Search This Blog

About Me

Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Friday, February 9, 2024

खंडहर, ताला और कुछ पुराना सामान (Social Tales of Social Engineering) 18

1-2-2024

1 Feb? कुछ अच्छा-सा दिन नहीं है। किसी घिनौने षड़यंत्र की कहानी-सा है जैसे?

खामखाँ के किस्से और कहानीयां । और लालचों और स्वार्थ के घेरे। इधर से भी। उधर से भी और उधर से भी। 

खैर। जिनका सामान यहाँ इस खंडहर में है, उन्हें उसी दिन खबर कर दी थी। वही खास नौटंकी वाले दिन 28-1-2024 ।

अब कोई खंडहर, सिर दर्द बना हुआ हो, रोज-रोज इस बहाने या उस बहाने, तो जानना तो चाहिए, की ऐसा क्या है उसमें? 

1-2-2024, दरवाजा ठीक करने के नाम पे मिस्त्री आता है। दरवाज़ा खोलो, दूसरी साइड अंदर जाना है। 

तो उधर से ही जाओ। 

वो तो बंद है। 

करने क्या आए हो?

मतलब, अंदर जाके ठीक होगा। 

हाँ। तो वहीं से जाओ और करदो।

फिर सोचा मैं भी तो देखूँ, ऐसा अंदर क्या है? उसे कौन-सा ठीक करना था। ड्रामा किया। यूँ का यूँ अटकाया और चल दिया।      

ये तो पता था की, नरेंद्र अंकल का सामान है। कुछ दादा बलदेव के पुराने घर का बचा-खुचा। दादा हरदेव की साइड वाले खंडहर में। इस खंडहर को इतने सालों से अंदर से कभी नहीं देखा। वैसे, इस खंडहर को कभी माँ लेना चाहते थे, जब ताऊ रणबीर इसे छोड़ के गाँव के बाहर की साइड गए। मगर पता नहीं क्यों, उन्होंने दिया नहीं। मुझे खासकर, ये खंडहर आधा इधर और आधा उधर काफी बुरा लगता था। एक हिस्सा बलदेव सिंह का और दूसरा हरदेव सिंह। कई बार मैंने खुद रिक्वेस्ट की ताऊ से, इसे हमें देने की। शुरू में उन्होंने मना कर दिया। बाद में शायद स्कूल वाली जमीन का लफड़ा उलझ गया। वो दादा से वो जमीन लेना चाहते थे, किसी दूर वाली जमीन के बदले। मगर दादा ने मना कर दिया, क्यूँकि हमें भी उसकी जरुरत थी, शायद उनसे ज्यादा। 

जब मैं गाँव आई, कोरोना काल की धकेली हुई, तो मुझे लगा, क्या कहीं और बनाना। इसी खंडहर की बात करके देख लेते हैं। पता नहीं कितने दिन और रहना है यहाँ। क्यूँकि, उस वक़्त अपने गाँव से ज्यादा सुरक्षित जगह, कहीं और नजर नहीं आई। अब ताऊ भी नहीं रहे, तो शायद भाई-भाभी में, वो ज़िद्द ना हो। पर बड़ा ही अजीबोगरीब जवाब रहा, कांता भाभी का। पूछेंगे। देखेंगे। वगैरह। माँ से डाँट खाई, वो अलग। अब भी यही घर बचा है, लेने को? बात भी सही थी। उसके बाद एक प्लॉट पड़ा है, उसके बारे आंटी से बात हुई। कुछ हिस्सा हमारा और हमसे थोड़ा ज्यादा उनका। दोनों मिलके, थोड़ा ठीक हो जाता। और भी ज्यादा अजीब जवाब। ज्यादा पैसे वाली है। मुझे कुछ समझ नहीं आया, पर अजीब जरूर लगा। कई बार यहाँ-वहाँ से भी ऐसा कुछ सुना पैसे को लेकर, कितने पैसे जोड़े हुए हैं। मेरे लिए ये सब अजीब था, क्यूँकि कभी किसी ने ऐसा पूछा ही नहीं। हाँ। एक-आध बार कहीं से ऐसा जरुर सुनने को मिल जाता था, की पैसे जोड़ले थोड़े-बहुत, काम आएँगे। कोई पूछे उनसे, कब काम आएँगे? मरने के बाद? जो जुड़े पड़े हैं, वो काम आ गए क्या? वैसे, ये सब यहाँ बताने का मतलब? वही लोग हमारी जमीन के खरीददार हो रखे हैं, जो अपना खाली पड़ा बहुत ही छोटा-सा, खंडहर का एक टुकड़ा तक नहीं दे सके। वो भी वो टुकड़ा, जिसकी उन्हें जरुरत भी नहीं थी। और खुद जिसे खोले, जिन्हें पता ही नहीं, कितने साल हो चुके। और धोखे से वो कैसी जमीन को सेल पे रख गए? दुनियाँ कभी-कभी जैसे, सिर के ऊप्पर से जाती है। इससे भी अहम, क्या ये सब इस थोड़ी-सी जमीन की बात है? या इससे आगे काफी कुछ है? मेरे लिए खासकर, वो ज्यादा अहम है।         

