वो आपके लिए या उस इंसान के लिए कितना गलत है? और उसका असर उस ज़िंदगी पर या शायद आसपास पर भी कितना बुरा हो सकता है? लोगों की ज़िंदगियों को बर्बाद, ये राजनीती वाली सामान्तर घड़ाईयाँ ऐसे ही करती हैं। क्यूँकि, आप उनका कहा मान लेते हैं, बिना उसका अर्थ या अनर्थ समझे। इससे खुद भी बचें और अपने बच्चों को या आसपास को भी बचाएँ। बहुत कुछ अपने आप सही होने लगेगा। तो सबसे पहले समझना जरूरी है की जो कुछ आप कर रहे हैं, क्या वो सब सच में आप कर रहें हैं? या आपसे करवाया जा रहा है? गुप्त तरीके से? या कोई लालच देकर? बिना उसका कोई नुकसान बताए?

एक होता है, किसी नाटक या फिल्म का किरदार होना और उसके अनुसार हुलिया बदलना। जैसे फिल्मों और नाटकों के किरदार करते हैं। और एक होता है इस संसार रुपी रंगमंच पर आपका हुलिया बदलना, किसी पार्टी की चाहत के अनुसार, वो भी हकीकत में। कहीं ना कहीं ये हुलिया, आपको किसी खास ज़िंदगी की तरफ और उस ज़िंदगी पर खास किस्म के प्रभावों या दुस्प्रभावों की तरफ धकेलता है। आपका ये हुलिया, आपके स्वास्थ्य के बारे में और ज़िंदगी के बारे में भी बहुत कुछ बताता है। जैसे अगर आप किसी डॉक्टर के पास जाएँगे तो वो आपको देखकर ही, बिना किसी टैस्ट के शायद आपके स्वास्थ्य के बारे में बहुत कुछ बता दे। स्वास्थ्य के साथ-साथ, शायद उस स्वास्थ्य के लिए ज़िम्मेदार कारणों, जैसे आपकी डाइट, खाना-पीना और शायद वातावरण के बारे में भी बता दे।   

पहनावा और कोड?

किसी भी जगह का खाना-पीना, बोलचाल की भाषा और कोड? ये भी किसी की छवि या किसी तरह की alter ego का हिस्सा हो सकता है क्या?  ऐसे ही शायद किसी भी वक़्त की राजनीती के कोढ़ों के जानकार, आपके कपड़ों को देखकर ही उस वक़्त की आपके आसपास की राजनीती के बारे में काफी कुछ बता दें। जैसे आप टाइट कपडे पहनते हैं या खुली फिटिंग के। उनके भी अलग-अलग नाम मिलेंगे, उस वक़्त की और जगह की राजनीती के हिसाब-किताब से। शायद, इन सबपे अलग से पोस्ट चाहिए। 

और आप छवि के बारे में क्या सोचते हैं? कितने संकुचित दायरे की सोच है आपकी? या उसके दायरे में बहुत कुछ आता है, उसे जानने और समझने के लिए? सूक्ष्म स्तर पे किसी भी इंसान की छवि घड़ने के लिए उस बहुत कुछ वाले कारणों को समझना जरुरी होता है। जो मानव रोबोट घड़ाई में और इंसान के कंट्रोल में प्रयोग होता है। ऐसे ही इंसान को रोबोट बनाने के लिए भी, उसके बारे में सूक्ष्म स्तर पे बहुत कुछ पता होना चाहिए। वो सब surveillance abuse का हिस्सा है, जो आजकल बड़े स्तर पर बड़ी-बड़ी कंपनियाँ कर रही हैं। जिनमें सरकारी और गैर सरकारी दोनों हैं। यही surveillance abuse बहुत-सी बीमारियाँ घड़ने के काम भी आता है और लोगों के जन्म और मरण की प्रकिर्या में भी।     

छवि को इंग्लिश में IMAGE कहते हैं। Character भी यही होता है क्या? सोचो? Image Movers? ये क्या होता है? Character Animation? इससे आगे भी बहुत कुछ है। आज हम जिस संसार में हैं, वो इससे काफी आगे निकल चुका। और आम आदमी को भी प्रभावित कर रहा, वो भी उसकी जानकारी के बिना। ये बच्चों से लेकर बुजर्गों तक की, अमीरों से लेकर गरीबों तक की, खाने-पीने ले लेकर, रहने की या काम करने की जगहों और बोलचाल तक को प्रभावित कर रहा है। और भी काफी कुछ आता है, इस इमेज और छवि की घड़ाई में। आते हैं इसपे भी। विकसित संसार, जहाँ आज गुप्त-गुप्त, छद्दम युद्ध लड़ रहा है। विकासशील और अविकसित संसार को उसकी खबर तक नहीं है। इसीलिए वो इस विकसित संसार के युद्धों के दुष्परिणाम तो भुगतता है, मगर उस टेक्नोलॉजी का फायदा नहीं उठा पाता,आगे बढ़ने में और फलने-फूलने में। बस इसी कितना ज्ञान या कितना अंजान का फर्क है, इस संसार में और उस संसार में।     

Saturday, December 16, 2023

सूक्ष्म प्रबंधन (Micromanagement) 4

Conflict creations where none exists 

सोचो जहाँ पे कोई दुर्भावना, दुश्मनी, बैर, शत्रुता, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, द्वन्द्व, मनमुटाव, फूट, विरोध, वैर ना हो? और सामान्तर केसों की घड़ाई का राजनीतिक संसार, वो सब पैदा कर दे? जहाँ आजकल मैं हूँ, कुछ-कुछ ऐसा ही समझ आ रहा है। यहाँ के हालातों और रोज-रोज के राजनीतिक ड्रामों को देख-समझ, की कैसे ये पार्टियाँ लोगों की ज़िंदगियों से खेल रही हैं? सबसे बड़ी बात, उनका जलूस भी उन्हीं द्वारा निकलवा रही हैं। और खेलने वालों को इतना तक अहसास नहीं की जो रोल वो तुमसे निभवा रहे हैं, वो खुद तुम्हारी अपनी रैली पिट रहा है। और ये रोल सिर्फ रोल भर नहीं, हकीकत में गूँथ दिए गए छल, घात और चालें हैं। वो भी खुद उनके अपने खिलाफ या नुकसान में। तभी तो मानव रोबोट कहा गया है। जहाँ दिमाग का कोई खास हिस्सा दबा दिया जाता है, ऐसे, जैसे हो ही ना। या जैसे किसी खास हिस्से को अहम कर बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है (Amplification, Manifestation, Manipulations), ऐसे, जैसे कुछ और अहम ही ना हो। ऐसा कैसे? कुछ हकीकतों को छुपाकर या हकीकत के विपरीत पेश कर।          

किसलिए ?

किसी या किन्हीं समस्याओं को सुलझाने के लिए? 

या समाज में बहुत-सी ना हुई समस्याएँ भी पैदा करने के लिए? 

बहुत से पवित्र और मासुम रिश्तों को खत्म करने के लिए? या दुर्भावनावश, द्वेषभाव, ईर्ष्या से उनमें मनमुटाव, ईर्ष्या, बैर, शत्रुता, घृणा, द्वेष, द्वन्द्व, मनमुटाव, फूट, विरोध और वैर भरने के लिए?

या इससे भी थोड़ा आगे चलके, गुप्त तरीकों से लोगों को दुनिया से ही चलता कर देना और दुनिया को दिखे या लगे ऐसे, जैसे वो सामान्य मौतें हों या आत्महत्याएँ हों? कोरोना काल जैसे। वैसे सामान्य दिखने जैसे हालातों में भी बहुत कुछ चलता है। जैसे किसान आंदोलनों के दौरान लोगों का मरना या इतनी भीड़ के बावजूद आत्महत्या? या खुदाईयों के दौरान, इतने सारे मजदूरों का यहाँ-वहाँ फँसा होना या अंदर ही मर जाना। और भी दुनियाँ भर में कितना कुछ वैसे नहीं होता, जैसे दिखता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे श्रीदेवी की मौत? 

कैंपस क्राइम सीरीज ने, उसके बाद कोरोना काल ने और जो कुछ अब चल रहा है, वो सब वही है। वो गए गुजरे ज़माने के कुछ लोगों को ऐसे दिखाने की कोशिश करते हैं या पेश करते हैं, जैसे जो ये राजनीतिक सामान्तर घड़ाई वाले कलाकार दिखा, बता या अनुभव करवा रहे हैं, वही सच हो। वो चाहे रेखता वाले हों या सुशीला वाले। मुझे ये दोनों ही बेहुदा किस्म की पेशगी वाले लोग पसंद नहीं। पसंद नहीं शायद हल्का शब्द है। सही शब्द नफ़रत है ऐसे लोगों से, या शायद उससे भी आगे कुछ होना चाहिए।  

गुप्त जहाँ, जिसकी शुरुवात किसी ने उसकी अपनी समझ के अनुसार शायद, देव कोलोनी, रोहतक के किसी मिलिट्री के बन्दे के हॉस्टल से बताई। तो कुछ जानकार एक्सपर्ट, उससे कहीं बहुत पीछे, बहुत पुरानी बताते हैं। राजनीती और विज्ञान के उदय और समझ के साथ-साथ ही सदियों पुरानी जैसे? शायद देशों के भी बनने से पहले, कबीलों में बंटे और एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप की तरफ बढ़ते, माइग्रेट करते इंसान के साथ-साथ? ज़मीनो पर कब्जे, औरतों पर कब्जे, गहनों और कीमती सामान की चोरियों या छीनाझपटी और लूटपाट के साथ-साथ? अपने बच्चों की पैदाइश और दूसरों के बच्चों को खत्म करने या गुलाम बनाने की जाहिलाना, गवाँर सोच के साथ-साथ? या अपने बच्चों को गद्दी पर देखने की चाहत में, दूसरों को वनवास या मारकाट के हवाले करने या पैदा ही ना होने देने की खुंखार जानवरों जैसी बेहुदा कवायदों के साथ-साथ?

विज्ञान के इतने अविष्कारों, टेक्नोलॉजी की इतनी पहुँच के बावजूद, आदिम युगी उन युद्धों में, चालों में, घातों में या छल-कपट के माध्ययमों में, सभ्यता के इतने विकास के बावजूद बदला क्या है? जाहिल, जानवर इंसान और ज्यादा गुप्त तरीकों से, और ज्यादा घातक छलावों और कपटों से और ज्यादा खुंखार ही हुआ है। अब तो वो इंसानों को भी रोबोट बना चुका है। उसका शोषण, खुद उसके खिलाफ और उसके अपनों के खिलाफ, उसी द्वारा करवा रहा है। सच में कितना विकसित और कितनी तरक्की कर चुका ना आज का इंसान?

