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Thursday, June 13, 2024

अलग-अलग स्तर, अलग-अलग प्रभाव या दुस्प्रभाव?

इस पोस्ट में सिर्फ पहले प्रश्न पे आते हैं। या जो कुछ चल रहा था, उसे जानने की कोशिश करते हैं। 

ट्रैनिंग

किसकी ट्रैनिंग? कैसी ट्रैनिंग? बच्चों की? बुजर्गों की? युवाओं की? कैसे देते हैं, वो ये ट्रैनिंग? कौन हैं ये लोग, या समुह जो ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी ट्रैनिंग देते हैं, लोगों को? और बच्चों और बुजर्गों तक को नहीं बक्शते? इन्हें कोई रोकने-टोकने वाले नहीं हैं क्या?   

राजनीती और राजनीती से जुड़े लोग?

बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ?

और?        

मैं अभी गाँव अपना सामान नहीं उठाकर लाई थी। मगर 26-29 April, 2021 का खास जेल ट्रिप हो चुका था। वहाँ जो कुछ देखा, सुना या अनुभव किया, उसमें काफी-कुछ ऐसा था, जिसपे शायद ध्यान कम दिया। या शायद थकान, गर्मी और सिर दर्द की वजह से ध्यान कम गया। ऐसा ही कुछ, जब यहाँ गाँव आने पे बच्चों या बुजर्गों को किसी ना किसी रुप में कहते सुना या भुगतते सुना, तो शुरु-शुरु में तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ा, शिवाय चिढ़ के। या ये क्या हो रहा है, और क्यों, जैसे प्रश्नों के। मगर धीरे-धीरे शायद समझ आने लगा। बच्चों और युवाओं की अजीबोगरीब ट्रैनिंग चल रही थी, उनकी समझ के बैगर। और बुजुर्ग भुगत रहे थे। कहीं ना कहीं युवा भी। और बच्चों की ऐसी ट्रैनिंग का मतलब? वो भविष्य में भुगतेंगे? और ऐसा भविष्य, शायद बहुत दूर भी ना हो, अगर वक़्त रहते रोका ना जाय तो?   

क्या थी ये ट्रैनिंग?

जैसे --

"जेल में औरतें अपना टाइम पास करने के लिए गाने गा रही थी। कुछ नाच भी रही थी। और कुछ दूर से सुन रही थी। मैं जो एक दिन पहले ही वहाँ पहुँची थी, सिर दर्द और गर्मी से हाल-बेहाल थी। मेरे सिर दर्द का मतलब, मुझे आसपास बिलकुल शाँत चाहिए और लाइट भी नहीं। मगर यहाँ तो उल्टा था। जैसे जबरदस्ती का दुगना अत्याचार। ऐसे में दवाई भी असर नहीं करती। ऐसे में आप क्या कर सकते हैं? वक़्त तो काटना था। आँख बंद कर, कानों को जैसे बंद कर, एक कोने में दुबकने की कोशिश? मगर इतना जबरदस्त शोर, एक छोटा-सा कमरा और इतनी सारी औरतें, सुनेगा तो फिर भी। उसपे गानों के नाम पे भद्दे आइटम नंबर्स और बेहुदा एक्शन्स। वो वक़्त तो आप काट आए।" 

यहाँ गाँव में ये क्या चल रहा था? कोई पियक्कड़ एक बुजुर्ग माँ को हद से परे, बेहुदा गालियाँ दे रहा हो और महाबेहुदा एक्शन कर रहा हो? इधर-उधर आसपास भी कुछ-कुछ ऐसा-सा ही। मगर वैसा ही कुछ CJI भी कह रहा था, शायद? सिर्फ भाषा और तरीके का फर्क था? या कहो समाज के अलग-अलग हिस्से के स्तर का? बात तो वही थी।     

दूसरी तरफ, कोई 5-6 साल की छोटी-सी बच्ची, "मेरा नाड़ा खोलन आवै स... "  जैसे बेहुदा आइटम नंबर पर अजीबोगरीब एक्शन कर रही हो और उस गाने या ऐसे-ऐसे गानों पर गुनगुना रही हो? और आसपास के बड़े बच्चे या बच्चियाँ या युवा वर्ग उसके मजे ले रहे हों? बच्चे को समझाने या रोकने की बजाय या ये तमाशा बंद करवाने की बजाय? बच्चा तो बच्चा है, अपरिपक्कव। मगर बड़े?   

