कैसे लोगों को मानव रोबोट बनाना आसान है? जो शांत दिमाग हों या विचलित दिमाग? जल्दी गुस्सा करने वाले लोग या विपरीत परिस्थिति में भी स्थिर स्वभाव वाले?
विचलित दिमाग जैसे, तड़क-भड़क, टूट-फुट। ऐसे लोग सामने वाले का तो नुकसान करते ही हैं। अपना कहीं ज्यादा करते हैं। वो सिर्फ माहौल को असहज नहीं बनाते, बल्कि अशांत भी करते हैं। आसपास के ही कुछ उदाहरण -- यूनिवर्सिटी में एक Organized Crime हुआ, मार-पिटाई का। जिसे मारा-पीटा गया, वो तो शायद निकल गया काफी हद तक उस वाक्या से और ऐसे माहौल से भी। मगर उसके आगे और क्या-क्या हुआ? उन राजनीतिक पार्टियों या कुर्सियों को उसका कितना फायदा हुआ? उस यूनिवर्सिटी की बदनामी हुई या उसे इनाम मिला कोई? उसका प्रभाव सिर्फ वहीं तक रहा या उसका असर कोविड तक गया? कोविड रचने वालों ने कोविड को खुद भी भुगता या सिर्फ दुनियाँ भर के आमजन तक ने उसका असर सहा? कोविड (Operation Warp Speed, USA) असल में रचा किसने और क्यों? उसका फायदा किसे हुआ और नुकसान किसे? थोड़ा ज्यादा हो गया ना? ये ज्यादा अक्सर, आभासी दुनियाँ को बढ़ा-चढ़ा कर होता है। इसी को Manifestations और Manipulations कहते हैं।
चलो दुसरे आसपास पे आते हैं। यहाँ गाँव में आसपास कुछ-कुछ ऐसी ही घड़ाई, मार-पिटाई के किसी के ससुराल के केस में सुनने को मिली। अब उस सामान्तर घड़ाई में कितना सच है और कितना इधर-उधर का मिर्च-मसाला, ये तो असली बन्दों को ही पता होगा। इससे पहले ऐसे-ऐसे केस यूनिवर्सिटी और आसपास भी सुन चुकी थी। मगर तब शायद ये सामान्तर घड़ाई कैसे होती है, वाली समझ कम थी। ऐसे ही कोविड के बाद जैसे मैं घर आई, आसपास भी कुछ-कुछ ऐसी ही सामान्तर घड़ाई, किसी और के केस में सुनने को मिली। अब वहाँ भी कितना सच है और कितना मिर्च-मसाला, ये तो हकीकत के लोगों को ही पता होगा। सुनी-सुनाई, आभासी दुनियाँ है। मगर उस आभासी दुनियाँ को कई बार खुद हकीकत वाले लोग भी भढ़ाते-चढ़ाते मिलते हैं। और आपको समझ ही नहीं आता की कोई खुद ऐसा क्यों करेगा? किसी और केस के सामान्तर घड़ाई का हिस्सा? वो भी अच्छा नहीं, बल्कि बुरा और उसमें खुद ही शामिल हो जाना? ज्यादातर ऐसा अनजाने में होता है या राजनितिक लोग उसके पीछे छुपे होते हैं, करवाने में? वहाँ उन्हें नुकसान नहीं बताए जाते। सिर्फ और सिर्फ फायदा दिखाया जाता है। ज्यादातर लोग लालच में आकर करते हैं, क्युंकि उन्हें नुकसान दिखते ही नहीं या कहो जानभूझकर छुपा दिए जाते हैं। और कभी-कभी शायद कोई डर का मोहरा भी फेंका जाता है। इसी को Manifestations और Manipulations कहते हैं। और Reward and Punishment वाली ट्रेनिंग के तड़के भी।
