अगर आप किसी अपने को किसी भी किस्म की बीमारी से बचाना चाहते हैं तो सीधी सी बात, हॉस्पिटल भी लेकर जाओगे। और वहाँ जाके पता चले की पीने वालों का ईलाज हॉस्पिटल नहीं, नशा मुक्ती केंद्र हैं। किसी आसपास के नशा मुक्ती केंद्र में छोड़ दो। कुछ महीने में ही फर्क देखने को मिलेगा।
2010 में दादा की मौत। और उसके बाद मेरा घर आना-जाना जैसे 2-4 घंटे का ट्रिप कोई, 10-15 दिन में। मेरे से छोटे दो भाई हैं।
सबसे छोटा परमवीर, जिसकी 2005 में शादी हो गई।
सुनील उससे बड़ा और मेरे से छोटा, जिसे बचपन में ही बुआ ले गई थी अपने पास पढ़ाने। ठीक-ठाक था पढ़ाई लिखाई में, गाँव के बच्चों के हिसाब से। 10 वीं तक ठीक-ठाक। फिर शायद, थोड़ा कम ठीक-ठाक। 12वीं वहीँ से की। फिर गाँव आ गया और वक़्त के साथ पढ़ाई-लिखाई बंद। घर पर कम, संदीप (गाँव का ही भाईबंध) के यहाँ ज्यादा रहने लगा। मैंने कम्पुटर में दाखिला दिलवा दिया। संदीप और ये दोनों कुछ वक़्त साथ गए। फिर इसने बंद कर दिया। संदीप ने पूरा कर लिया। छोटा-मोटा सा डिप्लोमा था। यहाँ से गड़बड़ हो गई?
बाद में जो समझ आया, भाषा की समस्या, जिसने इसे भगा दिया। संदीप पार गया। संदीप TATA-AIG में लग गया और उसके कुछ वक़्त बाद, छोटे भाई ने भी कुछ वक़्त उसके साथ काम किया। मगर बात जमी नहीं और वापस गाँव आकर खेती करने लगा। भाभी, किसी दूसरे स्कूल में पढ़ाने लगी। छोटा भाई ठीक-ठाक जम गया। छोटा घर रहा था, तो उससे लगाव ज्यादा था। फिर भाभी भी कहीं न कहीं, एक कड़ी का काम करती थी। छोटा, माँ का भी लाडला रहा है।
मगर सुनील कहीं गुम हो गया। खासकर, दादा की मौत के कुछ साल बाद। मेरी भी उससे बोलचाल कम होती थी, विचारों के मतभेद ज्यादा होने की वजह से। या शायद, ज्यादातर बचपन एक-दूसरे से दूर बिता था, ये भी एक वजह हो। मझला, मझदार में रह गया जैसे। ना इधर का, ना उधर का। संदीप की शादी हो गई और वक़्त के साथ उसकी दोस्ती भी गई। दादा के जाने के बाद, कुछ हद तक, घर का सहारा भी। बेघर, जैसे। 2011 में, हमारे यहाँ लाला (एक और संदीप) रहता था, उसने खुदखुशी कर ली, गेँहू में डालने की दवाई खाकर। वो भी दादा के जाने के बाद, शायद बेघर-सा ही अनुभव करने लगा था। उसपे उसी दौरान, उसकी माँ भी मर गई थी।
