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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Wednesday, January 17, 2024

Store H#16, Type-3

आपमें से कौन-कौन हैं, जो स्टोर में अपना मंदिर बनाते हैं? 

जब मुझे 2011 में H#16, Type-3 घर मिला, तो कुछ अजीब-सा था उसमें। रंग-रोगन करवाने के बावजूद,  उसके स्टोर में जैसा जो पहले था, बिलकुल वैसे ही था। बहुत कुछ अजीब-सा दीवारों पे और ढेर सारा घी या तेल जैसा कुछ रमा हुआ, जैसा फर्श पे। पता नहीं, उसके स्टोर पे पेंट किया भी गया था या नहीं। शायद मैंने ध्यान नहीं दिया। या शायद, बिना दीवारों को साफ किए, ऊपर से हल्का-सा कर दिया, पेंट करने वालों ने। क्यूँकि, जब मैंने सामान शिफ्ट करने के पहले साफ-सफाई चैक की, तो पता चला की स्टोर तो बहुत गन्दा है। 

पड़ोस से ही, मेरे एक Colleague के यहाँ से, एक सफाई वाली (Domestic Help) को भी बुला लिया। और फिर वही साफ-सफाई करने आने लगी। मैंने उसे स्टोर को अच्छे से साफ करने को बोला। उसने स्टोर देखते ही कहा, मैडम आपने ये स्टोर साफ नहीं करवाया क्या? इसपे पेंट भी नहीं हो रखा शायद।  

मैंने कहा, हाँ शायद रह गया। आपको थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। ये तो कुछ ज्यादा ही गन्दा है। उसे ऐसा बोल के मैं नीचे आ गई। अगले दिन, जब वो काम वाली आई तो उसे फिर से बोला, अरे शायद कल आप भूल गए। आज साफ करके जाना स्टोर को। 

उसने बोला, मैडम आपने देखा इसपे (दीवारों पे) क्या-क्या लिखा हुआ है?

मैंने कहा, हाँ ! बड़ा अजीब-सा है। जो भी है, आप साफ कर दो। 

उसने कहा, मैडम आपने नीचे फर्श देखा?

मैंने कहा, हाँ ! दिवार और फर्श दोनों ही बहुत गंदे हैं। देख लिए। अब कर भी दो साफ। इसके एक्स्ट्रा पैसे ले लेना। 

उसने कहा, मैडम बात पैसों की नहीं है। मैं नहीं करुँगी ये साफ?

मैंने कहा, क्यों? ज्यादा गन्दा हो तो आप साफ नहीं करते?

उसने कहा, कर देती हूँ। पर इसे नहीं करुँगी। 

ऐसा क्यों? मैंने पूछा 

उसने कहा, आपको पता है, यहाँ कौन रहता था?

हाँ। बाहर नाम लिखा है ना। 

उसने कहा, अरे आपने अपना नाम भी नहीं लिखाया अभी?

नहीं, अभी यूनिवर्सिटी वाले आएँगे लिखने। उन्होंने बोला है। 

पर मैडम, वो तो पहले लिखा नाम भी नहीं मिटा कर गए। उसके ऊपर भी पेंट नहीं हो रखा। 

यार, तुम बहुत गप्पेड हो। कर जाएँगे। अभी काम करो अपना। 

और मैं आज फिर से नीचे आ गई, ये सोच के की ऐसे तो ये बोलना ही बंद नहीं होगी। मैंने ध्यान नहीं दिया, ये सोच के की स्टोर साफ कर गई होगी। मगर देखा, तो फिर से नहीं। 

अगले दिन आई, तो उसे बोला पहले स्टोर, बाद में बाकी कुछ। चलो ऊपर, मेरे सामने करो। 

मैडम, बोला ना, मैं नहीं करुँगी ये। 

मगर क्यों?

वो सामने मैडम ये बोल रही थी, जो पहले यहाँ रहते थे ना, वो पता नहीं क्या-क्या करते थे?  

क्या-क्या करते थे, मतलब?

अरे, पता नहीं क्या भूत-वूतों से बातें करते थे। 

ओह हो। तो डरा दिया आपको किसी ने?

नहीं और भी एक-दो ने बोला। 

अच्छा? भूतों को मानते हो तुम?

आप नहीं मानते?

मन का वहम होता है। मानों तो हैं। नहीं तो नहीं। इंसान से बड़ा भूत क्या होगा? डर का भूत होता है। 

अच्छा? तो आप ही साफ करना। या किसी और को बुला लेना। मैं तो नहीं करुँगी। 

मुझे लगा उसे किसी ने डरा दिया है। ऐसे तो कोई उसे काम से भी भगा देगा। मैंने उसे कहा, चाय पीते हो?

हाँ ! 

