Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Thursday, June 15, 2023

संस्कृति

कभी-कभी कुछ बातों पे यही नहीं समझ आता की दुख प्रकट किया जाए या गुस्सा ? हंसी या गम? 

जब युनिवर्सिटी छोड़, गावँ की तरफ रूख किया तो कई जगह से सलाह आ रही थी, की सोच-समझ के निर्णय लेना। संघर्ष तो हर जगह होगा। मगर किस तरह का और कितना तुम झेल सकते होऔर कितना उस माहौल में तुम्हे समर्थन करने वाले होंगे, इस पर जरूर गौर कर लेना। बहुत से और भी हैं जो वो संघर्ष चुपचाप झेल रहे हैं। तुम कम से कम वो भड़ास तो निकाल पा रहे हो, चाहे आम-आदमी को जागरूक करने के मकसद के माधयम से ही। बहुतों के पास शायद न इतनी हिम्मत है और न ही ऐसा कोई साधन, शायद। 

एक माहौल में अगर जुर्म होता है तो उसके खिलाफ बोलने वाले होते हैं। और जिसके साथ जुर्म होता है, उसके समर्थन में खड़े होने वाले भी होंगे। दूसरी जगह शायद उल्टा ही हो। समझ भी आ रहा था की ये किस तरह की सोच की तरफ इशारा था। मगर मैंने कौन-सा ज़िन्दगी भर ऐसे माहौल में रहने का निर्णय लिया था। शायद उस वक़्त कोई और रस्ता भी नहीं था। या शायद मैंने किसी और तरफ देखा ही नहीं, रस्ते तो बहुत थे। और शायद बेहतर भी? या शायद, जो लिखाई-पढ़ाई मैं कर रही थी, उस हिसाब से ये जगह जानी-पहचानी और आसान थी।   

हर संस्कृति के अच्छे और बुरे पहलु होते हैं, वैसे ही, जैसे हर इंसान के। कोई भी संस्कृति जड़ नहीं है। वो समय और सहुलियतों के हिसाब से बनती-बदलती रहती है। और होना भी चाहिए। जो कुछ समय के अनुसार नहीं बदलता, वो या तो खड़े पानी की तरह, सड़ांध मारने लगता है या ख़त्म हो जाता है। जैसे इंसान रोज ना नहाये-धोये, घर-आसपास को साफ़ ना रखे, तो वो किसी कुरड़ जैसा हो जाएगा। जहाँ सड़ांध ही सड़ांध होती है। जैसे नदिया-झरनो का पानी लगातार बहता रहता है, तो साफ़ होता है। जोहड़, झीलों, मटकों का पानी, अगर वक़्त-वक़्त पर साफ़ करके, फिर से ना भरा जाए, तो सड़ने लगता है। संस्कृति भी वैसे ही है। संस्कृति इंसानो से है, इंसान संस्कृति से नहीं। जैसे-जैसे इंसान की समझ, जरूरते और रहन-सहन के तरीके वक़्त के साथ-साथ बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे ही वो संस्कृति में घुलते-मिलते जाते हैं। 

मुझे याद है, जब 2005 में मेरे छोटे भाई और कुछ और बच्चों ने आसपास लव-मैरिज की थी तो हंगामे और आसपास टिपण्णियाँ किस तरह की थी। बड़े भाई (cousin) ने तो दोनों को स्कूल से ही निकाल दिया था, वो भी अच्छा-खासा धमकाकर। उस वक़्त, भाई-भाभी दोनों उस स्कूल में काम करते थे। साथ वालों को तो जो सुनने को मिला था, सो अलग। उनकी बेइज्जती हो गयी थी शायद? या शिक्षा नामक स्कूली-धंधे पर किसी तरह का असर पड़ने के प्रभावों की वजह से? मतलब स्कूली-धंधे की वजह से कोई cousin अपने ही भाई को बस्ते और आगे बढ़ते नहीं देख सकता था? कैसे रिश्ते थे ये, जो उसके बाद वैसे कभी नहीं हुए। मगर शायद उधर का भी एक पक्ष हो। जिस तरह से इधर-उधर से पैसे इक्क्ठे कर और अपने जेवर तक देकर, बड़ी भाभी ने उस स्कूल की नीँव रखवाई थी। हालाँकि, वक़्त के साथ-साथ, उस स्कूल के भी हिस्से और हिसाब-किताब, घरों जैसे से हो चले थे। वही स्कूल और उसके आसपास घुमती राजनीति, उस लड़की को ही खा गयी, जो अपरिपक्कव किशोरी, इस घर में एक बहु बनकर आयी थी। मगर आज वो इतनी बड़ी हो गयी थी की उस स्कूल के साथ वाली जमीन पे अपना खुद का स्कूल खोलने चली थी? अब भाइयों की जमीनें भी तो आसपास ही होती हैं। अक्सर डौले से डौले मिलते हैं। जैसे घर की छतों से छत। कई केसों में तो घरों के आधे-आधे हिस्से ऐसे होते हैं, जैसे एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब। कुछ-कुछ ऐसे, जैसे राजनीतिक-रंगमंच, संस्कृति, प्यार-जुर्म, लठ-गोली, रार-तकरार के बीच, डर और डरावे भी। शोध-प्रतिशोध, अहम्-अहंकार और उसपे भाईचारा भी। कुछ-कुछ, रामायण और महाभारत जैसा-सा? संस्कृति और संगीत जैसे, अपने आप में कितना कुछ गाता-सा? 


