सामान्तर घड़ाई कैसे होती हैं?
मानो किसी ने कोई नाटक लिखा। उसमें उन्होंने बहुत ही घिनौना लिखा। जहाँ बाप बेटी को खा जाता है। बहन भाई को। बेटा माँ को। जैसी सोच, वैसा ही स्क्रिप्ट तैयार। इसमें कुछ और भी हो सकता है। बेटी बाप को, बहन भाई को या माँ बेटे को। और भी कितने ही तरह के किरदार हो सकते हैं।
माँ, बाप, बहन, भाई, बेटा, बेटी, बुआ, चाचा, ताऊ, मामा, फूफी आदि। सब आराम से रहते हैं। एक दूसरे को जरुरत पड़ने पे काम आते हैं और एक दूसरे का भला चाहते हैं। नाटक तो ऐसे भी होते है। और उन्हें लिखने वाले भी। अब ये देखने वाले पे भी है की वो क्या देखता है, क्या सुनता है और क्या समझता है। आप कहेंगे सब सोच पे निर्भर करता है।
ये सोच कहाँ से आती है? आपकी अपनी है ? आपको जहाँ आप पैदा हुए हैं उस माहौल से मिली है? या आप उस माहौल से आगे निकल और भी संसार देख चुके हैं, उस सबके निष्कर्ष के बाद निकली है? या आप अपने पैदाइशी माहौल से बाहर कहीं निकले ही नहीं और जिनके आसपास रहते हैं उस सबकी मिलीजुली देन है?
या इसके आगे भी कुछ है? एक माहौल में आप शालीन, सभ्य व्यवहार करते हैं और आगे बढ़ने की बातें और काम। दूसरे में असभ्य, गाली-गलौच, मारपिट। एक माहौल में आप आपस में मिल बैठकर एक दूसरे को सुनते है, समझते हैं। साथ खाते-पीते हैं। दूसरे में, दूसरों के या शायद अपनों की चर्चा किसी और से करते हैं और सुनते हैं। मतलब एक माहौल में लोग मिलजुल कर रहते हैं। दूसरे में, शायद एक दूसरे के ही खिलाफ जहर उगलते हैं।
आईये, फिर से नाटकों पे आते हैं। और उनके रचे सामान्तर संसार और उन ज़िंदगियों पर। एक जगह आप घिनौना लिखने वालोँ के किरदारों के पास रहते हैं। लिखने वालों के नहीं, बल्की नाटक के रचने वाले किरदारों के पास। वो जानते ही नहीं लिखने वाले कौन हैं? ये भी नहीं जानते, वो दूर हैं या पास हैं। क्या करते हैं और क्या चाहते हैं। मानो, लिखने वाले इस पार्टी या उस पार्टी के हैं। तो क्या चाहिए उन्हें? सत्ता। कैसे भी। मगर समाज में ऐसे सामांतर केस घड़ने से क्या होगा? जैसा समाज वो चाहते हैं, वो? या शायद उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता की समाज कैसा हो। बस, जैसे-तैसे उनकी सीट और उनके नंबर आने चाहिएं।
सामान्तर केस घड़ने से वो लोगों को अपने अनुसार उलझाते हैं और उसका फायदा उन्हें मिलता है।
कैसे हो सकता है ये? थोड़ी जटिल प्रकिर्या है मगर एक बार आपको वो नजर आने लगेगी तो समझने में देर नहीं लगेगी। आपको किसी ने बोला ये सोडा की बोतल ले, और अपने फलां-फ़लां दोस्तों के साथ जाके, ये ये नौटंकी करके आ। आपको लगता है, क्या बड़ी बात है? और आप कर आए। एक बार कर दी और सही नहीं लगा या परिणाम सही नहीं रहे तो आप दुबारा नहीं करेंगे। मगर आपको कोई फर्क नहीं पड़ रहा की आपकी वो हरकत सामने वाले पे क्या असर कर रही है तो आप शायद बारबार करेंगे। रैगिंग पता है क्या होती है? जब ऐसा करने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता तो उनके हौसले बढ़ते जाते हैं और परिणाम? कुछ आत्महत्याओं के बाद हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को ऑर्डर निकालने पड़ते हैं, इस सबकी रोकथाम के लिए। भारत में भी ऐसा हुआ है क्या ? कब हुआ था?
कहीं ऐसा तो नहीं की एक तरफ कुछ लड़कियों की या जूनियर्स की कहीं छोटे-मोटे किस्म की कोई testing शुरू हो गयी। और दूसरी तरफ रैगिंग को बढ़ावे? सामान्तर घड़ाई?
मतलब एक तरफ कोई एक शर्त लगाने वाली पार्टी हार गयी और दूसरी तरफ परिणाम? Hyped and Twisted! मतलब जोड़-तोड़-मरोड़ कुछ ज़िंदगियाँ तक ले गयी।
लिखा या शर्त कहीं? शर्त हारने वाले कोई और। मगर सामान्तर घड़ाई में तो सिर्फ छोटी-मोटी, हार-जीत नहीं थी। बल्की ज़िंदगियाँ ही चली गयी। क्या कोरोना को हम ऐसे ही देख सकते हैं ? या यूँ कहें इस समाज का सच यही है? तो कैसे समाज का हिस्सा हैं हम, ये सब जानने के बावजूद? देखने-समझने के बावजूद? क्यों नहीं रोक सकते इन सामान्तर घड़ाईयोँ को? हर सामान्तर घड़ाई में बहुत-से छेद हैं। बहुत कुछ अटपटा है। वैसे ही जैसे Campus Crime Series में।
जैसे के लिए कुछ उदाहरण लेने पड़ेंगे। कोशिश रहेगी, नाम, जगह की बजाय, आम आदमी को सम्बोधन हो।
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