Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Saturday, August 19, 2023

राम सिंह (पड़दादा) की हवेली

कोई छोटी-सी हवेली, जिसमें पता ही नहीं, कौन-कौन पैदा हुए। कहाँ-कहाँ से, वहां रहने के लिए आए या रुके। कुछ वक़्त पढ़ाई के लिए। या नौकरी करते हुए, किसी आसपास की पोस्टिंग के दौरान। किसी बुआ, दादा या फूफा, मामा या मामी के घर शायद। जिन्होंने वो हवेली बनाई, वो दशकों पहले, इस घर को ही नहीं, बल्की दुनियाँ को ही अलविदा कह चुके। अपने जीते जी वो इस हवेली को छोड़, पास में ही, अपने छोटे बेटे (मेरे दादा) के बनाए घर में रहने लगे थे। अपने दो बेटों के बटवारे में, पड़दादा ने इसे आधा-आधा कर दिया था। एक तरफ का हिस्सा, बड़े दादा का। तो दूसरी तरफ का हिस्सा, छोटे दादा का। 

पड़दादा के इस हवेली को छोड़ने के बावजूद, ये शायद ही कभी, बहुत ज्यादा वक़्त तक खाली रही हो। धर्मशाला जैसे कोई, या सराय शायद? जाने किस-किस को पनाह देती ही रही है। कभी लोगों के भले वक़्त में, तो कभी बुरे वक़्त में। खाली पड़ी हवेली, कभी उनके छोटे पोते के बहु-बेटे (चाचा-चाची) का हनीमून पीरियड रही, जहाँ वो सिर्फ सोने आते थे। तो फिर यही हवेली, बड़े पोते की विधवा (मेरी माँ) का घर बनी, संयुक्त परिवार से अलग होने के बाद। इसी हवेली ने छोटे पड़पोते की बहु (भाभी, जो अब दुनियाँ में ही नहीं हैं) को शुरू में पनाह दी। जाने किस अजीबोगरीब डर से, जब कोर्ट से प्रेम विवाह कर, वो इस घर की दहलीज पर आई थी। तो यही हवेली, फिर, कोरोना काल के आदमखोर वक़्त में, पड़ पोती की सुरक्षित छत बनी, कुछ वक़्त के ठहराव के लिए। आज ये सब उसी हवेली के उप्पर वाले कमरे से ही लिख रही हूँ। वैसे मेरा खुद का जन्म इसी हवेली का है। बचपन का कुछ हिस्सा, यहीं गुजरा है। कोरोना जैसा डरावना-काल तो फिर भुलने ही कहाँ देगा। 

बड़े दादा के बेटे भी, इस हवेली को काफी पहले छोड़ चुके, जब मैं शायद स्कूल में ही थी। उसके बाद, उनके छोटे पोते, अपने वाले हिस्से में, कुछ सालों पढ़ाई के दौरान ज्यादातर यहीं रहते थे। जब उन्होंने भी यहाँ आना छोड़ दिया था तो एक दिन मैंने इसकी ऊप्पर छत वाली दिवार तोड़ दी, कोई दो दशक से भी पहले शायद। तब से, ये इसका ऊप्पर वाला हिस्सा एक है। मगर नीचे, अभी भी इसे दो हिस्सों में बांटती, इसी के हालातों जैसी, टूटी-फूटी-सी दिवार है। छोटे दादा वाला हिस्सा, खुला रहता है। क्यूंकि पहले माँ यहाँ रहती थी। और अब मैं, जाने और कब तक? तो साथ वाले बड़े दादा के टूटे-फूटे (हमसे थोड़ा ज्यादा टुटा-फुटा) वाले हिस्से पे, नाममात्र का, एक बहुत पुराना जंग खाया, उजला-वाला-ताला लटकता है। उसके अंदर भी, ये उजला कोड जैसा-सा ही, फालतु-सा सामान पड़ा है। कड़ियाँ और घर का लकड़ी का सामान। दादा के बनाए घर के, पीछे वाले हिस्से का सामान। एक बार फिरसे कोड वाला सामान? जो चाचा की मौत के कई साल बाद, चाची ने तोड़कर नया बनाया था। और बचा हुआ सामान, इस खंडहर में स्टोर कर दिया था। मगर जब ये सामान यहाँ रखा गया था या जब ये ताला लगा था, तो क्या इन कोडों की जानकारी इन लोगों को थी? नहीं। ये कोड तो अभी पिछले कुछ सालों से गुप्त गुफाओं से बाहर आए हैं। या कहना चाहिए, की निकाले गए हैं। और ऐसा नहीं है की ऐसा सिर्फ यहाँ है। हर जगह, ऐसा-ही है। क्युंकि, सिस्टम ऐसा है। ऐसे ही चलता है। आपको अगर इन्हें एक बार पढ़ना आ गया तो अपने आसपास का भी बहुत कुछ समझ आना शुरू हो जाएगा। 

No comments:

Post a Comment