About Me
- VY
- Just another human being. Trying to understand molecules of life. Lilbit curious, lilbit adventurous, lilbit rebel, nature lover. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct. Sometimes feel like to read and travel. Profession revolves around academics, science communication, media culture and education technology. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.
Friday, June 28, 2024
संविधान गपशप (Offensive Or Defensive Narratives)? 2
Thursday, June 27, 2024
Ways to Topple The Government?
Minority can also topple the government, as per law?
Wednesday, June 26, 2024
Constitution? Interesting?
Indian constitution is sacred and must be respected? Maybe? Or?
Look at constitution copy in different party's hands. Is it only shape and cover, that is different? Or inside matter also? Or matter inside those copies are same?
Offensive Or Defensive Narratives? 1
Different Types, But
How parallel creations killing the message and purpose itself?
Police?
Policy?
How many types?
G Police?
Grammer Police?
Repetitive or different parties narratives?
Or enforced agendas around the same topic?
Cooler fires?
AC heating?
Goli, Tab?
Food?
Water?
Drug?
Force?
Pistol, katta?
Diseases?
Vitiligo in human, animals, plants, cooler? And so many such diseases across different strata, among different organisms?
Interesting stuff?
क्या का क्या बनता है यहाँ? वैसे ही, जैसे रोचक आर्टिकल्स ईधर-उधर? आते हैं इनपे भी आगे, एक-एक करके।
कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे अर्विन्द केजरीवाल का केस? ED की तारीख पूरी हुई नहीं, की CBI आ गई? ये PMLA और ये तारीख पे तारीख, क्या तमाशा लगा रखा है? जब यहाँ किसी, ERR....
किसी नहीं, दिल्ली के CM तक के ये हाल हैं, तो बाकी जनता तो है ही बेचारी। ये कोर्ट्स खत्म क्यों नहीं करते, ये तारीख पे तारीख तमाशा जैसी, कितनी-ही बेवजह सी बिमारियाँ? उससे भी बुरा, ट्रायल के दौरान भी बेल पे इतने तमासे?
Monday, June 24, 2024
Death Or Murder Attempts?
Death Or Murder Attempts? लोगों को ऐसे मारो, की लाठी दिखाई भी ना दे और काम हो जाय?
अगर किसी के बैंक में पैसे हैं या किसी भी तरह की बचत है, मगर गुंडागर्दी के तहत किसी ने उसपे कुंडली मार रखी हो? जिसकी बचत है, वो बार-बार रिक्वेस्ट भी कर चुका, की मुझे एमर्जेन्सी है। फलाना-धमकाना हैल्थ इश्यूज हैं। और कभी भी एमर्जेन्सी पड़ सकती है। आप Urgently मेरे पैसे रिलीज़ करें। मुझपे कोई डिपेंडेंट भी हैं। उनके लिए भी चाहिएँ। मगर फिर भी, पैसे रिलीज़ ना किए जाएँ?
उसपे डिपेंडेंट में मान लो, कोई शराब का एडिक्ट भी हो। इसी नशे के तहत, उसे बोतल पकड़ा कर उसकी ज़मीन हड़प ली हो, कुछ अपने कहे जाने वाले लोगों ने। और अब ऐसे ही टेढ़े-मेढ़े रस्तों से, फिर से शराब सप्लाई हो रही हो, ताकी उसे दुनियाँ से ही उठाया जा सके। जब उसे ना सिर्फ, ऐसे आदमखोरों से दूर करने की जरुरत है, बल्की ईलाज की भी। क्यूँकि, डॉक्टर्स के अनुसार तो ये भी एक बीमारी है। और इसका ईलाज भी है। मगर, आपके पास इतने पैसे हैं ही नहीं। इस शराब एडिक्ट की हड़ियाँ निकली हुई हैं और तवचा बिलकुल काली पड़ चुकी है। मतलब, लिवर काफी डैमेज हो चूका। जिस बेचारे के पास खाने तक के पैसे नहीं, वो शराब कहाँ से पी रहा है? वैसे, जब उसके पास खाने तक को नहीं होता, ये शराब सप्लाई तभी होती है? ये, और ऐसी-ऐसी कहानियाँ, आगे किसी पोस्ट में।
अगर ऐसे केस में ये शराब का एडिक्ट मरता है, तो वो Death कहलाएगी? या Murder? Assisted Murder? अरे नहीं। रोज, हजारों शराब के नशे वाले मरते हैं। खासकर, गरीबी की वजह से। कहाँ, किसे फर्क पड़ता है? ऐसे-ऐसों को तो वैसे भी, अपने ही ठिकाने लगा देते हैं। महज़ कुछ पैसों या ज़मीन की खातीर। और उन्हीं अपनों में से कुछ, ऐसी-ऐसी मौतों के बाद, रोने भी आते हैं? जाने ऐसे लोग, ऐसी परिस्थितियों में, ऐसे-ऐसे आँशु कहाँ से ले आते हैं?
ये पब्लिक नोट किसी Academic Teachers Branch वाली संगीता मैडम के लिए भी। सुना है, पिछले 1 साल से भी ऊप्पर वक़्त से, फाइल उसी ब्रांच में पड़ी है। और उससे ऊप्पर बैठी Authorities के लिए भी। क्यूँकि, नीचे वाली कुर्सियों का महज़ बहाना होता है। VC जब चाहे, ऐसी-ऐसी फाइल्स को क्लियर करने के ऑर्डर दे सकता है।
Prompt: ना सिर्फ ये हालात, बल्की, किसी नेता के सोशल पेज पर, शायद ऐसा ही देखा-पढ़ा। दादा जी जैसी-सी दिखने वाली किसी फोटो पे श्रद्धांजलि। और उस फोटो पे मुझे जो दिख रहा था, वो था, जैसे या तो चेहरा बहुत लाल हो रखा है या चेहरे पर, खासकर, नाक के आसपास चोट। मुझे ऐसा दिखा, मतलब? ऐसे-ऐसे ऑनलाइन कारनामों के बारे में, आगे किसी पोस्ट में। उसी दिन, इस शराब एडिक्ट भाई के चेहरे पर चोट। और भी जगह होंगी, ये चोट शरीर पे। टूटा-फूटा होगा कहीं या फोड़ा होगा किसी ने? होता रहता है, शराब एडिक्ट के साथ ऐसा? क्या नई बात है?
Sunday, June 23, 2024
पौधों, जानवरों, और इंसानों में : समानताएँ और विभिन्ताएँ (Social Tales of Social Engineering)
समानताएँ और विभिन्ताएँ
पौधों, जानवरों, और इंसानों में
क्या-क्या हो सकती हैं?
खाने-पीने में?
बच्चों की पैदाइश में?
बीमारियों के कारणों, रोकथाम या इलाज में?
या मरने की वजहों में?
बहुत-कुछ?
आपको शायद पेड़-पौधों के बारे में काफी कुछ मालूम है? और आपको गाएँ, भैंसो के बारे में? और आपको शायद पेड़-पौधों और गाएँ भैंसों के बारे में? तो कैसे हो सकता है, की इंसानो के बारे में मालूम ना हो?
यहाँ बच्चों के साथ शायद कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है? बड़ों और बुजर्गों के साथ भी? और आप लगें हैं उन्हीं का कहा करने? मगर आपको शायद वैसे नहीं बताया गया, जैसे कोई भी आम-इंसान, ऐसे केसों के बारे में बताएगा। कैसे केसों के बारे में? बीमारियों के बारे में? या कहना चाहिए की ना हुई बिमारियों के बारे में। बहुत-सी समस्याओं के बारे में, जो असल में हैं ही नहीं या होनी ही नहीं थी। की गई हैं? कौन हैं ये लोग, जो ऐसा कर रहे हैं? और वो ऐसा क्यों कर रहे हैं?
कहीं आप खुद भी तो उनमें से एक नहीं? जाने या ज्यादातर अन्जाने? और खुद ही शिकार भी? सोचो। आते हैं इन विषयों पे भी।
Friday, June 21, 2024
निगरानी और ज्ञान-विज्ञान का दुरुपयोग
Surveillance and Knowledge Abuse? Or Diagnostic and Testings?
आसपास से केस स्टडी
पीछे वाली पोस्ट का कुछ हिस्सा फिर से पढ़ते हैं
कैसे पता चलता है, की हमें कोई बीमारी है?