किसी पियक्कड़ ने कोई दरवाजा तोडा हुआ हो। और कोई बुजुर्ग माँ, उसे जोड़ियों से यहाँ-वहाँ बाँधे हुए हो? या नाडों को या नवार जैसे गुच्छों से जैसे, यहाँ-वहाँ कहीं खूँटी, तो कहीं किसी पोल से बाँधे हुए हो? क्यों? दरवाज़ा ही ना ठीक करवा लें? 

कितना अंतर है ना बड़े लोगों (?) के नाड़े वाले जॉक्स में और आम लोगों, मध्यम वर्ग या गरीबों की ज़िंदगियों की सामान्तर घड़ाइयों में? ये सब अंतर देख नफ़रत नहीं होने लगेगी, ऐसे so-called बड़े लोगों से? मगर नफरत क्यों? वो उनकी ज़िंदगी है? उन्हें समाज के किन्हीं तबकों में ऐसी-ऐसी सामान्तर घड़ाईयोँ की शायद खबर तक ना हो? और हो भी, तो उन्हें क्या मतलब? या शायद से मतलब होना चाहिए? खासकर तब, जब आप ऐसे-ऐसे लोगों की वजह से ही शायद, कहीं चुनकर पहुँचते हैं?        

और फिर मैं ऐसे-ऐसे प्रश्नो पे, अपनी ही आवाज़ सुन रही हों जैसे? 

"हाँ! वैसे ही जैसे, तुने कितने लैपटॉप, कूलर या AC या गाड़ी, और कितना ही सामान ठीक करवा लिया? खाती वो खिड़की कर गया क्या ठीक? किसने रोका हुआ है, उसे? और उसके अलावा, कोई और नहीं है क्या, ठीक करने वाला? बड़े लोग भी ऐसे ही, इतने-इतने दिन AC, Coolers के बावज़ूद, यूँ गर्मी में मरते हैं? या यूँ आग लग जाती हैं? उनका आसपास यूँ गँवार या खुद so-called बड़े लोगों के जाल में नहीं होगा ना? वो भी तब, जब इतनी सारी एजेंसियाँ और मीडिया हाउस, देख, सुन और रिकॉर्ड तक कर रहे हों? वैसे ही जैसे, आपने कोई memoir या आपके साथ हुआ क्राइम, किन्हीं मीडिया हाउस को मेल किया हो और वो उसे इग्नोर के डस्टबिन में डाल चुके हों? अब कैसे मीडिया को किया, ये भी एक वजह हो सकता है, उसके डस्टबिन में जाने की? या शायद, आप इन मीडिया हाउसेस के बारे में अभी तक भी बहुत कम जानते हो? या शायद कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी? नहीं तो ऐसी-ऐसी खबरों को तो मीडिया हाउसेस ..... ? शायद अभी काफी कुछ जानना बाकी है, मीडिया हाउसेस के बारे में भी?"  

"ठीक ऐसे ही जैसे, यूनिवर्सिटी में GB (General Branch) वालों ने घर ठीक करके दिया था? XEN, JS Dahiya ने सब तो करवा दिया? कौन है ये JS Dahiya? रिपेयरिंग के नाम पे यूनिवर्सिटी में कट तो सबका बराबर लगता है ना? नहीं शायद? कुछ का ज्यादा लगता है? हद से ज्यादा? ऐसे लोगों की जहाँ नौकरी से छुट्टी होनी चाहिए और उनकी बचत पे चपत लगनी चाहिए, वहीं आप ना सिर्फ ऐसी जगह को छोड़ के चलना ही मुनासिब समझते हैं, बल्की ये तक कहते हैं, काट लो जितना बनता है। बुरी जगहों से और बुरे लोगों से जितनी जल्दी पिंड छुड़ा लो, उतना ही अच्छा?"  