2012 शायद, गाँव में एक केस होता है। और जाने क्यों उस केस में मेरी रुची। जाटों के कुछ बच्चों ने, चमारों के 2-बच्चे मार दिए। कुछ का कहना है, अटैक एक पे था, दूसरा हार्ट अटैक से मर गया। 24 को पुलिस ने उठा लिया। 10-15 दिन बहुत से घरों के हाल ऐसे, जैसे सन्नाटा पसरा हो। कुछ के माँ-बाप को पुलिस ने उठा लिया। गाँव के नाकों पर जबरदस्त, पुलिस पहरा। इन 24 में, कुछ नाम जैसे, जाने-पहचाने से। मगर, उससे भी खास, क्या सच में बच्चों की आपसी कहा-सुनी से शुरू हुई लड़ाई में, इतने शामिल होंगे? चाचा के यहाँ थोड़ा आना-जाना भी बढ़ गया। अड़ोस-पड़ोस को जानने की रुची भी। पहली बार जेल में किसी से मिलने का और जेल को इतने पास से देखने का अनुभव भी, उसी वक़्त हुआ। और ज्यादा जानने की रुची भी। इस केस ने कई सारे बच्चों की ज़िंदगियाँ लटका दी जैसे, या बर्बाद कर दी। कई मुझसे कई साल छोटे। जिन्हें मैं अगली पीढ़ी बोलती हूँ। कई सारे आसपास से ही। कुछ पास में ही पंजाबी चौक से। इस केस के बहुत सालों बाद समझ आया, की ये भी एक सामाजिक सामांतर घड़ाई थी। ठीक वैसे ही, जैसे सुनील का शराब की लत का केस और इसके आसपास के किरदारों की कहानियाँ। इसके पास आने-जाने वालों के नाम, या नाम भर के दोस्तों के नाम, जैसे उस वक़्त की कहीं और की, कोई और ही कहानी सुना रहे हों। ये भी, अभी पिछले कुछ सालों से समझ आना शुरू हुआ है। माहौल, कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ से बनता है? मतलब, यूनिवर्सिटी के कैंपस क्राइम सीरीज का अध्ययन ना होता, तो इन सामाजिक सामान्तर घड़ाइयों के और सामाजिक इंजीनियरिंग जैसे विषयों की भी भनक तक, ना लगनी थी। ये संसार तो मेरे आसपास पहले भी था। मगर, ऐसे कहाँ समझ आता था, जैसे अब?
इसी दौरान, सुनील के हालात भी पता चले, की वो बेघर, बहुत ज्यादा पीने लगा है। इधर-उधर मंदिर या गुरुद्वारे खाना खाता है। संदीप को गालियाँ देता है। अब कोई शादी भी ना करे? मेरी और सुनील की बोलचाल ही बंद थी, कुछ वक़्त से। माँ और भाभी से बात हुई, तो पता चला घर कम ही आता है। क्यूँकि, उसका संदीप के घर का ठिकाना भी, काफी हद तक छूट चूका था, खासकर संदीप की शादी के बाद। पड़ा रहता है, कहीं-कहीं। गन्दी-गन्दी गालियाँ देने लगा है, हर किसी को। उसे किसी को बोल के बुलाया। हालात देखे, तो जैसे खुद पे शर्म आ रही थी, की मैं बहन हूँ उसकी? फट्टे-पुराने गंदे कपडे, टूटी चपलें।
मैंने बोला, साथ चलेगा यूनिवर्सिटी?
उसने मना कर दिया, मगर आँखों में आँसू थे।
चल, कपड़े वगरैह ले आना, फिर वापस आ जाना।
आज याद आ गई तुझे मेरी। आज से पहले नहीं पता था, की मैं कहाँ मर रहा हूँ?
