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Thursday, August 3, 2023

हेराफेरी संसाधनों की

क्या कोई आपको मानव, जीवों और निर्जीवों के संसाधनों के दुरूपयोग की तरफ धकेल सकता है? वो भी ऐसे, की आपको खबर भी न हो और वो अपना काम कर जाय या कर रहे हों?

आपके चारों तरफ राजनीतिक पार्टियां हैं। आप उनसे लगातार घिरे हैं। इनमें कुछ थोड़ा शातिर भुमिका में हैं, और बहुत ही आसपास हैं। भला किसी को नुक्सान कर किसी का क्या फायदा हो सकता है? शुरू में तो मुझे भी समझ नहीं आया। फिर समझ आया, लोगों के अपने छोटे-मोटे लालच। लालच भी अजीबोगरीब। भला अपने बच्चों के घरों को बसाने के लिए लोगबाग क्या-क्या तो नहीं करते? बस ज्यादा कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ लालच और वो भी बिना सोचे-समझे। मतलब, भेझे से पैदल होकर।  किसी की लड़की ससुराल से आकर घर बैठी हो या कहना चाहिए, इधर-उधर की लड़कियां घर बैठी हों। कोई आसपास और कोई थोड़ा दूर। और कोई कहदे, ये पड़ोस में जो सिंगल है ना, जब तक इसकी ऐसी-तैसी नहीं होगी, तब तक तुम्हारी लड़की का कुछ न होना। शायद किसी एक पार्टी की आभाषी कहानी ने ऐसा ही घड़ा हुआ है, अपनी कहानी में। अब वो सिंगल, अपने आपको ऐसे गुंडों से बचाती घुमे। और उन गुंडों ने पीछे लगा दिए, तुम्हारा भला तब होगा, जब ऐसा होगा वाले -- भुतिया दिमाग। जब तक वो कोई अच्छी खासी डांट-डपट न खा लें यहाँ-वहाँ से, और बढ़िया वाली झंड न करा लें, तक तक तो मानने से रहे। 

फिर होंगे कुछ छोटे-मोटे हादसे, इधर या उधर। उनका सच हकीकत के इंसान जाने। मगर इधर-उधर की सुनकर जो समझ आया वो ये की राजनीतिक पार्टियां और मीडिया को बखुबी आता है, राई का पहाड़ बनाना और पहाड़ की राई। बचो इनसे बचा जा सके तो। ऐसे में दुश्मन ये पार्टी भी हो सकती है और वो भी। और किसी को बेवजह भी कोई खुंदक या लालच हो सकता है।  किसी से या कहें किन्ही से कुछ चीजें कोई बेवजह के डर पैदा कर भी करवाई जा सकती हैं। आभाषी डर, जरूरी नहीं हकीकत भी हों। विक्की कौशल का कुछ होगा तो तुम्हारा कुछ होगा। अब फिल्मी दुनिया वाले विक्की कौशल का तो शायद हो गया।  मगर ये हकीकत की दुनियाँ वाले विक्की कौशल, फ्लॉप हो गए क्या? या शायद जैसा चाहा, वैसा न हुआ? अब हकीकत की दुनियाँ और आभाषी दुनियाँ में फर्क तो है ना?

इन सबमें संसांधनों की हेराफेरी अहम है। वो फिर इंसान हों या भौतिक चीजें। वक़्त के साथ जो समझ आया वो था या है, पैसा। मैंने पैसे को कभी कोई खास तव्वजो न दी। हाथ के मैल से ज्यादा शायद कुछ समझा ही नहीं। आज भी कोई खास अहमियत नहीं है। मगर भाभी की मौत के बाद गुड़िया के केस ने जो समझाया, वो शायद किसी को भी झकझोर दे। लोगों का वो सब करने के पीछे मकसद चाहे जो भी रहा हो। इधर-उधर हर तरफ से जैसे एक ही आवाज़ आ रही हो। तेरे पास पैसा कहाँ है, पैसा तो खत्म। तेरे तो ऐसे दिन आएंगे, वैसे दिन आएंगे और पता नहीं क्या-क्या। खैर। जिसके पास जो था या है वो उसे पता है। बाकी रो लें, कुछ वक़्त और। ये पैसा-पैसा करने वाले वो लोग हैं, जिन्हें पढ़ाई की किम्मत नहीं मालुम। अब यहाँ रहोगे तो ये, ये काम नहीं करने देंगे और वहां वो। बाहर तुम्हे निकलने नहीं दिया जाएगा। जैसे कोई मोदी जैसा तानाशाह गा रहा हो कुछ या फेंक रहा हो किसी फेंकु की तरह? लपेट लो, क्या जाता है? 