आओ चाय पीते हैं। सोचा, इस बहाने थोड़ा गप्पे भी हांके जाएँगे उसके साथ और शायद बातों-बातों में उसका डर भी खत्म हो जाएगा। 

उसने कहा, मैं बना देती हूँ। 

नहीं बैठो आप। आज मैं ही बनाती हूँ। फिर कभी पीनी हो तो आप बना लेना। 

और लो जी, हो गई वो शुरू। वो मैडम, ऐसे बोल रहे थे और वो वैसे बोल रहे थे, उनके बारे में। कई तरह की उल्टी-पुल्टी सी बातें, उनके मंदिर के बारे में। जो मुझे खामखाँ और बकवास लग रही थी। लगा ज्यादातर कम पढ़े लिखे और गरीब तबकों के साथ शायद ज्यादा होती है, ये समस्या। लोगबाग पता नहीं कैसे-कैसे डर बिठा देते हैं, उनके मन में। मगर फिर कुछ उसने ऐसा बोला, जिसने मेरा ध्यान खींचा, उस घर में लगे पेड़-पौधों के बारे में। ये थोड़ा बहुत मेरी रुची का विषय था। मेरे समझाने पे उसने थोड़ी-बहुत सफाई तो कर दी। मगर सिर्फ फर्श की। जाने क्यों, जब वो दीवारें साफ करने लगी तो मैंने टोक दिया। आज बहुत कर दिया। ये फिर कभी कर देना। 

उसके जाने के बाद, मैंने दीवारों पे उन अजीबोगरीब चिन्हों को थोड़ा ध्यान से देखा। मगर, कुछ पल्ले नहीं पड़ा।  सिवाय इसके, की पता नहीं ज्यादा धर्म में विश्वास करने वाले लोग क्या-क्या बनाते रहते हैं। शायद इसलिए भी, की उस वक़्त तक मेरे लिए वो सब अंधविश्वास और बेवकूफी के इलावा कुछ नहीं था। उस घर में बहुत ज्यादा पेड़ तो नहीं थे। मगर दो पेड़ दक्षिण भारत से थे। सीधी-सी बात, वो उधर से होंगे। तो उनपे भी कोई खास ध्यान नहीं दिया। 

एक दो बार उन मैडम से मुलाकात भी हुई, जब वो अपने पुराने घर देखने आए की अब वहाँ कौन आया है। और शायद एक बार बेल के सीजन में या अपना कोई लैटर वगैरह या शयद पार्सल पूछने, जिनके पते अभी तक उसी घर के थे। वो बेल का पेड़ भी शायद उन्हीं का लगाया हुआ था। मुझे उनमें कुछ खास अलग नज़र नहीं आया। मीठा बोलते हैं। अपने जूनियर्स से, ऐसे ही व्यवहार करते हैं, जैसे ज्यादातर पढ़े-लिखे सभ्य लोग। 

हाँ। वक़्त के साथ-साथ कई बातें पता चली, जिनसे लगा की शायद कुछ तो खास होगा, जो इतने सारे लोगबाग कह रहे हैं। जैसे, मेरे एक पड़ोसी ने खास धन्यवाद दिया, जब मकान के अंदर के कुछ पेड़ और बाहर खाली प्लॉट की दिवार के साथ लगते झाड़ को साफ करवाया। मैडम धन्यवाद आपका, साँपों के छुपने की जगह बने हुए थे, ये झाड़। हो सकता है, उन्होंने सिक्योरिटी को मध्यनजर रख ऐसा किया हो। वैसे भी हर इंसान और उसका स्वाभाव अलग होता है। जैसे मैंने उन्हें साफ करवा, फूलों के, मगर कांटो वाले पौधे लगवा दिए थे, गुलाब और bougainvillea की अलग-अलग वैरायटी। 

कुछ वक़्त बाद मुझे खुद लगने लगा था, की कुछ अजीब-सा है उस घर के आसपास और अंदर भी। मगर मेरे लिए वो भूत नहीं थे। वो था Surveillance Abuse । और था, डराने के अजीबोगरीब तरीके, खासकर, आप अकेले रहते हों तो। वो भी धीरे-धीरे समझ आए। यहाँ-वहाँ से कुछ दोस्तों, पत्रकारों या जाने-अनजाने सोशल प्रोफाइल्स पढ़के, जिन्हें मैं यहाँ-वहाँ के लिंक्स से पढ़ने लगी थी। वैसे तो टोने-टोटकों के कई वाक्या सामने आए थे। मगर, 2016 में, दुशहरी के आम के पेड़ पर कच्चे धागे वाले कारनामे ने, शायद, एक तरह से उस स्टोर या ऐसे-ऐसे कितने ही स्टोरों के राज खोलने में मदद की वक़्त  साथ। धर्मो और आस्थाओं के नाम पे रीती-रिवाजों और उनसे जुड़े जुर्मों और उससे जुड़े विज्ञान के आम-आदमी पे मानसिक जाल को समझने में भी सहायता की। इन्हीं सब में जैसे गूँथ-सा दिया है, पढ़े-लिखे शातीर लोगों ने, आम-आदमी की ज़िंदगी के उतार चढ़ाओं को। उसकी ज़िंदगी की खुशियों को, गमों को। त्योहारों को, उत्सवों को। उससे भी अहम पैदाइशों को, बिमारियों को और मौतों को भी। 

