Conflict creations where none exists
सोचो जहाँ पे कोई दुर्भावना, दुश्मनी, बैर, शत्रुता, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, द्वन्द्व, मनमुटाव, फूट, विरोध, वैर ना हो? और सामान्तर केसों की घड़ाई का राजनीतिक संसार, वो सब पैदा कर दे? जहाँ आजकल मैं हूँ, कुछ-कुछ ऐसा ही समझ आ रहा है। यहाँ के हालातों और रोज-रोज के राजनीतिक ड्रामों को देख-समझ, की कैसे ये पार्टियाँ लोगों की ज़िंदगियों से खेल रही हैं? सबसे बड़ी बात, उनका जलूस भी उन्हीं द्वारा निकलवा रही हैं। और खेलने वालों को इतना तक अहसास नहीं की जो रोल वो तुमसे निभवा रहे हैं, वो खुद तुम्हारी अपनी रैली पिट रहा है। और ये रोल सिर्फ रोल भर नहीं, हकीकत में गूँथ दिए गए छल, घात और चालें हैं। वो भी खुद उनके अपने खिलाफ या नुकसान में। तभी तो मानव रोबोट कहा गया है। जहाँ दिमाग का कोई खास हिस्सा दबा दिया जाता है, ऐसे, जैसे हो ही ना। या जैसे किसी खास हिस्से को अहम कर बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है (Amplification, Manifestation, Manipulations), ऐसे, जैसे कुछ और अहम ही ना हो। ऐसा कैसे? कुछ हकीकतों को छुपाकर या हकीकत के विपरीत पेश कर।
किसलिए ?
किसी या किन्हीं समस्याओं को सुलझाने के लिए?
या समाज में बहुत-सी ना हुई समस्याएँ भी पैदा करने के लिए?
बहुत से पवित्र और मासुम रिश्तों को खत्म करने के लिए? या दुर्भावनावश, द्वेषभाव, ईर्ष्या से उनमें मनमुटाव, ईर्ष्या, बैर, शत्रुता, घृणा, द्वेष, द्वन्द्व, मनमुटाव, फूट, विरोध और वैर भरने के लिए?
या इससे भी थोड़ा आगे चलके, गुप्त तरीकों से लोगों को दुनिया से ही चलता कर देना और दुनिया को दिखे या लगे ऐसे, जैसे वो सामान्य मौतें हों या आत्महत्याएँ हों? कोरोना काल जैसे। वैसे सामान्य दिखने जैसे हालातों में भी बहुत कुछ चलता है। जैसे किसान आंदोलनों के दौरान लोगों का मरना या इतनी भीड़ के बावजूद आत्महत्या? या खुदाईयों के दौरान, इतने सारे मजदूरों का यहाँ-वहाँ फँसा होना या अंदर ही मर जाना। और भी दुनियाँ भर में कितना कुछ वैसे नहीं होता, जैसे दिखता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे श्रीदेवी की मौत?
कैंपस क्राइम सीरीज ने, उसके बाद कोरोना काल ने और जो कुछ अब चल रहा है, वो सब वही है। वो गए गुजरे ज़माने के कुछ लोगों को ऐसे दिखाने की कोशिश करते हैं या पेश करते हैं, जैसे जो ये राजनीतिक सामान्तर घड़ाई वाले कलाकार दिखा, बता या अनुभव करवा रहे हैं, वही सच हो। वो चाहे रेखता वाले हों या सुशीला वाले। मुझे ये दोनों ही बेहुदा किस्म की पेशगी वाले लोग पसंद नहीं। पसंद नहीं शायद हल्का शब्द है। सही शब्द नफ़रत है ऐसे लोगों से, या शायद उससे भी आगे कुछ होना चाहिए।
गुप्त जहाँ, जिसकी शुरुवात किसी ने उसकी अपनी समझ के अनुसार शायद, देव कोलोनी, रोहतक के किसी मिलिट्री के बन्दे के हॉस्टल से बताई। तो कुछ जानकार एक्सपर्ट, उससे कहीं बहुत पीछे, बहुत पुरानी बताते हैं। राजनीती और विज्ञान के उदय और समझ के साथ-साथ ही सदियों पुरानी जैसे? शायद देशों के भी बनने से पहले, कबीलों में बंटे और एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप की तरफ बढ़ते, माइग्रेट करते इंसान के साथ-साथ? ज़मीनो पर कब्जे, औरतों पर कब्जे, गहनों और कीमती सामान की चोरियों या छीनाझपटी और लूटपाट के साथ-साथ? अपने बच्चों की पैदाइश और दूसरों के बच्चों को खत्म करने या गुलाम बनाने की जाहिलाना, गवाँर सोच के साथ-साथ? या अपने बच्चों को गद्दी पर देखने की चाहत में, दूसरों को वनवास या मारकाट के हवाले करने या पैदा ही ना होने देने की खुंखार जानवरों जैसी बेहुदा कवायदों के साथ-साथ?
विज्ञान के इतने अविष्कारों, टेक्नोलॉजी की इतनी पहुँच के बावजूद, आदिम युगी उन युद्धों में, चालों में, घातों में या छल-कपट के माध्ययमों में, सभ्यता के इतने विकास के बावजूद बदला क्या है? जाहिल, जानवर इंसान और ज्यादा गुप्त तरीकों से, और ज्यादा घातक छलावों और कपटों से और ज्यादा खुंखार ही हुआ है। अब तो वो इंसानों को भी रोबोट बना चुका है। उसका शोषण, खुद उसके खिलाफ और उसके अपनों के खिलाफ, उसी द्वारा करवा रहा है। सच में कितना विकसित और कितनी तरक्की कर चुका ना आज का इंसान?
संसार की उत्पत्ति या भारत का उदय सदियों पहले से है। मगर अगर कोई कहे की अभी कल ही मेरे जन्म से हुआ है, तो क्या कहेंगे आप उसे? बच्चा? अपरिपक़्व? या समझदार? सोचो, कोई आपको ये दिखाने या बताने की कोशिश करे, की आप किसी को पसंद करते हैं, मगर कोई आपको नहीं, आपको बस ये गाना और बताना है। सच में? ये कैसी सेनाएँ? या ऐसे लोगों को सेना कहना मतलब, सेनाओं का अपमान? ऐसी सेनाएँ कैसे हो सकती हैं, जो कुर्सियों की चाहत में लोगों को रोबोट या गुलाम बनाने का काम करें? या शायद सेनाएँ होती ही ऐसी हैं? ये तो अब मिल्ट्री वाले या ये सेनाओं वाले बेहतर बता सकते हैं। वैसे ही जैसे, यूनिवर्सिटी की कुर्सियों पे बैठे अधिकारी, जो क्लास-लैब के हालत दुरुस्त करने की बजाय, पढ़ाई-लिखाई का माहौल बनाने की बजाय, छात्रों या अध्यापकों से समस्याएँ होने पे भी मिलने की बजाय, खुद को महलों जैसे किलों में रहने वाले शहंशाह समझने लगें। यूनिवर्सिटी में शिक्षाविद या शहंशाह, गुंडे या शिक्षाविद, कैसे लोगों का अधिकार होना चाहिए? जहाँ प्राथमिकताएँ ही गलत हों, क्या कहा जाए, वहाँ के बारे में?
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