और कौन-सी बीमारी है?
नब्ज देखकर?
बिन पूछे और बिन जाने?
PK के जैसे?
Wifi से?
Wifi, किसी का घर जाने का सिग्नल या सिस्टम?
और किसी का?
दरबार लगाने का जुगाड़ जैसे?
बिन पूछे, आपके दर्द-तकलीफ़ बताना जैसे?
घोर Surveillance Abuse जैसे?
इधर भी और उधर भी?
या?
कोई दर्द या तकलीफ हो तो?
डॉक्टर के पास जाते हैं,
और वहाँ डायग्नोस्टिक्स से पता चलता है?
या वहाँ भी गड़बड़ घोटाला जैसे?
या गड़बड़-घोटाला,
हमारा दर्द या तकलीफ को फील करना ही है?
खाना, पानी या हवा?
कैसे बचें इन प्रदुषित-मिलावटी हवा, पानी या खाने से?
ये तो जिधर देखो उधर है
कुछ जगह नज़र आता है
मगर,
बहुत जगह दिखाई तो साफ देता है
मगर होता, प्रदूषित है।
जैसे कोई pain inducers दे दिए हों,
किसी ने, आपकी जानकारी के बिना?
किसी खाने में, या पानी में?
और डॉक्टर बोले, पथ्थरी है?
डायग्नोस्टिक यही कह रहा है?
इस पथ्थरी के दर्द को और किस बीमारी के दर्द से बदला जा सकता है? कैंसर? और शायद और भी कितनी ही तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं, जिनका नाम लिया जा सकता है? ऐसे कितने लोगों ने PK देखी होगी? या WIFI क्या होता है, का पता तक होगा? या दुनियाँ में ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे कारनामे भी होते हैं? कहाँ ज्ञान- विज्ञान का दुरुपयोग? और कहाँ अनपढ़, या कम पढ़े-लिखे लोग, कैसे-कैसे बाबाओं, महाराजों या झोला-छापों के चक्कर में पड़े गरीब लोग? जहाँ ढंग से खाने-पीने या रहने तक के पैसे नहीं होते और लूटवा देते हैं ज़िंदगियाँ, ऐसे-ऐसे बाबाओं को। उसपे उन्हें समझाना भी आसान नहीं होता।
ऐसा ही एक कैंसर के मरीज का आसपास सुनने को मिला। जो ऐसे-ऐसे महाराजों के चक्कर आज तक काटते हैं। जो दूर से ही बिन जाज़ें, परखे या टेस्ट्स के सबकुछ बता देते हैं? और इनपे या इन जैसे झोला-छापों पे कोई कारवाही नहीं करता? इनके नाम, जगह वैगरह जानोगे, तो पता चलेगा, so-called सिस्टेमैटिक कोड इतना जबरदस्त चलता है? पर फिर जो मुझे समझ आया, ऐसा-सा ही छोटे से छोटे हॉस्पिटल से लेकर, बड़े हॉस्पिटल्स तक है। जानकार लोग इनपे कोई किताबें क्यों नहीं लिखते या आमजन को अवगत क्यों नहीं कराते? यही सिस्टम रोकता है क्या, उन्हें ऐसा करने से?
जब PhD में थी तो आसपास कुछ खास किस्म के कारनामे होते थे। वैसे से हर जगह संभव हैं। जैसे आप कोई एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं और आपसे जलने वाले या वाली ने, आपकी vials, test tubes या कुछ और भी हो सकता है, जिसमें आपका एक्सपेरिमेंटल मैटेरियल है, बदल दें या उसमें कुछ उल्टा-पुल्टा डालके उसे खराब कर दें। आसपास कितनों के साथ होता था ऐसे? पूछकर देखो। या अभी भी शायद कितनी ही लैब्स में होता है? आप लगे रहो, बार-बार उसे दोहराने। परिणाम क्या होंगे? निर्भर करता है की उस बन्दे ने क्या किया है। ये तो वही बेहतर बता सकता है या सकती है या सकते हैं? किसी भी डायग्नोस्टिक सेंटर पे, ये या ऐसे-ऐसे कितने ही किस्म के कारनामे संभव है। उसपे डॉक्टर डायग्नोज़ करके कितनी सारी सम्भानाएं रखते हैं, खासकर जब दर्द-तकलीफ दूर ना हो?
Probability Factor। ये नहीं है, तो ये हो सकता है। ये नहीं, तो ये। ये भी नहीं, तो ये। ये कोड और सिस्टम के जाले कितनों को पता होते हैं? और कौन ऐसे सोचके बीमारी का पता लगाते हैं? हो सकता है, की कोई बीमारी हो ही नहीं? गुप्त तरीके से कुछ उल्टा-पुल्टा, यहाँ-वहाँ से खिलाया या पिलाया गया हो? उसके साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं? जैसे ही उस खिलाने-पिलाने का असर खत्म, वैसे ही बीमारी। ये तो कुछ-कुछ ऐसे नहीं हो गया, जैसे, इन डायग्नोस्टिक्स और संभानाओं के चक्कर में, इतना कुछ मेडिसिन के रुप में खिलाके या ऑपरेशन तक करके, ना हुई बीमारियों की बाढ़ जैसे? यही हाल हैं, हमारे आज के समाज के?
आदमी अभी वो मशीन कहाँ बना है, की कुछ भी तोड़ो-फोड़ो, कुछ भी खिलाओ-पिलाओ या कैसे भी, कहीं से भी काटो और मशीन-सा सब सही हो जाएगा?
Monday, June 17, 2024
झाँकी भारत की? Social Tales of Social Engineering 2
एक ही सिक्के के दो पहलु जैसे?
एक झाँकी भारत की, जो राजपथ पर निकलती है
और, एक जो इलेक्शंस में, पुरे भारत में।
एक जो ताकत दिखाती है
या दिखाती है, सिर्फ वो?
जो राजे-महाराजे दिखाना चाहते हैं?
सिर्फ देशवासियों को ही नहीं
बल्की, दुनिया भर को?
और एक झाँकी जो,
अपने आप निकल जाती है
और दिख जाती है।
जो पहुँचाती है
अपने चुनींदा (?) नेताओं को
खुद पे राज करवाने के लिए?
और लूटने-पीटने के लिए?
अगले पाँच साल, सत्ता की चाबी थमाकर?
और उसका चाबुक हाथ में देकर
अपना ही बक्कल उधड़वाने के लिए?
या अपनी सेवा करवाने के लिए?
एक ही सिक्के के दो पहलु? (Social Tales of Social Engineering) 1
एक ही सिक्के के दो पहलु? (Two Sides of The Same Coin?)
एक, ठीक-ठाक पढ़ते बच्चे पढ़ाई छोड़कर, उल्टे-सीधे कामों में लग जाते हैं? या लगा दिए जाते हैं?
दूसरा, निठल्ले-नालायक, जैसे-तैसे डिग्रीयाँ लेकर ठीक-ठाक काम धंधे लग जाते हैं? या लगा दिए जाते हैं?
एक, किसी भी विषय में ठीक-ठाक, चलते-चलते, उससे डरने लगते हैं या भागने लगते हैं? या डरा दिए जाते हैं या भगा दिए जाते हैं?
दूसरा, ऐसे ही किसी विषय से डरने या भागने वाले, उसमें ठीक-ठाक चलने लगते हैं या दौड़ने या उड़ने लगते हैं? या चलना या उड़ना सिखा दिए जाते हैं?
ऐसे-ऐसे कितनी ही तरह के विषय या पहलु हो सकते हैं। मतलब, माजरा सारा माहौल का है, सीखने या सिखाने वालों का है? आगे बढ़ाने या पीछे-धकेलने वाले तत्वों का है। आपके वातावरण का है। वो बदलो और ज़िंदगियाँ बदल जाएँगी। कहने में कितना सीधा सा लग रहा है ना? और शायद है भी, अगर microlab जैसे कंट्रोल्ड एनवायरनमेंट की नज़र से देखें या समझें तो?
