मैं गई और उन्होंने बड़े प्यार से डाइनिंग की एक कुर्सी की तरफ बैठने को इशारा किया और मैं बैठ गई। फिर उन्होंने, अपनी डोमेस्टिक हैल्प को बोला, दीदी के लिए पानी लाओ। उनका कोई फोन आ गया और वो उसपे बात करने लगी।
बात करने के बाद उन्होंने बताया, किसी नर्स का फोन था, साउथ से। और भी छोटी-मोटी बातें शायद, जो मुझे अब ढंग से याद नहीं। ऐसे ही बातों-बातों में थोड़ा बहुत उन्होंने अपने बारे में बताया। और थोड़ा बहुत मेरी जानने की उत्सुकता बढ़ी, खासकर बहुअकबरपुर के कुछ जानकारों को, वो कैसे जानते हैं। उस सर्कल का और किसी K का क्या लेना-देना है? और ये सब पंगा क्या है? मैंने वो भी बताया, की मैंने जानने की कोशिश की, मगर वहाँ कुछ ऐसा-सा रिस्पांस है। और जाने क्यों, वो किसी के फोटो में कौन कैसा दिखता है या दिखती है, उसपे पहुँच गए। और ये भी की वो, उसकी अबकी फोटो नहीं है। बहुत पुरानी हैं, वगरैह-वगरैह। जो उस वक़्त थोड़ा कम समझ आया।
और फिर कुछ अजीबोगरीब-सी बातें जैसे, "मुझे डर लगता है कई बार। यहाँ बाहर कई बार लगता है, जैसे किसी पेड़ की ओट में कोई छिपके बैठा हो।" (ये मैम यूनिवर्सिटी कैंपस में ही, मेरे घर से थोड़ा दूर, दूसरी गली में रहते थे। अब भी वहीं होंगे शायद।)
मगर क्यों?
पता नहीं आजकल माहौल ऐसा ही है।
माहौल ऐसा ही है? मतलब, यूनिवर्सिटी में मेरे अलावा भी कोई ऐसे माहौल का शिकार था? मगर क्यों?
45? शायद कहीं जवाब था? अब ये 45 क्या है?
इस सबके कुछ वक़्त बाद, अजीबोगरीब कुछ छोटे-मोटे से तमासे शुरू हुए। जो धीरे-धीरे बड़े होते गए। बड़ी ही अजीब-सी हरकतें। कहीं आपने कोई मिक्सर-ग्राइंडर ठीक होने को दिया और उसी वक़्त वहाँ कोई पहुँचा। उसके बाद जब लेने गई तो उसका छोटा डिब्बा गुल। मगर ये सब तब ध्यान नहीं दिया। ऐसे ही छोटी-मोटी बात जानकार। छोटी-मोटी चीज़ों पे खामखां का भेझा लगाने की बजाय, बढ़िया है दूसरा ले लो। वो भी खराब हो जाए तो और नया ले लो। मगर उसके बाद यही छोटी-मोटी हरकतें, गाड़ी की तरफ बढ़ी। घर के दूसरे सामान की तरफ बढ़ी। और देखते-देखते, एक के बाद एक, जैसे रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गई। कोई खास बात नहीं या छोटा-मोटा नुक्सान है, धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। गाड़ी कंपनी की बजाय, बाहर किसी इसी गाँव के जानकार मैकेनिक रामनिवास के पास जाने लगी। जिसकी वर्कशॉप यूनिवर्सिटी के आसपास ही थी। वक़्त के साथ, गाड़ी में कुछ अजीबोगरीब बदलाव आने लगे। जिनमें सीट-बेल्ट और ब्रेक लूज़ होना, खटकने लगा। और गाड़ी फिरसे कंपनी पहुंची, जहाँ से कभी वापस नहीं आई। मगर जैसे वो किसी 14 को उठी और जो ड्रामा उस कंपनी में चला, वो कुछ खास था। ये ड्रामा कहीं USA ले गया शायद, कुछ खास लोगों के पास? ये लोग कौन हैं और क्या रुची हो सकती हैं, इनकी मेरी गाडी में? HR-15 7722 (i10), सफ़ेद रंग। अब तक की इकलौती, मेरी अपनी गाड़ी।