संसार की उत्पत्ति या भारत का उदय सदियों पहले से है। मगर अगर कोई कहे की अभी कल ही मेरे जन्म से हुआ है, तो क्या कहेंगे आप उसे? बच्चा? अपरिपक़्व? या समझदार? सोचो, कोई आपको ये दिखाने या बताने की कोशिश करे, की आप किसी को पसंद करते हैं, मगर कोई आपको नहीं, आपको बस ये गाना और बताना है। सच में? ये कैसी सेनाएँ? या ऐसे लोगों को सेना कहना मतलब, सेनाओं का अपमान? ऐसी सेनाएँ कैसे हो सकती हैं, जो कुर्सियों की चाहत में लोगों को रोबोट या गुलाम बनाने का काम करें? या शायद सेनाएँ होती ही ऐसी हैं? ये तो अब मिल्ट्री वाले या ये सेनाओं वाले बेहतर बता सकते हैं। वैसे ही जैसे, यूनिवर्सिटी की कुर्सियों पे बैठे अधिकारी, जो क्लास-लैब के हालत दुरुस्त करने की बजाय, पढ़ाई-लिखाई का माहौल बनाने की बजाय, छात्रों या अध्यापकों से समस्याएँ होने पे भी मिलने की बजाय, खुद को महलों जैसे किलों में रहने वाले शहंशाह समझने लगें। यूनिवर्सिटी में शिक्षाविद या शहंशाह, गुंडे या शिक्षाविद, कैसे लोगों का अधिकार होना चाहिए? जहाँ प्राथमिकताएँ ही गलत हों, क्या कहा जाए, वहाँ के बारे में?  

Friday, December 15, 2023

सूक्ष्म प्रबंधन (Micromanagement) 3

आपकी छवि क्या है? आप कैसे दिखते हैं? First impression is  the last impression? सुना होगा कहीं ना कहीं तो जरूर? जब भी हम किसी भी इंसान की छवि की बात करते हैं, तो सबसे पहले दिमाग में क्या आता है? उस इंसान का हुलिया? उस हुलिए में भी सबसे पहले चेहरा? उसके बाद बाकी शरीर संरचना शायद? लम्बा है, छोटा है, पतला है, मोटा है। ठीक-ठाक सा है, या डावां-डौल है? उसके बाद आता है, पहनावा? इन सबके बाद आता है, बोलता कैसे है? हाव भाव, व्यवहार? और भी आगे और बारीकियों पे जाया जा सकता है? ऐसा ही कुछ ना?  

सोचो, ये सब भी अगर राजनीतिक पार्टियाँ या बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, आपपे जबरदस्ती थोंपने लगें तो? एक होता है, आपकी अपनी पसंद क्या है? और एक होता है, कोई आपपे थोंपना क्या चाहता है या चाहते हैं? इस थोंपने में ही, alter-ego/s का जन्म होता है। वो कितने ही प्रकार की हो सकती हैं। लोगों की, पार्टियों की या बड़ी-बड़ी कंपनियों की अपनी-अपनी सोच, सुहलियत या जरूरतों के अनुसार।   

वैसे तो ये भी कहा जा सकता है, की हमारी छवि या खुद की पसंद भी हमारी अपनी नहीं होती। वो भी माहौल के अनुसार ढली (conditioned) हुई होती है। आप जहाँ और जैसे लोगों या माहौल में जन्म लेते हैं या पलते-बढ़ते हैं। खासकर, पलते-बढ़ते हैं। वो आपकी सोच को बनाता है और विकसित करता है। वो सोच कितनी विकसित है और कितनी संकीर्ण? ये इस पर निर्भर करता है, की आप कितने संकीर्ण या छोटे से समाज में रहे हैं? या उससे आगे निकलकर, आपने कितनी दुनियाँ जानी, देखी या अनुभव की है। अपने छोटे-से दायरे से जब आप बाहर निकलते हैं, तो वो कुछ-कुछ ऐसे ही होता है, जैसे वो एक कहावत की "अपने एरिया के तो कुत्ते भी शेर होते हैं।" क्यूँकि, जब आप अपने छोटे-से समाज से बाहर की दुनियाँ की तरफ निकलते हैं, तो अपने comfort zone से बाहर निकलने जैसा होता है। वो बाहर का समाज, आपको सिर्फ वो नहीं देता, जो आप लेने के लिए निकलते हैं। बल्की, उससे आगे, कहीं न कहीं, आपकी सोच को ठोकने लगता है। आपके विचारों, पसंद-नापसंद पे चोट करने लगता है। एक तरफ, आपको वो हर कदम पे जैसे चुनौती देता नजर आता है। तो दूसरी तरफ, उन चुनौतियों से निपटना या उनसे सामंजस्य बनाना भी सिखाता है। आप जितना उन चुनौतियों से निपटना या सामंजस्य बनाना सीख जाते हैं, उतना ही उस माहौल में रमते जाते हैं। जितने ज्यादा मौके, वो नया समाज आपको आगे बढ़ने के देता है, आप उतना ही आगे बढ़ते जाते हैं। इसके विपरीत माहौल में, या तो पीछे धकेल दिए जाते हैं या खत्म हो जाते हैं। ऐसे में ये आपको देखना पड़ेगा, की आप कैसे माहौल में रहना चाहेंगे। जब आप गाँवों से शहरों या मेट्रो या देश से बाहर दूसरे देशों की तरफ निकलते हैं, तो कहीं न कहीं, इन सब परिस्तिथियों से गुजरते हैं। 

मगर जब आप एक छोटे-से गाँव या कसबे या छोटे-से शहर से आगे नहीं निकलना चाहते, तो या तो आप वहाँ संतुष्ट हैं और सब सही है। या शायद कम्फर्ट जोन से नहीं निकलना चाहते। थोड़ी-सी ज्यादा मेहनत नहीं करना चाहते। थोड़ी-सी ज्यादा चुनौतियों से रुबरु नहीं होना चाहते। वही आपकी आगे बढ़ने की क्षमता को रोक देता है। उसपे, अगर आप कई पीढ़ियों से एक ही जगह पड़े हैं, खासकर गाँव, कसबे या छोटे शहर, तो वहां का हद से ज्यादा चिरपरिचित माहौल, आपको कम्फर्ट जोन से निकलने ही नहीं देगा। और आप हद से ज्यादा वहाँ के, गुप्त सूक्ष्म नियंत्रण के अधीन होंगे। अब वो गुप्त सूक्ष्म नियंत्रण कितना आपके फायदे में है और कितना नुकसान में, ये तो आप अपने, अपने घर के या आसपास के हालातों से जान सकते हैं।  सोच के देखो की आप जहाँ हैं, वहाँ कब आए थे? कहाँ से आए थे? क्यों आए थे? उसके बाद किस पीढ़ी ने संघर्ष करके, आपको वहाँ बसाया या आगे बढ़ाया? और किसने पीछे धकेलना या डुबोना शुरू कर दिया? शायद उन्होंने, जिन्होने आपको इतना आराम-पसंद बना दिया की उनका गुजारा तक माँ-बाप के सहारे या किसी और के सहारे हो? आश्रित? नालायक? हरामखोर? कितने ही ऐसे-ऐसे और शब्दों से नवाज सकते हैं, आप उन्हें शायद? हमारे गाँवों, कस्बों या छोटे-छोटे शहरों में, कितनों के ही ऐसे हाल हैं? इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, की वहाँ का सिस्टम भी कहीं न कहीं नकारा है। मगर उस सिस्टम से बाहर निकलने के रस्ते हैं। खासकर, अगर वो सिस्टम आपको जबरदस्ती, पीछे कहीं धकेलने की कोशिश करे तो। 

आओ, छवि का एक उदाहरण यहाँ लेते हैं। मेरे सिर के बालों ने कई वक़्त देखे हैं। वैसे ही जैसे, मैं आजकल आसपास के बच्चों के बालों के रंग-रूप, बनावट और स्वास्थ्य को स्टडी कर रही हूँ। इतने कम सालों में, इतनी तेजी से बालों का रंग-रूप बदलना या बनावट बदलना, न तो सही है और न ही अपने आप। ये गुप्त सिस्टम का धकेला हुआ प्रहार है। गुप्त सिस्टम का धकेला हुआ प्रहार, वो भी बच्चों पर? कितना निर्दयी होगा ऐसा सिस्टम? ये सिस्टम दुनियाँ में हर जगह है। मगर, नजर सिर्फ तब आएगा, जब आप इसे सूक्ष्म स्तर पे अध्ययन करना शुरू करेंगे। जब नजर या समझ आने लग जाएगा, तो आप उसके बुरे प्रभावों को कुछ हद तक रोक पाएँगे। या शायद चाहेंगे, की ऐसे बेहुदा धकेल सिस्टम से थोड़ा दूर निकल जाएं। कम से कम, बच्चों को तो तभी बचा पाएँगे, ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे प्रहारों से।  

इस छवि वाले राजनीतिक सूक्षम प्रबंधन में, दो तरह के खास छद्दम युद्ध हैं, जितना अब तक मैं समझ पाई। इन्हें गुप्त भाषा में ब्रूमिंग (Brooming)और ग्रूमिंग (Grooming), जैसे शब्दों से परिभाषित किया गया है। स्वीपिंग (Sweeping) और स्वैपिंग (Swapping) भी शायद? पार्टियों का छद्दम युद्ध इसके कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, आप अपने आसपास भी देख सकते हैं। जैसे PM का सफाई अभियान। हाथ में क्या होता है? झाड़ू या वैक्यूम क्लीनर या कुछ और? वैसे ही जैसे, AAP का तो चुनाव चिन्ह ही झाड़ू है। मगर फोकस? सिर्फ साफ़-सफाई नहीं। बल्की स्कूल, हॉस्पिटल। खासकर, मो-हल्ला क्लीनिक। क्या इन सबका बच्चों के बालों के रंग-रूप, बनावट और स्वास्थ्य ही नहीं, बल्की ज़िंदगी पर भी किसी तरह का असर हो सकता है? 

जानने की कोशिश करते हैं, अगली पोस्ट में, की विज्ञान, राजनीति, रीती-रिवाज़ और उन सबको, कैसे गूँथ दिया गया है या बाँध दिया गया है, आम आदमी की ज़िंदगी से? जिसके प्रभावों या दुष्प्रभावों से, इंसान ही नहीं, बल्की कोई भी जीव या निर्जीव अछूता नहीं है। उसके दुस्प्रभावों से बचने के लिए या उसपे नकेल डालने के लिए बहुत जरूरी है, इस सिस्टम (राजनीती और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ) के सूक्ष्म प्रबंधन को जानना। ये राजनीतिक सूक्ष्म प्रबंधन, आपके हुलिए, पहनावे, खाने-पीने, कहीं रहने या बोलचाल की आम-भाषा तक नियंत्रित करता है। आप सोच रहे होंगे, की इतना सब कैसे संभव है? संभव ही नहीं है, बल्की हो रहा है। ये सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) का अहम हिस्सा है। जितना ज्यादा सूक्ष्म स्तर पे नियंत्रण होगा, इंसान उतना ही ज्यादा, इन राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के कब्जे में होगा। यही मानव रोबोट बनाने की प्रकिर्या है।  

Wednesday, December 13, 2023

सूक्ष्म प्रबंधन (Micromanagement) 2

रोजमर्रा की छोटी-मोटी शिकायतों या आम-आदमी की भड़ास से परे, इलेक्शंस और EVM वगैरह। ये बुथ मैनेजमेंट और हाई-टैक कंट्रोल क्या होता है? जब ज्यादातर टेक्नोलॉजी के जानकारों को पता है की कोई भी मशीन हैक करना या खुरापाती तत्वों द्वारा कंट्रोल करना कोई बड़ी बात नहीं है तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग क्यों? 

मतपत्र (Ballot Papers), मानों हों chat पत्र। मानो डिफेन्स मिनिस्टर, राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को कोई छोटी-सी चैट-पर्ची थमा दी हो, जिसमें लिखा हो,"Males do need reply"। टाइपिंग में गलती हो गई लगता है, mails की बजाय male हो गया शायद? तो करो भजन बैठ कर। लो क्यूट-क्यूट भतीजी और भांजी से बजरंग बली का प्रसाद लो। Wrong Priorities, वो भी हर स्तर पे जैसे। पोस्ट बनती है इसपे।

इलेक्शंस (ELE CTION या EL EC TION ?)  