राजनीती, ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ या कहो की कहीं का भी सिस्टम, वो फिर घर का हो या आसपास, आपके गाँव, शहर या फिर देश का, यही सब तो खेल रहा है।
शायद इसीलिए सोशल इंजीनियरिंग किसी भी समाज के लिए अहम है। उसे सही दिशा या गलत दिशा देने वाले तत्वों की समझ और पहचान और उनपे कोई कंट्रोल। खासकर, गलत राह दिखाने या देने वाले तत्वों पर।
जब दशा या हालात पता हों और उन्हें प्रभावित करने वाले कारक या कारण भी, तो दिशा देना भी शायद कुछ आसान हो जाता है। ऐसे ही जैसे, बीमारी और बीमार करने वाले कारणों की जानकारी, बीमारी से बचने या ईलाज करने के लिए जरुरी होते हैं।
It's Update Stupid? 2
जैसे पहले भी कहा, की हर अपडेट हर इंसान के लिए जरुरी नहीं है। ना ही हर समाज के लिए। बहुत-सी अपडेट सिर्फ गैर जरुरी ही नहीं हैं, बल्की जुर्म हैं। जोर-जबरदस्ती या गलत तरीकों से, धोखाधड़ी या गुप्त तरीकों से थोंपी हुई भी हो सकती हैं। जिसमें आपको फायदा दिखाया गया हो, मगर, हो नुकसान। बहुत-सी रिश्तों की गड़बड़ या बीमारियाँ ऐसी ही हैं। जो असल में हैं ही नहीं। बल्की गुप्त और गलत तरीकों से ऐसे दिखाई या समझाई गई हैं, की वही हकीकत है। लेकिन
जो गुप्त है या जिसका आपको ज्ञान ही नहीं है, उसे जानें कैसे? पहचाने कैसे?
ये जानना सिर्फ आम-आदमी के लिए ही नहीं, बल्की अपने-अपने विषयों के जानकारों के लिए भी जान पाना मुश्किल हो सकता है। जैसे आसपास कई बिमारियों और मौतों को जानकार ऐसा लगा, की ये सब अपने आप नहीं हुई, बल्की किया गया है। यहाँ जिनकी बात हो रही है, वो ना सिर्फ बहुत गरीब हैं, बल्की उन घरों में कोई खास पढ़ा-लिखा भी नहीं है। तो बहुत-सी चीज़ें करने वालों के लिए आसान हो जाती हैं।
मगर ऐसा-सा ही या कहो ऐसे-से ही केस, आपको फिर समाज के अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे, मध्यम वर्गिय या अमीर घरों में भी नजर आने लगें तो? कुछ में तो ऐसे केसों में भी, जहाँ घर-परिवार, दोस्त-रिस्तेदार, प्रोफेसर, डॉक्टर या वैज्ञानिक हों। और वो खुद या उनके बच्चे बाहर देशों में बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज या हॉस्पिटल्स में। ध्यान आ रहे हैं, कोई multi organs failures? उसपे ज्यादा कुछ नहीं हुआ हो, हल्का-फुल्का सा बुखार जैसे। या heat strock जैसा-सा कुछ और लगे ये तो कोई खास नहीं है। 2-4 दिन में ही ठीक हो जाएगा। और पता चले बुखार कौन-सा था, यही नहीं पता चला या heat strock जैसा-सा था, मगर इतनी गर्मी में तो गए ही नहीं। और कुछ दिनों या हफ्ते बाद इंसान ही गया? उन्हीं विषयों के महारथियों के सामने? बस देखते-देखते ही? शायद, अब समझ आ रहा हो उन लोगों को, की क्या हुआ होगा?
गरीबों के केसों में हकीकत में ऐसी स्तिथियाँ पैदा करना बहुत मुश्किल नहीं है। यही ना? तो पढ़े-लिखे, उसपे कढ़े हुए लोगों के बीच तो और भी बहुत कुछ संभव होगा? ऐसा जैसे, लाठी नज़र भी ना आए और काम तमाम?
इसलिए जितना जरुरत की या फायदे की updates को जानना जरुरी है। उससे भी कहीं ज्यादा शायद, गैर-जरुरी या नुकसान पहुँचाने वाली updates को जानना और उनसे बचना या जबरदस्ती या धोखाधड़ी एंट्री पर, डिलीट करना जैसे। ऐसे ही जैसे, बहुत-सी बीमारियाँ।
Sunday, June 16, 2024
It's Update Stupid? 1
आप अपडेट से क्या समझते हैं?
up to date? या UP, उत्तर प्रदेश? या UK? ओह हो! कहाँ पहुँच गए आप? वो ऋषि सुनाक वाला UK? United Kingdom? घनी दूर पहुँच गए। उत्तराखंड ना जानते के? बोले तो? कुछ भी? क्यों? उत्तरा खंड? Uttra Khand? ऐसे-ऐसे, उलूल-जुलूल को ही update होना बोलते हैं? शायद?
अच्छा? कौन सा मोबाइल है आपके पास? तरो ताजा है या बासी? Apple? Samsung? Vivo? या कोई और? उनमें भी नए वाला है या पुराने वाला मॉडल?
वैसे नए या पुराने मॉडल से फर्क क्या पड़ता है? आपको? और कंपनी को? नए मॉडल में कोई ऐसा फीचर है, जो आपको चाहिए? जरुरत है उसकी आपको? या पता ही नहीं की उसमें क्या खास है? कम्पनियाँ ऐसे ही पैसा बनाती हैं? अगर नया माल मार्केट में नहीं लाएँगी, तो कमाएँगी कैसे? ये मार्केट के रुल हैं। सुना है, यही बाजार-सा, शेयर बाजार या स्टॉक मार्केट? हेरा-फेरी करके अपना माल बेचना। वैसे हेराफेरी मूवी देखी हैं? आम आदमी को लूटना जैसे। ऐसे भी और वैसे भी। ऐसी-ऐसी चीज़ें बनाकर, जिनकी उन्हें जरुरत ही ना हो। फोन, कार, लैपटॉप और कितने ही उत्पादों से इस update वाले सिस्टम को समझा जा सकता है। यही जरुरतें हमें, ज्यादातर खामखाँ की जरुरतें, चूहा-दौड़ का हिस्सा बनाती हैं। हम ऐसे-ऐसे उत्पाद तब भी खरीदते हैं, जब हमें इनकी जरुरत ना हो। अब मोबाइल ही लो। आपमें से कितनों को जो मोबाइल आपके पास है, उसकी सही जानकारी तक है? क्या-क्या है, उस मोबाइल में? कौन-से नए फीचर्स हैं, जो आपको चाहिएँ? अगर पता ही नहीं या जरुरत ही नहीं तो खरीदा क्यों? कम्पनियाँ तो बनाएँगी, क्यूँकि नहीं तो वो चलेंगी कैसे? मुझे भी नहीं थी, ज्यादातर लोगों की तरह। 2-4 साल पहले थोड़ा बहुत जानना शुरू किया था। अभी थोड़ी-सी है शायद। काफी कुछ जानना बाकी है, अभी।
नए-नए उत्पादों और बाजार का आपस में क्या लेन-देन है?
क्या आपको हर नया उत्पाद चाहिए? नहीं ना? मगर बाजार को? या इन उत्पादों को बनाने वाली कंपनियों को?
नए उत्पादों का, बाजार का और सरकारों का एक दूसरे से क्या लेना-देना है?
अलग-अलग पार्टियों के सम्बन्ध, अलग-अलग कंपनियों के साथ? अलग-अलग पार्टी की उत्पादों की पसंद भी अलग-अलग? वैसे ही जैसे, हर इंसान की अपनी-अपनी पसंद होती है। सबको एक ही चीज़ पसंद कहाँ आती है? एक घर में ही ऐसा नहीं होता।
तो क्या आपकी वो पसंद हो सकती है, जिस राजनीतिक पार्टी को आप पसंद करते हैं? या जिस किसी कंपनी या ब्रांड को पसंद करते हैं, उसका हर एक उत्पाद तो पसंद नहीं करते ना? और लेते भी नहीं?
या राजनीतिक पार्टियों का कंपनियों से नाता, उससे कहीं ज्यादा होता है?
क्या हो अगर आपपे कोई वो पसंद या उत्पाद थोंपने लगे?
थोंपती तो है हर कंपनी, अपने-अपने विज्ञापन के जरिए। वो अलग बात है, की वो उसमें कितना सफल हो पाते हैं और कितना नहीं। सिर्फ विज्ञापन के जरिए? या बहुत से गुप्त तरीकों से भी?
