ये सफल-असफल से बहुत दूर के प्राणी हैं। हट्टे-कट्टे होते हुए भी लाचार, बेकार, अपाहिज जैसे। वयस्क होते हुए रोजमर्रा के कामों के लिए भी, दूसरे पे निर्भर। जानवरों और पक्षियों से भी कमतर। इंसान ही न रहें जैसे। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी अपना पेट भरने लायक तो कर ही लेते हैं और घर भी बना लेते हैं। मगर इस किस्म के खास प्राणी, वो भी नहीं कर पाते। बेचारे जैसे।
ये वो किस्में हैं, जो घर की औरतों के कहीं जाने पे भुखे मर सकते हैं, मगर बना के नहीं खा सकते। चाहे पूरा दिन ठाल-म-ठाल हों। इन बेचारों की परवरिश खास-म-खास होती है, जो इन्हें ऐसा बना देती है। क्यूंकि पशु-पक्षी भी अपने बच्चों को खाने का बंदोबस्त करना तो कम से कम सीखा ही देते हैं। मगर पता नहीं ये कौन से रीती-रिवाज या सामाजिक प्रथा है, जो आज तक अपने लड़कों को इतना तक नहीं सीखा पाती। या शायद रीती-रिवाज़ के नाम पे बहाना।
एक खास सोच, पुरुष-प्रधानता। जो बहुत जगह लड़को को लड़कियों से ज्यादा खास बनाती है या अधिकार देती है। ऐसे समाज में इन खास लड़कों के रस्ते का रोड़ा भी, वही सोच बनकर खड़ी होती है। वो कहते हैं ना, की हर चीज के दो पहलु होते हैं। लड़कियाँ छोटी-सी ही उम्र में जहाँ, पढ़ाई के साथ-साथ, घर का और अपना काम भी, अपने आप करने लग जाती हैं। तो ये खास परवरिश वाले लड़के, इतने दूसरे इंसान पे आश्रित होते जाते हैं, की उस घर की औरतें, अगर एक दिन भी कहीं बाहर चली जाएँ, तो बेचारे भूखे मर जाते हैं। पता नहीं, इसमें वो कौन-सा ईज्जत कमाते होते हैं? हट्टे-कट्टे होते हुए, अपाहिज़ जैसे। एक तरफ अपाहिज़ भी, अपने सम्मान के लिए काम करते मिलेंगे। और दूसरी तरफ, ये पुरुष-प्रधान समाज के मर्द? नीरे निठल्ले, कामचोर, लुगाई-पताई करते। उसपे भारी-भरकम शब्दों को ढोते गँवार जैसे, और कहते खुद को मर्द। मुझे तो मर्द शब्द ही जैसे, घिनौना लगता है, वैसे ही जैसे साहब। जैसे फद्दू होते हुए, तानाशाह होना? या शायद तानाशाह का मतलब ही लठ के बल या फद्दू ही होता है? जिनमें भेझे की कमी होती है? क्यूंकि तानाशाही, खासकर, लठमार वहाँ होती है, जहाँ सामने वाले को दिमाग की सूझबुझ से मना लेने की क्षमता नहीं होती?
ऐसे लोग ज्यादातर उल्टे-सीधे कामों में लगे मिलेंगे। खुद को ही नहीं, बल्की अपने आसपास को भी पीछे धकेलते जैसे। ऐसा भी नहीं की ऐसे लोगों में कोई गुण नहीं होता या कोई भी अच्छाई नहीं होती। बेवजह की अकड़ और खास किस्म के माहौल की देन, उन्हें आगे बढ़ने ही नहीं देती। ठाली की इधर-उधर की बैठकों में या गली-चौराहों पे, दूसरों की बुराईयाँ करने या लुगाई-पताई करने के लिए ठाली जैसे। न कुछ करने को, न कुछ सीखने को। तो किसी को सीखाने को भी क्या होगा ? इन्हीं में से कुछ उल्टे-सीधे कामों में या तोड़फोड़ में शामिल मिलेंगे। जो कोई कमा नहीं सकता, उसे भला तोड़ने-फोड़ने का अधिकार किसने दिया? सबसे बड़ी बात, तोड़फोड़ ज्यादातर वही करते मिलेंगे, जो सीधे-रस्ते कमाना नहीं जानते। जिन्हें कमाना आता है, उन्हें मालुम है की उस सबके लिए मेहनत के इलावा कोई दूसरा रस्ता नहीं होता।