इलेक्शन बॉन्ड्स  (ELE CTION BO ND या ? ) 06 10 2008 या। ...... 20 14 या ?

किसी की या किन्हीं की नौकरी की JOINING की तारीख से क्या लेना-देना हो सकता है इन सबका? या फिर अगर कोई सरकार बदले तो आपका प्रोबेशन पीरियड (Probation Period) और उसकी TERMS और CONDITIONS भी बदल सकता है, नई सरकार के अनुसार? जबकि आपकी JOINING और PROBATION PERIOD उस सरकार के आने से काफी पहले का हो? शायद? अगर सारा सिस्टम ही गड़बड़ घौटाला हो तो? 

और भी रोचक, इन्हीं खास किस्म की JO B की Joining या उसकी Terms और conditions (Electoral Bonds?) के हिसाब-किताब से अलग-अलग पार्टियाँ, अपने-अपने शुभ-अशुभ घड़ती हैं, रीती रिवाज़ों के भी। ताकी आम-आदमी को उसके माध्यम से फँसाया जा सके, अपने-अपने पार्टियों के जाल में। उन्हीं के अनुसार निकलते हैं, शादियों के खास मुहर्त। और लोगों के जन्म और मरण दिन तक, कुछ-कुछ इसी प्रकिर्या (जुए) को बताते हैं। खास सिस्टम की पैदा की गई बीमारियों के बाद, जब आप डॉक्टरों या हॉस्पिटल में जाते हैं तो उनके अपने होते हैं, कुछ खास किस्म के पते और IDs। ऐसे ही खास IDs के अनुसार होते हैं स्कूल, कॉलेज, विश्वविधालय, उनकी डिग्रीयाँ, उन डिग्रीयों में स्टूडेंट्स की सँख्या या सिलेबस और उनके कोड। ऐसा-सा ही कुछ बाजार का है, जितना मुझे समझ आया। इन सबमें बदलाव भी इसी जुए की राजनीती के हिसाब-किताब से होते हैं। जैसे-जैसे इस जुए की राजनीती में बदलाव होते हैं, वैसे-वैसे डिग्रीयाँ, उनके सिलेबस और स्टूडेंट्स की सँख्या तक निंयत्रण करने की कोशिशों में रहती हैं, ये पार्टियाँ। जितना जिसके हिसाब-किताब से हो जाय, उतना सही। उससे आगे प्रचार-प्रसार तंत्र कब काम आएगा? ऐसे ही एक दिन आसपास बात हो रही थी, जिसमें प्रश्न था की आप ज्वाइन करोगे की नहीं। और मेरा जवाब था, की ऐसी गुंडागर्दी वाली नौकरी से बढ़िया तो अपना खुद का स्कूल या लेखक होना अच्छा। और जवाब मिलता है, "हाँ, 25 स्टूडेंट तो आ ही जाएँगे आपके स्कूल में।" मेरे हिसाब-किताब से तो ये भी बड़ा नंबर बोल दिया बेबे नै, क्यूँकि ऐसे-ऐसे शुभचिंतक जिस घर में घुसे हों, वहाँ कोई भी ढंग की उम्मीद? वैसे भी ये स्कूल खोलने वाला विभाग मेरा नहीं, भाभी का था। मैं तो एक सहायक मात्र थी। उन दिनों भाभी ज़िंदा थी और उनकी भी नौकरी की अपनी तरह की समस्याएँ थी। अब इनके हिसाब-किताब में शायद 25 फिट बैठता हो। मगर हो सकता है, वो सामने वाले का हिसाब-किताब ना हो। इसी तरह बनता है, बेवजह के भावनात्मक भडकाव का वातावरण। मतलब, आपको खुद नहीं मालूम की किसी के नुक्सान से आपको कोई फायदा नहीं होने वाला। मगर किसी ने शायद ऐसा समझाया या बताया और आप हो गए खामखाँ शुरू। आप ऐसे में, ऐसे लोगों को बेवजह को जवाब देने में ना उलझकर, कुछ खास लेखों को पढ़ने और समझने पे फ़ोकस करना बेहतर समझते हैं। इसी सीरीज का हिस्सा है ऑनलाइन ट्रैवेल, खासकर दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटीज का। शायद कई किताबों का हिस्सा हो सकता है, वो ट्रैवेल। बहुत कुछ है उनमें, जैसे कोई खास पैटर्न किसी देश या राज्य के अनुसार या खास किस्म के कोड और अजीबोगरीब-सी शायद, बहुत-सी हिदायतें भी।                

किसी भी मेहनतकश इंसान को बुरा लगेगा, अगर उसे सालों नौकरी करते हो गए हों और सालों बाद कोई बोले आपकी तो नौकरी ही VYAPAM है। हैरान, परेशान आप लगें ढूंढ़ने, की ये क्या बकवास है? और जवाब मिले  घौटाला है। और गलती भी आपकी या आम-आदमी की नहीं, इन खास तरह के गुप्ताओं की है, जो गुप्त-गुप्त खेलते हैं। और जुआरी और शिकारी दोनों है। इस गुप्त हिसाब-किताब से तो, सब कुर्सियाँ और नौकरियाँ घौटाले ही घौटाले हैं। क्यूँकि, पूरा का पूरा सिस्टम ही घौटाला है। वो फिर चाहे सिविल हो या डिफेन्स। और इस हिसाब से उन सबको नौकरी से चलता कर देना चाहिए, जिनकी joining ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे खास किस्म के कोढों की हैं। ऐसे तो सबके पत्ते साफ़। इस हिसाब-किताब से तो   

Elections, गड़बड़ घौटाला। 

वोटिंग मशीन, गड़बड़ घौटाला

वोटर IDs, गड़बड़ घौटाला

राज्यों के जोड़तोड़ से लेकर (देशों के भी), गाँव के उस आखिरी बूथ तक का हेरफेर और मैनेजमेंट, गड़बड़ घौटाला

सबके सब कोढ़, लीचड़ों के धंधे जैसे। 

तो ऐसे में क्या तो प्रधानमंत्री होगा? और क्या कोई सरपंच या पंच? सबका सब, गड़बड़ घौटाला।   

और यही हाल सुप्रीम कोर्ट और पार्लियामेंट के हैं। उसपे रोचक ये, की ये सब बताने वाले भी यही महान लोग हैं। 

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EV M)? और कितनी ही इलेक्ट्रॉनिक से सम्बंधित शब्दावली (Terminology या codes?)  

EVM की कोई खास समझ अपने पास नहीं। मगर इस chat पत्र पे तो एक किताब बनती है शायद। कुछ लिखी जा चुकी, इधर-उधर पोस्ट्स में। थोड़ी-सी मेहनत और सही।  

देश, राज्य, जिला, तहसील और गाँव और उनमें बांटे हुए अलग-अलग क्षेत्र। उन क्षेत्रों में अलग-अलग मतदान केंद्र। उन केंद्रों में अलग-अलग बूथ और उन बूथों के नंबर। और उन बूथ नंबरों पे आपके वोट का खास वोटर कार्ड नंबर। आपकी अपनी एक और खास किस्म की ID कितने घौटाले हैं ना ये IDs भी।   

भारत के इलेक्शन (बाकी देशों के भी कुछ-कुछ ऐसे ही हालात बताए) मतलब, उस आखिरी बूथ मैनेजमेंट तक हाई टैक कंट्रोल? लोगों को मानव-रोबोट बनाने के कितने ही तरीके और मकड़ी से जाले, फैले हैं जैसे कदम-कदम पे। ऐसे तो सिर्फ आधार कार्ड ही नहीं, बल्की उससे कहीं आगे चलके आपकी हर तरह की ID, जैसे किसी मकड़ी के जाले। 

प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस या सुप्रीम कोर्ट के और जज या कोई भी उन महान कुर्सियों पे बैठे लोगबाग, कहना चाहेंगे अपनी-अपनी कुर्सियों के बारे में कुछ? और क्यों हर आम-आदमी को इस राजे-महाराजों वाले IDs के गलत धंधे में जकड़ा हुआ है? जो आम-आदमी को समझ आता है, वो सब वैसे ही क्यों नहीं है? उसपे जो इस गुप्त सिस्टम को, बाहर आम आदमी तक बताना चाहे, उसे हर तरह से भुगतना भी पड़े। सजा सच बोलने की और इनाम झूठ बोलने वालों को या सच को किसी गूढ़ रहस्य की तरह छिपाने वालों को।  

सूक्ष्म प्रबंधन (Micromanagement) 1

ये Cult पॉलिटिक्स का भी हिस्सा है और Extreme Form of Surveillance Abuse का भी। किसी भी लैब प्रैक्टिकल के लिए, ये अहम होता है, सूक्ष्म प्रबंधन। जब वो लैब सामाजिक सामान्तर घड़ाई हो, तो और भी अहम हो जाता है। क्यूँकि, यहाँ किसी भी कम दिमाग वाले जीव को नहीं, बल्की इंसान को नियंत्रित करना है। अब दिमाग वाले जानवर को नियंत्रित करना है तो पहला नियंत्रण दिमाग पे ही करना होगा। मानव रोबोट घड़ाई तभी संभव है। आओ, अपने आसपास के कुछ एक उदहारण बताती हूँ। 

इंसानों पे कब्जे और जमीनों पे कब्जे 

ज़मीनों के चक्करों में इंसानों पे कब्जे?

या इंसानों के चक्करों में ज़मीनों पे?

या राजनीती और व्यवसायों के (टेक्नोलॉजी खासकर) चक्करों में, सामांतर घड़ाईयाँ और सिस्टम का आदमखोर हो जाना?     

