Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Saturday, January 20, 2024

कैसे जाने की आप मानव रोबोट हैं या असली के इंसान? (3)

Memory Cells 

Short Term Memory Cells

Long Term Memory Cells

दो तरह की यादास्त होती है। एक जो क्षणिक होती है। और दूसरी, जिसे आप लम्बे अरसे तक या सालों याद रखते हैं। दोनों ही तरह की यादास्त, अलग-अलग तरह की भुमिका निभाती है। इंसान बहुत-सी बातें या घटनाएँ कुछ वक़्त तक याद रखता है और वक़्त के साथ भूल जाता है। ज्यादातर अपने फायदे वाली या किन्हीं खास हादसों वाली जानकारी को ही लम्बे अरसे तक याद रखता है। कम्पुटर के साथ या रोबॉट के साथ ऐसा नहीं होता। मानव को रोबोट बनाने में इन Short Term Memory Cells और Long Term Memory Cells का बहुत अहम किरदार है। बायोलॉजी के इस ज्ञान का प्रयोग भी किया जा सकता है और दुरुपयोग भी। इन्हें आपको आगे बढ़ाने में भी प्रयोग कर सकते हैं और खत्म करने में भी। और भी बहुत-से ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे विज्ञान के सिद्धांत हैं, जो इंसान को मानव रोबोट बनाते हैं। स्टोर ऐसा ही कुछ है। हमारे घरों में भी। दिमाग में भी और कम्प्युटर या रोबोट्स में भी।   

बार-बार किसी बात को दिखाना, बताना या दोहराना Long Term Memory Cells बनाने में सहायता करता है।आगे की पोस्ट में ऐसे ही कुछ उदाहरण आपको आसपास की ज़िंदगियों से और उनपे अच्छे या बुरे प्रभावों से मिलेंगे। आप चाहें, तो बुरी Long Term Memory Cells को खत्म भी कर सकते हैं और अच्छी Long Term Memory Cells को बढ़ा-चढ़ा भी सकते हैं। ये राजनीतिक पार्टियाँ, आम-आदमी के साथ, उसकी जानकारी के बिना कर रही है। और वो आदमी को मानव रोबोट बनाने में या उससे अपने अनुसार, अपना काम निकलवाने में अहम है।   

आओ थोड़ा और आगे चलते हैं। मैं यूनिवर्सिटी से सामान (फर्नीचर वगैरह) लाई थी घर। कुछ ले आई थी, कुछ वहीं छोड़ दिया था। यहाँ आने के बाद, बहुत-सी अजीबोगरीब-सी कहानियाँ निकल के आ रही थी, आसपास से ही। कुछ ऐसे की, कैसे बेवकूफ लोग करते हैं, ऐसे प्रश्न? क्या वो वही प्रश्न खुद से करना चाहेंगे? या कहीं ऐसा, उनके साथ हो तो नहीं रहा? आसपास से कई सारे लोगों के बहुत से बार-बार एक जैसे प्रश्नों से समझ आया की ये कहानियाँ और किस्से घुमफिर के, शायद उन्हीं की ज़िंदगी के आसपास घुम रहे थे। मगर कहीं न कहीं, वो उन्हें घुमा मेरी तरफ रहे थे।     

कोई दादी, कोई आसपास से ही बहन, कोई बुआ रिश्ते में, मगर बहन ही कह लो, क्यूँकि इन सबको मैं ज्यादातर अपने से अगली पीढ़ी के बच्चे मानती हूँ। मगर सोच, शायद बहुत पीछे। 

माँ, इस छोटे से पुराने घर में नीचे रहती थी। और मेरा कमरा, उनके ठीक ऊपर वाला है। सामने ही एक छोटा-सा स्टोर, ठीक उनके नीचे वाले स्टोर के ऊपर। इस स्टोर से मैंने माँ का सामान निकाल कर, अपना ठूस दिया था। आसपास बहुतों को शायद मेरा अगला कदम क्या होगा, जानने की इच्छा कुछ ज्यादा ही थी। क्यूँकि, मैं सारा सामान नहीं लाई थी। शायद अभी तय नहीं हुआ था की दिल्ली जाना है या बाहर। मगर शायद हालातों ने सोचने का मौका ही नहीं दिया और मैं बचा खुचा सामान भी ले आई। कुछ खास तरह का कोई एक-आध सामान छोड़के। हालाँकि चाबी तब तक भी नहीं दी थी। 

आपके स्टोर को कोई बोले, ये आपकी रसोई है? 

जबकि उन्हें पता हो की रसोई नीचे है, ऊप्पर नहीं। एक-दो बार आप बता दें। मगर, फिर से ऐसा ही प्रश्न? क्यों? अगर माँ-बेटी एक ही घर में रहती हों, तो रसोई अलग-अलग होगी क्या? पता नहीं, शायद उनके घर में ऐसा होता हो? धीरे-धीरे, इधर-उधर से समझ आया, की ये कुछ और ही बोल रहे हैं। भाभी का दुनिया से निकाला शुरू हो चुका था, शायद। जो मुझे उनके जाने के बाद, ड्रामों से समझ आया। शायद कुछ-कुछ ऐसे ही, जैसे अब शराब पीने वाले भाई का हो रखा है? 

