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Tuesday, January 16, 2024

आप किसके लिए काम कर रहे हैं?

Part of Culture Media and Social Engineering 

आप किसके लिए काम कर रहे हैं?

अपने लिए?

अपने बच्चों के लिए?

आसपास या दूर किसी के लिए?

समाज के लिए?

या राजनीतिक पार्टियों या बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए? 

या किसी और के लिए? 

या ये भी कह सकते हैं की आप किसके लिए जी रहे हैं?   

अपने लिए?

अपने बच्चों के लिए?

आसपास या दूर किसी के लिए?

समाज के लिए?

या राजनीतिक पार्टियों या बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए?   

या किसी और के लिए?   

ज्यादातर, शायद यही कहेंगे की अपने लिए या अपने बच्चों के लिए? क्या वो सच है?  

कहीं ऐसा तो नहीं की आपकी जानकारी के बिना, किसी ने आपको अपना गुलाम बनाया हुआ है? ऐसे ही आपके बच्चों को भी? और आपकी जानकारी के बगैर, आप उनका काम कर रहे हैं? उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, की उनका वो काम करने में आपका या आपके बच्चों का कोई फायदा है या नुकसान। उन्हें अपना काम निकालने से मतलब। 

मगर आपको कैसे पता चले की कोई आपके साथ ऐसा कर रहा है या कर रहे हैं? इसे कुछ-कुछ जिसे आप भूत कहते हैं, उससे भी समझ सकते हैं। जिसमें आपकी परिभाषा के अनुसार, भूत आते हैं वो आदमी क्या करता है? आपके अनुसार, वो खुद कुछ नहीं करता, उसमें आया हुआ भूत ही सब करता है। ऐसा ही ना?

अगर मैं कहूं की किसी भी इंसान में किसी का भूत लाने के बहुत से तरीके होते हैं। शायद आप कहोगे कैसे? उसके लिए किसी भी इंसान को ये trick करने के लिए काफी जानकारी चाहिए। ठीक ऐसे ही, जैसे जादूगर को कोई जादू करने के लिए। जादूगर प्रयोग या दुरुपयोग, विज्ञान के सिद्धांतों का करता है। मगर जिन्हें जादू दिखाता है, उन्हें क्या बताता है? ये जादू है। ऐसा ही ना? 

मान लो, कोई कहे की मैं पानी में आग लगा सकता हूँ। आप लगा सकते हैं? अगर हाँ, तो आपको किसी रसायन की जानकारी है, और उसके पीछे के विज्ञान के सिद्धांत की भी। अगर नहीं, तो ये एक जादू है। ऐसे ही कितनी ही तरह के जादू हो सकते हैं। 

एक जादू है की एक इंसान ने छलाँग लगाई और गाँव से शहर होते हुए, बड़े शहर और फिर दूर किसी दूसरे देश पहुँच गया। संभव है? अगर हाँ, तो आपको तरीके पता हैं और कोई जादू नहीं है। 

अगर नहीं, तो शायद आपसे ऐसा करने के नाम पे लाखों रुपए भी ले ले और फिर चम्पत हो जाय। हो गया जादू? 

या शायद कोई आपको किसी दूसरे देश भी पहुँचा दे और आपके हिसाब-किताब का कोई काम भी दिलवा दे। मगर कुछ वक़्त बाद आपको लगे, अपने घर ही अच्छे थे। कितनों के साथ हुआ है, आसपास ऐसा?

थोड़ा-सा और ज्ञान हो, तो आज के वक़्त में किसी को पैसे देने की जरुरत ही नहीं। सबकुछ ऑनलाइन है। घर बैठे नौकरी भी कर सकते हैं और पढ़ाई भी। और चाहें तो वो सब करने दूसरे देशों में जा भी सकते हैं। ये तो कोई जादू नहीं है।

ऐसे ही बहुत-सी सामान्तर घड़ाईयाँ हैं। वो बड़े स्तर पे भी होती हैं। और छोटे स्तर पे भी। मतलब, स्कूल के स्तर पे भी और यूनिवर्सिटी के स्तर पे भी। गाँव के कम पढ़े लिखे लोगों के स्तर पे भी और शहरों के ज्यादा पढ़े लिखे लोगों के स्तर पे भी। जब यूनिवर्सिटी के स्तर पे सामान्तर घड़ाईयाँ होती हैं, तो क्या होता है? और जब गाँव या स्कूल के स्तर पे सामाजिक घड़ाईयाँ होती हैं, तो क्या होता है? जानना चाहोगे?

मान लो, वहाँ स्टूडेंट्स ने कुछ क्लास या लैब्स में किसी टीचर के खिलाफ उल्टा-पुल्टा कुछ किया। वो भी किसी का करवाया हुआ। शायद किसी टीचर या डायरेक्टर या जिसको उस टीचर से खुंदक हो? उन स्टूडेंट्स के शायद थोड़े नंबर ज्यादा आ जाएंगे, किन्हीं विषयों में। या कहीं अच्छी ट्रेनिंग मिल जाएगी। और भी बड़ा मामला होगा, तो शायद कहीं अच्छी नौकरी। मगर ऐसा सबके साथ नहीं होता। उसमें भी बहुत सी Terms और Conditions होती हैं। कहीं आप भी हो जाओ शुरू। 