स्कूल पे ही आते हैं। मैं गाँव में स्कूल खोलने तो आई नहीं थी। कैंपस क्राइम सीरीज उस वक़्त मेरा फोकस था और साथ में कुछ बीमारियों और हादसों के रहस्य जानने की कोशिश। अब आप घर ज्यादा रहेंगे, तो स्वाभिक ही है की घर के बन्दों से बातचीत भी पहले से ज्यादा होगी। भाभी से अक्सर श्याम की चाय पर या छुट्टी वाले दिन ही थोड़ी-बहुत बात हो पाती थी। क्यूँकि, किसी भी नौकरी करने वाले इंसान के पास वक़्त की अक्सर कमी होती है। एक तरफ मैं अपने लिखने के जूनून में वयस्त थी, तो दूसरी तरफ बहुत-सी छोटी-मोटी बातों से अंजान भी। यूनिवर्सिटी के जाने-पहचाने माहौल से दूर, गाँव का ये संसार थोड़ा रहस्मय भी था और रोचक भी। भला आपके अपने गाँव में ऐसा रहस्यमय क्या हो सकता है? रिश्ते-नाते? कौन, कहाँ-कहाँ से है? क्या करता है या करती है? कहाँ पढ़ता है या काम करता है? अगर बाहर से है, तो कब आया है या आई है? ये कुछ-कुछ ऐसे ही था, जैसे दूसरे जानवरों या पक्षियों का माइग्रेशन पढ़ा जाता है, यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहाँ? इंसान भी जीव-विज्ञान के अनुसार एक जानवर ही है। दूसरे जीवों से थोड़े से ज्यादा दिमाग वाला जानवर। इसीलिए शायद, इसे दूसरे जीवों से अलग बहुत सारे काम होते हैं। बहुत से अच्छे और बहुत से बुरे। लिखाई-पढ़ाई, नौकरी कुछ ऐसे ही काम हैं। जैसे मैं अपनी नौकरी से तंग आ चुकी थी, ऐसे ही भाभी भी वो स्कूल छोड़ना चाहती थी, जिसमें वो नौकरी करती थी। प्राइवेट स्कूलों का जितना मुझे समझ आया वो ये की वो काम बहुत ज्यादा लेते हैं और उसके बदले देते बहुत कम हैं। ऐसे ही कोई बात हो रही थी और उन्होंने कहा कौन चाहता है इन प्राइवेट स्कूल में काम करना। मेरा बस चले तो मैं तो छोटा-सा अपना स्कूल खोल लूँ। फिर उन्होंने एक-दो, इधर-उधर के उदाहरण दिए, की कैसे-कैसे लोग सरकारी नौकरी करते हैं और ठाली का खाते हैं। या कैसे-कैसे स्कूल मालिक बने बैठे हैं। मुझे भी लगा की कह तो सही रहे हैं। और मैंने ऐसे ही बोल दिया, की स्कूल खोलने में तो काफी पैसा चाहिए। उन्होंने कहा, नहीं बहुत ज्यादा भी नहीं। थोड़ा हो तो थोड़े में भी शुरू हो सकता है। एक-दो आसपास के उदहारण थे और मुझे भी लगा की संभव है। मैंने अपनी बचत से थोड़ा पैसा लगाने की हाँ कर दी। और योजना शुरू हो गई। कुछ वक़्त सब सही चला। ठीक-ठाक जगह अपनी ज़मीन थी। सँभालने वाले बन्दे भी और थोड़ा बहुत पैसा भी। कुछ उनके पास था। कुछ मैं हाँ कर चुकी थी। मगर, थोड़े वक़्त बाद कुछ और भी शुरू हो गया था। ये "कुछ और" उस वक़्त समझ नहीं आया। भद्दी और बेहुदा वाली राजनीती। फुट डालो, राज करो अभियान। एक तरफ मेरी कैंपस क्राइम सीरीज, कुछ लोगों को खटक रही थी तो दूसरी तरफ, ये योजना शायद। उनके चुंगल से निकल भागने वाले पक्षियों की योजना जैसे। तब तक मुझे ऐसा कोई अहसास ही ना था की इसका अंजाम इस घर के लिए क्या हो सकता है। मुझे आसपास वाले लोगों की समझ भी कम थी। और धीरे-धीरे लोगों की भाषा, कहानियाँ और कारनामे जान, कुछ से मैं दूरी बनाने लगी थी। तो कुछ मुझ से। काफी वक़्त लग गया ये सब समझने में। मगर तब तक लोगबाग एक और काँड रच चुके थे। जो समझ आते हुए भी, वक़्त पर रोका ना जा सका। राजनीती का सूक्ष्म प्रबंधन, लोगों को मशीनों से अलग नहीं समझता। वो उनसे मशीनों की तरह ही व्यवहार करता है। जैसे मशीनों से खास तरह के काम करवाने के लिए, खास तरह के प्रोटोकॉल होते हैं, प्रकिर्या होती है। वैसे ही आदमियों का है। इस मशीन से भी खास तरह के काम करवाने के लिए, खास तरह का माहौल बनाना होता है। उसी तरह का दाना-पानी परोसना होता है।  

इस दाने-पानी में आपके आसपास कैसे-कैसे लोग हैं, बहुत अहम है। ये कैसे-कैसे लोग आपको आगे भी ले जा सकते हैं और पीछे भी धकेल सकते हैं। वो आसपास के लोगबाग ये भी बताते हैं, की यहाँ पे नियंत्रण किस पार्टी का है या अलग-अलग पार्टियों की आपस में खींचतान चल रही है। किसी एक ही मुद्दे पर अलग-अलग पार्टियों की खींचतान या लोगों पर कब्जे जैसी लड़ाईयाँ, शायद ज्यादा नुकसान करती हैं। लोगों के रहस्य्मय जैसे माइग्रेशन के साथ-साथ चौंकाने जैसा-सा रहस्य था, घरों के डिज़ाइन, बनावट। कब टूटे, कब बने, कब फिर से टूटे और फिर से बने। किसने बनाए, बनाने के लिए मटेरिअल कहाँ-कहाँ से आया, कितना खर्चा हुआ आदी। कौन-कौन कब अलग हुए और कहाँ-कहाँ गए या रहने लगे या कोई काम-धाम करने लगे। मुझे लग रहा था इतने सारे बारीकी डिटेल्स शायद यूनिवर्सिटी जैसे सरकारी संस्थानों या शहरों के सेक्टरों, कॉलोनियों तक ही सिमित होंगे। मगर जिस किसी जगह को आप जितने अच्छे से जानते हैं या जान सकते हैं, ये सब कोढ़ जैसा सामान्तर घढ़ाईयोँ का ज्ञान उतना ही ज्यादा समझ आने लगता है।        

आओ काम करने वाले लोगों पे आते हैं 

हाउस हैल्पर्स, वर्कर्स, मजदूर   

मुझे जब एक्सीडेंट के बाद हॉस्टल छोड़कर सैक्टर-14 जाना पड़ा, तो मेरा खाना बनाने वाला हॉस्टल का ही एक पुराना वर्कर था। स्वाभाविक था, सालों हॉस्टल रही थी तो वहीं एक वर्कर को बोल दिया और काम चल गया। वहाँ से जब यूनिवर्सिटी कैंपस H#16, टाइप-3 गई तो कमला थी। अच्छा खाना बनाती थी। मगर, एक वक़्त के बाद शायद वो थोड़ा ज्यादा व्यस्त हो गई और मुझे भी मोटा होने का खतरा लगने लगा। जब आप हॉस्टल रहते हैं तो खाने का निर्धारित समय होता है और मीनू भी। घर में ये थोड़ी गड़बड़ हो सकती है, खासकर अगर आप डेरी प्रोडक्ट्स के शौक़ीन हों। जैसा हरियाणा वालों के साथ पैदाइशी होता है। यहाँ से थोड़ी बहुत कुकिंग अपने आप शुरू हो गई थी। थोड़ा-बहुत खाना बनाने का शौक भी था तो थोड़ी-बहुत मजबूरी भी। कैंपस घर में आगे-पीछे थोड़ा लॉन भी था, तो थोड़ा-बहुत बागवानी का शौक भी पूरा होने लगा था। मेरा पहला माली वहाँ शायद से रवि था। उसके बाद तरुण। ऐसे ही साफ़-सफाई वालों का था। 2-3 चेहरे बदले, अलग अलग वजहों से। कैंपस H#16, टाइप-3, तक काफी कुछ सही था शायद। H#30, टाइप-4, लाक्ष्यागृह जैसे, ने काफी कुछ बदल दिया। 2016, के आखिर में ये घर मिला था और 2017 में मैंने शिफ्ट किया था। शिफ्ट करने के कुछ वक़्त बाद ही तांडव जैसे, कुछ शुरू हो चुका था। एक के बाद एक करके, यहाँ मैं सब हॉउस-हेल्पर्स को हटा चुकी थी। हाउस हैल्प के लिए, थोड़ा बहुत मशीनों की तरफ बढ़ चुकी थी। या छुट्टी वाले दिन ही किसी मजदूर को लेके आती थी। H#30, टाइप-4, जहाँ एक तरफ सिस्टम के कोढ़ को समझा रहा था, वहीं उसी सिस्टम के एक भाग कुर्सियों की, नौकरियों की या मजदूरों की अजीबोगरीब इधर-उधर की, अदला-बदली की कहानी भी गा रहा था। नौकरियों या कुर्सियों का ही नहीं, बल्की मजदूरों का भी इतना सूक्ष्म प्रबंधन? ये कौन-सा संसार है, जहाँ इन कोढों वाले लोगों ने हर जीव को इतना जकड़ा हुआ है? कौन किसके यहाँ काम करने आएगा या कौन नहीं आएगा, वो भी ये बताएँगे? नहीं बताएंगे नहीं, बल्की गोटियों की तरह चलाएंगे, वो भी उनकी खबर के बिना। यही नहीं, बल्की हाउस हेल्पर्स या मजदूरों से इस तरह का सा व्यवहार या ऐसी नज़र से देखना, जैसे वो इंसान ही ना हों। 

वक़्त के साथ-साथ गाँव में भी कुछ-कुछ, यूनिवर्सिटी जैसा-सा ही मजदूरों का या हॉउस हेल्पर्स का मैनेजमेंट समझ आया। कौन करते हैं ये सब? कैसे करते हैं? ये इधर से उधर के तबादले जैसे? जैसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी या वक़्त के लोगों का, इनके घर या उनके घर काम करना। या किसी का ना करना या छोड़ देना। या कहीं और शुरू कर देना। बड़ा ही रोचक जहाँ है ये, इतने सूक्ष्म स्तर पे मानव संसाधन प्रबंधन या शायद कहना चाहिए कुप्रबंधन (HR, Human Resource Management या Mismanagement)।   

Monday, December 11, 2023

इंसानों द्वारा बनाई गई मशीनों पे खुरापाती तत्वों द्वारा तरह-तरह के कंट्रोल

जब भी थोड़ी-बहुत बाहर जाने की बात हो और कुछ भंडोले जैसे बड़बड़ाने लगें, मोदी इलेक्शन जल्दी करवाएगा या बीजेपी इलैक्शन जल्दी करवाएगी। सिर्फ बात हो या शायद सिर्फ कोई ऑनलाइन ट्रैवेल हो। क्यूँकि, मुझे घूमने का शौक है। मगर कोरोना के बाद वो ऑनलाइन तक ही रह गया है, बहुत से कारणों की वजह से। और आप सोचने लगें, सच में किसी के भारत से बाहर जाने का मतलब, भारत में इलेक्शन्स के जल्दी होने से हो सकता है क्या? कुछ मीडिया कितना फेंकम-फेंक हो सकता है? ठीक वैसे ही, जैसे अपने फेंकू जी? मुझे ना तो अपने फेंकू जी पसंद और ना ही टीचर्स का इलेक्शंस में खास ड्यूटी देना। खैर। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन कितनी विस्वास के लायक हैं और कितनी नहीं, ये तो शायद इलेक्ट्रॉनिक्स एक्सपर्ट्स बता पाएँ। परन्तु, इलेक्ट्रॉनिक्स पे विस्वास? किसी भी तरह का इलेक्ट्रॉनिक्स या किन्हीं और तरह की तरंगों के माध्यम, कितने विश्वास के लायक हैं या हो सकते हैं? जानते हैं, कुछ ऐसे छोटे-मोटे वाक्या, जो मैंने पीछे अनुभव किए।   