डॉयलोग फेंक लिए हों, तो आजा।
और वो बैठ लिया साथ में।
अगली बार घर आई तो अड़ गया, जैसे बच्चा अड़ जाता है। साथ चलना है, मुझे यूनिवर्सिटी।
कपड़े फिर से गंदे, सड़े हुए, बदबू मार रहे। इस हाल में? नहा-धोके, कपड़े तो बदल आ।
लेके चलना है, तो चल। बकवास मत कर।
अच्छा। चल।
अब ये उसका रुटीन बन गया। मगर सिर्फ 2-3 दिन, वो भी 2-3 महीने में एक-आध बार ही। थोड़ा बहुत सामान लिया और कोई ना कोई बाहना मारके गुल। या पीकर बकवास शुरू और मुझे निकालना पड़े या वापस छोड़के आना पड़े घर। यहाँ से, ये भी समझ आया की नशे की लत का मतलब, खुद उस इंसान के लिए और घर वालों के लिए क्या होता है। अपना खुद का ठिकाना ना होना। कोई खास सहारा ना होना। उसपे अगर काम-धाम भी ना हो, तो और मुश्किल। नहीं तो पीती तो बहुत दुनियाँ है। सबके ऐसे हाल कहाँ होते हैं? क्यूँकि, उन्हें गिराने से ज्यादा, सहारा देने वाला सिस्टम काम करता है। ज्यादातर घर का। शराब से दूर करने वाला सिस्टम। दिमागी तौर पर, मजबूत करने वाला सिस्टम। कमजोर प्राणी को ज्यादातर मासाहारी जैसे ताकतवर प्राणी खाते हैं। वो फिर चाहे, आदमी के खोल में ही क्यों ना हों। आदमी या कोई सभ्य समाज तो ऐसा नहीं कर सकता, शायद ?
इसी दौरान ऑनलाइन नशा मुक्ती केन्द्रों के बारे में सर्च किया। थोड़ा बहुत नशे की लत के कारणों और निवारणों के बारे में भी पढ़ा। यहीं से शायद, एक नशा मुक्ती केंद्र चुना। जो दिल्ली के पास ही था, खरखौदा। विरेंदर या बीरेंदर उसका डारेक्टर था। कॉल किया, बात की और वो खुद ले गए उसे। उसी दिन खुद भी साथ-साथ गए देखने और केंद्र के बारे में जानने। सब सही लग रहा था।
दूसरी बार, जब मिलने गए, तो कुछ सही नहीं लगा। सुनील ने कहा, मुझे निकाल ले यहाँ से। ये मार देंगे मुझे। और नहीं निकाला, तो बाहर निकल के मैं तुम्हें मारुँगा। और जो तुम सामान देके जाते हो ना मुझे, वो भी मुझे नहीं मिलता। मैंने नशा मुक्ती केंद्र के डारेक्टर से बात की, की क्या अंदर से हम आपका सेंटर देख सकते हैं? उसने एक बार तो मना कर दिया। काफी बोलने के बाद, संदीप को थोड़ा बाहर-से ही दिखाने के लिए हाँ कर दी।
वहाँ से मैं आ तो गई, मगर कुछ हज़म नहीं हुआ। अगले महीने का इंतजार करने की बजाय, जल्द ही उसे वापस ले आए। मगर, सुनील के हालात ऐसे हो रहे, जैसे मारना साँड़। मारुँगा, काटुँगा, छोडूँगा नहीं तुम्हें। पता नहीं ये सिर्फ Withdrawal Symptoms की वजह से था या जो वो कह रहा था, वही शायद से हकीकत थी। उसने बताया, वहाँ लोग जेल से और पुलिस से बचने के लिए छुपते हैं। वहाँ सिर्फ शराब की लत वाले नहीं, बल्की blah blah ड्रग्स की लत वाले भी रहते हैं। वो भी, सब एक साथ। हम जैसों के साथ मार-पिटाई होती है। गैस के सिलिंडर बाजुओं पे लटका देते हैं। सपने में भी नहीं सोचा था, की नशा मुक्ती के नाम पे ऐसे-ऐसे सेंटर भी होते हैं?
