आपकी हमारी जिंदगी का हर-पल, हर उतार-चढाव राजनीति और इस वयवस्था के इर्द गिर्द घुमता है और ज्यादातर हमारी जानकारी के बैगर।
जिंदगी के बहुत से अहम् फैसले ऐसा लगता है की हम खुद करते हैं। मगर ज्यादातर को जिस दिन समझ आने लगा की हकीकत इसके विपरित है तो हैरानी किसे नहीं होगी? खासकर, आम-आदमी के केस में। गाँव में आने के बाद, ये सब जैसे मैं हर रोज होते देख रही हूँ। अनुभव कर रही हूँ। इधर, उधर, उधर, जिधर देखो हर उस तरफ। कैसे संभव है ये? और मैंने इन लोगों को मानव-रोबोट्स का नाम देना शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था, जैसे इंसान जैसा कोई दिमाग है ही नहीं, इन लोगों के पास। जैसे कोई कंप्यूटर या रोबोट काम करता है, उसमें भरी हुयी प्रोग्रामिंग के अनुसार, कुछ-कुछ, वैसे ही सब यहाँ होता नजर आ रहा था।
मेरे लिए भी अजीब नहीं बल्की बहुत अजीब था ये सब देखना, अनुभव करना, जानना। धीरे-धीरे जब जानकार लोगों ने गुप्त-गुफाओं की तरफ इशारे करने शुरू किये तो जैसे अचानक से काफी कुछ समझ आने लगा। जैसे कंप्यूटर की सैटिंग कर दें की उसे कितनी देर बार अपने आप स्क्रीन ऑफ कर देना है या कब कितने मिन्ट्स के बाद फिर से जाग जाना है। कौन सी फोटो स्क्रीन के बैकग्राउंड पे रहेगी और कौन सी login करने के बाद दिखेगी। कब अपने-आप update हो जाना है और कब तक और कैसे हम उसे रोक सकते हैं? और भी कितना कुछ ऑटो पे रख सकते हैं या पहले से ही होता है। क्या-क्या और कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे बदल सकते हैं? खराब होने पे कैसे- कैसे ठीक कर सकते हैं? जैसे कंप्यूटर जैसी मशीन बताती हैं की क्या-क्या automation पे है और कैसे? क्या-क्या semiautomation पे है और कैसे? और क्या-क्या Enforce या Force किया जा सकता है?
Alcoholic or Drug Addicts Robots
नशा-शिकार, मानव-रोबोट्स (सबसे आसान तरीका मानव रोबोट बनाने का)
ऐसा ही कुछ देखा और समझा पीछे कुछ alcoholic या ड्रग्स abuse के आसपास के केसों में। इसमें शायद थोड़ा-बहुत लिखने से काम नहीं चलना। कई किताबें छप सकती हैं, ऐसी-ऐसी सामानांतर केसों की घड़ाई के कारनामों की। उन्होंने कैसे और कहाँ से शुरू किया? कैसे इस रस्ते पे आगे बढे और उसके बाद लोग या कहें ये सिस्टम और राजनीति, कैसे-कैसे use और abuse करती है? कैसे ऐसे लोगों की मदद करने की बजाय, अपनों तक को उनके खिलाफ खड़ा कर देती है?
मानो एक alcoholic है। ज़िंदगी के उस मोड़ पे है, जिसे चाहें जिधर खिसका दें। ऐसी संगति से निकाल लें और कहीं कामधाम पे लगा दें। ये उस खटारा गाड़ी के जैसा है, जो सर्विस और पैसे दोनों माँग रही है। उसके बाद संजय दत्त के जैसे चल सकती है। मगर हर कोई तो संजय दत्त नहीं है। इतना पैसा और इतना जुगाड़ या साधन कहाँ से आएं? आ तो सकते हैं, शायद थोड़े-से प्रयासों की जरुरत है। उसके लिए हमें सरकार की तरफ देखने की जरुरत नहीं है। समाज को अपनी भलाई अगर खुद नहीं करनी आती, तो सरकारें भी तो इसी समाज की देन हैं। वो ऐसी भलाई कैसे करेंगी?
क्या हम संजय दत्त जैसे लोगों, जो ऐसी जिंदगी जी चुके हैं या कहें की उससे निकल बेहतर ज़िन्दगी की तरफ बढ़ चुके हैं, जैसे लोगों को ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा बना सकते हैं? इनमें अगर वो लोग भी जुड़ जाएं जो समाज का और ऐसे लोगों का भला चाहते हैं, तो शायद काफी कुछ हो सकता है। जाने कितने ऐसे पियकड़ जिंदगी जीने से पहले उसे खो देते हैं। घर और आसपास पे मात्र भार बनकर रह जाते हैं, जो खुद समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा हो सकते हैं।
ठेकों को बंद करवाओ भी उसका एक समाधान हो सकता है क्या? आखिर किसी सरकार को शराब, बीड़ी, पान- जैसे जानलेवा उत्पादों से क्या मिलता है? और जो मिलता है, इतना सारा राजस्व वो कहाँ और किसके काम आता है? हकीकत ये है की समाज की ये बिमारियाँ हैं ही सरकारों की और उनके सहयोगियों की देन। और उन्हीं के भले के लिए हैं। आम-आदमी को इन सबसे दूर रहने की जरुरत है।
स्वयसेवी संस्थाएं, जो इस दिशा में काम करती हों?
हर छोटे-बड़े अस्पताल का एक हिस्सा deaddiction-सेंटर क्यों न हो? आखिर ये सब हैं तो बीमारियां ही? मगर वो खटारा सरकारी अस्पताल जैसा न हो। या प्राइवेट ठगुओं जैसा। हर किसी के पास इत्ता पैसा कहाँ होता है? बल्की यूँ लगता है, ऐसी-ऐसी बीमारियाँ देन और निशानी ही हर तरह की गरीबी की होती हैं। जहाँ दवाइयोँ से ज्यादा काउंसलिंग और ऐसे बीमार-आदमी की इच्छा-सकती को बढ़ावा देना, ज्यादा काम आता है।
आगे किसी और पोस्ट में इसके और पहलुओं के बारे में।
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