कम्पनियाँ सिर्फ थोंपती ही नहीं या कोशिश ही नहीं करती, बल्की आपकी पसंद और नापसंद बनाने का काम भी करती हैं। कैसे? ये अपने आप में बहुत बड़ा विषय है।
कम्पनियाँ या राजनीतिक पार्टियाँ, ना सिर्फ आपकी पसंद और नापसंद बनाने का काम करती हैं या आपको अपनी जरुरत के हिसाब से इधर या उधर धकेलने की कोशिश करती हैं, बल्की अपनी वक़्त के हिसाब की जरुरतों से आपको और आपके आसपास को, आपकी जानकारी के बिना update भी करती हैं। ऐसे ही जैसे, किसी सॉफ्टवेयर के अपडेट या हार्डवेयर के अपडेट। और इस अपडेट में, पता है क्या-कुछ आता है? वो सब, जो आप देख, समझ और सोच सकते हैं। सॉफ्टवेयर अपडेट, मतलब आपके दिमाग से शुरू करते हैं। ऐसे ही सामान्तर घड़ाईयाँ संभव हैं। ठीक ऐसे, जैसे कोई मानव रोबॉट बनाना।
आपके रिश्ते नातों से लेकर, बीवी, बच्चों, माँ, बाप, भाई, बहन से लेकर, आपके घर और उसमें सामान से लेकर, आपकी वित्तय स्तिथि से लेकर, आपकी या आपके आसपास की बिमारियों और जन्म और मरण तक। इसमें बहुत कुछ, ना आप पसंद करते, ना आप चाहते ऐसा हो, मगर फिर भी आप पर और आपके आसपास पर थोंपा जाता है।
राजनीती, सिस्टम और कंपनियों के ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे अपडेट की, आपको और आपके समाज को जरुरत नहीं है। इधर ये राजनीतिक पार्टी कर रही है, तो उधर वो। और कहीं तो मिलीभगत ऐसी, जैसे सारी पार्टियाँ एक साथ लगी पड़ी हों? वैसे ही जैसे, एक होता है डिफेंस मिनिस्टर, बड़े लोगों के कांडों पे पर्दों के लिए या जैसे-तैसे डिफेंस करने के लिए? और एक होते हैं, समझौते? कहीं ये डिफेंस फ्रंट और कहीं वो? मगर, इनमें से बताता आपको कोई नहीं, की वो आपके अपने बनकर भी कैसे-कैसे लूट रहे होते हैं?
फिर भी कोई तो होगा या होंगे जो आपको इन सबसे अवगत करा सकें या शायद कहीं ना कहीं करा रहे होंगे? कौन हैं वो? सिस्टम की समझ रखने वाले लोग? टेक्नोलॉजी और राजनीती या बाजार की मिलीभगत की समझ रखने वाले लोग? या शायद खुद सिस्टम ही, हर स्तर पे, अपने आप जैसे? जितना उन्हें जानो-समझोगे, ज़िंदगी उतनी ही आसान और आपका आसपास उतना ही समृद्ध होगा।
Thursday, June 13, 2024
अलग-अलग स्तर, अलग-अलग प्रभाव या दुस्प्रभाव?
इस पोस्ट में सिर्फ पहले प्रश्न पे आते हैं। या जो कुछ चल रहा था, उसे जानने की कोशिश करते हैं।
ट्रैनिंग
किसकी ट्रैनिंग? कैसी ट्रैनिंग? बच्चों की? बुजर्गों की? युवाओं की? कैसे देते हैं, वो ये ट्रैनिंग? कौन हैं ये लोग, या समुह जो ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी ट्रैनिंग देते हैं, लोगों को? और बच्चों और बुजर्गों तक को नहीं बक्शते? इन्हें कोई रोकने-टोकने वाले नहीं हैं क्या?
राजनीती और राजनीती से जुड़े लोग?
बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ?
और?
मैं अभी गाँव अपना सामान नहीं उठाकर लाई थी। मगर 26-29 April, 2021 का खास जेल ट्रिप हो चुका था। वहाँ जो कुछ देखा, सुना या अनुभव किया, उसमें काफी-कुछ ऐसा था, जिसपे शायद ध्यान कम दिया। या शायद थकान, गर्मी और सिर दर्द की वजह से ध्यान कम गया। ऐसा ही कुछ, जब यहाँ गाँव आने पे बच्चों या बुजर्गों को किसी ना किसी रुप में कहते सुना या भुगतते सुना, तो शुरु-शुरु में तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ा, शिवाय चिढ़ के। या ये क्या हो रहा है, और क्यों, जैसे प्रश्नों के। मगर धीरे-धीरे शायद समझ आने लगा। बच्चों और युवाओं की अजीबोगरीब ट्रैनिंग चल रही थी, उनकी समझ के बैगर। और बुजुर्ग भुगत रहे थे। कहीं ना कहीं युवा भी। और बच्चों की ऐसी ट्रैनिंग का मतलब? वो भविष्य में भुगतेंगे? और ऐसा भविष्य, शायद बहुत दूर भी ना हो, अगर वक़्त रहते रोका ना जाय तो?
क्या थी ये ट्रैनिंग?
जैसे --
"जेल में औरतें अपना टाइम पास करने के लिए गाने गा रही थी। कुछ नाच भी रही थी। और कुछ दूर से सुन रही थी। मैं जो एक दिन पहले ही वहाँ पहुँची थी, सिर दर्द और गर्मी से हाल-बेहाल थी। मेरे सिर दर्द का मतलब, मुझे आसपास बिलकुल शाँत चाहिए और लाइट भी नहीं। मगर यहाँ तो उल्टा था। जैसे जबरदस्ती का दुगना अत्याचार। ऐसे में दवाई भी असर नहीं करती। ऐसे में आप क्या कर सकते हैं? वक़्त तो काटना था। आँख बंद कर, कानों को जैसे बंद कर, एक कोने में दुबकने की कोशिश? मगर इतना जबरदस्त शोर, एक छोटा-सा कमरा और इतनी सारी औरतें, सुनेगा तो फिर भी। उसपे गानों के नाम पे भद्दे आइटम नंबर्स और बेहुदा एक्शन्स। वो वक़्त तो आप काट आए।"
यहाँ गाँव में ये क्या चल रहा था? कोई पियक्कड़ एक बुजुर्ग माँ को हद से परे, बेहुदा गालियाँ दे रहा हो और महाबेहुदा एक्शन कर रहा हो? इधर-उधर आसपास भी कुछ-कुछ ऐसा-सा ही। मगर वैसा ही कुछ CJI भी कह रहा था, शायद? सिर्फ भाषा और तरीके का फर्क था? या कहो समाज के अलग-अलग हिस्से के स्तर का? बात तो वही थी।
दूसरी तरफ, कोई 5-6 साल की छोटी-सी बच्ची, "मेरा नाड़ा खोलन आवै स... " जैसे बेहुदा आइटम नंबर पर अजीबोगरीब एक्शन कर रही हो और उस गाने या ऐसे-ऐसे गानों पर गुनगुना रही हो? और आसपास के बड़े बच्चे या बच्चियाँ या युवा वर्ग उसके मजे ले रहे हों? बच्चे को समझाने या रोकने की बजाय या ये तमाशा बंद करवाने की बजाय? बच्चा तो बच्चा है, अपरिपक्कव। मगर बड़े?
किसी पियक्कड़ ने कोई दरवाजा तोडा हुआ हो। और कोई बुजुर्ग माँ, उसे जोड़ियों से यहाँ-वहाँ बाँधे हुए हो? या नाडों को या नवार जैसे गुच्छों से जैसे, यहाँ-वहाँ कहीं खूँटी, तो कहीं किसी पोल से बाँधे हुए हो? क्यों? दरवाज़ा ही ना ठीक करवा लें?
कितना अंतर है ना बड़े लोगों (?) के नाड़े वाले जॉक्स में और आम लोगों, मध्यम वर्ग या गरीबों की ज़िंदगियों की सामान्तर घड़ाइयों में? ये सब अंतर देख नफ़रत नहीं होने लगेगी, ऐसे so-called बड़े लोगों से? मगर नफरत क्यों? वो उनकी ज़िंदगी है? उन्हें समाज के किन्हीं तबकों में ऐसी-ऐसी सामान्तर घड़ाईयोँ की शायद खबर तक ना हो? और हो भी, तो उन्हें क्या मतलब? या शायद से मतलब होना चाहिए? खासकर तब, जब आप ऐसे-ऐसे लोगों की वजह से ही शायद, कहीं चुनकर पहुँचते हैं?
