Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel.
Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics.
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अगर आप ये ब्लॉग लगातार पढ़ रहे हैं तो ये भी पढ़ चुके होंगे?
सामान्तर केसों का अगर आप अध्ययन करेंगे तो समझ आएगा की तथ्यों को रखने में बहुत ज्यादा हेरफेर है। हर पार्टी अपनी-अपनी तरह के तथ्य घड़ने की कोशिश करती है। और उन तथ्यों को पेश करने में वो सामने वाले को किसी भी हद तक चौंधिया सकती है, बेवकूफ बना सकती है। इस तरह की हेराफेरियाँ कैंपस क्राइम केसों में आसानी से देखी-समझी जा सकती हैं। क्युंकि वहाँ सिर्फ लोगों की कही गयी जुबानी बातें नहीं है, बल्की official documents है, जो कहानी खुद-ब-खुद गा रहे हैं। जैसे हस्ताक्षर करने वाले विधार्थी उस दिन उस शहर में ही न हों। या छुट्टी वाले दिन (जिस दिन हरियाणा बंद हो) टीचर ने नहीं पढ़ाया, की लिखित में कम्प्लेन हो। दिवाली पे हॉस्टल बंद हो और लिखित में टीचर की कम्प्लेन हो, क्लास नहीं ली। एक-दो को छोड़, बाकी विधार्थियों के हस्ताक्षर उन एक-दो ने ही कर दिए हों। 54 Days Earned Leave Case
ऑफिस के बाद ताला खोल, लैब से dissertation चुरा लें और अगले ही दिन final viva भी हो जाए। वो भी जब वो टीचर, किसी केस की तारीख पे कोर्ट में बुला लिया हो (Neem केस) और officially छुट्टी पे हो और डिपार्टमेंट कोऑर्डिनेटर खुद छुट्टी पे हो। भारती उजला dissertation केस।
ये सब आप कभी भी साबित कर सकते हैं।
मगर जहाँ सिर्फ कहे सुने गए तथ्योँ के आधार पे कहानियाँ घड़ी जाएँ, वहाँ तो क्या कुछ तो सम्भव नहीं है?
आओ ऐसी ही एक तरो ताजा सामान्तर घड़ाई के केस को देखते हैं
एक पक्ष, की इस सामान्तर घड़ाई का,
राघव चड्डा, MP, AAP के बारे में हाल की Breaking News क्या है?
54 Days Earned Leave Case से कोई लेना-देना हो सकता है क्या?
एक और Breaking News क्या है?
Delhi Ordinance Service Bill, AAP और BJP का इसपे वाद-विवाद क्या है?
दुसरा पक्ष,
गृह मंत्री, अमित शाह का हाल का पार्लियामेंट में भाषण
जब हम कोड की बात करते हैं तो अहम है, तारीख और वक्त। जैसे लोकसभा या राज्यसभा में किस दिन, किस का भाषण है, कितने बजे है, कितनी देर बोलने को वक्त मिला है।
ऐसे ही जैसे किस दिन इलेक्शन होते हैं? कौन-कौन सी सीट पे एक बार या एक दिन या एक फेज में? किसी लोकसभा या राज्यसभा में कितनी सीट हैं? और कितनी पे इलेक्शन होने हैं? कौन-सी पार्टी, कितनी सीट पे लड़ेगी या कौन-सी पार्टी से गठजोड़ करेगी? ये पढ़े लिखों की Numerology है।ये पढ़े लिखों कीNumerology आम-आदमी तक इन पार्टियों द्वारा बनाये हुए गुप्त रस्तों से आम-आदमी की ज़िंदगी में पहुँचती है। इस Numerology के नंबर हर पार्टी के अपने-अपने हिसाब-किताब से हैं, जो उसे ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुँचा सकें। पार्टियाँ वो फायदा लेने के लिए इंसानों को अपना गुलाम बनाना शुरू कर देती हैं, बचपन से ही। या आज के युग में तो पैदा होने की तारीख से ही। या शायद कहना चाहिए की कौन पैदा होगा या नहीं होगा, ये भी, ये पार्टियाँ कोशिश करती हैं की अपने हिसाब से तय कर सकें। इस सबके पीछे विज्ञान है, कोई चमत्कार नहीं। ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक बिमारियों के पीछे। इस तरह से हमारा सिस्टम Automation से Semiautomation और Semi से Enforced की तरफ उतना ही बढ़ता जाता है, जितना ये पार्टियाँ आम आदमी की जिंदगी के ऐसे-ऐसे पहलुओं पे भी अपनी घुसपैठ करने की कोशिश करती हैं। इसलिए जितना आप किसी भी पार्टी को मानना शुरू कर दोगे, उतना ही उस पार्टी के मानव रोबोट बनते जाओगे। और आपको खबर भी नहीं होगी की ऐसा हो रहा है।मतलब जितना ज्यादा इस तरह का Enforcement बढ़ता जाता है, उतना ही ज्यादा समाज में जुर्म। इसीलिए मोदी युग, सिर्फ तानाशाही का युग नहीं है, बल्की जुर्म की हदों का भी युग है। महामारी के नाम पे 2-साल तक दुनियाँ को बंधक बना, इतनी सारी हत्यायों के रचयिता होना? मतलब, दुनियाँ में सिर्फ यही एक तानाशाह नहीं है। इसके बड़े-बड़े बाप/आका भी है।
आम आदमी के लिए जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत ज्यादा जरूरी है, इस बाहरी दखल को अपनी ज़िंदगी से दूर रखना। राजनीतिक दखल। जुआरियों और शिकारियों वाली राजनीती वाला दखल। ये दखल इंसानों की ज़िंदगी में सीधे-सीधे हस्तक्षेप के रूप में भी है। और उलटे-सीधे, टेड़े-मेढ़े बुने हुए जालों, सुरँगों के रस्ते भी। उन रस्तों और उनके द्वारा बनाए गए गुलामों या कहो मानव रोबोटों का जिक्र आगे किसी और केस के या कहो केसों के अध्ययन के साथ।
कोशिश रहेगी नाम, जगह की बजाय सिर्फ केसों को घड़ने के तरीकों और उनके उन ज़िंदगियों पर प्रभावों तक सिमित रहे। यहाँ आमजन को सिर्फ ये बताने की कोशिश रहेगी की इस राजनीति को आपके पुरखे भुगत चुके। अब आप भी भुगत रहे हैं। तो क्या आप चाहते हैं की आप अपनी अगली पीढ़ियों से भी वो भुगतान करवाएँ? अगर नहीं तो इस राजनीतिक रंगमंच को, इससे थोड़ा दूर रहकर, सिर्फ समझने की कोशिश करें। ना की अंधे, बहरे होकर उसका हिस्सा बनने की। ज्यादातर वो हिस्सा अनजाने में है। मगर कुछ शायद जानबुझकर भी।
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