अब जो तोड़फोड़ में शामिल नहीं होंगे, वो क्या करते मिलेंगे? कुछ न कुछ बनाते, सजाते, सवांरते, अच्छा करते या आगे बढ़ते और बढ़ाते। हाँ। इतना फर्क हो सकता है की किसी माहौल में कम करके भी ज्यादा मिलेगा। और कहीं बहुत मेहनत करके भी रुंगा जैसे। ये निर्भर करता है, की वो कैसे माहौल से और लोगों से घिरे हुए हैं। अगर किसी को लग रहा है, की बहुत मेहनत करके भी, कुछ खास नहीं मिल रहा, तो माहौल बदलना होगा। और कोई चारा नहीं। नहीं तो जो है, उसी में खुश रहना सीख लो। यहाँ महज़ बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री बनना से मतलब, सफल होना नहीं है। इसीलिए पहले ही लिखा है की अलग-अलग लोगों के और अलग-अलग समाज के सफलता और असफलता के पैमाने भी अलग-अलग हो सकते हैं। मगर ठीक-ठाक जीने के लिए, अपनी आम जरूरतों तक को पूरा न कर पाना, जरूर असफलता है। सिर्फ ऐसे तबकों या इंसानो की ही नहीं, बल्की उस समाज की भी। एक और आम बात जो यहाँ सुनने को मिलेगी, वो ये की लड़कियाँ तो यहाँ फिर भी सफल हो जाती हैं या कम से कम कोशिश तो कर ही रही होती हैं, इन सांडों (लड़कों, यहाँ जुबाँ ही ऐसी है, बहुतों की, शायद इसीलिए लठमार बोली कहा जाता है) का क्या करें। यहाँ भी लड़के और लड़कियों के माहौल को जानने की कोशिश करेंगे, तो काफी कुछ समझ आएगा।
कम पढ़े-लिखे होने का मतलब असफल या फेल होना नहीं होता, जो अक्सर हमारे समाज में बताया या सिखाया जाता है। जो कम पढ़े-लिखे हैं, वो भी नकारा या कामचोर नहीं होते। कम पढ़ाई का मतलब, बेकार होना भी नहीं है। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे, बड़े-बड़े व्यवसायों और कंपनियों के मालिक मिलेंगे और ज्यादातर ज्यादा पढ़े लिखों को काम पर रखे। विडम्बना (Irony)? खासकर, कम विकसित देशों में। यहाँ ज्यादातर राजनीतिक नेताओं के भी यही हाल मिलेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के। तो आपका पढ़ा-लिखा होना या ना होना सफलता या असफलता की निशानी हो भी सकता है और नहीं भी। मगर हट्टे-कट्टे होते हुए अपाहिजों की तरह जीवन व्यतीत करना जरूर असफल होना है। कम पढ़ा-लिखा इंसान मतलब, पढ़े-लिखों से किसी खास विषय में थोड़ा कम आता हो या उस विषय का ज्ञान ना हो। जो पढ़ते हैं, उन्हें भी सब कहाँ आता है? बहुत से विषयों में वो भी अनपढ़ों जैसे ही होते हैं। जैसे किसी की पढ़ाई बायोलॉजी या हिंदी में हो, तो भी कानून में तो वो इंसान भी अनपढ़ ही होगा। मगर हमारे समाज में कम पढ़ा-लिखा होने का मतलब, शायद असफल होने की मोहर लगाने जैसा-सा है। कम पढ़े-लिखे भी न सिर्फ एक-दूसरे का काम बाँटते हैं, बल्की अपने सारे काम भी एक उम्र के बाद खुद करते हैं। छोटा-मोटा, जैसा-भी काम मिले, उसे करके न सिर्फ अपना काम चलाते हैं। बल्की कभी-कभार जरूरत पड़ने पे, आसपास के भी काम आते हैं। ये ज्यादातर वो लोग होते हैं, जिनके लिए कोई भी काम, छोटा या बड़ा नहीं होता। कोई भी काम औरत या मर्द का नहीं होता, जब तक उसमें प्राकृतिक जेंडर वाली बाधा नहीं है।
वो जो आपके यहाँ साफ-सफाई करने आते हैं। वही, जिन्हें आप हीन भावना से देखते हैं। वो ऐसे-ऐसे नकारा और अपाहिजों से बेहतर हैं। वो जो आपके खेतों में मजदूरी करते हैं। वो जो रहड़ी या खाने-पीने के सामान का ठेला लगाते हैं, दो पैसे कमाने के लिए। अपना और अपनों का गुजारा करने के लिए। वो जो बिजली का, प्लम्बर का काम करते हैं। वो जो तरह-तरह की दुकाने सजाए बैठे हैं। वो जो इमारतें बनाते हैं, कपड़े सिलते हैं, नाई का काम करते हैं। और भी कितनी ही तरह के छोटे-मोटे काम करते हैं। कोई भी काम छोटा नहीं होता। उसको करने या देखने का नज़रिया छोटा हो सकता है। और ऐसे काम करने वाले लोग, किसी भी ठाली और उसपे यहाँ-वहाँ बकवास करते, हट्टे-कट्टे होते हुए भी अपाहिजों जैसों से, बहुत बेहतर हैं। हालाँकि ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, हट्टे-कट्टे अपाहिजों का भी ईलाज है। उन्हें थोड़ा उनके सिकुड़े जहाँ से बाहर की जानकारी देकर या सैर करवाकर। थोड़ा-बहुत काम-धाम सीखाकर। इनमें से भी बहुत से चल निकलेंगे, शायद।
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