कार, संतरो, जो कुछ महीने पहले 14 को ब्रेक फेल (Gindhran, Madina-B) कर गई। अब इस 14 में क्या खास है, ये शायद सुप्रीम कोर्ट बेहतर बता सकता है। खासकर अपने चीफ जस्टिस? क्यूंकि मेरी अपनी कार i10 भी किसी 14 को, एक खास ड्रामे के साथ उठा ली गई थी। गाडी को ठीक-ठाक छोड़, मैं सोम के यहाँ समोसे लेने गई और कुछ ही मिंट बाद वापस आई तो कार ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया। जैसे वो चाबी ही उसकी ना हो। शायद चाबी के चिन्ह वाले (JJP) कुछ बता पाएँ? उसके बाद थोड़े और ड्रामे चले कई दिन। फिर केस और कार जब्त जैसे। बिल्कुल जैसे गुंडे करते हैं, वैसे। इस गुंडागर्दी से पहली बार, सोम के समोसे का मतलब समझ आया और साड़ी का भी। डिटेल में लिखना बनता है, इन कार हादसों पे भी और 14 से इनका क्या लेना-देना हो सकता है? अब आम आदमी, ऐसे-ऐसे कोड भला कैसे समझे? जहाँ तक संतरो का ब्रेक फेल होना था तो उसके बाद कोई रिस्क लेना, मतलब, जान से हाथ धोना भी हो सकता था। क्यूँकि, एक तो ये कार मेरी नहीं थी, उसपे मेरी अपनी इकलौती कार i10 के उठने के बाद, जब ये मुझे मिली, तो कुछ ही वक़्त बाद, पानीपत के पास अच्छा-खासा ड्रामा (एक्सीडेंट) दिखा चुकी थी। हालाँकि, अब ब्रेक फेल के केस में, शायद वो सर्विस माँग रही थी मगर जैसे और जिस जगह वो ब्रेक फेल हुए, उससे यही समझ आया, की ऐसी खटारा गाड़ी के बगैर भी गुजारा हो सकता है। उसके बाद मैंने किसी और की गाड़ी भी नहीं ली। यही सोचके की पता नहीं, कहाँ राम नाम सत्य कर दे। यहाँ पे सिर्फ ब्रेक फेल तो, सर्विस माँग रही थी का बहाना हो सकता था। इस ब्रेक फेल से पहले कई बार, ये कार अपने आप स्पीड बढ़ने का ड्रामा भी दिखा चुकी थी। ये सर्विस मॉंग रही थी, का इलेक्शंस से क्या कनेक्शन हो सकता है? कभी-कभी, यहाँ-वहाँ अजीबोगरीब पढ़ने को मिलता है। 

स्कूटी और पैट्रॉल पम्प bluetooth control?

संतरो को थोड़ा रैस्ट पे रखने के बाद, कुछ वक़्त, अपने आसपास ही किसी की स्कूटी से काम चला, गाँव में इधर-उधर आने-जाने तक। अब आप किसी बच्चे या अपने से जूनियर के साथ इधर-उधर (गाँव में ही) घुमेंगे, तो पेट्रोल डलवाना तो बनता है। 2-3 बार डलवाया और नंबर कुछ फिक्स से लगे, 220 या 200। शायद इतना ही आता हो उसमें? या टँकी इतनी ही खाली हो? इसलिए, किसी तरह का कोई शक नहीं था। मगर यहाँ-वहाँ कहीं पढ़ा, की पैट्रॉल पम्प BLUETOOTH नियंत्रित हुआ है। अब ये किस तरह का BLUETOOTH नियंत्रण था और पैट्रॉल पंप वालों को भी खबर थी या नहीं, पता नहीं। मगर मुझे वो सब पढ़कर कोई खास अजीब नहीं लगा। क्यूँकि, इससे पहले wifi या bluetooth कंट्रोल नहीं, बल्की Microwave स्पेशल हैक जैसा कुछ हुआ था। वैसे ही जैसे AC? या शायद उससे भी थोड़ा और sophisticated? नया माइक्रोवेव कोई खास तरह के कोड शो कर रहा था। जिसकी शिकायत मैंने उस कंपनी को भी की। उसका शिकायत का उत्तर भी, शायद कोडेड-सा ही कुछ था। हो सकता है भविष्य में डिटेल में ऐसी-सी ही, कुछ रोचक कहानियाँ पढ़ने को मिलें आपको। एक दिन ऐसे ही फिर से स्कूटी पे उसी लड़की के साथ गई, मगर अबकी बार पैसे मैंने नहीं दिए। और बिल था 350, शायद टँकी बिलकुल खाली थी और इतने में ही फुल होती हो। 

तो ये थी रोजमर्रा की छोटी-मोटी सी बातें। इंसानों द्वारा बनाई गई मशीनों पे और उनपे खुरापाती तत्वों द्वारा तरह-तरह के कंट्रोल के शक।   

हम जैसे भुगतभोगी, जो ये सब गड़बड़ घौटाले, तर्कसंगत जानने की कोशिश करते हैं, उन्हें थोड़ा-बहुत ज्ञान हो जाता है। क्यूँकि, अपने विषयों से दूर, हर विषय के एक्सपर्ट आप नहीं हो सकते। मगर, आम आदमी भी ये सब भुगतता है, कहीं ना कहीं, किसी ना किसी तरह से, अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में। और रोचक तथ्य ये, की उसे इस सब की भनक तक नहीं होती। वैसे ही, जैसे राजनीतिक बीमारियों और ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे हादसों की नहीं होती।  

अब आते हैं रोजमर्रा की छोटी-मोटी शिकायतों या आम-आदमी की भड़ास से परे, इलेक्शंस और EVM वगैरह पे। ये बुथ मैनेजमेंट और हाई टैक कंट्रोल क्या होता है? जब ज्यादातर टेक्नोलॉजी के जानकारों को पता है की कोई भी मशीन हैक करना या खुरापाती तत्वों द्वारा कंट्रोल करना कोई बड़ी बात नहीं है तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग क्यों? जानते हैं अगली पोस्ट में। 

कब्जे कैसे-कैसे?

राजनीतिक पार्टियाँ अगर रिश्ते जुडवाने, तुड़वाने, लोगों को एक दूसरे के विरुद्ध दुरुपयोग करने में व्यस्त होंगी, तो क्या होगा उस समाज का?   

राजनीतिक पार्टियाँ, अगर निर्णय लेंगी की कौन कहाँ रह सकता है और कहाँ नहीं, मतलब सीधा-सीधा या गुप्त नियंत्रण लोगों के और जीवों के माइग्रेशन पर। तो क्या होगा उस समाज का? ठीक वैसे, जैसे एक पार्टी ने यूनिवर्सिटी छोड़ने को मजबूर किया। तो दूसरी पार्टी ने, गाँव में ताँडव रचा, ताकी वहाँ ना टिक सकूँ। ये ताँडव, यूनिवर्सिटी की कैंपस क्राइम सीरीज से कहीं ज्यादा बेहुदा और खतरनाक था। या शायद कहना चाहिए, की इस बेहुदा रुप की शुरुआत तो यूनिवर्सिटी के Organized Violence 2019 से ही हो चुकी थी। पार्टियों का और कुर्सियों का, एक दूसरे के खिलाफ वही ताँडव, बढ़ते-बढ़ते, कोरोना काल में बदला और आगे बढ़ा। जिसकी सबसे ज्यादा मार, बच्चे, बुजुर्ग और औरतें भुगतती हैं।   

ठीक वैसे, जैसे कितने ही लोग कोरोना काल में दुनियाँ भर में प्रभावित हुए। ठीक वैसे, जैसे कितने ही लोग दुनियाँ भर में, अपने-अपने घरों तक बंद रह गए। कितने ही राजनीतिक बीमारियों का शिकार हुए, महामारी के नाम पे। कितनों को ही OXY - GEN (या OX YG EN?) की कमी हो गई। शायद कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे एक तरफ भाभी गई और दूसरी तरफ कोई काम वाली आ गई? या काम वाली के साथ-साथ, sex object भी? उसपे किन्हीं बड़े लोगों के लिए, उस घर पे सीधा-सीधा नियंत्रण। जब तक चाहेंगे रखेंगें। फिर उसी माध्यम से, जिस तरह का ताँडव रचना होगा, रच देंगे? या शायद slow-poisoning? ठीक वैसे, जैसे कुछ ऐसे और कुछ वैसे, जाने कैसी-कैसी सामान्तर घड़ाईयाँ, आसपास की या दूर-दराज की कितनी ही ज़िंदगियों में चल रही हैं। वो सब धकेले हुए लोग हैं। इधर से उधर और उधर से इधर। एक तरफ काम की तलाश में आए हुए मजदूर, तो दूसरी तरफ ससुराल से या गुंडों की मारों से, अपने घरों की तरफ भागी हुई लड़कियाँ। और लोगबाग उनके पीछे के कारणों को ना समझ, एक-दूसरे के खिलाफ दुरुपयोग हो रहे हैं। जो पार्टियाँ, उन्हें यहाँ से वहाँ धकेल रही हैं, वो उन्हीं के जालों में उलझे हैं। उन्हीं का कहा हुआ कर रहे हैं। तो और ज्यादा उलझ रहे हैं।      

सरकारी और लोगों की प्राइवेट सम्पति भी, अगर गुप्त कोढों के अनुसार, राजनीतिक पार्टियाँ के अधीन होंगी या उनपे कब्जे के युद्ध होंगे, तो क्या होगा उस समाज का? प्रॉपर्टियों पे ये खास तरह के कब्जे समझ आए, जब गाँव में किसी जमीन पे भाई-भाभी के लिए स्कूल बनाने की बात चली। और इस या उस पार्टी ने रचा, की स्कूल नहीं बन सकता यहाँ। या इससे भी थोड़ा आगे चलके, जब किसी पार्टी ने उस जमीन को बिकवाने की ही कोशिश की। कैसी बेहुदा पार्टियाँ हैं ये? और कैसे बेहुदा लोग? 

औरतें या पुरुष भी अगर राजनीतिक पार्टियों के कोढों के अनुसार, उनकी प्राइवेट प्रॉपर्टी होंगे तो क्या होगा उस समाज का?

जहाँ बेहुदा किस्म के राजनीतिक युद्धों में, जुए वाली राजनीती, इंसानों को गोटियाँ की तरह चलेगी, वो भी उनकी मर्जी के विरुद्ध, विरोध के बावजूद, या गुप्त रूप से। जहाँ लोगों को पता ही ना हो, की आपको कहाँ-कहाँ गोटियों की तरह चलाया जा रहा है, तो क्या होगा उस समाज का? वही जो हो रहा है। 

राजनीती के बेहुदा जालों के शिकार लोग (2)

जब से मैंने केस स्टडीज का मन बनाया, तभी से मैंने आसपास को जानना शुरू कर दिया था। क्यूंकि, जितना कैंपस क्राइम केसों से और कुछ यहाँ के हादसों से जो कुछ समझ आया, वो ये बता रहा था, की सब सही नहीं है। कहीं ना कहीं गड़बड़ घौटाला है। मेरी मेरे अपने गाँव की सामाजिक स्तर पर समझ, शायद बहुत पुराने वक़्त की थी। उसपे काफी हद तक सिमित भी। क्यूँकि, घर से बाहर जाना कम ही होता था। अब जब गाँव की तरफ रुख किया, तो समझ आया, की मैं अपनी एक्सटेंडेड फैमिली तक को ढंग से नहीं जानती। किसके कितने बच्चे हैं, कौन-कौन हैं और क्या करते हैं? थोड़ा बहुत ही पता था। आधा अधूरा-सा जैसे। उसपे गाँव में आसपास की थोड़ी बहुत जानकारी के लिए, ले दे के एक भाभी ही थी। मेरे  यहाँ आने के कुछ वक्त बाद, यहाँ भी कोई अजीबोगरीब-सी खटपट होने लगी थी। वो खटपट क्या थी? कहाँ से और कैसे आई थी? या कहना चाहिए की कहाँ से साजिश का हिस्सा, थोंपी हुई थी? शायद जलन, इस घर से ही। मैं ज्यादातर ऐसे माहौल से दूर रहना पसंद करती हूँ, जहाँ बेवजह के वाद-विवाद हों। उसपे Resignation के बाद, भारत रहने का ईरादा नहीं था मेरा। यूनिवर्सिटी से Enforced Resignation के बावजूद, कैंपस घर ना छोड़ पाने की एक वजह, शायद इस गाँव का माहौल भी था, खासकर आसपास का। जो कुछ खास राजनीतिक पार्टियों द्वारा थोंपा हुआ था। कौन हैं ये पार्टियाँ? क्या रोल है इन पार्टियों का, इस घर को बर्बादी की तरफ धकेलने में? या शायद कहना चाहिए की आसपास सब घरों के हालातों के जिम्मेदार। सबको एक-दूसरे के ही खिलाफ प्रयोग करके।        