संदीप और अनिशा (भाभी) का उन दिनों काफी आना-जाना था, यूनिवर्सिटी वाले घर। H#16 वाले वक़्त। H#30 के वक़्त ने तो जैसे, सब इधर-उधर खदेड़ दिया। दोनों की लव-मैरिज है, इंटरकास्ट। थोड़ा बहुत विरोध-अवरोध। मगर ज्यादातर ऐसे केसों में, कुछ वक़्त बाद शायद सब सही हो जाता है। खासकर, आप गाँव ना रहें तो। संदीप दोस्त रहा था सुनील का, और केयर अभी भी करता था। ऐसे ही सुनील के बारे में बात चल रही थी, तो उसने कहा, दीदी मेरी जानकारी में एक नशा-मुक्ती केंद्र है। वहाँ करवा दो इसे। शायद, कुछ ठीक हो जाए। और उसे करवा दिया, फिर से नशा मुक्ती केंद्र। अबकी बार, राजस्थान।
वापस आते वक़्त गाडी का भयंकर एक्सीडेंट, हिसार के आसपास शायद। 2-3 सैकंड का समय ऐसे लग रहा था, जैसे खत्म। गाड़ी 110 या 120 KM की स्पीड से टेढ़ी-मेढ़ी होती, पता ही नहीं कहाँ जा रही थी। संदीप ड्राइवर सीट पे। मैं साइड सीट पे। और पीछे वाली सीट पे, उसकी मौसी का लड़का।
मेरे ऊपर खून के टपके, गाड़ी की छत से। मैंने ऊपर देखा, तो कोई सींग दिखाई दिया। थोड़ी शांति हुई, की आदमी नहीं है। आगे शीशा चुरचूर। सीसे का बूर आँखों पे भी था, तो धुंधला-सा दिखा। रोज (नीलगाय) था। कुछ ही दूरी पर, थोड़ी देर बाद गाड़ी कंट्रोल हो गई। सारे सेफ थे। गाडी साइड लगा बाहर निकले।
गाड़ी की तेज आवाज़ और एक्सीडेंट देख, काफी लोग इधर-उधर खेतों से आ गए। किसी ने कहा, अपने आपको किस्मत वाला समझो, की बचे हुए हो और कोई चोट भी नहीं है। अभी 2-3 दिन में ही यहाँ दो एक्सीडेंट और हुए हैं, नीलगाय की वजह से, और उनमें कोई नहीं बचा। हालाँकि, गाडी की हालत देखकर कहना मुश्किल था, की कोई यहाँ भी बचा होगा। नीलगाय भागती हुई आ रही थी। गाडी की आगे वाली साइड से टकरा कर, गाड़ी के बोनट पर गिर गई। और उसका एक सींग मेरे सिर के ठीक ऊपर, गाड़ी के अंदर घुसा और फिर शायद वो साइड में गिर गई। समझ ही नहीं आया, बचे कैसे? शायद सीट बैल्ट की वजह से। उसकी मौसी के लड़के को जरूर थोड़ी चोट आई। मगर एक्सीडेंट को देखते हुए, कुछ खास नहीं। सुनील, संदीप की माँ को भी माँ बोलता है। कुछ साल, उन्होंने भी काफी भुगता इसे।
अगली बार नशा मुक्ती केंद्र मिलने गए, तो फिर से वापस ले आए। उसने कहा, मैं नहीं रुकुंगा यहाँ। यहाँ के हाल देख। इस दौरान काफी सर्च किया, नशे की लत पर और नशा मुक्ती केंद्रों पर। शायद पैसा थोड़ा ज्यादा लगता, तो कुछ हो सकता था। पर उसके साथ ये भी समझ आया, की इतना पैसा तो थोड़े-बहुत कंट्रोल में, अगर घर ही लग जाए, तो भी ईलाज संभव है। उसे कहीं वयस्त करने की जरुरत है और आसपास की कंपनी से निकालने की। क्यूँकि, बहुत बार उसने खुद भी शराब पीना छोडा है। और शायद खुद से ना पीने का निर्णय ही, इस बीमारी का प्रभावी ईलाज भी है। या हिमाचल साइड जाता है तो भी, आने के बाद ठीक-ठाक ही लगता है। मतलब माहौल, बहुत कुछ करता है इंसान की ज़िंदगी में, चाहते या ना चाहते हुए भी।
अभी तक तो जैसे-तैसे बच गया। अब इस अजीबोगरीब राजनीतिक षड़यंत्र से कौन बचाएगा? बच पाएगा, क्या वो इससे?
No comments:
Post a Comment