Politics of Persuasion मतलब किसी को ऐसे बोलो, दिखाओ या सुनाओ, की वो जहर को अमृत समझ खा जाएँ और अमृत को जहर समझ ठुकरा दें। ये तरीके बहुत से विषयों के मिश्रित ज्ञान की देन हैं। जिन्हे राजनीति ही नहीं, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी प्रयोग करती हैं, अपना सामान बेचने के लिए। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी तरफ लुभाने के लिए। अपनी साख बनाये रखने के लिए।
PR (Public Relations), Communications, मीडिया : प्रचार-प्रसार के माध्यम, इन सबका अहम् हिस्सा हैं। आम आदमी आज आपस में बात करने की बजाय, इन सब पर ज्यादा वक़्त बिताता है। तो क्या होगा? वही जो हो रहा है।
Google बाबा के अनुसार
Persuasion: वह अंतर्वैयक्तिक या सामाजिक प्रक्रिया होती है जिसमें एक व्यक्ति, समूह या संगठन किसी अन्य व्यक्ति, प्राणी, समूह या संगठन को तर्क, बल या प्रभावित करने के अन्य मार्गों द्वारा उनके दृष्टिकोण, विचारों या व्यवहारों को किसी विशेष दिशा में ले जाने का प्रयत्न करता है।
बहुत से विषयों का मिश्रित ज्ञान इसके लिए प्रयोग होता है। जिनमें विज्ञान, कला, सामाजिक विज्ञान सब है। इन विषयों का मिश्रित संसार टेक्नोलॉजी के विकास के साथ-साथ, आज के इंसान के तकरीबन हर वाद-विवाद से जुड़ा है। दिमाग से जुड़ा हर विषय उसमें अहम् भुमिका निभाता है। चाहे फिर वो जैव विज्ञान हो, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान या कोई और। अलग-अलग तरह के विषयों की खिचड़ी, अपने आप में अलग तरह का विषय बना देती हैं। उस सबका अध्ययन, नए-नए आयाम, अवसर और अवरोधों का स्त्रोत होता है। दिमाग भी ऐसे ही है। अलग- अलग वातावरण में अलग-अलग तरह से काम करता है। वो दिमाग है तो सबके पास, मगर उसका उपयोग कहाँ, कैसे, कितना और किस दिशा में होता है, इसपे निर्भर करता है, इंसान का पूरा अस्तित्व। समाज की दशा और दिशा। अगर उस दिमाग को आप प्रयोग करें तब तो सही। मगर आपकी बजाय अगर वो किसी और के अधीन काम करने लगे तो? सम्भव है क्या ये?
आप किसी के बारे में क्या सोचते हैं? ये इस पर निर्भर करता है की आपको उसके बारे में क्या-क्या पता है? और इस पर भी की किसी विषय पर आपकी सोच क्या है? अब एक ही विषय पर एक देश और दूसरे देश के आदमी की सोच अलग हो सकती है। और एक ही घर में बच्चे और बड़े की सोच भी अलग हो सकती है।
जैसे Enjoy एक बच्चे ने बोला तो उसके लिए इसका मतलब होगा, खेलना, थोड़ी-सी घुमाई अपनी पसंदीदा जगहों पे, जैसे वाटर पार्क और हो सकता है कोई कंप्यूटर गेम, कोई serial, cartoon सीरीज, शायद थोड़ी बहुत खरीददारी, थोड़ा अपनी पसंद का खाना।
बड़ों के लिए भी कुछ-कुछ ऐसा ही होगा। अपनी-अपनी पसंद और उम्र के हिसाब से।
किसी के लिए उसका मतलब 3-IDIOT के Joy सुसाइड के खिड़की सीन पे टिक सकता है क्या? बताया ना निर्भर करता है, की उस बन्दे की जानकारी किसी विषय वस्तु की कितनी है, और वो उसे कैसे समझता है?
