मानो आपको कोरोना के शुरू होते ही किसी ने बोला, ये कहना शुरू करदो की मुझे भी कोरोना हो गया है !
आपको पता है की आपको कुछ नहीं हो रखा था। मगर आपको किसी ने बोला और आपने कहना शुरू कर दिया। आपको नहीं मालूम उसका अन्जाम। शायद किसी अपने या आसपास वाले ने आपके भले के लिए ही बोला होगा। ऐसा ही सोचा आपने ? इसके आगे आपको कुछ नहीं मालूम, क्या होना था? होना क्या था?
शायद इस घर या आसपड़ोस में जो कुछ बचा था वो सब खत्म! किसको फर्क पड़ता? इस राजनीतिक पार्टी वालों को? या उस पार्टी वालों को? या कहने मात्र वाले उस देश को, जो कुर्बानी माँग रहा था? वैसे उसके परिणाम आपको बताए किसी दूसरी पार्टी वालों ने भी नहीं। क्यों? इस राजनीति में कौन अपना? राजा को बोलो ना की कुर्बानी दे और बार-बार बोलो। बोल के देखो तो की वो देता है या नहीं। हमेशा ये राजे महाराजे आम आदमी से ही कुर्बानी क्यों माँगते हैं?
अब तक आपका ये घर, पड़ोस, आसपास ऐसी-ऐसी कितनी कुर्बानियाँ दे चुका? गिनती है? चलो न पता हो तो आईना दिखाऊँ:
कितने बच्चे माँ-बाप दोनों के प्यार दुलार में पले हैं या पलेंगे? कितने दादा-दादी या नाना-नानी के? कितने बुआ-फुफा, चाचा-चाची, ताऊ-ताई के? अब ऐसा तो कहीं भी नहीं होता की सब सही हो। ये भी सही है। सब इक्क्ठ्ठे या मिलजुलकर कहाँ रहते हैं? तो फर्क कहाँ पड़ता है? मैंने तो सिर्फ कोई गिनती करने को बोला है। विवाहित या अविवाहित कितने अकेले हैं, या कितने सही सलामत दोनों?
सिर्फ ये सोचने को बोला है, की ये फ़ैलाने को किसने बोला की कोरोना हो गया, कोरोना हो गया? न हुई बात को मान लेना, दिमाग में कुछ भी घुसाने का पहला तरीका होता है। एक बार न माने तो बार-बार बोलो। वो कहते हैं ना की एक झूठ को बार-बार बोलो, तो वो सच लगने लगता है। लगने लगा तो फिर बार-बार बोलो और वो सच हो जाएगा। इसीलिए तो कहते हैं, की जो सोचो वो सोच समझ के सोचो। गलत सोचोगे तो गलत ही होने लग जाएगा।
अगर वो उस वक़्त बंद ना करवाया जाता तो सोचो इन घरों या आसपड़ोस का क्या होता? कौन-कौन आज नहीं होता ? यहाँ भगवान ने बचाया जैसा कुछ नहीं है। अगर भगवान को मानते भी हो, तो उसने तुम्हे दिमाग थोड़ा बहुत इस्तेमाल के लिए तो दिया ही होगा? ये सिर्फ दिमाग को थोड़ा-सा इधर, या थोड़ा-सा उधर चलाने जैसा है।
ये वैसे ही है, जैसे किसी भेझे से पैदल को साथ वाली ड्राइवर सीट पे बैठा लो और वो बैठते ही शुरू हो जाए। इसमें ठोक दे। उसमें ठोक दे। क्या हो अगर ऐसे इंसान को उतारा ना जाए? कहीं ना कहीं तो गाडी ठुकवा ही देगा ना? और लगेगा ऐसे, शायद आपने खुद ही किया हो।
या शायद कुछ-कुछ ऐसे, की साँड़ मारने के लिए आपकी तरफ आ रहा हो और आप हों निहथे। उसपे इधर-उधर से आवाजें आने लगे -- दम है तो लड़ के दिखा। मार दे इसे। कर कल्याण। कल्याण तो होगा, मगर सोचो किसका ? थोड़ा-सा दिमाग वाला भी बचके निकलेगा। मगर भेझे से पैदल ? -- कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे मुझे कोरोना हो गया। मुझे भी। मुझे भी।
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