राम सिंह हवेली, उजला ताला बड़े दादा वाले हिस्से पर, कोरोना-कोविद और रौशनी? भला इन सबका आपस में क्या लेना-देना?
राम सिंह (पड़दादा) की हवेली वाली पोस्ट में, मैंने उजला ताले पे फ़ोकस क्यों किया?
यूनिवर्सिटी की भारती-उजला-फाइल्स और केस पे चलें क्या? या शायद Kidnapped by Police वाले केस पे? शायद, रौशनी या रोशनलाल से कुछ समझ आए? रौशनी बुआ थी, बड़े वाला दादा की बेटी। एक तरफ, कोई रोशनलाल और संतोष वाली टीम, मुझे सुनारियाँ जेल लेकर जा रही थी। तो दूसरी तरफ, कोई रौशनी, कोरोना काल में अपनी आखिरी साँसें ले रही थी। मेरा कसुर यही था, की मैं सच बोल रही थी, की कोरोना, कोविद कोई बीमारी नहीं, बल्की राजनीतिक षड्यंत्र है, -- हाँ। कोविद नाम-सा कोई राष्ट्पति जरूर रहा है शायद? और मेरा फ़ोन छीनकर, मुझे PGI, ATM, VC Backside Office gate से उठा लिया गया था। उस वक़्त पुलिस की जो मैंने रिकॉर्डिंग की थी, उसे भी delete कर दिया था। उसी वक़्त के आसपास, उस घर से दो इंसान और उठे थे। एक ताऊ रणबीर और एक रौशनी बुआ के बेटे की बहु। काँड छोटे दादा के इधर भी और बड़े होने थे। क्युंकि यहाँ भी मुझे कोरोना हो गया। मुझे भी कोरोना हो गया, फैला दिया गया था। मगर शायद, बच गए। वक़्त पर इधर-उधर से सही जानकारी और सावधान करने की वजह से ? लेकिन शायद, उतना भी नहीं बचे। भाभी की मौत ने तो जैसे घुमा ही दिया था। और उससे भी अजीबोगरीब खतरा, उससे आगे खड़ा था, या शायद है ? उसके बाद के रोज-रोज के ड्रामे, खासकर गुड़िया के केस में।
बहुत से लोगों ने लिखा, की मैंने बचे हुए कैंपस केस सीरीज के पब्लिकेशन्स पे पाबंदी क्यूँ लगा दी ? पाबंदी तो नहीं शायद, क्युंकि तकरीबन सारा मैं ऑनलाइन, किसी न किसी फॉर्म में रख ही चुकी। जो अभी तक भी आमजन के बीच नहीं है, वो या तो mails में है और इधर उधर जा चुका। या शायद बहुत ज्यादा अहमियत नहीं रखता। पाबन्दी की बजाए, किसी तरह का hold-on जरूर है। शायद कुछ को पता था, इसलिए पूछ रहे थे? तो कुछ को शायद समझ आने लगा था, की चल क्या रहा है? जिन्होंने भी कोरोना काल को पास से देखा है, या जिन्हे भी उसके अंदर के सिस्टम के रहस्यों की खबर है, वो लोग ऐसे चुप कैसे रह लेते हैं? क्या दम नहीं घुटता कभी? खासकर, उन लोगों का, जिन्होंने इतनी सारी लाशों को सिर्फ किसी राजनीतिक ड्रामे का हिस्सा होते देखा है? या इतने सारे संसार की आबादी को डरे-सहमे या बंदी-सा बना देखा है? क्या उन्हें कभी नहीं लगता, की इंसानों का बनाया सिस्टम, भला इतना निर्दयी और क्रूर कैसे हो सकता है? और ऐसे मीडिया के बारे में तो क्या ही कहा जाए, जो ऐसे वक़्त में भी, ऐसी घटनाओं का हिस्सा भर होता है? या फिर मीडिया का कोई ऐसा हिस्सा भी होता है, जो सच लिखता है और जिसे शायद दबा दिया जाता है?
जब आपने अपनी जिंदगी का कुछ वक़्त, एक ऐसे काल में या समय में बीता दिया हो, जहाँ लगे, जैसे आप किसी संसार जितने बड़े मुर्दाघर में हैं। और चारों तरफ लाशें ही लाशें, तो ज़िंदगी के मायने, जाने किस-किस रूप में बदल जाते हैं। उसके बाद, ऐसी राजनीतिक बीमारियों को जानने, समझने और आम आदमी को उससे बचने या होने के बाद, उनके प्रभावों से जितना हो सके, बचाने में रुचि ज्यादा बढ़ जाती है। बस ज़िंदगी में वही अहम है और वही चल रहा है। कुछ लिखाई-पढ़ाई और रिसर्च आप Educational Institutes में कम, ज़िंदगी की जद्दो-जहद से गुजरते हुए ज्यादा करते हैं, शायद।
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