ऐसी विपरित परिस्थितियों में शांत दिमाग अक्सर झेल जाते हैं। और वक़्त के साथ जैसे-तैसे परिस्थितियों पे काबु भी पा जाते हैं। मगर अशांत दिमाग और ज्यादा नुकसान खाते हैं, और आसपास भी अशांत माहौल बनाते हैं।
तड़क-भड़क, तोडना-फोड़ना और विचलित दिमाग, एक जैसे-से ही होते हैं। तो असर भी एक जैसे-से ही होंगे की नहीं? अपने आसपास नजर दौड़ाओ की कौन-कौन, ज्यादा अशांत या विचलित दिमाग हैं, या घर हैं? और कौन-कौन, सहज-शांत या कहो, आसानी से विचलित न होने वाले? शांत लोगों के यहाँ अक्सर समृद्धि और आगे बढ़ने की क्षमता ज्यादा मिलेगी। यूँ ही थोड़े कहते हैं, की खाते-पीते घरों से अक्सर तेज या लड़ाई-झगडे की आवाजें कम ही आती हैं। जितना ज्यादा गरीबी बढ़ती जाती है, ऐसी आवाज़ें भी अक्सर बाहर ज्यादा सुनने को मिलती हैं। ऐसा भी नहीं है की वहाँ झगडे ही ना होते हों। एक तो घर बड़े होते हैं और बाहर से तांक-झाँक के रस्ते कम। उसपे हैसियत होती है, अलग-अलग घर, अलग-अलग जगह लेने की, बना पाने की। अलग-अलग जगह काम कर पाने की। दूर-दूर रहने पे, ज्यादातर ऐसे झगडे तो वैसे ही खत्म हो जाते हैं, जिनके लिए गरीब या मध्यम वर्ग मरकट रहे होते हैं। इसीलिए अमीर घरों में अक्सर वर्चस्व के झगडे होते हैं।
जितने बड़े घर, उतने बड़े वर्चस्व। जितने छोटे घर, उतनी ही छोटी-छोटी बातों पे तु-तड़ाक। छोटे-लोग (गरीब कहना चाहिए), छोटे-छोटे झगडे। बड़े लोग इन्हें तुछ भी बोलते हैं। बड़े लोग, बड़े-बड़े झगडे। बड़ी-बड़ी महाभारतें, और बड़े-बड़े षड़यंत्र। जैसे लाक्ष्यागृह जैसे युद्ध रचने और करने वाले। और दूसरी तरफ ये घर तेरा नहीं मेरा है, निकल यहाँ से। मेरे घर में सामान क्यों रखा है, निकाल इसे। ये बाथरूम गन्दा कर दिया, साफ़ तेरा बाप करने आएगा। ये मेरी रसोई है, कहीं भी कुछ नहीं रख सकते। या ये इतने भांडे कर दिए, तेरी माँ माँजन आवगी -- वैसे बाप या भाई क्यों नहीं? ये गाडी यहाँ खड़ी मत कर या बाहर कर। और भी पता नहीं क्या-क्या, गरीब या मध्यम वर्ग के घरों से अक्सर सुनने को मिलता है। गरीब या मध्यवर्गीय लोगों को लगता है की ये अमीर लोग लाक्ष्यागृह जैसे षड़यंत्र ही क्यों रचते हैं? और अमीरों को? क्या चीक-चीक लगी रहती है न यहाँ, छोटी-छोटी, तुच्छ बातों पे। अपना-अपना नहीं बना सकते या थोड़ा दूर किसी और जगह नहीं रह सकते?
दिमाग को ऐसे पेंडुलम की तरह स्थिर कर, इधर-उधर की तुलना से ये भी समझ आता है, की ज्यादातर झगड़े और उनकी वजहें, अक्सर खामखाँ ही होती है। जहाँ तक हो सके उनसे दूर ही हो जाना चाहिए। कितनी ही बीमारियाँ और लाचारियाँ झगड़ों के वातावरण के देन होती हैं। ऐसे माहौल से दूरी मतलब, ऐसी-ऐसी बीमारियाँ से भी मुक्ति।
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