बहुत ही थोड़े-से वक़्त के लिए, ये स्टोर भाभी की रसोई बना था। जब तक भाई ने शायद अपना ये घर नहीं बनाया था, जहाँ वो अब थे। जो पहले घेर होता था और दादा की बैठक भी वहीं थी। भला नंबरों को ऐसे कौन घुमाता फिरता है? किसका जन्म दिन कब का है? शादी कब की है? या मौत कब की है? वो भी अलग-अलग लोगों के जन्म दिन? शादी या मरण दिन? और वो भी एक ही घर में? जब मुझे ऐसा समझ आने लगा या कहो यहाँ-वहाँ से समझाया गया, तो मैंने आसपास के घरों में लोगों के जन्म दिन, शादियाँ या मौतों की तारीखें जाननी शुरू कर दी। कुछ की पहले से पता थी। कुछ पता लगा ली। ये तो अजीबोगरीब से जाले हैं। वो भी घर के घर में, या आसपास में ही?

मतलब ज्यादातर लोग, आसपास से अपने आप नहीं मरे? उठाये गए हैं, इसी राजनीतिक जुए द्वारा? ऐसा ही लोगों के रिश्तों का है। बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से जैसे गुंथे हुए हैं। ये रिस्ता इधर की पार्टी का, तो ये उधर की पार्टी का। ये लड़ाई इस पार्टी की दी हुई, तो ये उस पार्टी की। ये रिस्ता इन्होंने तुड़वाया, तो वो उन्होंने। ये रिस्ता फिर से या अजीबोगरीब इनका धकेला हुआ, तो वो उनका। मतलब, राजनीतिक पार्टियाँ और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ मिलजुलकर, लोगों की ज़िंदगियों को अपने रोबोटिक versions में ढाल रही हैं। जैसे, कोई K की तरफ के रोबोटिक version तो कोई N। 

K और N ऐसे ही ले लिए जैसे मान लो होता है। आप कुछ और भी मान सकते हैं। अब ये अलग-अलग जनरेशन के रोबॉट, कहीं K के लिए लड़ रहे हैं तो कहीं N के लिए जैसे। ये उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं, जिनके बारे में ना तो इन्हें कोई खास पता। ना हकीकत में, ये उन्हें जानते। ना कभी उनसे मिले हुए। इधर-उधर से बहुत-सी कहानियाँ सुनी हुई हैं, उन्हीं के अनुसार इधर या उधर हैं। मतलब, इनके दिमाग की खास तरह की प्रोग्रामिंग की हुई है, इस या उस पार्टी ने अपने अनुसार। और जानकारी लगातार राजनीतिक पार्टियों की जरुरत के अनुसार बदलती रहती है। ठीक ऐसे, जैसे कम्पुटर का सॉफ्टवेयर Update होता है। ये Update इनकी ज़िंदगी के हिस्से बना दिय जाते हैं। क्यूँकि, ये पार्टियाँ ये खेल या राजनीति 24 घंटे, 365 दिन खेलती हैं या कहो चलती हैं, अपनी इन चलती-फिरती गोटियों पे।

गोटियाँ, वही रोबोट्स वाले अलग-अलग जनरेशन के version। किस रोबोट से इन्हें क्या काम लेना है और उन्हें कहाँ चलना है, ये ज्यादातर इनके सॉफ्टवेयर (दिमाग) में हेरफेर करके करते हैं। मतलब, ये लोगबाग अपनी ज़िंदगी नहीं जी रहे। बल्की, आदमी के खोल में, शातीर लोगों द्वारा घड़े गए, रोबोट्स को जी रहे हैं। इसे भूतिया-रोबोटिक्स भी कह सकते हैं। कुछ-कुछ ऐसे, की सामने दिखने वाला शरीर या खोल तो आदमी का है। मगर, उसके अंदर का सॉफ्टवेयर, कोई राजनीतिक पार्टियाँ चला रही है। कैसे? इसपे भी आएँगे धीरे-धीरे।   

क्यूँकि, जैसे मैंने ये थोड़ी-सी अपनी या अपनों की डिटेल ऑनलाइन लिख दी, सबकी तो नहीं लिख सकती। हाँ। कुछ वक़्त लगाकर, उनके नाम वगैर बदलकर, कोई यूँ की यूँ जैसे, कहानी जरूर घड़ सकते हैं। क्यूँकि, राजनीतिक पार्टियों की ये सोशल इंजीनियरिंग 24 घंटे, 365 दिन चलती है। बिना रुके, बिना थमे। 

No comments:

Post a Comment