और फिर मैं ऐसे-ऐसे प्रश्नो पे, अपनी ही आवाज़ सुन रही हों जैसे?
"हाँ! वैसे ही जैसे, तुने कितने लैपटॉप, कूलर या AC या गाड़ी, और कितना ही सामान ठीक करवा लिया? खाती वो खिड़की कर गया क्या ठीक? किसने रोका हुआ है, उसे? और उसके अलावा, कोई और नहीं है क्या, ठीक करने वाला? बड़े लोग भी ऐसे ही, इतने-इतने दिन AC, Coolers के बावज़ूद, यूँ गर्मी में मरते हैं? या यूँ आग लग जाती हैं? उनका आसपास यूँ गँवार या खुद so-called बड़े लोगों के जाल में नहीं होगा ना? वो भी तब, जब इतनी सारी एजेंसियाँ और मीडिया हाउस, देख, सुन और रिकॉर्ड तक कर रहे हों? वैसे ही जैसे, आपने कोई memoir या आपके साथ हुआ क्राइम, किन्हीं मीडिया हाउस को मेल किया हो और वो उसे इग्नोर के डस्टबिन में डाल चुके हों? अब कैसे मीडिया को किया, ये भी एक वजह हो सकता है, उसके डस्टबिन में जाने की? या शायद, आप इन मीडिया हाउसेस के बारे में अभी तक भी बहुत कम जानते हो? या शायद कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी? नहीं तो ऐसी-ऐसी खबरों को तो मीडिया हाउसेस ..... ? शायद अभी काफी कुछ जानना बाकी है, मीडिया हाउसेस के बारे में भी?"
"ठीक ऐसे ही जैसे, यूनिवर्सिटी में GB (General Branch) वालों ने घर ठीक करके दिया था? XEN, JS Dahiya ने सब तो करवा दिया? कौन है ये JS Dahiya? रिपेयरिंग के नाम पे यूनिवर्सिटी में कट तो सबका बराबर लगता है ना? नहीं शायद? कुछ का ज्यादा लगता है? हद से ज्यादा? ऐसे लोगों की जहाँ नौकरी से छुट्टी होनी चाहिए और उनकी बचत पे चपत लगनी चाहिए, वहीं आप ना सिर्फ ऐसी जगह को छोड़ के चलना ही मुनासिब समझते हैं, बल्की ये तक कहते हैं, काट लो जितना बनता है। बुरी जगहों से और बुरे लोगों से जितनी जल्दी पिंड छुड़ा लो, उतना ही अच्छा?"
वहीं कुछ दूसरी साइड भी हैं। जो देखते-देखते कुछ ना आते हुए भी, ना सिर्फ प्रमोशन के पायदान नापते हैं, बल्की एक से दूसरा सरकारी घर ऐसे बदलते हैं, जैसे आप जैसे लोग काम ही उनके लिए करते हैं? SLAVE कहीं के। कहीं दूर क्यों जाएँ, मेरे अपने डिपार्टमेंट का डायरेक्टर। ऐसे लोग जिनके खिलाफ शिकायत हों और वही शिकायत निवारण committees के चेयरपर्सन या मैम्बर? जहाँ तकरीबन सब शिकायत निवारण committees के यही हाल हों, जाना चाहेंगे आप वहाँ वापस?
"वो यूनिवर्सिटी थी। ये तो तेरा अपना घर और अपना आसपास या गाँव है ना?"
बड़बड़ाना खुद से ही जैसे?
हर जगह की अपनी समस्याएँ हैं। कुछ से आप थोड़ा आसानी से निपट सकते हैं। और कुछ से थोड़ा मुश्किल से? और कुछ को हाथ जोड़ चलते बनते हैं, जैसे गुनाह आपने ही किए हों? कुछ समस्याएँ वक़्त के साथ, अपने आप ठीक हो जाती हैं। कुछ वक़्त माँगती है। और कुछ वक़्त से आगे, थोड़ी-बहुत मेहनत भी और कसमकस भी या इधर-उधर की खटपट और चकचक, पकपक भी। गाँव का कुछ-कुछ ऐसा ही लगा। कुछ ऐसे नुकसान या भुगतान हो गए, जो वक़्त रहते रोके जा सकते थे। मगर नहीं रुके। कुछ धीरे-धीरे ही सही, मगर कुछ हद तक सही दिशा में चल पड़े शायद? कुछ को, कुछ और वक़्त और थोड़ी बहुत मेहनत चाहिए। और इधर-उधर का साथ और थोड़ी-बहुत समझ भी।
जैसे शराब कहाँ से और कैसे सप्लाई होती है और कौन करता है या करते हैं? पीने वाला कब पीता है और कब-कब नहीं? सिस्टम या राजनीती से इस सबका क्या लेना-देना है? क्या कहीं का सिस्टम लोगों को जबरदस्ती कोई दिशा या दशा देता है? जी हाँ। हकीकत यही है। जैसे एक पार्टी आपको यूनिवर्सिटी से बाहर का रस्ता दिखाए, तो दूसरी गाँव से बाहर का या देश से ही बाहर का। चाहे ऐसा करने के लिए उन्हें, खून-खराबा ही क्यों ना करना पड़े। या जेलम-जेल ही क्यों ना खेलना पड़े। समाज का अलग-अलग स्तर, अलग-अलग जगह पे, काफी कुछ एक जैसा-सा दिखता हुआ भी, बहुत कुछ अलग कहता है। इसीलिए शायद सबसे सही वो समाज हैं, जहाँ ये फर्क कम है। जहाँ समाज का एक बड़ा हिस्सा, कम से कम, मूलभूत जरुरतों के लिए तो तरसता नहीं नज़र आता।
जहाँ की सरकारें अपने समाज की मूलभूत आवश्कताओं तक की जरुरतों को पूरा नहीं कर पाती, क्या करती हैं वो सरकारें? किसके लिए बनती हैं, ऐसी सरकारें? मंदिर-मस्जिद के गोबर के नाम पे लोगों को मानसिक तौर पर जकड़े रहने के लिए? या नाडों या बेल्टों के नाम पे तमासे करते रहने और करवाते रहने के लिए?
शायद, इसका एक ही समाधान है, सरकारों से उम्मीदें ही क्यों? आप इतने काबिल क्यों नहीं हैं की आपका समाज कम से कम ऐसी सरकारों पे निर्भर ना हो? अगर ऐसा होने लगेगा, तो ऐसी सरकारें अपने आप खत्म होने लगेंगी। और सिर्फ वही सरकार बना पाएँगे, जो तमाशों के लिए नहीं या किसी cult में लोगों को मानसिक-तौर पर जकड़ने के लिए नहीं, बल्की समाज को आगे बढ़ाने का काम करेंगे।
सीधे-रस्ते या घुमाऊ-रस्ते और सामान्तर घड़ाईयाँ ? 1
सीधे रस्ते और घुमाऊ रस्ते में फर्क क्या है?
सीधा रास्ता आपको जल्दी कहीं पहुँचायेगा या घुमाऊ?
आम आदमी बहुत ही सीधा और सरल सोचता है। मगर राजनीती के खिलाडियों के पास ऐसा कोई रस्ता नहीं। क्यूँकि, वो जुआ है। खतरनाक जुआ। कोई भी पार्टी उस जुए को कैसे घुमाती है, ये सिर्फ वही बेहतर जानते हैं।
घुमाऊ रस्ते का मतलब बहुत ही टेढ़ा-मेढ़ा, उलझ-पुलझ और बहुत-कुछ छुपा हुआ है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं। आपके अपने कौन हैं? वो जिन्हें आप हकीकत में जानते हैं? जो आपके आसपास रहते हैं? जिनसे आप अक्सर बात करते हैं? जिनके आप अक्सर काम आते हैं या जो आपके काम आते हैं?
