समाज अपने आप में एक बड़ी लैब है - 1 (पोस्ट : मई 26, 2023)
"मगर अचानक से काफी कुछ बदलने लगा था। Case Studies Publishing के चक्कर में उस तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया। क्या था वो अचानक? अचानक था या मुझे ही अब समझ आने लगा था?"
अपनी गाडी यहाँ खड़ी मत कर। वहाँ, उधर सामने वालोँ के यहाँ खड़ी कर ले।
और आप मन ही मन सोच रहे हैं -- ये है कौन, तुझे ये सब बोलने वाला? कुछ ज्यादा ही नहीं बड़बड़ा रहा? और गाडी वहीँ खड़ी कर मैं घर आ गयी। माँ का घर। मेरा कमरा भी यही है। माँ और जहाँ भाई रहता है, उसके बीच में वो घर है, जहाँ गाडी खड़ी करने को बोला गया था। कभी आदत नहीं रही, किसी के यहाँ ज्यादा आने-जाने की, तो अपना कोई सामान रखना, चाहे गाडी ही क्यों न हो, थोड़ा अजीब था सुनने में भी।
वक़्त के साथ, ऐसी छोटी-छोटी सी, पर खोटी चीज़ें बढ़ती जा रही थी। मगर इनपे सोचने का वक्त ही कहाँ था? मैं तो case studies writing में व्यस्त थी। और शायद जिनके खिलाफ वो case studies books थी वो plotting में ! उसके साथ थोड़ा बहुत स्कूल का प्लान भी चल रहा था। मगर वक्त के साथ दोनों में ही दिक्कत आने लगी थी। जहाँ स्कूल बनना था, वहाँ की ज़मीन पे तु-तु, मैं-मैं, शुरू हो चुकी थी। इस सब में आसपास की भुमिका अहम् थी। इस सबसे निपटने के लिए मैंने जमीन भी देखनी शुरू दी। या कहना चाहिए की ये सलाह भी आसपास से ही मिली थी।
कुछ-कुछ समझ आने लगा था की, "फूट डालो, राज करो" अभियान चल रहा है, मगर उसका हल नहीं समझ आ रहा था। आसपास इतनी तरह के लोग, इतनी तरह की बकवास। इतनी तरह के लोगों के, इतनी तरह के निहित स्वार्थ।
मगर समाधान भी शायद उन्ही इतनी तरह के लोगों के बीच में ही था। क्युंकि, सब तो स्वार्थी होते नहीं। शायद कुछ को इस वातावरण की मुझसे ज्यादा समझ थी। और धीरे-धीरे, कुछ हद तक समझ भी आने लगा था की ये यहाँ क्यों नहीं होगा और वो वहाँ क्यों नहीं होगा। उसमें अहम् था या कहो, थे, वो सब करवाने वाले। राजनितिक पार्टियों के जाल। ये BJP है। ये Congress है। ये JJP है। ये AAP है। इनके ये निहित स्वार्थ हैं। उनके ये और उनके ये। इतने जालों में कोई भी उलझ जाए।
एक दिन एक महान आत्मा (some outsider) ने कहा, "तुमने हमारी ज़मीन पे कब्ज़ा कर लिया तो!" मेरे लिए बड़ा अजीब था वो सब सुनना।
मन ही मन सोच रही थी, ये है कौन, मुझे ये सब कहने वाली? ये तो कुछ ज्यादा ही जा रहे थे। मगर ये सब इनके लिए आम है। क्यूंकि इन जैसों की सोच के अनुसार औरतोँ के कोई अधिकार ही नहीं होते। ये तो तब था, जब ऐसी कोई बात हुई ही नहीं थी, और मुझे यहाँ कोई ज्यादा रुकना नहीं था।
मैंने कहा, "कौन ले गया है इस ज़मीन-जायदाद को, जो मैं ले जाऊँगी? वैसे भी सब आपका ही है। लड़कियों का तो यहाँ, वैसे भी कुछ नहीं होता। फिर मुझे ये माहौल कोई खास पसंद भी नहीं। बाहर जाना है, मेरे को तो। पता नही और कब तक हूँ यहाँ ....... । " ज्यादातर इन लोगों के यहाँ ऐसी ही झल्ली-सी बातें होती थी। जिसमें बात-बात पे लगे, ये कहाँ पहुँच गए आप। मुझे लग रहा था, इस बहाने आसपास के कुछ निठल्लों का भी भला हो जाएगा। पर यहाँ तो वो तुम्हें ही भगाने पे तुले थे या यूँ कहना चाहिए अपने ही घर से निकालने पे तुले थे।
