जीवों को सिर्फ जीव ही नहीं, निर्जीव भी प्रभावित करते हैं। कहीं-कहीं, तो जीवों से कहीं ज्यादा। जैसे एक आप जेल में हों और एक जेल से बाहर। एक आप एक झुग्गी-झोपड़ी में हों और एक ठीक-ठाक मकान और सोसाइटी में। एक जहाँ धुप-हवा तक ना आती हो और एक जहाँ इनकी कोई कमी ना हो। एक जहाँ पानी-बिजली की भी किल्लत हो और एक जहाँ इनकी भी कमी हो सकती है क्या, जैसी जगह हों। एक जहाँ, घुमने-फिरने को अच्छी खासी जगह हों और एक जहाँ छोटे-छोटे घरों में जैसे दिन-रात बंद हों, कुछ-कुछ जेल की ही तरह। एक जहाँ, अच्छे पढ़ाई-लिखाई और स्वास्थ्य के संसाधन आसपास हों और एक जहाँ ऐसी बुनियादी सुविधाएँ तक भी ना हों।
किसी एक जगह पे एक इंसान के बांटे कितनी शुद्ध हवा, पानी, सुरज की रौशनी, रहने, घुमने-फिरने या आगे बढ़ने को जमीन आती है? ये सब निर्जीव होकर भी जीवनदाता हैं। उसके बाद आता है, कृत्रिम रौशनी (बिजली), स्वास्थ्य और पढ़ाई-लिखाई के संसाधन। इन सबके साथ आता है, साफ-सफाई और कूड़े-कचरे के बंदोबस्त। वो चाहे फिर हवा हो, पानी हो या जमीन। और आने-जाने की सुख-सुविधाएँ -- परिवहन के संसाधन। वो फिर जमीन, पानी या हवा के वाहन हों या इनके गंतव्य के माध्यम। और भी ऐसा ही बहुत कुछ, शायद।
यही सब वजहें, इंसान को झुग्गी-झोपड़ियों से गाँवों, गाँवों से कस्बों, शहरों और मैट्रो, कम विकसित देशों से विकसित देशों की तरफ जाने को प्रेरित करते हैं। मगर इस ऊप्पर जाने वाली सीढ़ी (Upward Scaling) में दोष है। इसमें श्रेणी व्यवस्था (hierarchy) में जितना ज्यादा अंतर है, उन समाजों की समस्याएँ भी उतनी ही ज्यादा गंभीर हैं। जैसे, जितनी कम सुविधाएँ गावों में होंगी, वहाँ से विस्थापन, उतना ही ज्यादा होगा। शहरों में जितनी ज्यादा भीड़ होगी और जितना ज्यादा आगे बढ़ने का लालच, मतलब उतना ही ज्यादा भेड़चाल और चुहादौड़ बढ़ेगी। दोनों तरफ संतुलन खराब।
मतलब, गाँवों और शहरों में उतनी ही ज्यादा बीमारियाँ भी बढ़ेंगी और ज़िंदगी की दूसरी दिक्क्तें भी। तो जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत ज्यादा जरूरी है गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों का ज्यादा विकास हो। बड़े शहरों के जनसँख्या के घनत्व पर लगाम होनी चाहिए। जिससे आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पे बढ़ते प्रभाव पर लगाम लग सके। कोई सीमा होनी चाहिए की कितने एरिया में कितनी से ज्यादा आबादी नहीं रह सकती। वो फिर चाहे गाँव हों, शहर हों या मैट्रो। जहाँ पे जमीन-पानी जैसे संसाधन तक आपके अपने गाँव या शहर के नहीं, वहाँ आपका अपना कैसा अस्तित्व? दूसरों के संसाधनों के दोहन में आपका दुष्प्रभाव उतना ही ज्यादा होगा। आप जितने ज्यादा इस दुस्प्रभाव में शामिल होंगे, उतना ही ज्यादा कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में दुस्प्रभाव, शायद, आपपे या आसपास पे भी बढ़ता जाएगा।
ये तो थी, थोड़ी बड़ी-बड़ी, थोड़े बड़े स्तर की, मगर बहुत ही आम-सी बातें, जीवों पर निर्जीवों के प्रभाव की। ऐसे ही या इससे भी ज्यादा अहमियत रखती हैं, बहुत ही छोटी-छोटी सी बातें, जीवों पर निर्जीवों के प्रभाव की। जानते हैं, उनके बारे में भी, किसी अगली पोस्ट में।
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