जब ये सब पैसा कहाँ है चल रहा था तो समझ आया (हालांकि थोड़ा बाद), की किसी थोड़ा-सा हड़बड़ी या जल्दबाज़ी में काम करने वाले को फँसाया जा रहा था। इसे बोलते हैं शायद लोगों को असुरक्षा (insecure) के डर से भरना। और अपना कुत्ता बनाने की कोशिश करना। थोड़ा धैर्य रखो तो बुरा वक्त कट जाता है, थोड़ी शांति से। विचलित हो जाओ तो वो ले आता है और नई समस्याएँ। थोड़ा-सा नजरिए का फर्क है शायद। जैसे कोई भागा और अभागा या नरभागा को अलग-अलग अर्थ दे दे, वैसे ही जैसे -- Impossible is nothing but possible। तो ऐसे ही, भागा, भाग मिल्खा भाग भी तो हो सकता है। और नर भागा? कोई नर, भाग वाला या कोई नर, भागा जैसे। इतने से हेरफेर से ही स्थितियां भी बदल जाती हैं शायद। 

एक तरफ बड़े कहलाने वाले लोग ये सुनकर कहीं से, की पैसा तो खत्म, लताड़ रहे थे ऐसे, जैसे ज़िंदगी खत्म। दूसरी तरफ, एक छोटा-सा बच्चा शायद प्रेरित कर रहा था।  पता नहीं कहाँ से, क्या सुनके आई थी वो। 

अच्छा बुआ एक बात बताओ 

बोलो 

आप US गए थे?

हाँ ! बहुत पहले, धाई के हाथ लगाने जैसे। 

थोड़ा रुआंसा होकर, फिर आप मम्मी को भी ले जाते, तो शायद वो आज ज़िंदा होते।  

बुआ ही नहीं रुके तो मम्मी को कैसे ले जाते? 

तो मुझे ले जाते, फिर तो आप रूक जाते। (उसे मालुम ही नहीं की वो तब पैदा ही नहीं हुई थी) 

हाँ ये भी सही है। अब चलेंगे कहीं किसी US 

सच्ची ?

सोच तो रही हूँ। 

पर आपके पास पैसे कहाँ हैं?

आपके लायक तो हैं। लोगों के लायक नहीं हैं शायद। 

मन में सोचते हुए: जिनके लायक हैं वो चल पड़ेंगे। जिनके लायक नहीं हैं वो सड़ लेंगे यहीं, इस राजनीती के या उस राजनीती के तानेबानों में।   

रोज-रोज लोगों के खामखां के खेलों या कहो ड्रामों से दूर रखने के लिए बुआ-भतीजी ने कोई नई भाषा सीखनी शुरू कर दी। और शाम को एक स्पेशल टीचर-स्टूडेंट प्रोग्राम भी, अंग्रेजी की शब्दावली बढ़ाने के लिए।  

भला इस घर के दुश्मनों को इतना कहाँ सहन होना था की ये तो फिर से चल निकलेंगे। और लो खड़ी करदी फिरसे यहाँ-वहां, छोटी-मोटी दिवारें। तुम हटाते रहो वो दीवारें, वो बुनते रहेंगे। ऐसे माहौल में भला और क्या मिलेगा? वो तुम्हारा पैसा रोककर, या इधर-उधर की आवाजाही रोककर, बच्चे को किसी और स्कूल में करवाकर, कमाने वाले को खत्म कर, बचे हुए को अपने यहाँ कुत्ता बनाएंगे। बड़े लोग, इतने छोटे होते हैं, दिमाग से? हकीकत यही होती है, अक्सर ऐसे-ऐसे बड़े लोगों की। खासकर तानाशाहों की। ऐसे लोग क्यों चाहेंगे भला, की कोई उनके जालों से बाहर निकले। वो भी सालों-साल, इतनी मेहनत और छुपम-छुपाई से बनाए हुए जाले।    

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