कैंपस क्राइम सीरीज के साथ-साथ, सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयोँ को जानना और समझना और भी रोचक था। या कहना चाहिए की है। इसी दौरान एक्सटेंडेड फैमिली, अड़ोस-पड़ोस में भी थोड़ा संवाद होने लगा था। इतने सालों बाद, गाँव के इस माहौल को जानना, थोड़ा रोचक भी था और अजीब भी। एक दिन ऐसे ही, एक लड़की से बात हो रही थी। उसने कहा, ये लैपटॉप उसे मत देना, मेरे अपने भाई को। मुझे बड़ा अजीब लगा, ये सब सुनकर, की कोई ऐसे कैसे बोल सकता है? मैं अपने खुद के भाई को क्या दूँ और क्या ना, ये मुझे बताने वाला कोई बाहर का बंदा कैसे हो सकता है? वो भी जिसे अभी तक मैं ढंग से जानती तक नहीं। राजनीती के कोढों में उलझा दिए गए ये लोग। जिन्हें खुद नहीं मालूम, की उनके अपने लिए, ऐसे कोढ़ वाले सिस्टम में ठीक से ज़िंदगी जीने और फलने-फूलने के कोड क्या हैं? तभी ये ज़िंदगियाँ बर्बाद हैं। इधर से उधर धकेली हुई, कोढ़ की राजनीती के अनुसार। इनके दिमागों में भावनात्मक भड़काव भरे जाते हैं, जो सामने वाले का नुकसान तो करते ही हैं, खुद इनके अपने खिलाफ होते हैं। नहीं तो किसी को क्या मतलब, अपने बहन-भाई को कौन क्या दे और क्या ना? ये सब मुझे खुद थोड़ा बहुत समझ आया, जब लैपटॉप रजिस्ट्री का जिक्र भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के सम्बोधनों में यहाँ-वहाँ मिलने लगा।        

फिर एक दिन ऐसे ही, उसने दूसरे भाई के बारे में कुछ ऐसा बोला, जो हज़म नहीं हो रहा था। भाभी की मौत के बाद, बच्चे के किडनैप वाले ड्रामे में भी, ये अहम शख्शियत थी। एक तरफ, ये मुझे मेरे अपनों के खिलाफ भड़का रही थी। तो दूसरी तरफ पता चला, की मेरे अपनों के दिमाग में, मेरे खिलाफ जहर भरने का भी काम चल रहा था यहाँ से। हज़म होने लायक तो ये सब था ही नहीं। उसपे बच्चे तक को नहीं बक्सा हुआ था। वहाँ भी ईर्ष्या। लोग इतने जाहिल कैसे हो सकते हैं? भाभी के जाने के बाद, उनके बारे में भी बेवजह की खामखाँ की बकवास। आसपास के ही, कुछ अपने कहे जाने वाले, एकता कपूर सास-बहु सीरीज टाइप लोग। ज्यादातर हद से ज्यादा ठाली औरतें, जैसे बकबक करती रहती हैं। इसी बकबक से कुछ लोगों की जलन भी समझ आई। और ये भी की मेरे गाँव आने के बाद, जो थोड़ी बहुत घर में अनबन शुरू हुई थी, वो भी अपने आप नहीं थी। वो जो भाभी को अपने घर लाना चाहते थे? उनके जाने के बाद, उन्हीं की बुराई कर रहे थे। यही राजनीती थी उसके पीछे? और उसमें आसपास के लोगों का ही दुरुपयोग हो रहा था। फुट डालो, राज करो विभाग। इनकी जरुरतें, उनकी जरुरतों की रेकी (Extreme form of Surveillance Abuse) और एक दूसरे के खिलाफ भावनात्मक भड़काव। कितना सहज और आसान हो जाता है ना, ये सब करने वालों के लिए।   

अपनी ज़िंदगियों पे फोकस ना करके, दूसरे के घरों में महाभारत रचने की साजिश वाले लोग। केकैयी जैसे किरदार जैसे। अगर आपकी खुद की ज़िंदगी सही नहीं है या वहाँ पे कोई गड़बड़ है तो बेहतर होता है, उसपे ज्यादा फोकस करना। मगर यहाँ तो, एकदम से उल्टा था।  

एक तरफ जहाँ भाभी की मौत के बाद बच्चे के किडनैप का ड्रामा था। तो दूसरी तरफ, एक-दूसरे के खिलाफ भड़काव। इतना जहरीला भावनात्मक भड़काव, जो सच के आसपास भी ना हो। जो सामाजिक सामान्तर घड़ाईयों से समझ आया, वो ये, की इन सामाजिक सामांतर घड़ाईयोँ में सामने वाले के दिमाग में ऐसा घुसेड़ा जाता है की जो उनके अपने यहाँ हो रहा है, वही हूबहू कहीं और का सच है लगने लगे। Alter Ego घड़ना, जैसे रावण के 10-सिर। एक ही इंसान को अलग-अलग पार्टियाँ कितने ही रूपों में पेश कर सकती हैं। ये Alter Ego या अलग-अलग रूप या सामाजिक घड़ाई जितनी भी किसी पार्टी की जरुरतों के आसपास हो जाए, उतना बढ़िया। जहाँ ना हो पाए, वहाँ पार्टियों का अपनी ही तरह का प्रचार-प्रसार विभाग काम करता है। अपनी ही तरह के प्रचार-प्रसार विभाग में अहम है, कुछ दिखाना, कुछ बताना और कुछ छिपाना। जो छिपा दिया जाता है, वो शायद ज्यादा अहम होता है। ये छिपाना उतना ही वक़्त काम का होगा, जितना जो सच बता सकें, उन्हें जितनी देर तक हो सके दूर रखना। ये दूर रखना या करना ही "फुट डालो, राज करो" विभाग का हिस्सा है। जितना ज्यादा आप दूर होंगे, जितनी देर दूर होंगे, उतना ही झूठ हक़ीकत लगने लगेगा। वो कहते हैं ना की किसी भी झूठ को अगर 100 बार सच कहा जाए, तो वो सच लगने लगता है। एक दूसरे से दूर करने में और भी बहुत कुछ घड़ा जा सकता है। जैसे निराशा, किसी भी तरह की जरुरत, वो भी हद से ज्यादा। ऐसे दिखाना या अहसास करवाना, जैसे सबकुछ खत्म हो गया हो। कुछ बचा ही ना हो। या बहुत ज्यादा गुब्बारे की तरह फुलाना, ताकी फोड़ने में आसानी हो। जितना ज्यादा हकीकत से दूर फुलाया जाएगा, उतना ही ज्यादा आसान होगा, खत्म करना। उसपे, गुप्त तरीकों से उस तरफ धकेलना। माँ और भाई के साथ ऐसा हो चूका था और उन्हें आज तक अहसास तक नहीं की हुआ क्या है? वैसे ही जैसे राजनीतिक बीमारियों में या मौतों में आम आदमी को कुछ नहीं पता लगता। या कहना चाहिए की लगने दिया जाता। जो कोई वो सब बाहर निकालने लगता है या आम आदमी को बताने लगता है, उसी की घेरा बंदी कर दी जाती है। उसी का ईलाज कर दिया जाता है।   

जरुरत पैदा करना 

जैसे भाभी की मौत के बाद, बच्चे के किडनैप का ड्रामा। उसके साथ-साथ बुआ के खिलाफ भड़काई। बुआ द्वारा बनाया गया खाना तक बंद करवा देना। बच्चे को बुआ से दूर करना, मतलब बाकी काम भी, अब माँ-बेटे को ही करने पड़ेंगे। पड़ गई जरुरत किसी काम वाली की?

दादी बूढ़ी हो चली, बाप इतने सारे काम अकेला करे। अरे, कोई तो काम वाली चाहिए। घर वाली नहीं, काम वाली। और लो जी, काम वाली पेश है। क्या फर्क पड़ता है, क्या है, कहाँ से है, क्यों है, वगैरह, वगैरह। काम ही तो चलाना है? अरे क्या हुआ आप लोगों की पसंद का?  जैसे, ज़िंदगी भागी जा रही हो। अब शादी नहीं की, तो जैसे हो ही ना? छिपाने और जल्दबाज़ी का एक और हिस्सा, साजिश रचने वालों का, घर वालों को तीतर-बितर कर, पुरे घर पर कब्ज़ा जैसे। और साथ में ये भी, की अबकी बार कुछ अच्छा यहाँ घुसने नहीं देना। तो फूट डालो, राज करो विभाग, एक साथ कितनी तरह के काँड रच सकता है? वैसे, ऐसा क्या है उस घर में कब्जे लायक? या किसी भी घर में, क्या हो सकता है? धन-दौलत? जमीन-ज़ायदाद? या उससे कहीं ज्यादा अहम कुछ, खासकर राजनीतिक पार्टियों के लिए? कैसे-कैसे मायावी और महामायावी खेल?    

गुब्बारे की तरह फुलाना 

अगर कुछ बुरा हुआ हो या किया गया हो, तो भी ये दिखाने की कोशिश, की सब सही है। या इससे भी थोड़ा आगे जाके, थोड़ा और बेहुदा होके, "जो हुआ, सही हुआ"।  बुरे वक़्त को भले की तरफ, अपने और हकीकत के आसपास रहने वाले लोग, फिर भी कर सकते हैं। मगर, जो हुआ सही हुआ कहकर, हवा में उड़ाने वाले, बचा-खुचा भी उड़ाने वाले शातीर होते हैं। भाभी की मौत के बाद जो कुछ चला, वो सब यही गा रहा था। भाभी पैसे को सहजने वाली औरत थी। भाई के स्वभाव के थोड़ा विपरीत। हर घर में हर किसी के बीच थोड़े बहुत मतभेद होते हैं। हालाँकि, ये भाई-भाभी की लव मैरिज थी। मगर जितनी उनकी पटती थी, वैसे ही तुनकमिज़ाजी भी थी। थोड़ी बहुत खटपट होती ही रहती थी। उसको भी भुनाने वालों ने, उनके जाने के बाद, उनके खिलाफ ही भुना। जो पैसा है, उसे चकाचौंध में उड़वा दो। जमीन को बिकवाली की तरफ धकवा दो। ऐसा करने में मनचाही सफलता ना मिले, तो सबका हिस्सा किसी एक के नाम करवाने की चालें चला दो। एक तरफ ये सब सतर्क कर रहा था। तो दूसरी तरफ, थोड़ा समझ से बाहर भी था। एक सामान्य से मिडल क्लास घर पे, किन्हीं पार्टियों का इतना फोकस? वो भी उसे बर्बाद करने में। क्यों और किसलिए? क्या मिल जाएगा उन्हें ये घर खत्म करके? ऐसा क्या खास है यहाँ? ये सब मेरे लिए भी सबक था और थोड़ा हैरान करने वाला भी।            

मेरे लिए आसपास की सामान्तर घड़ाईयोँ को जानने का मतलब, सिर्फ कुछ हादसों और बीमारियों को जानना था। मगर यहाँ तो उससे आगे बहुत कुछ समझ आ रहा था। 

