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Monday, April 29, 2024

कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, जैसी-सी कहानियाँ

अभी पिछले साल (?) दो भाई-बहन दुबई की सैर पे गए। हाँ, तो क्या खास है? दुनियाँ जाती है। बहन की फिर शादी हो गई, इंटरकास्ट और भाई ने ज़मीन हड़प ली, किसी अपने की ही। होता रहता है, इसमें भी क्या खास है? किसी पियक्कड़ की ज़मीन, कोई भी हड़प ले? फिर ये तो शायद किसी अपने ने ही ली है, protection के लिए। बिचौलिया अहम है।   

सोचो इन सबका दुबई-बाढ़ से क्या लेना-देना?    

रैली पीटें थोड़ी? भाई-बहन की? बिचौलिए की? ऐसी शादी की? और ऐसे protection की? ये रैली कौन और किसकी पीट रहा है? या पीट रहे हैं? कहाँ-कहाँ और किन-किन लोगों की? कौन-कौन पार्टियाँ या उनके कर्ता-धर्ता? इस सबका किसी को दुनियाँ से ही खिसकाने से भी कोई लेना-देना हो सकता है? खिसकाने वाले कौन और नाम किसका लगाने की कोशिश हुई? अजीबोगरीब जाले हैं, ना? वहाँ फिर क्या लाकर रख दिया? किसने और कैसे? ये कौन अपने हैं, जिन्होंने ये सब रचा? आम आदमी? उसकी समझ से बाहर है, ये कहानी। या ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी, कहानियाँ। ये वो बता सकते हैं, जो आदमी को रोबॉट बनाते हैं। वो फैक्टरियाँ, जो दुनियाँ भर में ये सब करती हैं। अहम? कैसे? और आम आदमी को ये सब कैसे समझ आएगा? उसके लिए उसे कैंपस क्राइम सीरीज़ को समझना होगा।        

अच्छा ये ED-ED क्या है? ये ED-ED? कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे EC-EC?      

ED के आगे B लगे तो क्या बनता है? B. ed? या B. ED? या Bed? या खाटू? खाटू के कितने रंग हैं? झंडे के? इतने क्यों? ये हिन्दू है? मुस्लिम है? क्रिस्टियन? या सिख?

B. ED कितने में होती है?

जो B.ED करवाते हैं, वो खुद कितने पढ़े-लिखे हैं? 75000, एक साल के, एक B.ED करने वाला देता है? एक साल में, एक ही कॉलेज से कितने B.ED करते हैं? ये so-called कॉलेज वाले, एक साल में सिर्फ B.ED से ही कितना कमाते हैं? वो भी शायद, घर बैठे? टीचर्स क्या करते हैं? और उसके बावजूद कितना कमाते हैं? उनकी कमाई घर बैठे-बैठे ही कौन-कौन खा जाता है? क्यों? वो इतने नालायक क्यों हैं? कैसी डिग्री के लिए इतने पैसे देते हैं? ये शायद वो प्रश्न हैं, जो मुझे रितु (भाभी) ने या उस वक़्त मेरे कुछ अपनों के यहाँ विजिट्स ने समझाए। बहुत कुछ उसके काफी बाद में समझ आया। शायद ये भी, की रितु को और उसके घर को कौन खा गए? और नाम फिर किसका लगाने की कोशिशें हुई? 


ये भी की आज तक यूनिवर्सिटी, मेरा पैसा क्यों रोके हुए है?

ये भी की भाभी के जाते ही, ये किस खास अपने बिचौलिए ने, so-called अपनों को ही, दूसरे भाई की ज़मीन थमा दी? 

बहुत से so-called अपनों के शब्द भूलते नहीं हैं। जम गए हैं, जैसे कहीं। जैसे, "देख दम, मेरी आपणे घर मैं भी चालय, अर थारे भी। थाम भी चला लो न (माँ-बेटी)।" भाभी के जाने के बाद, जब बुआ-दादी को भी किनारे करने की कोशिशें हो रही थी। और गुड़िया को कहीं और पार्शल करने की। कहना तो चाह रही थी, की चाल्या तो तब करेय ना, जब कोई चलाना चाहे। पर ना वक़्त था इतना बोलने का और ना अकसर मन होता, ऐसे गँवारों से तू-तू, मैं-मैं करने का। यहाँ तो यही नहीं समझ आता, की लोग दूसरों के यहाँ अपनी चलाना क्यों चाहते हैं? अपनी ज़िंदगी अपने अनुसार चल जाय, वो बहुत नहीं होता? ज्यादातर, अपना शरीर ही नहीं चलता, अपने अनुसार तो। पता नहीं कब, कहाँ और क्या हो जाता है? और ठेकेदारी औरों के घर, अपने अनुसार चलाने की चाहतें? पता चल गया होगा अब तक तो, ऐसे लोगों को भी थोड़ा-बहुत शायद? ये वो दुनियाँ है, जहाँ बीमारियाँ और ऑपरेशन तक, राजनीती के कोढों के अनुसार होते हैं। इधर वालों को कोई पार्टी धकेल रही होती है और उधर वालों को कोई और। काटते रहो, एक दूसरे को ही।  

बहुत ज़बरदस्त खिचड़ी पकी होती है, ऐसे सामान्तर घड़ाईयोँ में। और भी अहम। ये घढ़ाईयाँ घड़ती राजनीतिक पार्टियाँ हैं। और आम-आदमी, एक-दूसरे को ही कौस रहा होता है। कैसे?

जैसे एक भाभी ने बताया की उसने B.ED करने के 60000 एक साल के दिए थे। तो दूसरी ने बताया, 75000 लेते हैं। नहीं। ये उन्होंने नहीं बताया। मैं जहाँ कहीं जाती, अकसर वहाँ उन लोगों के पास कहीं से भी फ़ोन आ जाते थे, उन्होंने बताया? उसपे कमेंट्री फिर कहीं, किसी आर्टिकल में, या सोशल मीडिया पे मिलती, की यहाँ घड़ाई क्या चल रही है। बहुत-सी पार्टियों की इधर या उधर पहुँच या घुसपैठ, कुछ हद तक ऐसे समझ आई।  

ऐसे ही जैसे, जब कुछ अपनों ने बोला, तुम अपना हिस्सा क्यों नहीं ले लेते। इस सोशल मीडिया या आर्टिकल्स ने ही बताया, की ये सब क्या था। Indirect ways to inform about indirect tunnels of different parties . अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग तरह के उकसावे, तरीके फूट डालो, राज़ करो के? 

आप जहाँ कहीं जाते हैं या देखते हैं या समझने की कोशिश करते हैं, यूँ लगता है, ये तो इन्हीं के खिलाफ रखा हुआ है। और ये, ये सब ऐसे कर रहे हैं, जैसे किसी और के खिलाफ। ऐसे ही शायद, जैसे कोई आपको चिढ़ाने या तंग करने की कोशिश में, खुद की ही रैली पीटने लगें?   

कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा? जैसी-सी कहानियाँ हैं ये। इधर भी और उधर भी।          

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