या वो जिन्हें आप किसी के द्वारा जानते हैं? जिनसे आप शायद ही कभी मिलते हैं? जो शायद ही कभी आपके आसपास होते हैं? आपका उनके या उनका आपके काम आना तो बहुत दूर की बात।
सामान्तर घड़ाईयाँ, इन्हीं टेढ़े-मेढ़े रस्तों और छुपम-छुपायियों की देन हैं। इसीलिए, इनमें राजनीती खुद आपको आपके अपने खिलाफ या आसपास के खिलाफ प्रयोग कर पा रही है।
Common Sense को भूलकर, जब आप स्मार्ट बनने या दिखने या दिखाने की कोशिश करते हैं, तो अक्सर धरे जाते हैं। या शायद ये भी कह सकते हैं की अपने दिमाग का जब आप थोड़ा-सा भी प्रयोग नहीं कर पाते, तो दिमाग का थोड़ा ज्यादा प्रयोग करने वाले, आपको अपना रोबॉट बना देते हैं। वो भी ऐसे, की आपको पता तक नहीं चलता की ऐसा हो रहा है।
मान लो आपको अपने घर से किसी जगह जाना है। तो एक तो होगा सीधा-सा रास्ता। और ढेरों होंगे उल्टे पुल्टे या टेढ़े मेढ़े रास्ते। कहाँ से जाएंगे आप? कौन सा रास्ता कम वक़्त लेगा और कम संसाधनों या पैसे में होगा? टेढ़ा मेढ़ा रास्ता कब प्रयोग करेंगे? जब सीधे रस्ते में कोई रुकावट हो? या रुकावट ना हो और किसी के कहने पर बेवकूफ बन गए हों? या किसी ने थोड़ी देर की कहीं रुकावट कर, आपको घुमाने के लिए या तंग करने के लिए ऐसा कर दिया हो। समझदार भी एक-दो बार तो बेवकूफ बन सकता है। मगर पता लगने के बावजूद कितनी बार? सामान्तर घड़ाइयों में खास है, झूठ, धोखा, हकीकत से दूर दिखाना या बताना, छुपम-छुपाई और फूट डालो, राज करो।
Tuesday, June 11, 2024
Different Levels of Pyramid and Different Level Plays Differently?
समाज के अलग-अलग स्तर पर, एक जैसी-सी कहानियाँ जैसे? मगर अलग-अलग स्तर पर लोग, भुगतते अलग-अलग हैं? ऐसा क्यों?
क्यूँकि, स्तर अलग-अलग है। लोग अलग-अलग हैं। उनके आसपास का समाज या तबका भी अलग है। उनका शिक्षा का स्तर, सोच, रहन-सहन, पैसा, घर, जमीन-जायदाद सब अलग-अलग है। जिसके पास ये सब जितना ज्यादा है, वो उतना ही कम भुगतता है। ज्यादातर फाइल्स तक का खेल रहता है। जिनके पास ये सब कम है या कहो, जो इस स्तर पर जितना कमजोर है, वो उतना ही ज्यादा भुगतता है। जिसका समाधान, अपने विरोधियो पर फोकस करना नहीं, बल्की अपनी और अपने आसपास की स्तिथि को सुधारना है। so-called बड़े लोग, अक्सर वही नहीं होने देते। वो एक तरफ, आपकी अच्छाईयों को डुबोने में लगे होते हैं तो बुराईयों को बढ़ाने-चढ़ाने में। क्यूँकि, उन्हें पता होता है, की आपकी strenghts क्या हैं और weaknesses क्या। और आपको ये तक नहीं पता होता, की आपके ये so-called विरोधी हैं कौन। इसलिए, सामान्तर घड़ाईयाँ दिखती एक जैसी-सी हैं। मगर परिणाम?
दूसरा, बड़ों के किस्से कहानियों को अगर बच्चों पे या बुजर्गों पे थोंपने की कोशिश होंगी तो सोचो वहाँ क्या होगा? नाड़े की कहानी से जानते हैं।
मैं अभी गाँव अपना सामान नहीं उठाकर लाई थी। मगर 26-29 का खास जेल ट्रिप हो चुका था। वहाँ जो कुछ देखा, सुना या अनुभव किया, उसमें काफी-कुछ ऐसा था, जिसपे शायद ध्यान कम दिया। या शायद थकान, गर्मी और सिर दर्द की वजह से ध्यान कम गया। ऐसा ही कुछ, जब यहाँ गाँव आने पे बच्चों या बुजर्गों को किसी ना किसी रुप में कहते सुना या भुगतते सुना, तो शुरु-शुरु में तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ा, शिवाय चिढ़ के। या ये क्या हो रहा है और क्यों, जैसे प्रश्नों के। मगर धीरे-धीरे शायद समझ आने लगा। बच्चों और युवाओं की अजीबोगरीब ट्रैनिंग चल रही थी, उनकी समझ के बैगर। और बुजुर्ग भुगत रहे थे। कहीं ना कहीं युवा भी। और बच्चों की ऐसी ट्रैनिंग का मतलब? वो भविष्य में भुगतेंगे? और ऐसा भविष्य, शायद बहुत दूर भी ना हो, अगर वक़्त रहते रोका ना जाय तो?
क्या थी ये ट्रैनिंग?
कौन और कैसे चला रहे थे इसे?
क्या अभी भी ऐसा कुछ चल रहा है?
सिर्फ यहाँ या हर जगह?
जानते हैं ऐसे और कैसे-कैसे प्रश्नो के उत्तर, हकीकत में जो देखा, सुना या अनुभव किया उससे। आगे पोस्ट्स में।
खँडहर और धरोहर का फर्क
सँभाल के रखते हो जिसे आप,
वो धरोहर बन जाते हैं।
उसकी आपको, जरुरत चाहे हो ना हो
मगर कद्र जरुर होती है।
क्यूँकि, वहाँ लगाव, जुड़ाव होता है।
वहाँ साफ़-सफाई ही नहीं,
बल्की, टूट-फुट की भी मरमत
पुराने और चमक खोते का भी
रंग-रोगन होता है।
और किसी ना किसी बहाने,
उसका अस्तित्व और महत्व भी
बना रहता है।
Sunday, June 9, 2024
आओ आदमी को कुत्ता बनाएँ?
Friday, June 7, 2024
सोए हुए को जगाना या जागते हुए को सुलाना जैसे?
Amplifying the latent or dormant?
बुल्लेट?
पिस्टल?
डंडा?
चाकू?
झगड़े या गुंडा-गर्दी वाले पैसे?
झगड़े या गुंडा-गर्दी वाली ज़मीन?
टूटे-फूटे से रिश्ते?
बदहाली?
ज़ंजीरें, चाहे सोने की ही क्यों ना हों?
लड़ाई-झगड़े?
खंडहर?
या
शांति?
खुले रस्ते?
खुशहाल ज़िंदगी?
समृद्धि?
खुला आसमां और उड़ते पंछी ?
धरोहर?
किसको सुलाना चाहते हैं, आप?
और किसको जगाना?
ये सब निर्भर करता है की आप व्यस्त कहाँ हैं? अपनी और आसपास की ज़िंदगी को सवाँरने में? या लूटपाट में, एक दूसरे का बुरा चाहने और करने में?
रुकावटों, अवरोधों को खड़ा करने में? या बंद रस्तों को भी खोलने में? बीमारियाँ पनपाने में, मंदिर-मस्जिद के नाम का गोबर (गोबर क्यों कहा?) फैला, मारकाट करने में? खुशहाल ज़िंदगियों को उजाड़ने में? या बदहाल ज़िंदगियों को भी सँवारने में? अपना ना कमाकर, दूसरों का भी हड़पने के चक्कर में? कुछ ज्ञान बाँटने में? या ज्ञान-विज्ञान का दुष्प्रयोग कर, कम पढ़े लिखे लोगों में अंधविश्वास और अज्ञान फैलाने में? अपने आसपास कचरा फ़ैलाने में या साफ़-सफाई करने में? आपकी और आपके आसपास की ज़िंदगी, उसी हिसाब से आगे बढ़ेगी।
खंडहर? या बुजर्गों के शीश-महल, सामान और इतनी कद्र? 2 (Social Tales of Social Engineering)
खंडहर-सा सामान, खंडहरों में?
बेक़द्र-सा सामान खंडहरों में?
ज़रा, गला, सड़ा-सा सामान खंडहरों में?
किसके लिए?
और क्या धेला किम्मत होगी, ऐसे सामान की?
या ऐसे खंडहर की?
