अलग-अलग समस्या का मतलब है की समाधान भी अलग-अलग ही होगा। मगर सामान्तर केसों का मतलब है, अलग-अलग तरह के केसों को एक जैसा दिखाना। जितना ज्यादा एक जैसा-सा दिखाया जा सके, उतना बढ़िया। तो समाधान भी, वो एक जैसा सा ही दिखाने (करने?) की कोशिश करते हैं। इसीलिए हकीकत के तथ्यों की छुपम-छुपायी चलती है। राजनीती के लिए तो ये सही है। मगर आमजन के लिए? आमजन के लिए ये मकड़ी का वो जाला है, जिसमें आमजन को फँसा दिया गया है। जिससे, उसे बाहर निकलने की जरूरत है।
आईये कुछ आमजन की समस्यायों और उन पर राजनीतिक तड़कों की मार देखें
मान लो घर के किन्हीं दो बन्दों में कोई कहासुनी हो गई। ज्यादातर घरों में होती है। तकरीबन सब रिश्तों में होती है। बस, फर्क थोड़ा-सा समझ का होता है। कहीं ये सब सिर्फ विचारों के ना मिलने से उपजे मामुली वाद-विवाद होते हैं। तो कहीं अपने विचार सामने वाले पे थोपने की कोशिश। जितना ज्यादा अपपरिपक़्व व्यक्ति या तानाशाह शक्शियत होगी, ये थोंपने वाला तरीका बढ़ता जाएगा। क्युँकि, ऐसे लोगों में मिल-बैठकर, सुनने-समझने की क्षमता नहीं होती। सिर्फ मैं और मैं होता है। तो सीधी-सी बात, विवाद भी ज्यादा होते हैं। मगर जहाँ विचारों में विभिन्नता के बावजूद, एक-दूसरे को सुनने-समझने की क्षमता होती है, वहाँ ज्यादा देर कहासुनी या झगड़े नहीं टिकते। जैसा की अक्सर बहन-भाईयों, माँ-बेटी, माँ-बेटा, बाप-बेटी या अन्य रिश्तों में होता है। क्या हो, अगर घर में किन्हीं दो बन्दों की कोई कहासुनी हो गई या झगड़ा हो गया? शाम तक या शायद अगले दिन तक वो फिरसे बोलते और मिलजुलकर काम करते मिलेंगे।
मगर, अगर ऐसे रिश्तों में राजनीतिक तड़के लगने लग जाएँ, तो? अरे कल तो तू-तू, मैं-मैं हो रखी थी, आज एक दूसरे के जन्मदिन याद आ रहे हैं ! अरे कल तो झगड़ रहे थे, आज एक भी हो गए? थोड़ा और बढ़ाना हो तो? तू अपना हिस्सा ले ले। लड़कियों के क्या अधिकार नहीं होते? आप किसी का भला करने चले हों और कुछ वक़्त बाद सुनाई दें, कुछ ऐसी जुबाने, "वो तुम्हारी जमीन खा जाएगी।" कौन? उन्हें मालूम है वो किसके बारे में बोल रहे हैं? वो उस घर को नहीं जानते। मगर, किसी एक पार्टी की तरफ के तड़के शुरू हो गए। यही नहीं। ऐसे लोग, ये कहने से भी नहीं चुकते, की जितना उन्हें उस घर के बारे में पता है, उतना तो उस घर वालों को भी नहीं पता। कुछ-कुछ, वैसे ही, जैसे मोदी के आने से पहले दुनियाँ थी ही नहीं। कुछ लोग तो किसी घर में घुसे ही उसके भी बाद हैं। मगर, कोशिशें ऐसी की बस करता-धरता सब वही हैं। अब यहाँ पे सामान्तर राजनीतिक घड़ाई की सच्चाई और हकीकत नहीं मिलती। मतलब, समाधान भी राजनीतिक नहीं हो सकता।
एक पक्ष, फिरसे राजनीतिक तड़का। कोई बहुत अपना और समझदार इंसान कहे, की वो माँ-बेटी तो जमीन बेचकर दिल्ली चली जाएँगी। किसी राजनीतीक पार्टी का ये कोई कोड है। मगर आम आदमी इसे हकीकत मान बैठे? और आप सोचें, ये हो क्या रहा है? राजनीतिक कहानी को हकीकत बनाने की कोशिश। राजनीती के ड्रामे की माँ-बहन और हकीकत की माँ-बहन अलग हैं। हकीकत में, उनमें कुछ नहीं मिलता। और उस बेटी को दिल्ली सच में इतनी पसंद है क्या? माँ तो है ही गाँव का प्राणी। हकीकत ये है की जब राजनीती की गिरी हुई नीचता के तड़के समझ आने लगे, तो मैंने अपनी जमीन खरीदना सही समझा। क्युंकि पुरखों की जमीन इतनी है ही नहीं, की उसे वाद-विवाद का विषय बनाया जाए। वो जिनके नाम है, वहाँ सही है। कम सही, मगर राजनीतिक तड़कों से दूर, अपनी जमीन। और ये भी शायद कम को ही पता है की जबसे ये जुआरी सांग समझ आने लगा है, कुछ पसंदीदा लोग तो नजरों से ही गिर चुके हैं। आगे क्या होना जाना है? शायद कोई इन सबसे दूर रहना चाहता है। ना इधर के जुआरी पसंद, ना उधर के। शायद बहुत पहले लिख चुकी ऐसा कुछ। Life Funda is अकेला चलो रे। To hell with gamblers and predators!