फिर एक दूसरी साइड भी थी, "सबका खा गया वाली"।
और एक दो बार, वहाँ भी बहस हो जाती थी, की "गाँव में लोगों के पास इतना होता ही कहाँ है, की कोई यहीं पड़ा है और सबका खा गया? है ही क्या? किसका खा गया? दोनों कमाते है, तो गुजारा हो रहा है।" भाभी के पास कम ही वक़्त होता था। शायद वैसे ही, जैसे हर किसी नौकरी करने वाले के पास होता है। जब मैं यहाँ होती तो कभी-कभार श्याम की चाय होती थी वहाँ और उसी दौरान थोड़ा बहुत बातचीत। या छुट्टी वाले दिन, हम दोनों घर होते तो।
इन सब घरों का, अपनी-अपनी तरह का हक़ जताने का तरीका था इस घर पे। कुछ का सही में था और कुछ का जबरदस्ती। फेज थे शायद इनके, के वो उस वक़्त पास थे। वो उस वक़्त और वो उस वक़्त। कहीं-कहीं तो ऐसा लग रहा था की घर वालों को ही घर से निकालने की कोशिश हुई, कई-बार।
कुछ बातें थी जो इस दौरान हुई, जो पहले न कभी हुई, न सुनने को मिली। और थोड़ी नहीं, कुछ ज्यादा ही अजीबोगरीब थी। एक बाथरूम को लेके और दूसरा दादा जी वाले कमरे को लेके। वो कब हुई, ये जानना और भी अजीब था। जो समझ आया वो ये की बेवकूफ लोग समांनातर केसों में उलझाए जा रहे हैं। थोड़ा बचो। मगर ये सामान्तर घड़ाई करवाने वाले बन्दे कौन हैं? आसपास ही हैं या दूर हैं? इन गुफाओं को जानने की खास जरुरत थी।
भाभी को 2019 या 2020 में शायद nerves की वो अजीब-सी problems शुरू हुई थी। अब तक वो कई बार हॉस्पिटल जा चुकी थी। 2-4 दिन बाद ठीक-ठाक घर आ जाती थी। शुरू-शुरू में तो मुझे उनका treatment ही अजीब लगा था। और मैंने बोला था की आपको इतना कुछ नहीं हो रहा। शायद आराम और खाने पे ध्यान देने की ज्यादा जरुरत है। ये हॉस्पिटल्स तो ऐसे भी खा रहे हैं और वैसे भी। शायद थोड़ा बहुत तो उन्हें भी समझ आने लगा था। क्यूंकि इस दौरान आसपास के कई केसों के बारे में उनसे बात हुई थी। फिर कोरोना के बाद तो लोगों का विश्वास, वैसे ही खिसका हुआ था।
मगर कुछ और भी था शायद, जिसपे वक़्त रहते उतनी बात नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए थी। क्यूंकि इस सारे तानेबाने की एक ख़ासियत और है, की जैसे ही सामने वाले को कुछ समझ आने लगता है, वैसे ही अजीबोगरीब दुरियाँ बढ़ने लगती हैं। वक़्त ही नहीं होता, किसी भी बहाने, इधर या उधर। फिर कोरोना के बाद तो कुछ ज्यादा ही समझदार (बेवकूफ) लोगों ने, मुझे अपने साथ हॉस्पिटल ही ले जाना बंद कर दिया था। पता चलने पे, मैं ही जबरदस्ती जाती थी। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था। रात 10. 30 के करीब बच्ची ही आयी थी रोते हुए, की पापा, मम्मी को हॉस्पिटल ले गए। उसे दादी ने समझा-बुझा के सुला दिया था, की पहले भी गए हैं न, आ जाएंगे ठीक होकर वापस। मगर अगली सुबह तक तो, सब जैसे कहानी था। उसके बाद जो शुरू हुआ, वो शायद और भी ज्यादा भद्दा।
ऐसी कई और कहानियाँ और भी हैं इधर-उधर। कोरोना के बाद की इन खास बिमारियों जैसी-ही। जिनमें ऑक्सीजन खत्म हो जाती है। या जाने क्या, वक्त रहते नहीं मिलता! शायद फिर कभी। शायद तक तक बालों के केसों की तरह यहाँ भी, कुछ और समझ आने लगे।
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