या शायद
वो भी कोई भूत-सा होगा, किसी राजनीती का?
राजनीती के ताने-बानों का?
420-सा जैसे?
या चाची-420?
मगर कौन-सी चाची-420?
ये? जिसे वक़्त के थपेड़े या राजनीती के जाले
बाहर निकाल रहे हैं?
या वो?
जिन्हें आप जानते ही नहीं?
जानते भी हों, इधर-उधर से?
तो शायद ही कभी मिले हो शायद?
और जो अपने ठपे आप पर जड़कर चल देते हैं?
ऐसे जैसे,
बड़े लोग खेलते हैं, फ़ाइल-फ़ाइल
ऑफिस में, कोर्ट्स में
मगर,
उनके वकील लड़ते हैं, उनके केस, मुकदमे
वो शायद ही कभी देखते हैं, इन कोर्टों के द्वार
या जेलों की सलाखें
आप और आपके माँ-बाप या बुजुर्ग भुगतते हैं
मान सम्मान, पैसे का ख़ात्मा और ज़िंदगियों की बर्बादियाँ?
मगर आप?
उनकी घड़ी सामान्तर घड़ाइयों को जीते हैं।
उनके लिए लड़ते हैं, झगड़ते हैं?
जेल भी उनकी दी हुई जाते हैं?
आदमी भी आपके वही खा जाते हैं?
और फिर ये भी बोलते हो,
दीदी ये हो क्या रहा है?
आपको जब दिखाया और समझाया भी जा रहा हो
तो कितना आप देखते-समझते हैं?
मना करने के बावजूद,
उनकी नौटंकियोँ का हिस्सा होते हैं?
वैसे, जब ये सामान यहाँ रखा गया, किसे ऐसे और कैसे-कैसे, इसके मायने पता होंगे?
वैसे इसके कोड क्या हो सकते हैं? जिसका ये सामान या बैल्ट नम्बर है , उनके अपनों ने ही पत्नी और खुद के बच्चों को किसी खंडहर में या भूतकाल में रोका हुआ है?
वैसे ही जैसे, भाई का स्टोर या सुनील का कोठड़ा? हर चीज़ जैसे उन्हीं के खिलाफ? उन्हीं के खात्मे की तरफ? जो ये सब बताने लगता है, उन्हें तो शायद मेन्टल सर्टिफिकेट थमा दिए जाते हैं?
शायद ज्यादातर ऐसे-ऐसे स्टोरों का यही हाल है?
पता नहीं, मैं सच कह रही हूँ या झूठ?
ये पढ़ने वालों पे छोड़ दिया।
कैसे तुम्हारे केस तुम्हारे अपने नहीं हैं, बल्की राजनीती के महारथियों के थोंपें हुए हैं ?
सामान्तर घड़ाईयाँ?
जानने की कोशिश करते हैं, अगली पोस्ट में।
खंडहर? या बुजर्गों के शीश-महल, सामान और इतनी कद्र? 1 (Social Tales of Social Engineering)
यही खंडहर बजते रहते हैं
खाली-पीपड़े से,
थोड़े-से हवा के झोंके से भी?
खंडहर हिल जाते हैं
थोड़े-सी आँधी से ?
खँडहर गिर जाते हैं
थोड़ी ज्यादा आँधी से ?
ये सच है या झूठ,
ये आप सोचें
आप पर छोड़ दिया है।
खंडहरों में भूत तो पता नहीं
पर बीमारियाँ पनपती हैं
विवाद पनपते हैं।
और खंडहरों में अक्सर,
सबसे कमजोर लोग पनाह लेते हैं
और खुद भी खंडहर-से ही हो रहते हैं?
या शायद भूत और यादें?
ये सच है या झूठ,
ये आप सोचें
आप पर छोड़ दिया है।
खंडहरों की खाते-पीते घरों को जरुरत नहीं होती
कुछ बड़े लोगों के बुजर्गों के यादों के महल
अक्सर खंडहर हो रहते हैं?
क्यूँकि, उन्हें उन यादों की जरुरत नहीं होती।
और ना ही कद्र?
वो यादें उन्हें शायद आईना दिखाती हैं
की आप यहाँ से उठकर गए हैं?
जिनसे शायद उन्हें शर्म आती है?
क्यों?
पता नहीं।
ये सच है या झूठ,
ये आप सोचें
आप पर छोड़ दिया है।
मगर ऐसे-ऐसे खंडहर अक्सर
खतरा बन जाते हैं
आसपास रहने वालों के लिए
इन खंडहरों को सालों-साल
इनके so-called मालिक सँभालने तो क्या
देखने तक नहीं आते।
ना ही वो इन्हें, आस-पड़ोस को देते हैं
जो सँभाल सकें।
so-called इसलिए, की जिन्हें ना उसकी जरुरत
और ना ही कद्र
तो क्या?
सिर्फ आसपास वालों की सिरदर्दी के लिए, नाम भर रखा हुआ है?
ऐसे-ऐसे खंडहरों के बारे में
ये सच है या झूठ,
ये आप सोचें
आप पर छोड़ दिया है।
इन खंडहर वालों के कुछ यारों-प्यारों का
सामान भी रखा होता है, शायद,
ऐसे-ऐसे खंडहरों में ?
ऐसा सामान,
जिनकी उन्हें भी ना जरुरत होती और ना कद्र?
उस सामान वाले भी
शायद ही कभी, सँभालने या साफ़-सफाई करने आते हैं।
और ना ही वो सामान किसी जरुरतमंद को देते।
और वो सामान भी गलता रहता है, सड़ता रहता है
बिलकुल उस खंडहर की तरह।
दूसरी तरफ,
ऐसी जगहों पे, ऐसे लोगों की भी भरमार होती है,
जिनके सर छत तक नहीं होती?
इन खंडहर के मालिकों को
ऐसे-ऐसे इंसानो से प्यारे तो कुछ और जीव प्यारे होंगे?
खंडहर में भी शायद जीवन पनपता होगा?
कैसा जीवन पनपता होगा, ऐसे खंडहरों में?
भिरड़ों के छत्ते ?
चमगादड़ों के झुंड?
चूहों के बिल?
आर-पार, इधर वाले घर में?
उधर वाले घर में?
और बाहर गली में भी?
कितनी ही तरह की मकड़ियाँ?
साँप भी शायद?
और कितनी ही तरह के ऐसे-ऐसे जीव?
वो कहते हैं ना
की इस खंडहर के आसपास पैर भी सोच-समझकर रखना
पता नहीं कौन कीड़ा-मकोड़ा काट ले?
कीड़े-मकोड़ों के बिल और कतारें?
और उनका किया हुआ गोबर?
हाँ। ऐसे-ऐसे जीवों का गोबर
वो भी तो वहीँ सड़-सड़ के खाद बनता रहता होगा?
और सुगँध (या दुर्गन्ध)?
जीना हराम कर देती होगी, आसपास वालों का?
कभी हवा के झोंकों से,
तो कभी ठहरे हुए पानी से?
शायद बड़े लोग (so-called बड़े) जानबुझकर ऐसा करते हैं?
ताकि उनकी औकात का अंदाजा, आसपास वालों को लगता रहे?
या शायद दरियादिली का भी?
क्यूँकि, अक्सर ऐसे-ऐसे लोग ही फिर,
यहाँ-वहाँ, छोटा-मोटा दान करते भी तो नज़र आते हैं?
दान?
गायों को शायद?
या गरीबों को?
जाने दान करने के लिए?
या फोटो करवाकर और विडियो बनाकर,
सोशल मीडिया पर रखने के लिए?
ताकि जनता को लगे
अरे वाह! बड़े दानी हैं ये तो?
और गरीबों को याद रहे ज़िंदगी भर
वो तन ढकने को एक बार दी गई कोई साड़ी या सूट?
कोई धोती या कुरता?
कोई मिठाई का डिब्बा या 100-200 रूपए का दान?
कोई बच्चे की फीस-माफ़ी?
या गायों को दिया गया चारा?
मगर यही दानी-लोग, बड़े-लोग?
नहीं दिखाते, उसी जनता से वो लूटते क्या-क्या हैं?
जाने क्यों, उसको छुपा-छुपा कर रखते हैं?
बड़े, महान-दानी लोग?
सुना है रात को कोई आँधी का झोँका आया था?