आज गांवों में भी उस तरह की टिक्का-टिपण्णियों का उतना असर नहीं रह गया है। जब मेरा या मेरी तरह कुछ और लड़कियों का पहनावा जींस-शर्ट हुआ तो वो कुछ एक अपवाद थे। आज ज्यादातर घरों में वो कोई वाद-विवाद या तकरार का विषय ही नहीं है। पहले गाँवों में शॉर्ट्स नाम का कोई पहनावा नहीं होता था। कोई डाले दिख भी जाता तो कच्छाधारी बोलकर जलील किया था। आजकल शायद उतना टिक्का-टिपण्णी नहीं रह गयी है। हाँ, औरतों के लिए कुछ-कुछ ऐसे घरों में, अभी तक भी घुंघट तक नहीं गया है। ये अपने भाई-भतीजा लोगों के लिए सोचने का विषय होना चाहिए, या नहीं पता नहीं ? सुना है so-called हिन्दुओं में पर्दा-प्रथा नहीं थी। मुस्लिम आये तो हिन्दू औरतों को उठाने लगे। हिन्दू मर्दों से अपनी बहन-बेटियों की रक्षा ना हो पायी तो उन्हें घुन्घट पकड़ा दिए। क्यों भाई-भतीजा लोगो, आज भी ऐसा ही है क्या?

पहले के हिन्दु घरों में जनाना-मर्दाना, अलग-अलग होते थे। कोई जनाना की तरफ जाता भी, तो खाँस के, या किसी का नाम बोलकर, ये बताने के लिए की वो उधर आ रहें हैं। अब बैडरूम-बाथरूमों तक विशेष तरह के कैमरे (camera)  फिट कर, औरतों के विरोध के बावजूद एक्सपेरिमेंट हो रहें हैं? ये कौन-सी संस्कृति है? ऐसा करने वालों के चरित्र कहाँ हैं? ये तो ऐसे नहीं लग रहा की संस्कृति को कुछ राजनीतिक गुंडों ने, अपनी सहुलियत के हिसाब से, अपने कांडों पे परदे डालने के लिए, खुद को बचाने का हथियार बना लिया है? आपको क्या लगता है?   

 चरित्र प्रमाण-पत्र 

इस माहौल में प्यार के किसी भी तरह के इजहार के लिए, आपको न सिर्फ खास तरह की और खास लोगों से अनुमति चाहिए, बल्की चरित्र प्रमाण पत्र भी चाहिए, शायद। लगता है, हरियाणा या हरियाणा जैसे किसी सरकारी स्कूल में प्रवेश कर चुके हैं आप या शायद छोड़ के कहीं और जा रहे हैं? मगर लठैत लोगों को न किसी की कहीं से अनुमति चाहिए और न ही किसी तरह का चरित्र प्रमाण पत्र? वो तो मर्दानगी की निशानी है शायद? उस सबकी वजह से न घर-मौहल्ले का वातावरण खराब होता? न वो सब बिमारियों की वजह होता? न बच्चों पे कोई बुरा असर पड़ता? और शांति या भाईचारा तो कहीं का भंग नहीं होता? आखिर हमारी संस्कृति का हिस्सा है ना ये सब तो?       

पहले हुक्का बैठक तक ही होता था। अब तो वो कहीं भी जा सकता है। बैठकों के बाहर, चबूतरों की शोभा या so-called जनाना तक में। बच्चों या औरतों तक वो धुएँ के गुब्बारे जा रहे हों, ये परवाह तक ना किए बैगर। सुना है, पहले हिन्दुओं में स्वयंवर प्रथा थी? सुना है, देखा थोड़े ही है। आजकल उसकी जगह थोंपो-प्रथा ने अपनी जगह बना ली है क्या? ये एक, दो, तीन, चार जैसा एक्सपेरिमेंटेशन तो ऐसी ही किसी प्रथा का हिस्सा हो सकता है। सुना है, पहले विवाह होते थे, लड़कियों से पुछकर। अब कोई गंधर्व-विवाह के नाम पे टुच्चागिरि-एक्सपेरिमेंटेशन और विडियो मार्केटिंग (Women Trading) ने ले ली है क्या? क्या ऐसी औरतों के कोई अधिकार हैं आपकी इस महान संस्कृति में ? सुप्रीम कोर्ट बता सके शायद? या वो भी कुत्ते-बिल्ली के खेलों में वयस्त है? इंसानों की फ़िक्र करने या उन्हें न्याय देने कोई और आएगा शायद।     

संस्कृति के नाम पे बहुत कुछ घिनौना और विकृत है। खासकर, जब किसी संस्कृति के नाम पे राजनीती होने लगे, तब। राजनीतिक-रंगमंच (Political Theatres) के बड़े-बड़े इंस्टिट्यूट हैं, दुनियाभर की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज में। भारत में वो अभी पिछले दशक या कुछ सालों में ही शुरू हुआ है, शायद?  क्या संस्कृति को हम राजनीतिक रंगमंच से देख सकते हैं? या राजनितिक-रंगमंच और संस्कृति अलग-अलग विषय हैं? दोनों को एक करना मतलब, गुड़ का गोबर करना। 

क्या हो अगर राजनितिक-रंगमंच, आम-आदमी की ज़िंदगी का अहम् हिस्सा हो जाएँ?  जानते हैं, अगली किन्ही पोस्ट्स में। 

No comments:

Post a Comment