दस्तुर कैसे-कैसे, चल रहे बदस्तूर? या बढ़ रहे नई नई तकनीकों के दुरुपयोगों से?
बीमारियाँ जब कहानियाँ-सी लगें
जुबाने, जब हूबहू-सा बकें
रिस्ते जब जमा-घटा, गुणा-भाग
फाइल्स-सा करें
वो भी दूर, बहुत दूर, कहीं उन फाइल्स से
तो मानव रोबोट रचने की प्रकिर्या पे गौर करें
"दिखाना है, बताना नहीं", कोई खेल नहीं हैं, बल्की घिनौने कांड हैं, राजनीति के। बचो, जहाँ भी बच सकते हो।
आओ हुबहु रचें? कैसे? कैसे रचती होंगी, ये पार्टियाँ हूबहू (ditto)?
जो मुझे समझ आया (जहाँ नहीं आया, वहाँ आप अपने विचार रख सकते हैं)
राजनीतिक पार्टियों के कोडों वाले रिश्ते-नाते वो नहीं हैं, जो आम-आदमी के असली ज़िंदगी में है। जैसे इनकी माँ किसी की GF या X हो सकती है और बेटी उस GF का अगला कोई अवतार। ऐसे ही इनके बाप कोई BF या X हो सकता है और बेटा कोई उस बाप का अगला अवतार। राजनीति के नाटकों के खानदान, इन्हीं XYZ के आसपास घुमते हैं। इनके नाटकों में माँ, बहन, बेटा, बेटी, भतीजा, भतीजी और ऐसे ही, कितने ही आम आदमियों की हकीकत की ज़िंदगी के रिश्ते हैं ही नहीं। हाँ XYZ की भरमार हैं। ये इसकी, वो उसकी या उसका और न जाने कौन कहाँ-कहाँ और किसका?
जबकि, आम आदमी की असलियत की ज़िंदगी में ऐसा कुछ होता भी है तो ज्यादातर केसों में, वो एक वक़्त के बाद अगर खत्म, तो हकीकत में खत्म हो जाता है। उसका फिर उसकी ज़िंदगी से शायद ही कोई लेना-देना रहता हो। कहीं-कहीं तो सालों-साल या Decades तक भी लोगों को पता ही नहीं होता की कौन कहाँ है, क्या कर रहा है या कर रही है। ज़िंदा भी है या मर चुका या मर चुकी। मगर, राजनीति के इन नाटकों के जालों में वो न सिर्फ ज़िंदा रहता है या रहती है बल्की जहाँ हकीकत की ज़िंदगी में है ही नहीं, वहाँ भी ज़िंदगी को प्रभावित करते रहते हैं और तोड़फोड़ तक मचाते रहते हैं। इन्हीं को कहा जाता है, भूतिया प्रभाव।
मतलब, भूत राजनीती के, भगवान राजनीती के पैदा किए हुए। ऐसे ही उनके बारे में कहानियाँ भी, राजनीती की घड़ी हुई। डरावे, छल-कपट, राजनीती के बनाए हुए। इंसानों को यहाँ से वहाँ धकेलती है राजनीती। मतलब, कौन कहाँ जाएगा और कौन कहाँ रहेगा, ये भी राजनीतिक पार्टियाँ निर्णय लेती हैं। क्या करेगा या नहीं करेगा, वो भी वहाँ की राजनीती तय करती है। आज के टेक्नोलॉजी के वक़्त में तो और भी बुरे हाल हैं। जो तकनीकें या उन तकनीकों का प्रयोग करने वाले लोग 24 घंटे लोगों को देख सुन या रिकॉर्ड कर रहे हों, सोचो वो इस समाज को कितना प्रभावित कर रहें हैं ? और कैसे-कैसे प्रभावित कर रहे हैं? आम आदमी की तो कोई ज़िंदगी है ही नहीं। वो जीता है इनकी मर्जी से, मरता है इनकी मर्जी से। जो कुछ खाता-पीता है या पहनता है, सब इनकी मर्जी से या कहो इनके घड़े automated, semiautomated या enforced घड़ाईयों की मर्जी से। आम-आदमी अपनी मर्जी से क्या करता है ? कुछ भी नहीं? आप तब तक सोचिए, आते हैं इस विषय पे भी, किसी अगली पोस्ट में, की आप अपनी मर्जी से कितना ये सब करते हैं और कितने धकेले हुए होते हैं? और इन धकेले हुए दुष्प्रभावों से कैसे निपटा जाए?
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