सामाजिक घड़ाईयाँ (Social Tales of Social Engineering)
कहानियाँ ही कहानियाँ जैसे। इतनी सारी कहानियाँ? कहाँ से आती हैं, ये कहानियाँ? जितने आदमी, उतनी कहानियाँ? नहीं, उससे कहीं ज्यादा कहानियाँ। इधर-उधर, जहाँ कहीं देखो जिधर, कहानियाँ ही कहानियाँ? या सामाजिक घड़ाईयाँ? मगर, इतनी सारी सामाजिक घड़ाईयाँ? कैसे संभव है?
कुछ कहानियाँ, जब मैं कुछ सामान लेके आई यूनिवर्सिटी से घर, तो तब सुनने लगी थी। अपने आसपास वाले ही लोगों से। जैसे वजह-बेवजह, पता नहीं क्या-क्या और कहाँ-कहाँ, जोड़-तोड़-मरोड़ रहे थे? या जबरदस्ती फेंक रहे थे? या उनकी अपनी ज़िंदगियों में कुछ सही ना हो और उसे कहीं और फिट करने की कोशिशें जैसी? और ऐसा वो खुद कर रहे थे या उनसे कोई करवा रहा था? या कहो की करवा रहे थे, अहम शब्द है। आम-आदमी अपने थोड़े से लालच के लिए, ये भी भूल जाता है की सामने वाले पे इसका क्या असर होगा? और वो खुद अपने बारे में, ऐसे तोड़-जोड़-मरोड़ सुनना चाहेंगे क्या, जैसे वो किसी और के घर में रच रहे हैं?
जैसे ही बात हुई की स्कूल बनना है और मैं उसके लिए कुछ पैसा भाभी को देने वाली हूँ, अपनी बचत से। तो जैसे, आसपास कोई षड्यंत्र शुरू हो गया था, खासकर मेरे खिलाफ। जिनके यहाँ भाई-भाभी का आना-जाना था, उन्होंने फैलाना शुरू कर दिया, की ये तुम्हारी जमीन खा जाएगी। ये वो लोग थे, जो अपने आपको भाई के घर का सर्वोपरि समझने लगे थे। और उन्हें यहाँ तक नहीं मालूम था, की यहाँ हिसाब-किताब क्या है। जिसे वो जमीन खा जाएगी कह रहे थे, वो लेने की बजाई, वहाँ देती आई है। खुद उस भाई की इकलौती बच्ची को unofficially जैसे गोद लिया हुआ है। वो भी उसकी पैदाईश से ही पहले। वो दो बच्ची गोद लेना चाहती थी और उसे अपनों ने ही ऐसा नहीं करने दिया था। ये कहकर की ये बच्ची तुम्हारी ही समझो। भाभी के जाने के बाद, पता नहीं उस बच्ची को लेकर इधर-उधर के लोगों के कैसे-कैसे दावे थे। उससे भी अहम, क्यों?
ये तुम्हारी जमीन खा जाएगी का हिसाब-किताब भी, भाभी की मौत के बाद के ड्रामों ने समझाया। उनमें कुछ पॉइंट्स अहम हैं। वो जमीन दो भाइयों की है। उस जमीन के आधे हिस्से को भाभी की मौत के साल भर के अंदर ही कोई खाने की कोशिश में हैं। कौन? जिसे इल्जाम दिया गया था वो? या कोई और? स्कूल वाले? दूसरे दादा के बच्चे, जिनका पहले से वहाँ स्कूल है, पिछले कोई 15-20 सालों से। छोटे भाई का नहीं, बड़े भाई का आधा हिस्सा। वही जो शराब पीता है। या कहो, पिलाई जाती है। खास, सप्लाई होती है। ये खास प्रोग्राम, अब इस भाई को उठाने के लिए है। भाभी खत्म तो वहाँ स्कूल नहीं बनेगा? मुझे यहाँ रहना नहीं, तो बचा कौन? आधे हिस्से को ये स्कूल वाले खा जाएंगे, तो बचा क्या? जो बचा है, उसका तो वैसे ही बढ़िया ईलाज किया हुआ है?
"Protection के लिए ली है, बुआ।" किसका Protection भतीजे? शिक्षा के नाम पे धंधे का? अपनों को ही खा के? आती हूँ तुम्हारे लिए कुछ और खास पोस्ट पे आर्य मॉडल स्कूल के महानों।
कैसे जाने की आप मानव रोबोट हैं या असली के इंसान?