कुर्सियों के ताने-बाने, इंसानों पे कब्जे, इंसानों को रोबॉट बनाना और घिनौने टाइप का पुरे समाज पे नियंत्रण। उसमें इंसानो की छोटी-मोटी कमियों का बढ़ा-चढ़ा कर दोहन। छोटी-मोटी सी जरुरतों को बढ़ाना-चढ़ाना। छोटी-मोटी इंसानी-सी ईर्ष्याओं को बढ़ा-चढ़ा कर, अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रयोग करना। इंसानो पे ही नहीं, तकरीबन हर जीव पे नियंत्रण जैसे।                 

Thursday, December 7, 2023

राजनीती के बेहुदा जालों के शिकार लोग (1)

उन्हें नफरत थी की उनके घर कोई काम वाली (चूड़ी) घुसे। बाकी चमार, धानक, नाई या कोई भी चलेगी। ऐसा इसी पीढ़ी में था। वो भी सिर्फ कुछ खास लोगों के साथ या इससे पहले वाली पीढ़ी में भी ऐसा कुछ था? इस खास नफरत की कुछ खास वजहें थी, शायद। इनके अनुसार इनके दोनों बेटों को ये चूड़ी प्रजाती खा गए। और अगली पीढ़ी में भी, बच्चों के केसों में भी ऐसा-सा ही कुछ पंगा था। नहीं तो, जैसे पहले हर जाट घर के खास अपने चूड़ों के घर होते थे, इनके भी थे। और वो काम करने भी आते थे। जाती से भी ज्यादा, सफेद रंग, सुन्दर नयन-नक्स की चाहत वाले ये लोग, जात-पात में ज्यादा नहीं, तो थोड़ा-सा जरूर विश्वास रखने वाले ये घर, क्या अचानक से रातों रात बदल गए थे? सोच में कोई घनघोर परिवर्तन हो गया था? या किसी खतरनाक साजिश का शिकार हो गए थे? कुछ ही महीने पहले, जब इनकी बेटी घर रहने आई और काम वाली की जरुरत महसूस हुई तो गाँव की एक चूड़ी से काम करवाने पे अच्छा खासा हंगामा हुआ था, इस घर में। कई दिनों तक माँ-बेटी के बीच संवाद ही खत्म हो गया था। 

खास शब्द थे, "मेरे घर में तुने किसी चूड़ी को कैसे घुसा दिया। मेरा घर खाली कर दिया।" ये शब्द कुछ-कुछ उस समझ की देन थे, जिसमें कोई औरत (चूड़ी), ये सब कहने वाली के पति को खा गई थी। इनकी सोच और जानकारी के अनुसार।     

अपने आसपास की सुन्दर चूड़ियों से भी नफरत और दूर-दराज से इनकी सुंदरता के बिलकुल विपरीत मायनों वाली औरत को, जैसे रातों-रात घर ले आए ये। ये? ये कौन? अहम प्रश्न, ये कौन? Cult Politics? बेटी को बहला-फुसला, बहन को दूर दराज कर, अँधेरे में रख। सिर्फ माँ-बेटा का किया धरा धमाल था ये? या? या कौन थे ये लोग, जो इस घर के साथ खेल चुके थे? किस तरह की राजनीतिक साजिश का शिकार? इनके खुबसुरती के मायनों के हिसाब-किताब में बेहद भद्दी औरत। कौन-सी जाती से थी, ये इतनी भद्दी औरत? उसपे डावां-डौल भी। ट्रक जैसे कोई। बेटे के कहीं आसपास नहीं। उसकी आंटी जैसे। उम्र में तो पता नहीं कितनी थी, मगर दिखने में उसकी आंटी जरूर लग रही थी। बहन को काफी कुछ खबर शादी से पहले ही हो गई थी। उसने माँ-बेटे को सावधान करने की भी कोशिश की। मगर साजिशों का उतावलापन कह रहा था, जल्दी-जल्दी, जितना जल्दी हो सके। नहीं तो कहीं कोई बाधा ना आ जाए। उसी जल्दबाज़ी के शिकार माँ-बेटा हो चुके थे और अभी भी उन्हें खबर तक नहीं थी की उनके साथ हुआ क्या है? ये एक सामान्तर सामाजिक घड़ाई का बढ़ा-चढ़ा रूप था। जैसे हर सामांतर घड़ाई में होता है। ये सामान्तर घड़ाईयाँ, ऐसे ही लोगों की ज़िंदगियाँ और घर बर्बाद करती हैं। जैसे इनके आसपास के तकरीबन सब घरों की कहानियाँ। कुछ ऐसी सामांतर घड़ाईयाँ और कुछ वैसी सामांतर घड़ाईयाँ। राजनीती के बेहुदा जालों के शिकार लोग।    

कुछ प्रश्न अहम हो सकते हैं, ये सब जानने में। जैसे, ऐसी क्या परिस्तिथियाँ रही होंगी की अपनी पसंद के बिलकुल विपरीत, अपनी जाती से दूर, कोई अचानक किसी औरत को (अचानक शब्द अहम है यहाँ), अपने घर ले आए? वो भी बहन तक से छुपाकर? जबकी भाई की जब पहली शादी हुई, जो की लव मैरिज थी, तो बहन साथ थी। बहन को कोई खास फरक नहीं पड़ता, कौन, क्या और क्यों है, अगर दोनों एक दूसरे को पसंद करते हों। मगर, किसी भी तर्कसंगत इंसान को फर्क ही नहीं पड़ता, बल्की बहुत ज्यादा फर्क पड़ता है, अगर कहीं किसी षड़यंत्र की बू आए। उसपे उसके संकेत कहीं से साफ़-साफ़ आ रहे हों। चलो उन संकेतों से दूर, थोड़ा आसपास के लोगों के व्यवहार, शब्दों और इरादों को जानने की कोशिश करते हैं। उनमें कुछ ऐसे खुरापाती तत्व भी हैं, जो इस घर में कुछ हद से ज्यादा ही घुसे हुए हैं। मगर उनके शब्दों और करामातों पे जाएं तो वो इस घर में किसी का भी हित नहीं चाहते। ऐसे भी होता है? शायद ऐसे-ऐसे केस तभी होते हैं।   

Tuesday, December 5, 2023

कल्पना विभाग और मानव रोबॉट घढ़ाईयाँ

ये कल्पना विभाग है। यहाँ पे आप जो चाहे सोच सकते हैं। कल्पना कर सकते हैं। उसे शब्दों में पिरो सकते हैं। मगर, . . मगर --

उसे होता हुआ देखना या हकीकत में पाना? थोड़ा मुश्किल है। असंभव नहीं है। परन्तु थोड़ा-सा मुश्किल जरुर है। इन्हीं मुश्किलों को पार करने के चक्रों में, आप जिसे गॉड-ना चाहें, वो तो पता नहीं, गुडे गा/गी की नहीं, मगर इसी प्रकिर्या (Process) में कितने ही भोले, नादाँ, अंजान, अनभिज्ञ, लचर और लाचार लोगों को जरुर गॉड सकते हैं। इनमें बहुत-सी बेबस औरतें भी हो सकती हैं, नन्हें मासूम बच्चे भी हो सकते हैं और बुजुर्ग भी। अब ये गॉड-ना या ऐसी-तैसी करना के मायने या प्रकार भी काफी किस्म के हैं। मानव रोबॉट घड़ने वालों ने अभी तक ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे कमाल जरुर किए हैं। इन सब में जरुरतों को घड़ा गया है, खासकर ऐसी जगह, जहाँ सब सही था, वो जरुरतें थी ही नहीं। उसपे जरुरतों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। Desperate जैसे। 

जो सच में Desperate जैसे हैं, यहाँ उनका ख्याल नहीं रखा गया। बल्की, अच्छे खासे खाते-पीते लोगों को उजाड़ कर, आपस में भिड़वा कर, एक दूसरे से दूर कर, लोगों की छोटी-मोटी खामियों का शोषण किया गया है। उसपे उन्हें इतना निराश किया गया है या कहना चाहिए की ज्यादा से ज्यादा ऐसा गाया और दिखाया गया है, जो हकीकत के बिल्कुल विपरीत हो। हालात, माहौल ऐसे दिखाओ और बनाओ की जो चाहते हो करना, वही हो। अपने आप हो। आपको उसपे बहुत ज्यादा मेहनत भी ना करनी पड़े। ठीक वैसे, जैसे Bio में जीवों के लिए Media Creation होता है।    

कल्पना विभाग के गड़रियोँ की कुछ-कुछ ऐसी ही कहानियाँ हुई हैं, आसपास। सामाजिक घड़ाईयोँ को समाजिक लैब में होते देखना है, तो लैबों से निकलकर थोड़ा इन सामाजिक लैबों के आसपास पहुँचों। बहुत कुछ समझ आएगा, इस Social Engineering के बारे में। मानव रोबोट घड़ने वालों के खतरनाक इरादे और मास्क लगे हुए चेहरे, सब साफ-साफ उतरते दिखाई देंगे। आम आदमी जब तक इतना तक नहीं जान पाएगा, वो अपनी और अपनों की ही तबाही पर जश्न मनाता नज़र आएगा। जब आँखें खुलेंगी, तो हाथ पल्ले कुछ नहीं होगा। या हो सकता है, ये सब देखने के लिए वो खुद ही ना हो। बहुत से केसों में ऐसा हो चूका, और कुछ ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी बेहुदा समान्तर घड़ाईयाँ चल रही हैं। चलती ही रहती हैं। क्या खास बात है?                   

Monday, December 4, 2023

M 4 ?

M 4 मोदी भी होता है, वैसे तो? अब वो रोड़ा है या खूंठा या तरक्की और समृद्धि का प्रतीक, ये पता नहीं? आपको पता लगे तो बताना। 4 पे M एक रोड़ा है? पता नहीं, कैसे-कैसे Co M P lex हैं?  वैसे ही जैसे, बहुत बार रैली निकालते वक़्त BJP वाले लिखते हैं, BJP 4? ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह। कैसी-कैसी रैलियाँ पीटती हैं, ये पार्टियाँ? वैसे अभी हुए इलेक्शन से आपको क्या समझ आया? मुझे तो कुछ खास नहीं आया, सिवाय इसके 3-1, जहाँ का तहाँ (status quo) मतलब, ढाक के वही तीन पात? तो 24 और 29 में क्या हो सकता है? वही ढाक के 3 पात? या अलग ही तरह का विविकरण? अरे समीकरण बोलो, भी हो सकता है? ये कैसे इलेक्शन? किसके इलेक्शन? और किसके लिए? क्या है ये EVM और ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे कोढ़? कौन और कैसे कंट्रोल होता है ये इलेक्ट्रॉनिक्स? सिर्फ बिजली या उससे आगे भी कुछ है? कैसी-कैसी तरंगों के खेल हैं ये? कैसा-कैसा, ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी?              

और ये सुप्रीम कोर्ट क्या है? सुप्रीम कोर्ट भी अपाहिज-सा जैसे? अब रायगढ़ का या कॉंग्रेस का, इससे क्या लेना-देना है या हो सकता है, पता नहीं। किसी को ये भी समझ आए तो बताना प्लीज? 

