आदमी को क्या चाहिए, जीने के लिए? थोड़ा-सा ढंग से जीने के लिए? रोटी, कपडा और मकान? उभरते भारत में, मोदी के आगे बढ़ते भारत में, कितनों के पास आज भी वो नहीं है। कैसे होगा? वो इंदिरा से लेके मोदी तक, सबके सब, लोगों के रिश्तों के ही जोड़तोड़ में लगे हैं क्या? जिनके पास ये सब सही हो, उनके रिश्तों के जोड़तोड़ की जरुरत नहीं पड़ती। उनका बाकी सब खुद-ब-खुद चल निकलता है? ये सच है क्या? अर्थ के अनर्थ और अनर्थ के अर्थ।
अर्थ से मिलाजुला शब्द अर्थशास्त्र। धन, दौलत या शायद जमीन-जायदाद भी? या शायद अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पुरा करने के लिए पैसा या इस तरह का कोई लेनदेन जरूर चाहिए, हम इंसानों के समाज में। संसाधन कह सकते हैं। क्या हम सब उसी के लिए काम करते हैं? पढ़ाई भी? डिग्री पे डिग्रीयाँ भी? नौकरी भी? क्या उसके लिए पुरखों की जमीन-जायदाद का होना जरूरी है? या उसके बैगर भी काम चल सकता है?
वैसे इन्सानों में और बाकी जीव-जंतुओं में फर्क क्या है? खाना और घर तो जैसे-तैसे वो भी बना ही लेते हैं। कपड़ों की उन्हें जरूरत ही नहीं होती। तो क्या इंसान पढ़ लिखकर भी इतना तक नहीं कर सकता? ये सब तो स्कूल तक ही हो जाना चाहिए। आगे की डिग्रीयाँ भी मात्र ये सब अर्जित करने के लिए? मतलब, हमारी पढ़ाई-लिखाई में ही कहीं न कहीं कमी है। या शायद पुरे सिस्टम में ही? शायद हमें एक ऐसा स्कूल सिस्टम चाहिए जो सबसे पहले यही सिखाए। बाकी सब बाद में। लोगों के घरों की जरूरतों को पुरा करना है तो House Development Societies की जरूरत नहीं है, बल्की ऐसे प्रैक्टिकल स्कूल और कॉलेजों की जो ये सब सिखाएँ और करें, हर शहर और गाँव में। वैसे ही जैसे सिर्फ डिग्रीधारी कॉलेजों या यूनिवर्सिटीयों की जरूरत नहीं है, बल्की एग्रीकल्चर कॉलेज और यूनिवर्सिटीयों की, जो सिर्फ यूनिवर्सिटीयों के कैंपस तक सिमित न रहें। बल्की फील्ड और साइट पर हों। ऐसे ही शायद Food Tech कॉलेज और यूनिवर्सिटीयों की। ऐसे ही जो गवर्नेंस सिस्टम चल रहा है, उसकी भी जरूरत कहाँ है?
हम पढ़ते हैं, लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों से। मगर इसकी हकीकत? जुआरियों द्वारा, जुआरियों से और बस जुआरियों के लिए? एक ऐसा Alternative Governannce System की किसी एरिया के विकास के लिए कितना पैसा आएगा ये कोई पार्टी या गवर्नमेंट तय न करे। बल्की वहाँ के प्रतिनिधि तय करें। उनमें इतनी प्रतिभा हो की वो अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए, ज्यादा से ज्यादा पैसा या कहना चाहिए संसाधन इक्क्ठा कर सकें। बहाना ही ना रहे की सरकार ने पैसा नहीं दिया, तो काम कैसे करते। पार्टियों के संगठन जीतने के लिए पैसा जुटाते फिरें। जीतने के लिए ही भाषणबाजी। जीतने के लिए ही रैली। जीतने के लिए ही प्रचार और विज्ञापनों पे खर्च। इसकी बजाय, उनका संगठन ऐसा क्यों नहीं हो की वो संसाधन जुटाने काबिल हों, अपने-अपने क्षेत्र के लिए। जहाँ किसी राजनीतिक पार्टी के पास एकाधिक्कार न रहे और विपक्ष को ये न कहना पड़े की पैसे ही नहीं मिले गवर्नमेंट से, तो काम कहाँ से करवाते? अर्थ का अनर्थ शायद हमने कुछ ऐसे कर दिया है की जिनकी जरूरत ही नहीं है, वक़्त और संसाधन उनपे खर्च हो रहे हैं।
स्कूल-कॉलेजो, यूनिवर्सिटियों में झूठ बोलना, चोरी करना, सामान्तर केस घड़ना टीचर, डायरेक्टर सिखाते हैं। उसी झूठ को कोर्ट्स में पक्ष और विपक्ष के वकील पेलते हैं। जज सब कुछ हकीकत सुन-देखकर, जानकार भी, ड्रामों पे अपना निर्णय देते हैं। डॉक्टर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक बीमारियाँ रचते हैं या उनकी हकीकत पर चुप रहते हैं। या जानते-भुझते हुए भी झूठ बोलते हैं। बड़े-बड़े जज तक crypts में बताते हैं की ये बीमारी क्यों हुई या राजनीतिक बीमारी है। मतलब, अर्थ के अनर्थ और अनर्थ के अर्थ।
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