मुझे तो शायद उन मैम का धन्यवाद करना चाहिए और उनके स्टोर और पेड़ों के बारे में जानकारी देने वालों को भी। क्यूँकि, अगर मुझे वो घर ना मिला होता और जो कुछ वहाँ था या हुआ, अगर उसे जानने की रुची ना हुई होती, तो रीती-रिवाजों का या धर्मों का ये जाला, विज्ञान और राजनीती के साथ कहाँ पता लगता? अन्धविश्वाशों के भी, समाज के अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग मायने हैं, ये भी कहाँ पता होता? किसी के लिए, वो सिर्फ श्रद्धा और विश्वास, किसी के लिए अंधविश्वास तो किसी के लिए विज्ञान। वो विज्ञान, जो लोगों को और उनकी ज़िंदगियों को काबु करता है। उन्हें मानव रोबोट बनाता है। 

यूनिवर्सिटी वाले, ना उस नाम को बदलने आए, और ना ही उस नाम प्लेट को। और ना ही वक्त के साथ, मैंने जरुरी समझा, क्यूँकि, अजीबोगरीब अटैक होने लगे थे। और वो नाम तकरीबन दिखाई देना बंद हो गया था। ध्यान से देखने पे ही हल्का-सा दिखता था। उन मैम का नाम भी वि से ही था और उसका अर्थ भी बड़ा ही कोमल-सा। बाद में भी,  Type-4 में भी, वो मेरे पड़ोसी थे। कभी-कभार उनके यहाँ आना-जाना भी हुआ या आते जाते वक़्त हाय-हैलो। मालूम नहीं, उन्हें अपने स्टोर वाले मंदिर के बारे में या उस घर के पेड़ों के बारे में, ये वाली जानकारी कितनी थी या है। क्यूँकि, मैंने उनसे ऐसा कभी पूछा नहीं। शायद यही जानकर की वो धर्म और रीती-रिवाजों को काफी मानते हैं और उसपे विज्ञान से भी शायद कम ही नाता है। 

हालाँकि, अपने एक और साथ वाले पड़ोसी से समझ आया, की जरुरी नहीं रीती-रिवाजों और विज्ञान की राजनीती के इस जाल की कहानी, विज्ञान वालों को ही पता हो। बहुत बार शायद उल्टा भी हो सकता है। जैसे मेरे साथ वाले घर वाली मैम से पेड़-पौधों का शायद थोड़ा बहुत समझ आया। और खनन वाले ज्ञान और विज्ञान का भी। थोड़ा बहुत ये भी, की क्या कहाँ रखा है और उसका क्या मतलब हो सकता है, को पढ़ते कैसे हैं, सिर्फ देखकर। ये ज्ञान बाहर की यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पे तो ऐसे है, जैसे थोड़े देर भी किसी वेबसाइट पे ठहरे तो गप्पे हाँकने लगेगा। अब पता नहीं, खुद उन यूनिवर्सिटी के ज्यादातर Stake Holders को इसके बारे में कितना पता है? क्यूँकि, आज भी शायद ये सब, बहुत से स्टूडेंट्स और स्टाफ को वैसे नहीं पता, जैसे कुछ लोगों को पता होता है? शायद? जानकार शायद ज्यादा बता पाएँ। 

इस स्टोर जैसी-सी ही, कितनी ही जानकारियों ने, इस कल्चर को "मीडिया कल्चर और सोशल इंजीनियरिंग" से अवगत कराया। ठीक वैसे, जैसे लैब में होता है। 

इंसानों के साथ-साथ, अगर पशु-पक्षियों के कल्चर मीडिया को जानोगे, तो शायद जरुर लगे, जैसे जादू है कोई। इतनी आसान है क्या ये ट्रैंनिंग, मानव-रोबॉट बनाने की? या automated सिस्टम के साथ-साथ जैसे सब बदलता है? क्यूँकि, उनमें तो दिमाग वैसे ही नहीं होता। इंसान का तो फिर भी ब्लॉक करना पड़ता है शायद, कोई खास हिस्सा या जानकारी या लालच या डर जैसे, इंसानी व्यवहार को इधर-उधर खिसकाना? या कुछ जरुरतें खत्म करके, कुछ ना जरुरी जरुरतें पैदा करना? 

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