कुछ बातें या चीज़ें हो सकता है आपको बताई, दिखाई या समझायी ऐसे जा रही हों, जो आपके लिए सही न हो। जिन्हे आप या तो बहुत पीछे छोड़ चुके या वो सब इतना और इस तरह से हो चुका की महत्व ही खो चुका हो। इन्हीं बातों और तरीकों में क्रुरता भरी होती है। राजनीतिक पार्टियों की ये क्रुरता किसी भी भले-बुरे वक़्त पे सामने आ सकती है। वो मौत पे स्टेनगन दिखाने पहुँच सकते हैं, और शादी पे, मौत के सौदागर बनकर। हिन्दुओं को मुसमानों की तरह के तरीके जोड़-तोड़ कर फूँक सकते हैं और मुसलमानों को हिन्दुओं की तरह। उनके दिमाग की क्रुरता अक्सर उनके पहनावे, आसपास के संसाधनों, कामों को करने के तरीकों में झलकती है। ऐसे सामाजिक ताने-बाने अक्सर औरतों और कमजोर समझे जाने वाले वर्ग को बल के तान धकेलते हैं। क्युंकि दिमाग ऐसे लोगों के काम कम ही आते हैं। उनके हाथो में डंडे जैसे या इससे भी खूँखार साधन मिलते हैं। ऐसे लोग औरतों के नाम पर या कमजोर कहे जाने वाले तबकों के नाम पे पद पाते हैं। और बनने के बाद उन पदों को अपने ही नाम लिख लेते हैं। सोचो, ऐसी सोच औरतों को क्या समझती होगी और उनसे कैसे पेश आती होगी? फिर चाहे अपने ही घर या आसपास की औरतें क्यों न हों?
राजनीती अक्सर ऐसे केसों में काले धागे फेंकती है और कहती है चमार-चूड़े (Lower Cast) आ गए। इस तरह के धागे और जातियाँ और धर्म, राजनीति की घिनौनी देन ज्यादा हैं। इसमें भी अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के, अपने-अपने उदेश्य भुनाने के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। राजनीति के लिए कुछ भी अछूत नहीं है।
वो भाइ-बहन, बाप-बेटी, दादा-पोती, माँ-बेटा जैसे रिश्तों कों तार-तार करने की कोशिश कर सकते हैं। कौन हैं ये लोग? पहले तो इन कुंठित मानसिकताओं को पहचानों। और जितना हो सके, अगर दूर न हो सको तो कम से कम सावधान जरूर रहो। कोड्स की भाषा में BC, MC, CC, SF, MF और भी पता नहीं क्या-क्या होता है। सामने वाले के प्रयोग और नज़रिये पे है। अब अगर लोगबाग ऐसे-ऐसे नाटक लिखेंगे या तोड़-मरोड़ कर समाज में पेश करने की कोशिश करेंगे तो उस समाज में या ऐसे तबके में औरतों या इस कमजोर कहे जाने वाले वर्ग की स्थिति क्या होगी? शायद आप कहें शिक्षा उसका समाधान हो सकती है? क्या पता ऐसे लोग शिक्षा में भी घुसे हों? और उनके लिए वो शिक्षा की बजाय धंधा मात्र हो? उसपे बाहर छवि ये बना ली हो की हम तो लोगों के उत्थान के लिए, भले के लिए काम करते हैं?
ऐसी सोच मुर्दाघरों से मुर्दे निकाल बेच सकते हैं और ज़िंदा लोगों को मुर्दा घरों में सजा सकते हैं। वे माता कह के ले सकते हैं और रातों जगराते करवा सकते हैं। काम ख़त्म होने पे उन्ही सजी-धजी मुर्तियों का विषर्जन कर सकते हैं। मतलब, वोटों के लिए हर तरह का गंद फैला सकते हैं। आम आदमी की ऐसे लोगों के बीच जीत हो ही नहीं सकती। क्यूंकि, आम-आदमी उतना नहीं गिर सकता। वो सफ़ेद धागों को ब्रामणों या जाटों या राजपूतों या किसी भी ऊँची जाती का धागा गा सकते हैं। ऊँची जाती कितनी ऊँची? क्या पैमाने हैं उस उंचाईं के? नीची जाती कितनी नीची? कितनी गहरी खुदाई है उस जाती की? अगर वो आपको इन सब जालों में उलझा रहे हैं, तो बचो उनसे। उनका तो धंधा है ये। हाँ! पर गन्दा है ये।
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