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Monday, April 22, 2024

चित भी मेरा, पट भी मेरा? पल्टुराम छल-कपट (Maneuvers)? Social Tales of Social Engineering

राजनीतिक पार्टियाँ कितनी पलटी मारती हैं? कितनी भी मार सकती हैं? शायद इतनी की आम आदमी उनका ABC तक ना समझ पाए? चलो छोटे से उदहारण से ही जानने की कोशिश करते हैं।  

आप कौन हैं?  

आपके माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, दादा-दादी, उनके बच्चे और भी कितने ही रिश्ते? जो हैं, वही हैं? या वक़्त के साथ बदल जाते हैं? या फिर क्या वक़्त के साथ बदल जाता है? और क्या ना बदलता और ना ही आप बदल सकते?  

आप कहाँ पढ़े हैं? कहाँ रहते हैं? या रहे हैं?

कहाँ तक पढ़े हैं? 

क्या करते हैं? या पहले कर चुके? 

जो है, वही है? या बदल जाता है?

आपके नाम बदलने से? 

नाम का कोई एक अक्सर या शब्द बदलने से? 

जगह का पता बदलने से? 

घर का नंबर बदलने से? 

या स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी या कोई नौकरी बदलने से? या शायद एक तरह की नौकरी की बजाय, कोई और नौकरी करने से? आपकी पोस्ट या कुर्सी बदलने से? आपके रिश्ते-नाते बदल जाते हैं क्या? जो खून के हैं या स्थाई हैं, वो तो नहीं बदलते शायद? तो क्या बदल जाता है?

परिवेश? आसपास? आसपड़ोस? लोगबाग? जीव-जंतु? पशु-पक्षी? पेड़-पौधे? हवा-पानी? खाना-पीना? बोलचाल, बोलचाल की भाषा? पहनावा? और भी शायद बहुत कुछ?

क्या है जो कहीं भी जाएँ, तो नहीं बदलता? 

राजनीती में स्थाई क्या है? है, कुछ? कौन किसका है? कब तक है? है, तो क्यों है? या नहीं है, तो क्यों नहीं है? राजनीती में नीतियाँ ही स्थाई नहीं होती। वो कैसे और क्यों बदलती हैं? और किसके लिए बदलती हैं? ये तक अकसर राज रहता है। क्यूँकि, जैसा यहाँ दिखता है, वैसा होता नहीं। और जो होता है, वो अकसर दिखता नहीं।      

चलो अगली पोस्ट में, एक किसी आम इंसान की ज़िंदगी से समझने की कोशिश करते हैं।     

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