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Tuesday, September 19, 2023

आओ मानव रोबोट घडें?

ऐसा क्यों है की कहीं किन्हीं राजनीतिक कहानियों में जो हो रहा है, आपको लग रहा है की वैसा-वैसा कुछ मेरी ज़िंदगी में भी हो रहा है? Copy या Clone बनाना पता है क्या होता है ? और कैसे होता है ? बस आपके साथ वही हो रहा है। और आप खुद उस Process और Programming का हिस्सा बने हुए हैं -- जाने या अनजाने। 

यही नहीं, कहीं न कहीं, अपने बच्चों और बड़ों को भी बना रहे हैं -- जाने या अनजाने। 

कैसे ?

आओ मानव रोबोट घडें? 

एक तरीका है 

Copy, Cut और Paste  आओ मानव रोबोट घडें? 

हो गया ? अरे यही तो लिखना था आओ मानव रोबोट घडें? 

बनाना हो तो?  

पौधों से शुरू करें? क्या-क्या तरीके हैं पौध बनाने के?  

एक तो वही Copy, Cut और Paste

दुसरा तरीका?

तीसरा तरीका?

और भी कितने तरीके हो सकते हैं? आप पौधों के बताओ या सोचो। तब तक -- 

चलो एक कागज लेते हैं और नाव बनाते हैं। बचपन में बनाई होगी ना? या शायद हवाई जहाज? 

आता है तो किसी और को सिखाओ। और अगर नहीं आता? तो किसी से सीख लो। 

क्या-क्या सामान चाहिए? क्या प्रकिर्या होगी ? और कैसे उस प्रकिर्या को करना है ? Programming और Process.  

ऐसे ही एक इंसान के या पार्टी की रची कहानी को, किसी और इंसान पे थोपा जा सकता है क्या? थोंपना क्यों है? उसे अपने साथ लो और थोड़ा बहुत किसी भी किस्म का लालच या डर दिखाओ। अब वो इंसान, आपका कहा या रचा करता जाएगा। और आपका काम हो गया। बस एक शर्त। उतना ही बताओ, जितने में आपका काम हो जाए। उससे ज्यादा पता लग गया तो मुश्किल हो जाएगी। मतलब, जितना बताना जरूरी है, उतना ही छुपाना भी जरूरी है इस धंधे में। और हो गई कॉपी। बन गया क्लोन। मानव रोबोट। कितने ही मानव रोबोट घड़ सकते हैं ऐसे। राजनीतिक पार्टियाँ और ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बस यही सब कर रही हैं, आमजन के साथ।

एक छोटा सा उदहारण लें, शायद आपके भी आसपास ऐसा कुछ हो रहा हो?

कोई बच्ची पैदा हुई और कोई बोले, की ये हो गई, फलाना-धमकाना की लुगाई पैदा। वो जैसे अपना राजस्थान में या शायद हरियाणा और NCR तक में आज तक होता है? पैदा होते ही शादी तय? या शायद शादी जैसा-सा कुछ? या शायद उसके नाम पे कुछ और? या शायद पैदा होने से पहले ही? की लड़की हुई तो हमारे यहाँ आएगी और लड़का हुआ तो तुम्हारे यहाँ? मतलब, अगर लड़का हुआ तो फलाना-धमकाना का खसम। अबे गधे से दिमागो, उन्हें थोड़ा बड़ा होने दो। खुद इस दुनियादारी को समझने दो। उसके बाद शायद उनसे पूछने की भी नौबत आए और जो तुम घड़ रहे हो, वो उन्हें पसंद ही ना आए। फिर? जबरदस्ती करोगे क्या? आसपास जो समझ आया वो ये की बच्चों के जन्म तारीख और नाम के हिसाब से, पता नहीं इस पार्टी या उस पार्टी ने ऐसी-ऐसी कितनी ही घड़ाईयाँ की हुई हैं। और खुद के उनके अपने परिजन, नौटंकियों के नाम पे, उनकी नुमाईश ऐसे कर रहे हैं, जैसे सर्कस के कोई जोकर। अब तेरा नंबर। अब तेरा। आज तेरा। कल तेरा। परसों तेरा। ये सिर्फ गाँव की कहानियाँ नहीं है। बल्की यूनिवर्सिटी में भी कुछ ऐसे-ऐसे पीस थे या कहो हैं। 

एक दिन बॉस से कुछ झगड़ा हो गया। होता ही रहता था वहां तो। रोज ऑफिस में यही तो ड्रामे चलते थे। पढ़ाई-लिखाई थोड़े ही चलती थी। इस पार्टी या उस पार्टी के कलाकार कुर्सियों पे और शीतयुद्ध फाइल्स का। यहाँ-वहाँ रोड़े अटकाने का। जो जितना बढ़िया रोड़े अटकाऊ और चापलूस, उसका उतना बढ़िया और जल्दी प्रमोशन और सुविधाएँ। जो हरामी डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठकर ये कहे की डिपार्टमेंट में पढ़ाई या रिसर्च का वातावरण देना उसका काम नहीं है और फिर भी इतना वक़्त उस कुर्सी पे टिक जाए। कैसे-कैसे लालच ना? एक दिन बॉस से थोड़ी बहुत कहासुनी हो गई। बुला लिए अपनी पार्टी के newspaper के सिपाही, और अपने लड़के के साथ फोटो चिपकवा दी। और आप सोचें, इस चापलूस इंसान ने, एक छोटी-सी बात पे, अपने ही बच्चे को भी बीच में क्यों घसीट लिया? राजनीति के ड्रामों के बाप, बेटे, दादे, पोतों की कहानी, थोड़ा बाद में समझ आई। और बच्चों की ज़िंदगियों पर उन ड्रामों में शामिल करने के असर की थोड़ा और लेट। खासकर, गाँव में आने के बाद। बच्चों की बीमारियों से।      

गाँव वाले बेचारे अपने बच्चों की ज़िंदगियाँ और रिश्ते बचाने में ही व्यस्त हैं। बैगर संसाधनों और दिमाग के लोग। कितने ही केस भुगत रहे हैं, जिनमें राजनीतिक पार्टियों के सामांतर तड़के हैं। कितने ही युवाओं की ज़िंदगियाँ, उन सामांतर तड़कों की घड़ाई में खराब हो चुकी या हो रही हैं। और वो पढ़े लिखे शिकारी? इनसे भी माल लूटने में, इधर भी और उधर भी? उन कुर्सियों पे बैठकर, वो कौन से समाज का भला करते हैं? उसका, जिसने उन्हें वो कुर्सियां दी हैं? या उसका, जिसके नाम पे वो कुर्सियां दिखाने भर को सजी हैं? बस? मुझे ऐसे पढ़े लिखे गँवार और जुर्म पैदा करने वाले या छिपाने वाले समाज का हिस्सा नहीं होना। 

किसी भी समाज की बदहाली या खुशहाली का फर्क, इतना-सा ही है शायद, की इस जिम्मेदार कहे जाने वाले वर्ग ने अपने समाज के लोगों को व्यस्त कहाँ किया हुआ है? कैसे कामों में लगाया हुआ है? और दिखावे और हकीकत में फर्क कितना है? 

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