वहीं कुछ दूसरी साइड भी हैं। जो देखते-देखते कुछ ना आते हुए भी, ना सिर्फ प्रमोशन के पायदान नापते हैं, बल्की एक से दूसरा सरकारी घर ऐसे बदलते हैं, जैसे आप जैसे लोग काम ही उनके लिए करते हैं? SLAVE कहीं के। कहीं दूर क्यों जाएँ, मेरे अपने डिपार्टमेंट का डायरेक्टर। ऐसे लोग जिनके खिलाफ शिकायत हों और वही शिकायत निवारण committees के चेयरपर्सन या मैम्बर? जहाँ तकरीबन सब शिकायत निवारण committees के यही हाल हों, जाना चाहेंगे आप वहाँ वापस?          

"वो यूनिवर्सिटी थी। ये तो तेरा अपना घर और अपना आसपास या गाँव है ना?"  

बड़बड़ाना खुद से ही जैसे?

हर जगह की अपनी समस्याएँ हैं। कुछ से आप थोड़ा आसानी से निपट सकते हैं। और कुछ से थोड़ा मुश्किल से? और कुछ को हाथ जोड़ चलते बनते हैं, जैसे गुनाह आपने ही किए हों? कुछ समस्याएँ वक़्त के साथ, अपने आप ठीक हो जाती हैं। कुछ वक़्त माँगती है। और कुछ वक़्त से आगे, थोड़ी-बहुत मेहनत भी और कसमकस भी या इधर-उधर की खटपट और चकचक, पकपक भी। गाँव का कुछ-कुछ ऐसा ही लगा। कुछ ऐसे नुकसान या भुगतान हो गए, जो वक़्त रहते रोके जा सकते थे। मगर नहीं रुके। कुछ धीरे-धीरे ही सही, मगर कुछ हद तक सही दिशा में चल पड़े शायद? कुछ को, कुछ और वक़्त और थोड़ी बहुत मेहनत चाहिए। और इधर-उधर का साथ और थोड़ी-बहुत समझ  भी। 

जैसे शराब कहाँ से और कैसे सप्लाई होती है और कौन करता है या करते हैं? पीने वाला कब पीता है और कब-कब नहीं? सिस्टम या राजनीती से इस सबका क्या लेना-देना है? क्या कहीं का सिस्टम लोगों को जबरदस्ती कोई दिशा या दशा देता है? जी हाँ। हकीकत यही है। जैसे एक पार्टी आपको यूनिवर्सिटी से बाहर का रस्ता दिखाए, तो दूसरी गाँव से बाहर का या देश से ही बाहर का। चाहे ऐसा करने के लिए उन्हें, खून-खराबा ही क्यों ना करना पड़े। या जेलम-जेल ही क्यों ना खेलना पड़े। समाज का अलग-अलग स्तर, अलग-अलग जगह पे, काफी कुछ एक जैसा-सा दिखता हुआ भी, बहुत कुछ अलग कहता है। इसीलिए शायद सबसे सही वो समाज हैं, जहाँ ये फर्क कम है। जहाँ समाज का एक बड़ा हिस्सा, कम से कम, मूलभूत जरुरतों के लिए तो तरसता नहीं नज़र आता।  

जहाँ की सरकारें अपने समाज की मूलभूत आवश्कताओं तक की जरुरतों को पूरा नहीं कर पाती, क्या करती हैं वो सरकारें? किसके लिए बनती हैं, ऐसी सरकारें? मंदिर-मस्जिद के गोबर के नाम पे लोगों को मानसिक तौर पर जकड़े रहने के लिए? या नाडों या बेल्टों के नाम पे तमासे करते रहने और करवाते रहने के लिए? 

शायद, इसका एक ही समाधान है, सरकारों से उम्मीदें ही क्यों? आप इतने काबिल क्यों नहीं हैं की आपका समाज कम से कम ऐसी सरकारों पे निर्भर ना हो? अगर ऐसा होने लगेगा, तो ऐसी सरकारें अपने आप खत्म होने लगेंगी। और सिर्फ वही सरकार बना पाएँगे, जो तमाशों के लिए नहीं या किसी cult में लोगों को मानसिक-तौर पर जकड़ने के लिए नहीं, बल्की समाज को आगे बढ़ाने का काम करेंगे।          

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