दूसरा पक्ष, भालोट ले ले। माउंट आबू ले ले। या कुछ और बढ़िया गाँव बता देंगे। बिना सामने वाले का पक्ष जाने। या ये जाने बैगर की क्या पसंद है और क्या नहीं है। सबसे बड़ी बात, जरूरत किस काम के लिए है।
किसी को राजनीतिक जमीन चाहिए या शुकुन की जिंदगी? राजनीतिक जमीन मतलब, इधर और उधर के सांडों की लड़ाई के बीच फंसना। भला राजनीती से बाहर जमीन कहाँ है? वही तो। लोगों की जमीन उनकी अपनी क्यों नहीं है? सरकारी जमीन हो या प्राइवेट, उन्होंने या इन्होने कहा, ये हमारी, तो हमारी। जैसे यूनिवर्सिटी के घर! ये नंबर इस पार्टी का और वो नंबर उस पार्टी का। क्यों?
कितने ही पक्ष, वो तिकोना है ना हाईवे और गाँव के बीच, वो ले ले। अरे, वो रेडियो स्टेशन के साथ वाली जमीन कैसी है? वो गाँव से बाहर गड्डे वाली जमीन। अब आपने पूछा है तो लोग तो बताएँगे। इतनी सी तो मदद कर ही सकते हैं। मगर इस जमीन देखने के चक्कर ने और भी काफी कुछ समझाया। वो किसी और पोस्ट में।
ये खुद के साथ हुई कहानी है, जो अभी तक चल ही रही है। इसलिए लिख दी। मगर यहाँ आसपास ऐसा ही कुछ बहुत-सी जिंदगियों में चल रहा है। अब दूसरों की ज़िंदगियों की समस्याएँ तो ऐसे खुलकर नहीं लिखी जा सकती। मैं औरतों के अधिकारों की हमेशा आवाज रही हूँ। जहाँ तक हो सके, उनके साथ रहने की कोशिश होती है। मगर, किसी भी राजनीतिक तड़कों की मददगार नहीं हूँ। और ये सब पार्टियों के लिए है। कोई अपना अगर मिलने आए या बात करे तो अपना रहकर ही करे तो ही सही है। किसी भी राजनीतिक पार्टी का संदेशवाहक, मतलब अपनापन खत्म। क्युंकि आपको मालुम ही नहीं की हकीकत क्या है और राजनीति क्या।
हकीकत: बच्चा माँ के जाते ही घर से बाहर रहने लगा। जैसे अपहरण हो गया हो। किसी अपने बड़े को बोला। असर, बच्चा वापस घर और काफी हद तक नार्मल।
राजनीतिक तड़का: ये तो बात नहीं बनी। और किसी राजनीती ने उस अपने को आपके और शायद आपके घर के ही खिलाफ भड़का दिया। बच्चा, अपहरण के बाद जैसे किसी जेल में।
और भी कैसे-कैसे किस्से हैं यहाँ। जिधर देखो उधर राजनीतिक तड़के। शायद दुनियाँ में हर जगह यही हो रहा है। कोरोना ने तो ऐसा ही कुछ समझाया।
बहुत-सी चीज़ें समझ आई, इस थोड़े से वक्त में। इतने कम वक्त में, किसी बच्चे या बड़े के व्यवहार में इतना फर्क कैसे लाया जा सकता है? व्यवहार को बदलना। यही है मानव रोबोट बनाना। किसका फायदा हो रहा है, इस सबमें? जिनका आप चाहते हैं, उनका हो रहा है क्या? भोले और हकीकत से अनजान लोगों के साथ दिक्कत यही होती है की उन्हें फुसलाना बहुत आसान होता है। दिल में कोई द्वेष न होते हुए मार खाते हैं। और उसके लिए तड़के का काम करता है, आपस में मिल बैठकर बात करने की बजाय, दूसरों से हकीकत जानने की कोशिश करना।
Artificial Intelligence (AI) और ऐसी-ऐसी टेक्नोलॉजी के तड़के, आम आदमी की जिंदगियों में जानोगे तो दिमाग ही घुम जाएगा की हम किस दुनियाँ में रहते हैं। और आम-आदमी उससे कैसे निपट सकता है?
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