मेरे पास दूसरी गाड़ी आई सैकंड हैंड, भाई के नाम। और वो फिर से, किसी 14 को, किसी और जगह खास ड्रामा दिखाती है। इसी दौरान, ये भी पता चला, की जिस साथ वाले गाँव के मैकेनिक की वर्कशॉप पे मेरी गाड़ी ठीक होने जाने लगी थी, वो अपने ही यहाँ के एक लोकल नेता की है। अब ये कौन हैं? अरे ये तो, लड़कियों की भलाई के लिए काफी कुछ कर रहे हैं। कितनी ही बसें लगा रखी हैं इन्होंने, लड़कियों को मुफ़्त में कॉलेज तक लाने और ले जाने के लिए। फिर ऐसे किसी की वर्कशॉप पे ऐसे काम? बहुअकबरपुर और इसके किस्से-कहानियाँ, वक़्त के साथ-साथ और खटकने लगे। मगर सभी तो एक जैसे नहीं होते। ये वो दौर था, जब एक बार फिर से, मैंने कुछ पुराने स्टुडेंट्स की dissertations पढ़ने के लिए उठा ली। ऐसा क्या है उनमें? देखो तो कुछ नहीं। जानने लगो, तो शायद बहुत कुछ।
विज्ञान सिर्फ विज्ञान कहाँ है? वो तो राजनीती नामक कीड़े से ग्रस्त है। कितनी ही जगह बंधा हुआ और कितनी ही जगह बींधा हुआ, जैसे। और उससे भी रोचक, ये सब वो खुद ही बताता है। बस, एक बार उसे, वैसे पढ़ना शुरू कर दो। लिखने को तो बहुत कुछ है। शायद इन रोज-रोज के छोटे-मोटे हादसों की और रोज-रोज बाहर निकलती जानकारी की, कई सारी किताबें लिखी जा सकती हैं। इसी दौरान, मैं फ़िनलैंड की किसी यूनिवर्सिटी की सैर पे थी, कुछ ऑनलाइन dissertations के साथ। ऐसा भी नहीं की उनमें academically कुछ अजीबोगरीब लगे। पर शायद, अब मैंने उन्हें थोड़ा अलग ढंग से भी, पढ़ना शुरू कर दिया था। मगर अभी थोड़ा शॉर्ट कट लेते हैं।
वक़्त के साथ हुलिए पे एसिड-अटैक कैसे-कैसे होते हैं, ये भी कुछ-कुछ समझ आए। और धीरे-धीरे, थोड़ा बहुत राजनीतिक बिमारियों के बारे में भी। उन अटैक्स को इतना पास से देखने-जानने की शुरुआत भी, शायद यहीं से?
भाभी के किसी खास तारीख को जाने के बाद, किसी साउथ इंडियन जैसा दिखने वाली नर्स (?) का यूँ घर आना भी। अरे, वो जो मैम ने घर खाने पे बुलाया था? वहीँ का धकेला हुआ है क्या ये सब?
घर वाले इन अंजान-अज्ञान लोगों को, ये सब कहाँ से समझ आएगा? इसीलिए तो, मैं ऑफिस छोड़ के जाऊँ, तो उन्हें ऑफिस आकर मिलने को बोलते हैं। लड़कियाँ यहाँ कब तक बच्ची ही रहती हैं, जो अपने निर्णय तक खुद नहीं ले सकती? और उन्हें वो घर के किसी अहम निर्णय तक की भनक तक नहीं लगने देते? या ऐसों को बेवकूफ बनाने वाले, लगने नहीं देते? ऐसी कोई भी भनक तक लगते ही, जल्दी, जल्दी और जल्दी मचा देते हैं? सुना है, ऐसे ही कुछ पहुँचे हुए जानवरों ने, कुछ खास किस्म के काले धागे बाँटे हुए हैं, खास पैर पे बाँधने के लिए, यहाँ-वहाँ। बच्चोँ तक को नहीं बक्शते। सुना है, या कहना चाहिए की पढ़ा है, की अपना काम निकालेंगे, कहीं कालिख रचकर। काली सुरंगें जैसे? जैसे सफ़ेद को काला कर देना? काले की काली दिलवाकर? कहीं ये सब, रीती-रिवाज़ों का हिस्सा हैं। तो कहीं? धुर्त, पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े हुए, शिकारियों के छल-कपट?
और उसके बाद कुछ खास डॉक्टर दोस्तों की खास कमेन्ट्री। सही में बड़ी ही रोचक दुनियाँ है? वक़्त के साथ, हुलिए पे एसिड-अटैक कैसे-कैसे होते हैं, ये भी कुछ-कुछ, ऐसे-ऐसे हादसों से समझ आए। और यहाँ लोग काले, सफ़ेद और लाल के तेरे-मेरे और जमीनों के अजीबोगरीब झगड़ों में उलझे हुए हैं? 8, 9, 10 नंबरियों के चक्करों में जैसे? बिना ये जाने या भनक तक लगे, की इन सबके चक्करों में उलझा, वो असली काँड, कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे रच रहे हैं?
Brave New World of Witch Hunts? A Bit Too Much?
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