वैसे ही जैसे, Supreme Court of India अपने आप में कोढ़ है। Sup R eme Co U R T of In D IA? कुछ और भी हो सकता है, जैसे ABCD Capital letter या small letter करके। या अलग-अलग, जोड़-तोड़ करके। 

सुप्रीम कोर्ट की Website भी रोचक है sci. gov. in    

और अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों के बारे में ABCD से जानना शुरू करें तो? शायद जन्मतिथि से ही शुरू करना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट के जजों के पेज पे, आपको खास ऑफिसियल फोटो (खास क्या है, वो फोटो में ढूँढों) के साथ-साथ जन्मतिथि, joining date or retirement date भी मिलेंगी। और ज्यादा जानना हो, तो उन जजों के केसों के बारे में पढ़ सकते हैं। और भी ज्यादा जानना हो, तो गूगल बाबा या Youtube जैसी सोशल साइट्स हैं ना।  






और भी कितना कुछ रोचक है, सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पे। जैसे किसी भी संस्थान की वेबसाइट पे। ऐसे ही, बिमारियों का समझ आ रहा है मुझे तो। बाकी, आगे किन्हीं पोस्ट में। 

Saturday, December 2, 2023

कांडों की माया-नगरी

इंदरधनुषी रंग प्रकृति के और राजनीति विज्ञान के तड़के

त्वचा और बालों का रंग 

जानवरों के रंग 

पेड़-पौधों के रंग 

राजनीती के रंग, संस्कृति के संग (DEJA VU जैसी लड़ाईयाँ और टेक्नोलॉजी)  

गुप्त कोडों के अनर्थ। जैसे 

White Black Fight 

Person of Color 

Black Lives Matter 

SC, BC, OBC, General   

(Civil Or Military Products) 

सफेद और काले रंग की, खासकर त्वचा की लड़ाई, कितनी सिर्फ त्वचा से संभंधित है? और कितनी कांडों से? वो चाहे White-Black झगडे हों या Person of Colour या Black Lives Matter। राजनीती के गुप्त कोड, कितने ही अर्थों के अनर्थ करते हैं। और कितनी ही ना होने वाली लड़ाईयाँ पैदा करते हैं? क्यूँकि, हकीकत ये है, ये लड़ाई-झगड़े ज्यादातर, जानबुझकर राजनीती ने पैदा किए हैं। इनके समाधान ऐसी राजनीती से बाहर हैं। 

ऐसे ही SC, BC, OBC, General का है। राजनीती लोगों के जीवन को आसान बनाने की बजाय, दुर्भर तो नहीं बना रही? ऐसे-ऐसे झगड़ों  में उलझाकर, अपने दायित्वों या जिम्मेदारियों से तो नहीं मुकर रही? काम की बात की बजाय, बकवास की बातें। जैसे, SC, BC, OBC, General में उलझा कर। भावनात्मक भडकावों में उलझाकर। वैसे ही जैसे, धर्मों के जालों में उलझाकर। हकीकत यही है। या शायद ये कहना चाहिए, की भला राजनीती का और दायित्वों और जिम्मेदारियों का क्या लेना देना? राजनीती का सिर्फ और सिर्फ कुर्सियों से लेना देना है।  

Vitiligo बीमारी है या काँड?

जिन्हें थोड़ा बहुत भी Vitiligo के बारे में पता है, वो शायद कहेंगे बीमारी। 

जिन्हें उससे आगे, मुझे वो पैच शुरू कैसे और कब हुआ? और उस दौरान कैंपस में आसपास क्या चल रहा था, मालूम है, वो कहेंगे काँड। जी, बीमारियाँ भी काँड होती हैं। या कुछ कांडों की तरफ गुप्त इसारे, जैसे मोहर किन्हीं कांडों पे। ऐसी मोहर जो अपनी ही तरह से, अलग-अलग रुप में, यहाँ-वहाँ दिखती हैं। जैसे Plant Bougainvillea leaves vitiligo, कैंपस के H#30, Type-4 में। पौधों में विटिलिगो नाम की बीमारी होती ही नहीं, जितना मुझे मालूम है। Variegated leaves होते हैं। अलग-अलग रंग के पत्तों वाले पौधे। किसी भी जीव में, किसी भी रंग का सम्भन्ध खास किस्म के पिगमेंट्स से होता है। उस पिग्मेंट का किसी भी वजह से खत्म होना, मतलब उस रंग का खत्म होना। जैसे बालों का रंग। वो पिग्मेंट वापस आ जाए, तो रंग भी वापस आ सकता है। या ऐसी जली या खराब हुई कोशिकाओं को हटा, स्वस्थ कोशिकाएँ बदल कर वापस लाया जा सकता है।  

BOU GAIN VIL LEA? या BO UG AI IN VIL LEA  

कुछ लोगों ने जिसे "ले ली गैंग" नाम दिया हुआ है शायद ? जैसे HOLI मतलब HO LI या HOL  I? और भी पता नहीं कैसे कैसे भद्दे कोड और अर्थों के अनर्थ हैं। 

शायद कोई हानिकारक रसायन (chemicals), छिड़के गए हैं, इस पौधे पे। क्यूँकि ये पत्ते और टहनी हटाई, तो नए सही आ रहे थे, जब तक मैं वहाँ थी।  

ऐसा ही इंसान में विटिलिगो का है शायद। Stress फैक्टर तो है ही। साथ में हानिकारक रसायनों (harmful chemicals) का दुस्प्रभाव। शायद थोड़ा ज्यादा लिख पाऊँ मैं विटिलिगो पे, किसी और पोस्ट में।  

तो अभी तक दो ऐसी बीमारियाँ जो इंसान में होती हैं, उनकी राजनीतिक मोहर पौधों पे देखी। एक पीछे अमरुद के पेड़ की कैंसर जैसी गाँठों के बारे में लिखा। वो पौधा भी कैंपस के H#30, Type-4 में पीछे वाले लॉन में था। पौधों में दोनों के ही ईलाज हैं, ऐसी-ऐसी मोहरों पे। इंसानो में? है ना अजीबोगरीब कांडों की माया-नगरी ये अजीबोगरीब राजनीती, ये कोड वाला सिस्टम और कोड वाली बीमारियाँ। जिन्हें सिर्फ इंसान ही नहीं भुगतता, बल्की बाकी जीव भी भुगतते हैं। महान इंसानों की देन?    

Friday, December 1, 2023

पसंद-नापसंद घड़ने का काम (Brainwash)

किसी के व्यवहार को बदलने के सीधे-सीधे दो तरीके हैं 

या तो मनाकर 

या जबरदस्ती या गुप्त तरीके से 

इन दोनों को करने के भी दो तरीके हैं 

या तो सीधे-स्पाट बात कर या चालाकी से छुपे तरीके से। आपको लगेगा की आप जो कर रहे हो, वो खुद कर रहे हो। बिना ये जाने की आपको बदला जा रहा है। Manipulate किया जा रहा है। आपको गुमराह (Mindwash) किया जा रहा है। मत परिवर्तन करना या बुद्धि भ्र्स्ट करना, छल कपट या चालाकी से। ऐसे, जो आपके लिए घातक भी हो सकता है। आपके अपनों के लिए घातक हो सकता है। और आपको समझ ऐसे आएगा, की ये सब तो मेरे भले या फायदे के लिए है। 

राजनीतिक पार्टियाँ और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ये दोनों ही तरीके अपनाती हैं, मगर आपकी जानकारी या अहसास के बैगर, छुपे तरीके से। 

बहुत बार आप वो खरीदते हैं या लाते हैं, जो आपको पसंद नहीं होता। और एक वक़्त के बाद या तो उसकी वजह से विवाद होने लगते हैं या आप खुद को फँसा हुआ महसूस करते हैं। या हो सकता है की मजबूरीवश ही या जरुरत की वजह से उसको पसंद ही करने लगें।  इसमें किसी भी वस्तु के रंग से लेकर, उसके डिजाईन तक हो सकते हैं। उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ, आपकी पसंद-नापसंद ना देख, पसंद-नापसंद घड़ने का काम करती हैं। ये कम्पनियाँ, ऐसे-ऐसे उत्पाद बेचने में सक्षम होती हैं, जो बहुत अच्छे नहीं होते। मगर, जिनमें कंपनियों को काफी फायदा होता है। इनमें से बहुत से उत्पादों की शायद आपको जरुरत ही ना हो। जिनके बगैर आसानी से आपका काम चल सकता है। हो सकता है, जरुरत यहाँ-वहाँ से बढ़ा चढ़ा कर पेश की गई हो। जिनको शायद खरीदने से पहले तक पसन्द नहीं करते हों। और हो सकता है की खरीदने के बाद भी कोई खास पसंद ना हो। ऐसे ज्यादातर उत्पाद जल्दी में लिए जाते हैं। आपको ज्यादा सोचने का मौका ही नहीं दिया जाता। जहाँ बहुत ज्यादा जरूरत ना हो और दिमाग एक बार भी ना कहे तो अच्छा यही रहता है की उसे ना लें।  

कभी-कभी आपसे ज्यादा, आपके आसपास वालों पे ऐसा दबाव बनाया जा सकता है। जिसका सीधा-सीधा असर, आपकी पसंद-नापसंद में झलकने लगे। ये भी हो सकता है की वो क्षणिक हो, कुछ वक्त के लिए। वो सब करने के भी बहुत से तरीके हैं। मान लो, आपके पास कोई कीमती चद्दर है या जैकेट है या जेवर हैं। कोई बाबा बनकर आए। थोड़ी देर, आपसे गप्पे हाँकें और थोड़ी देर बाद आपको समझ आया की कुछ गुम है। मगर क्या? अरे वो कीमती कपड़ा या गहना था, कहाँ गया? कुछ और भी हो सकता है। और आपको ध्यान आए की कोई थोड़ी देर पहले आपके पास आया था। शायद उसने वो कपड़ा माँगा था और आपने दे दिया। या आपको पता ही नहीं, क्या हुआ और वो ले गया शायद। क्यूँकि वो कपड़ा और बाबा दोनों ही गुम हैं। आप लगे ईधर-उधर, आसपास पूछने, की आपने कोई बाबा देखा। कोई कहे हाँ, उधर जा रहा था, बस स्टैंड की तरफ। मगर वो कहीं ना मिले। बाबा तो चम्पत। लगा गया आपकी वॉट। दशकों पहले, किसी के यहाँ ऐसा हो चुका ना? दशकों पहले? उसके बाद तो दुनियाँ और टेक्नोलॉजी बहुत बदल चुकी बन्धुओं। अब तो आदमी उठा दिए जाते हैं ऐसे, या बदल दिए जाते हैं। कौन सी दुनियाँ में हैं आप?    

एक और बात यहाँ अहम है, आपको किसी या किन्हीं ऐसे इंसान या इंसानो से दूर कर दिया जाता है ऐसे में, जो कोई रोड़ा बन सके, ऐसे-ऐसे हादसों को रोकने में। तो ये कोई जादू नहीं है। छल-कपट है। ऐसे में बेहतर रहता है की जितना जल्दी हो सके होश में आएँ और ऐसे लोगों या परिस्तिथियों से खुद को बचाएँ।           

और ये सब कुछ नया नहीं है। अगर नया है और ज्यादा तीखे और गुप्त तरीके के प्रहार के रूप में है तो वो है टेक्नोलॉजी का प्रयोग और दुरूपयोग। पुराने कुछ उदाहरण लेते हैं। 

चूहा विद्या गणेश 

भस्म शास्त्रा शिव 

योन विद्या 

संतोषी माँ पिंडी 

काली खून 

सोचो इन सबमें कैसे और कौन से ज्ञान का प्रयोग किया गया होगा ? और भी कितनी ही तरह के उदाहरण हो सकते हैं। आते हैं कुछ एक ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी महान विधाओं पर।