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Tuesday, September 12, 2023

मानव रोबोट बनाने में मनस्थिति का प्रयोग

मानव रोबोट बनाने में मनस्थिति का प्रयोग ( मनस्थिति जैसे डरावे और लालच आदि )

Mind Programming to create human robots and role of Feel Factor like fear or greed or any such thing. 

मानव रोबोट बनाने में डरावों और लालच का प्रयोग और दुरूपयोग बहुत अहम् है। इसमें अहम् ये नहीं होता की हकीकत क्या है, बल्कि दिखाना क्या है। किसी भी बात या विषय को कैसे प्रस्तुत करना है की आप या तो डर जाएँ या लालच में आ जाएँ। यहाँ आपका दिमाग और तंत्रिका-तंत्र अहम् है। मतलब Nervous System. तंत्रिका तंत्र का काम सिर्फ महसुस करके संदेश को दिमाग तक पहुँचाना भर नहीं होता। संदेश और स्थिति के अनुसार फैसले भी लेना होता है। कौन लेता है ये फैसले? दिमाग। दिमाग के अलग-अलग हिस्से, अलग-अलग तरह के फैसले लेने में अहम् भूमिका निभाते हैं। इनमें अलग-अलग इन्द्रियों के मिश्रण के अलग-अलग तरह के प्रभाव होते हैं। ये अलग-अलग मिश्रण कुछ-कुछ ऐसे समझो, जैसे खाना पकाना। किसी को क्या पकाना है, उसके लिए उस पकवान की विधि मालुम होना चाहिए। विधि के बाद उस सामान को इक्कट्टा करना और वैसा वातावरण (यहाँ जैसे तापमान) और वक़्त देना, मतलब कितने वक़्त तक क्या पकाना है और कब-कब डालना है। 

चलते हैं हकीकत और आभासी दुनियाँ पर: 

हकीकत मतलब ,असली जहाँ या हकीकत (Real World)

आभासी संसार, वर्चुअल वर्ल्ड (Virtual World) या ऐसा ही कुछ। 

और अलग-अलग तकनीकों के तड़के, मतलब दिमाग में तड़क-फड़क पैदा करना या यूँ कहो की विचलित करना। ये सब करने के लिए कितनी ही तरह की तकनीकें हो सकती हैं। पिछले एक साल में गाँव में आने के बाद जो देखा, सुना या महसूस किया, उससे ये समझ और मजबूत हो गयी की ज्यादातर लोग या तो हद से ज्यादा भोले हैं। गाँव के माहौल से आगे उन्हें बाहरी-संसार या तोर-तरीकों की खबर ही नहीं है। वे बेवकूफ बनाए जा रहे हैं, अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों द्वारा। उस बेवकूफ बनाने में चीज़ों को तोड़-मोड़कर पेश करना अहम् है। उसके साथ कोई न कोई या तो डर जोड़ दो या लालच। और हो गया काम। आओ अब मानव रोबोट घड़ते हैं। आप बताना ऐसा संभव है की नहीं? 

चलो उससे पहले एक सुनी-सुनाई कहानी से शुरू करते है -- कैंसर मरीज और दिवार पे पेड़।   

मैंने भी बहुत पहले सुनी थी तो थोड़ा बहुत ध्यान है। कोई कैंसर मरीज़ था। उसके बैड के पास खिड़की थी। और खिड़की के सामने एक दिवार। उस दिवार पर पेड़ की छाया पड़ती थी। उस कैंसर मरीज़ का जैसे-जैसे कैंसर बढ़ने लगा, वैसे-वैसे पेड़ की छाया भी दिवार पे कम क्षेत्र में  रहने लगी। धीरे-धीरे वो छाया इतनी कम हो गयी की उस दिवार पे दिखने वाली टहनियों के पत्ते तक गिने जा सके। धीरे-धीरे वो पत्ते भी कम दिखने लगे। अब कैंसर मरीज़ को ये यकीन होने लगा की जैसे-जैसे ये छाया खत्म होगी, वैसे-वैसे मैं। जब उसकी देखभाल करने वाले इंसान को ये पता चला तो उसने थोड़ी समझदारी दिखाई। वो मरीज़ को दिखाने के बहाने ले गया और पीछे से उस दिवार पे पेड़ की छाया की पेंटिंग बनवा दी। अब पेड़ की छाया उस पेंटिंग पे पड़ती थी तो पता ही नहीं चलता था की ये असली पेड़ की छाया है या पेंटिंग। 

कैंसर मरीज़ वापस आया तो उसे लगने लगा की पेड़ की छाया धीरे-धीरे घनी हो रही है। क्युंकि अब उस पेंटिंग में भी धीरे-धीरे रोज बदलाव हो रहे थे। और कैंसर-मरीज़ खुद को अच्छा महसूस करने लगा। उसे लगने लगा की अब मैं ठीक हो जाऊँगा। ये तो था आभासी दुनियाँ का अच्छे के लिए प्रयोग। आभासी सिर्फ ऑनलाइन ही नहीं बल्की वो सब, जो हकीकत न होकर भी होने का आभास करवाए। पेड़ के पत्ते तो झड़ने ही थे, क्युंकि पतझड़ का मौसम था। और कैंसर भी बढ़ना ही था, क्युंकि एक स्टेज के बाद कैंसर जैसी बिमारी कम ही काबु आती है। मगर दुख-दर्द कम किया जा सकता है और जीवन के दिन भी बढाए जा सकते हैं, काफी तरह के उपचारों से। 

दुख या किसी भी बिमारी में ज्यादातर दुख, उस बिमारी या दुख को सोचकर होता है। मतलब, आप दिमाग से महसुस कैसा करते हैं। इंसान का ये महसुस करना ही बहुत जगह अहम होता है। यही ज़िंदगी बना भी देता है और बिगाड़ भी देता है। आपको आपके आसपास का वातावरण कैसा महसुस करवाता है? उस महसुस करवाने में जीव और निर्जीव दोनों की भुमिका अहम् होती है। उस मनस्थिति को बदलकर कुछ हद तक, दुख-दर्द भी दूर किये जा सकते हैं और बिमारियाँ भी। बहुत-सी बिमारियाँ तो हैं ही नकली, मतलब होती ही नहीं, मगर आपको ऐसा अनुभव या आभास करवाया जाता है, की हैं। उसी मनस्थिति को बदलकर, दुख-दर्द बढाए भी जा सकते हैं। मतलब ऐसे-ऐसे तरीक़ों का दुरूपयोग भी किया जा सकता है। 

ये मनस्थिति ही बहुत से रिश्तों के तोड़जोड़ में भी काम आती है, बिमारियाँ पैदा करने में भी और कंपनियों को अपने उत्पाद बेचने में भी। इसी मनस्थिति को इधर-उधर करके राजनीतिक पार्टियाँ, अपनी-अपनी तरह के दाँव चलती हैं। आते हैं ऐसे ही कुछ दाँवों-चालों पे, जो आम-आदमी अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में भुगतता है। और उसे खबर तक नहीं होती की ऐसा हो रहा है या किया जा रहा है -- अगली किसी पोस्ट में। जिनमें किसी भी तरह का डर या लालच अहम् होता है।      

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