ये सब बातें, कहीं और चले तमासे की हूबहू-सी कॉपी जैसे हैं। कहीं इस पार्टी की, तो कहीं उस पार्टी की। इस खंडहर में, मेरी कोई खास रुची कभी नहीं रही। मगर, अजीबोगरीब ज़मीनों के किस्से-कहानियों ने जरुर काफी कुछ बताया। जैसे लोगों के जाने के बावजूद, सालों-साल जमीन उनके नाम क्यों रहती है? या लोग कैसे-कैसे खंडहरों के मालिक रहते हैं, वो भी जब वो शायद किसी और के काम आ सकें? या तब, जब वो खंडहर, अड़ोस-पड़ोस के लिए खतरा बन चुका हो। जैसा ताऊ के इस खंडहर का हाल, जिसकी तकरीबन सब साथ वाले पडोसी, शिकायत कर चुके। और लोगबाग जमीन हड़पने की कोशिश में कोई ऐसी जमीन, जिसका खतरे से कोई लेना-देना ना हो? जो जमीन उपजाऊ हो, उसपे गाँव के पास और जिसपे खेती हो रही हो। या शायद जो जमीन, भाभी के खात्में के षड़यत्र की कहानी बना दी गई? ऐसी ज़मीने या ऐसे स्कूलों के शिक्षा के नाम पे धंधे किस काम के, जो इंसानो की कब्रों के ढेर की दास्ताने हों? उससे भी अहम, बच्चों तक को जमीनों के चक्करों में उलझा दें? वो भी छोटे-छोटे जमीनों के टुकड़ों पे? कुछ ज्यादा ही अजीब राजनीती है, जिसे अंजान, आम इंसान सबसे बुरी तरह भुगतता है।   


आओ दो अजीबोगरीब स्टोरों की कहानी जानते हैं। 

खंडहर और कबाड़ 2. 4. 2  

इस खंडहर पे उजला नाम का जरा हुआ ताला है। और बाहर का दरवाजा टूटा पड़ा है, एक साइड से। आराम से हटाओ और घुस जाओ। अंदर घुसते ही, कुछ पुरानी कड़ियाँ और पथ्थर और ऐसा ही कुछ और कबाड़। अंदर जाओ, तो एक बड़ी-सी सन्दुक आंटी की, और उसपे 2-काले बक्से, नरेंद्र अंकल के। जिनपे उनका नाम लिखा है और 2. 4. 2.  वहाँ से अंदर की तरफ जाओ, तो एक और संदुक और जरे-गले कुछ तसले, बाल्टियाँ, एक मोटर और ऐसा-सा ही कबाड़। ये सब देखने का मौका मिला,जब 1-2-2024, को दरवाजा ठीक करने के नाम पे मिस्त्री आया। ठीक कर गया, क्या? हाँ। एक ईंट का टुकड़ा, एक टूटी-साइड वाले दरवाज़े पे रख गया। अजीब ड्रामा नहीं है?  