आसपास के लोगों का जो रोल रहा, इस घर को बर्बादी की तरफ धकेलने का। क्या उसमें सिर्फ लालच है, इन आसपास वालों का या इससे ज्यादा कुछ और भी? राजनीतिक पार्टियाँ, इधर-उधर ना सिर्फ लालच का इस्तेमाल करती हैं अपने पैंतरे खेलने में, बल्की फुट डालो और राज करो, उसमें अहम है। मेरे Enforced Resignation के बाद, मेरा घर आना-जाना ज्यादा हो गया था। अब मैं यहाँ पे एक-दो दिन रुक भी जाती थी। जो की 2010 में, दादा की मौत के बाद ही बंद हो गया था, मेरी तरफ से शायद। क्यूँकि, मेरे लिए उनका घर पे ना दिखना ऐसे था जैसे, अपने नहीं, किसी और के घर आ गई हों। मैं आती थी हफ्ता-दस दिन में, मगर सिर्फ दो-चार घंटे। मिले, थोड़ा बहुत खाया-पिया, थोड़े बहुत गप्पे हाँके और चल दिए। दो-चार घंटे के आने-जाने में, शायद कोई खास खबर नहीं रहती आपको, उस जगह की। ऐसा ही कुछ समझ आया, जब मैं यहाँ रुकने आने लगी तो। जब स्कूल का प्लान बना, तो यूनिवर्सिटी को एक मेल भी लिखा मैंने, की मुझे मेरी saving से कुछ पैसे रिलीज़ कर दो, मुझे अपने पढ़ने-लिखने के लिए यहाँ थोड़ा-सा बनाना है। वो पैसे तो रिलीज़ नहीं हुए। मगर, यहाँ शायद कोई षड़यंत्र जरुर शुरू हो गया। शायद, वही षड़यंत्र भाभी को खा गया।
इस कहानी को बढ़िया से HD पब्लिक स्कूल बहुअकबरपुर ने समझाया शायद, भाभी के जाने के बाद? भाभी इसी स्कूल में पढ़ाते थे और इसे छोड़ना चाहते थे। भाभी के जाने के बाद गुड़िया का एडमिशन इस स्कूल में, मेरी समझ से बाहर था। भाभी खुद जिस स्कूल को पसंद नहीं करते थे, अपने वहाँ टीचर रहते, बच्चे को वहाँ एडमिशन नहीं दिलवाया, तो उनके जाने के बाद क्यों? बच्चा फ्री में पढ़ेगा 12 तक, या बच्चे की कोई खास तरह की प्रोग्रामिंग चलेगी? भिखारी है क्या बच्चा? या इस बहाने कंट्रोल अहम है? और 12th तो बहुत दूर की बात है। तब तक वो गाँव ही रहेगी? वो भी, इस माहौल में, जो आसपास है? सबसे अहम, ये सब मुझे अँधेरे में रखकर हो रहा था। जब मुझे पता चला, तो मैंने यूनिवर्सिटी से अपनी saving रिलीज़ करने की मेल करनी शुरू कर दी। क्यूँकि, मैं नहीं चाहती थी की माँ के जाते ही, यूँ गुड़िया का स्कूल बदले। यूनिवर्सिटी ने ऐसा नहीं किया। कभी कोई बहाना, तो कभी कोई। यूनिवर्सिटी का आखिरी बहाना, घर की चाबी दो, भी कई महीने पहले पूरा हो चुका। मगर, उसके बाद तो यूनिवर्सिटी से जवाब आना ही बंद हो गया। सो रहे हैं वो, शायद? या शायद, सबको खा के ही दम लेंगे?
हालातों के मध्यनजर decide भी नहीं कर पाई की नौकरी कहाँ करनी है, की उससे पहले ही इधर, कुछ अपने कहे जाने वालों ने एक के बाद एक, पता नहीं क्या-क्या रच दिया। कहीं घर पे, तो कहीं दूसरे भाई के साथ, ये ज़मीन वाली कहानी और उसके हालात। ये सब शायद शुरू हुआ, जब यूनिवर्सिटी ने पैसा रिलीज़ नहीं किया और मैंने अपनी सेविंग के नॉमिनी बदलने की मेल कर दी। मुझे अपनी जान पे खतरा लगने लगा था। इसी खतरे ने शायद निर्णय नहीं लेना दिया, की नौकरी कहाँ करनी है। या शायद, अब मैं किसी की नौकरी करना ही नहीं चाहती। जब मैं अकेली थी, तो निर्णय लेना आसान होता था। मगर घर पे जो चल रहा था या कहो इधर-उधर से चलाया जा रहा है, अभी तक, उसने थोड़ा मुश्किल बना दिया। उसपे पीने वाले इस भाई के रोज-रोज के ड्रामे भी, किसी तरह की प्रोग्रामिंग की तरफ इसारा कर रहे थे। ये केस स्टडी, शायद कई सारे राज खोलने के लिए भी जरुरी है। और राजनीती का कोढ़, कैसे आम आदमी की ज़िंदगी को प्रभावित करता है, उसे जानने के लिए भी। आदमी के खोल में दिमागों की इस प्रोग्रामिंग को समझने में काफी मदद की गुड़िया ने, उसके बदले हालात, बदले माहौल और रोज-रोज बदलते व्यवहार ने। इस सब में आसपास की कितनी अहम भूमिका होती है, उसे भी समझाया। आसपास मतलब कल्चर मीडिया, माहौल, ज्यादातर जबरदस्ती जैसे धकेला हुआ। एक इंसान के ही किसी ज़िंदगी में ना होने से या होने से ही, कितना कुछ बदल जाता है।
ऐसा ही कुछ, इस शराब की लत वाले भाई के, वक़्त के साथ बदले व्यवहार, नौटंकियों (उसके लिए हकीकत) और उसके पीछे तक के अजीबोगरीब रिकॉर्ड ने भी, राजनीतिक पार्टियों के समाज पे ताने-बाने को समझने में मदद की। राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के कोढ़ के जाले और किसी समाज के ताने-बाने, मतलब सोशल इंजीनियरिंग।
लोगों की ज़िंदगियों की कहानियाँ, इधर-उधर से घुमाफिरा के, एक तरफ सोशल-इंजीनियरिंग का अहम हिस्सा है तो दूसरी तरफ, अपडेट वाली प्रोग्रामिंग इस पार्टी की या उस पार्टी की, उस सोशल इंजीनियरिंग को अपने-अपने हिसाब से, वक़्त के साथ बुनने में मददगार। ये अपडेट समाज के हर हिस्से पे होती है। या कहो, की जाती हैं, जिस किसी पार्टी की जहाँ जितनी चल जाए, उस हिसाब से उतनी ही। ना उससे कम, ना उससे ज्यादा।
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