अगर टीचर्स की बात हो तो? उन्हें शायद कोई additional membership या किसी committee की सदस्य्ता। और भी बहुत तरह के फायदे हो सकते हैं। जल्दी promotion, बढ़िया वाले घर, गाड़ी आदि सुविधाएँ जैसे। जिस किसी के खिलाफ चल रहा हो, उसके साथ इसके विपरीत व्यवहार भी हो सकता है। किसी को कम करके भी बहुत ज्यादा और किसी को बहुत करके भी बहुत कम। 

मतलब, हम गलत सिस्टम में हैं। उससे बचने और निकलने में ही भलाई है? या लड़ना चाहोगे ऐसे सिस्टम से? हो सकता है, इस लड़ाई में वो तुम्हारा घर-परिवार ही खा जाएँ। आखिर सिस्टम से लड़ना, इतना आसान कहाँ होता है? राजा खुद कुर्बानी नहीं देता। वो हमेशा और हमेशा कुर्बानी माँगता है, आम आदमी से।  

अब यूनिवर्सिटी से दूर, थोड़ा गरीब वाले आम आदमी पे आते हैं। जानते हैं अपने गाँव के हाल। हालाँकि, अपने ये महान लोग, खुद को गरीब नहीं मानते। चाहे बाहर वालों को इनके हालात ऐसे नजर आ रहे हों, जैसे कॉकरोच जब संसाधन कम हों, तो एक-दूसरे को ही खाने लगते हैं। वैसे दुनियाँ की ज्यादातर लड़ाईयाँ दो ही तरह की हैं। या तो संसाधनो की कमी की वजह से या वर्चस्व की। कमी की बजाए लिखना चाहिए, मानव संसांधन के दुरुपयोग की वजह से। क्यूँकि, उन्हें मानव संसाधन का प्रयोग नहीं आता। 

जैसे यूनिवर्सिटी में जो भी लड़ाई होती हैं, वो या तो फाइल्स के द्वारा होती हैं। या किताबें, Dissertation, Thesis के द्वारा। या Projects  या Publications से सम्बंधित। प्रमोशन या कुछ खास कुर्सियाँ पाने के लिए, इधर-उधर से पॉइंट्स इक्कठा करने की।  मतलब, वहाँ ज्यादातर दिमाग चलते हैं। इसलिए शिकायतें भी ज्यादातर ऐसी ही होती हैं। ज्यादातर। क्यूँकि, इंसान के खोल में जानवर तो वहाँ भी रहते हैं। तो उन इंसानों में से कुछ, कब इंसान का चोला उतार, जानवर का रुप धारण कर लें, जैसे कारनामे भी संभव हैं। मगर, वो भी शायद उस स्तर के नहीं मिलेंगे, जैसे गाँवों में। बल्की, उनसे थोड़े ज्यादा मार करने वाले, वो भी ऐसे की दिखे भी ना की उन्होंने ऐसा किया है। ऐसा क्यों? संसाधनों की कमी या दुरुपयोग? ये कुर्सियों की या अहम या वर्चस्व की लड़ाई हैं। लालच भी कह सकते हैं।

इसीलिए, वहाँ की लड़ाईयाँ जब बड़े स्तर पे पहुँचती है, जैसे इंटरनेशनल, तो ज्ञान भी वैसे ही बढ़ता है और ऐसी यूनिवर्सिटीज के संसाधन भी। ज्यादातर, क्यूँकि दूसरी तरफ बहुत तरह के दुर्गामी दुष्परिणामों के खतरे भी होते हैं। मगर, गाँव का ज्यादातर इनसे जुड़ा तबका, यहाँ बुरे वाली मार खाता है। क्यूँकि, यहाँ लोगबाग फाइल्स से नहीं लड़ रहे होते। दिमाग प्रयोग कर नहीं लड़ रहे होते। शारीरिक लड़ाई का हिस्सा बन जाते हैं। आमने-सामने की लड़ाई। जबकी, वो ज्यादा पढ़ा लिखा तबका, छुपम-छुपाई इनके घरों में घुसकर, दिमागों में घुसकर नए ज़माने के गोरिल्ला युद्ध लड़ रहा होता है। और इन जैसों को हर तरह से, खत्म कर रहा होता है। मगर, इन भोले इंसानों को यही नहीं पता होता, की दुनियाँ में ऐसा कुछ संभव भी है। इनके और उनके हथियार ऐसे हैं, जैसे, एक 16वीं या 17वीं सदी में और दूसरा 21वीं सदी में।      

इस दुरुपयोग की ट्रेनिंग भी हो सकती है क्या? वो भी खुद आपके या आपके अपनों के खिलाफ? ठीक वैसे, जैसे बच्चों को ट्रेनिंग देते हैं हम। या किसी भी जानवर या पशु-पक्षी को। जैसे कुत्ता या हमारा कोई भी पालतु जानवर। क्या हो, अगर वो हमें ही मारने या काटने लगे? या ऐसा कुछ खुद अपने साथ करने लगे? हमारे बड़ों के साथ भी हो सकता है, ऐसे की उन्हें पता ही ना चले की वो खुद कैसी ट्रेनिंग कहीं से ले रहे हैं। या अपने बच्चों को दे रहे हैं, जाने या अंजाने। और कल जब वो बच्चे कोई कारनामे करेंगे तो कहेंगे, हमने तो बहुत किया अपने बच्चों के लिए। बच्चे ही ऐसे निकले। या कुछ गड़बड़ होते हुए भी, हमारे बच्चे तो बहुत सही हैं, सामने वाले ही ऐसे हैं। 

आओ बहुत ही छोटी-छोटी सी, आसपास की ही बातों से समझते हैं। 

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