खंडहर और कबाड़ 2. 4. 2, डिज़ाइन कुछ-कुछ ऑफिस 105 स्टोर टाइप? जिसको ऑफिस वालों ने बंद कर रखा था। वैसे, मेरे गाँव के पते में भी 105 लगता है। ये नंबर भी बहुत ज्यादा पुराना नहीं है, शायद। अंकल की मौत भी किसी 5 तारीख की ही है (5-1-2008)। पता नहीं अब, इन सबका आपस में क्या लेना-देना हो सकता है? पार्टियाँ अपने कोढ़ के हिसाब से, ये सब लगाती या हटाती या बदलती रहती हैं। और भूतों की तरह, कुछ को कहीं अंदर रोक ताले जड़ देती हैं। फिर जब जरुरत पड़े, उन्हें बाहर निकाल देती हैं। 

ऐसे ही पहले मदीना, सिर्फ मदीना-कोरसान और मदीना-गिंधरान था। फिर मदीना-A और मदीना-B भी लग गया। और उसके बाद पता नहीं कबसे, 105 यहाँ के पते के साथ जुड़ गया। ऐसी-सी ही घरों के नंबरों और उनमें रहने वालों की या छोड़ के चले जाने वालों की कहानियाँ है।  

स्टोर 105, UIET, MDU 

ये स्टोर पहले शायद M.Tech, Tutorial रूम था। शायद, क्यूँकि पक्का ध्यान नहीं मुझे। मगर कुछ वक़्त बाद ही अजीबोगरीब झगड़े शुरू हुए, कुछ faculties के बीच। और कोई लैब किसी ने Biotech से छीन ली। कोई लेक्चर थिएटर ऐसी ही, कोई कहानी बना। और कुछ छोटे-छोटे रुम इधर वालों ने, तो कुछ उधर वालों ने बंद कर दिए। तब तक मुझे ये सब, ऐसे समझ नहीं आने लगा था। मगर अजीबोगरीब लगता था, की लोगबाग इतनी जगह को क्या खाएँगे, वो भी ऑफिस की जगह। या इन कमरों पे या लैब्स पे ताले क्यों जड़ दिए, किसी के तो काम आते। जब मैं डिपार्टमेंट कोऑर्डिनेटर बनी, मैंने वो सब खुलवाना शुरू कर दिया। वैसे भी, उन दिनों जो मेरी लैब्स या classes में पढ़ाई हो रही थी, वो सब जैसे खटकने लगा था। ऐसे ही ये छोटा-सा स्टोर था 105, Ground Floor। क्या था इसमें? 2-Whiteboard, पुराने, एक बड़ा सा गत्ते वाला डिब्बा और उसमें ढेरों ऑफिस के पुराने लैंड-लाइन्स फोन, एक्सटेंशन वगैरह। ऐसा-ही एक-आध और सामान शायद। 

चलता करो इस कबाड़ को, क्यों स्टोर किया हुआ यहाँ। ये कमरा, कहीं और काम आएगा। 

मैडम पड़ा रहने दो, इसे। 

क्यों?

और कमरे बहुत हैं। 

तो उन्हें भी खोलते हैं, ना।   

और ये भुतिया स्टोर, मुझे साइको तक पहुंचाने की कहानी बने। अब पढ़ना-लिखना भी मना है? ये कैसे संसार में हैं, हम? पढ़ लो, मगर ऐसे खुलम-खुला बात करना मना है, शायद? नहीं तो, देशद्रोही, विद्रोही, पागल और पता ही नहीं, कैसे-कैसे एसिड अटैक हो जाएँगे। ज्यादा सफेद बनते हो, काला कर देंगे बिलकुल या रंग-बिरंगा। कोढों की बात, कोढों में ही करो? मगर सच में लोगों पर और रिश्तों पर, ऐसे अटैक हों तो? ऐसे अटैक तो, पुराने ज़माने में होते थे ना? Witchhunt Type? या शायद आज भी होते हैं?                 

फाइल की बात करें तो, भारती-उजला केस और इस उजला ताले वाले खंडहर को कैसे देखते हैं आप? क्या है उस केस में? CRISPER CAS9, International in Design?    

और स्टोर-105? किसी ऑस्ट्रेलियन 5 डिजिट और यूनिवर्सिटी में ऐसी कोई कहानी मिल सकती है क्या?

ऐसे ही 4 और 2 नंबर से, किसी और महाद्वीप पे? अमरीका या यूरोप भी चल सकते हैं, घुमने। ऐसे ही कोई भी नंबर और उनके जोड़-तोड़, छोटे-छोटे गाँव, कस्बों से लेकर, दुनियाँ की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज तक कुछ कहते हैं शायद?  

क्या कह सकते हैं? जब यूनिवर्सिटीज की सैर पे चलेंगे, तो विस्तार से जानेंगे। तब तक, आप सोचो? थोड़ा बहुत पहले किसी पोस्ट में लिख भी चुकी शायद। 

No comments:

Post a Comment