वो ऐसे-ऐसे दरवाजे और खिड़कियों को बजाता
और हिलाता-डुलाता रहता है?
Wednesday, June 5, 2024
इतिहास, अनोखा विषय है
इतिहास ये बताता है, की T20 कब शुरू हुआ?
ये भी बताता है, की COVID CORONA कब आया?
या COVID CORONA ही क्यों?
और भी तो ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी कितनी बीमारी?
ये CO FEE के बारे में भी कुछ बताता होगा फिर तो?
ये कैसी FEE है? या कैसा लगान या टैक्स?
कब और क्यों शुरु हुआ?
इतिहास इंसान के बारे में या उससे सम्बंधित बिमारियों के बारे में ही नहीं बताता। बल्की सुना है की भगवानों और भगवानियों के बारे में भी बताता है। कौन भगवान या भगवानी कब पैदा हुए? कब उनके रुप-स्वरुप, नाम या भेष बदले? कब रिश्ते-नाते? और कैसे-कैसे?
सुना है कुछ लोग बीमारी सुन-सुन के ही परेशान हो चुके। कह रहे हों जैसे, "छोरी तू घणी बीमारी-बीमारी ना गाया कर"। वो कहते हैं ना जैसे, हट बीमारी कहीं का या कहीं की।
कोई ना, बीमारी-बीमारी सुनके दुखी हो लिए, तो थोड़े भगवान और भगवानीयों की खबर ले लेते हैं? म्हारे हरियाणा आले सुना, एंडी होया करें। जब रेरे माटी पिटन लागें, तो छोड़या भगवान-भगवानियाँ भी ना करें। कैसे? जानते हैं अगली पोस्ट में।
Understanding Elections
ये पार्टी जीती है, ना वो पार्टी हारी है? कुछ-कुछ ऐसा ही?
वैसे चुनाव पाँच साल में एक बार होते हैं? या हर रोज किसी ना किसी रुप में चलते ही रहते हैं?
जो नंबर किसी चुनाव के बाद आता है, वो कितना स्थाई या अस्थाई होता है?
सबसे बड़ी बात, उस नंबर को अस्थाई कौन से कारण बनाते हैं?
किसी भी जगह के चुनाव, कितने स्थानीय और कितने बाहर के कारणों की वजह से बनते या बिगड़ते हैं?
मत - दान? क्या वही होता है, जो आम आदमी, वोट वाले दिन EVM के द्वारा डालता है?
या मतदान की गणना उस दिन के बाद भी परिणाम आने तक बदलती रहती है?
जैसे अगर हवा का रुख दक्षिण अमेरका का हुआ, तो बीजेपी बोलेगी 300 पार?
और अगर उत्तरी पोल (यूरोप) की तरफ का कहीं रुख हुआ, तो कांग्रेस और दूसरी पार्टियों की बल्ले-बल्ले?
ये संसार के इधर या उधर के रुख से डावाडोल होते आँकड़े, सिर्फ मीडिया घरानों तक का शोर होते हैं?
या हक़ीक़त यही है?
मतलब, मीडिया ने जो चुनाव परिणामों के दावे किए थे, वो उस वक़्त की हवा का रुख बता रहे थे?
और जो परिणाम आए, वो परिणाम के आसपास की हवा का रुख?
इसका मतलब तो EVM, एक धोखा है? ऐसे जैसे, कोई हवा का झोंका है?
ये एक छोटा-सा एक्सपेरिमेंट था, जो काफी वक़्त से रहस्य-जैसा बना हुआ था। बाकी हकीकत तो जानकार या विशेषज्ञ बेहतर बता सकते हैं। ऐसी ही वजहों से शायद मेरा मीडिया में इतना इंटरेस्ट बढ़ गया है। कितना कुछ पता होता है, इन मीडिया वालों को?
जैसे कुछ नेताओं के सोशल मीडिया को मैं खास तौर पर फॉलो कर रही थी। मेरे अपने हरियाणा या दिल्ली के कुछ नेता। कुछ हिंट्स इस दौरान यहाँ-वहाँ से जो मिले, वो थोड़े अजीब लगे। जैसे, दीपेंदर हुडा कहे "अबकी बार रोहतक 400 पार" ।
अरे आप कौन-सी पार्टी से हैं? या इसका मतलब?
ऐसे ही जैसे, केजरीवाल का जेल ड्रामा। ड्रामा, मगर हकीकत। खासकर आतिशी का प्रेस में ब्यान, खासकर कूलर से सम्बंधित। अरविंद केजरीवाल को मारने की कोशिश हो रही हैं। दूसरी तरफ, ये कूलर ड्रामा कहाँ चल रहा था? क्या का क्या बनता है यहाँ? ऐसे ही जैसे इस खेल में मौतें तक ड्रामा होती हैं, मगर घर के घर खा जाती हैं।
जनता को जो दिखाई ही नहीं दे रहा, वो सब समझ कैसे आएगा?
आम आदमी को यही कहा जा सकता है की ये दुनियाँ वो नहीं है, जो आपको दिखाई या सुनाई दे रही है। या समझ आ रही है। टेक्नोलॉजी के संसार ने इस दुनियाँ को आम आदमी की समझ से काफी परे धकेला हुआ है। मगर, समझना बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है। अगर नेताओं के ऐसे-ऐसे बयानों को समझने की कोशिश करोगे तो, जैसे दीपेंदर हुडा कहे "अबकी बार रोहतक 400 पार"। हमारे नेतागण शायद खुद समझाने की कोशिश करते लग रहे हैं?
ठीक वैसे जैसे बाकी पार्टी के नेता कुछ का कुछ बोलते हैं। वैसे ही जैसे मोदी के बादल और राडार। या वैसे ही जैसे, अरविन्द केजरीवाल का शुगर और आम। या वैसे ही जैसे?
ऐसे ही कितने ही जैसे, आप देख-सुन-समझ कर खुद बताईये।
Tuesday, June 4, 2024
N State and Nazi State?
N state and nazi state are one and same thing?
And what it has to do with Modi?
Since when people started correlating them with nation? Nation state?
Interestingly, you will find this word, even in some universities special talks, programmes and even in some projects. Wonder, if those universities have some special affection with this nazi state or N state or whatever it is? It has such an off factor that wherever I see it, I feel like backoff, that's not the place you are looking for.
Monday, June 3, 2024
Game Designs and Development
Kiddos games?
Adults games?
Elders games?
Or
Games as study? Research? Politics? Business? Is not that sounds too much?
Heard video games? Right?
BUT
Political games?
Social engineering games?
Human behavior or living beings/systems, behaviour study and analysis games?
Games for study or Research? What about responsible and irresponsible factors? And Consecuences? Who will take the responsibility, when things go wrong in games designs or their execution?
Who cares?
Regressive and Progresive Development Designs?
Games just like video games or movie or serials games like
Game of Thrones?
Dungeon and Dragons 5E?
Baldur's Gate 3?
Dead by Daylight?
Legue of Legends?
World of Warcraft?
Minecraft?
And list is endless.
Or?
Degrees for games designing and development? And yes, they are mind games.
Serious games?
To turn tables?
To turn chairs?
To tackle social problems? To take society forward or backward?
To make a healthy society?
Or by ill-will creation of diseases, meyhems, chaos, war like situations? Destryoing societies with ill intentioned designs?
Interactive Responses, infrastructure, systems, screens, use or abuse of living beings, ethical issues and dilemmas?
How many degree programs or institutes are there in India, working in these fileds and technologies? Professional designers or teams leading the society in certain direction? Rather, our institutes and politics are busy in exploiting less educated or vulnerable people? Social tales of Social Engineering, seems an indication of that?
कभी-कभी आप सर्च कुछ कर रहे होते हैं, और पहुँच कहीं और ही जाते हैं? Game Designs and Development ऐसा ही विषय है, मेरे लिए भी। थोड़ी बहुत जो इसकी हिस्ट्री पढ़ी, वो और भी ज्यादा रौचक है।
Views, Counter Views
Incell
Leg4
Fees, Families, Foster care
Uses and Abuses
Overwhelmed====== Bullying
Denying, facts of abuses
Universities, their interesting projects and view points.
But people want views on politics and current state of political affairs and elections revolving around them?



































