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Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Sunday, December 31, 2023

चलें यूनिवर्सिटी की सैर पे? 1

बहुतों को शायद यूनिवर्सिटी का मतलब सिर्फ पढ़ाई-लिखाई ही समझ आता है। पढ़ाई भी बोर, उबाऊ, मोटी-मोटी किताबें और लम्बे-लम्बे लेक्चर? अजीबोगरीब लैब्स और उनके अजीबोगरीब पढ़ाकू टाइप जानवर? और यही सोच बहुत से भाग खड़े होते हैं? ऐसे ही जैसे, बहुतों को स्कूल या कॉलेज के नाम से भी ऐसा-सा ही लगता है? ये खास ऐसे लोगों के लिए ही है। खास उनके लिए भी, जिनका नया-नया सिस्टम, गवर्नेंस आदि को समझने में इंटरेस्ट पैदा हुआ है। मेरे जैसे। खासकर, जब ये समझ आने लगे की सिस्टम का मतलब ना तो सिर्फ राजनीती या राजनेता हैं। ना ही सिर्फ नौकरशाह या व्यवसायी। ये तो बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से समाज के हर तबके को अपने में जोड़े हुए है। जिसमें एक तरफ कुर्सी पे बैठे पदाधिकारी हैं, तो दूसरी तरफ समाज का वो आखिरी तबका, जो सबसे आखिर में आता है।

एक तरफ सभ्य कहलाने वाला, साफ दिखने वाला, फैसले लेने या लेने में अहम भुमिका निभाने वाला समाज। तो दूसरी तरफ, वो समाज, जिसकी तरफ ये सभ्य कहलाने वाला या पढ़ा-लिखा समाज कम ही देखता या सोचता है। इन दोनों समाजों के बीच जितना ज्यादा फासला है, उस समाज का उतना ही ज्यादा हिस्सा कम विकसित और गरीब है। उस गरीबी को और ज्यादा गरीबी की तरफ धकेलता इस सिस्टम का ताना-बाना है। शातीर दिमागों द्वारा  बनाया गया वो ताना-बाना या जाल, जो आस्था, विश्वास और रीती-रिवाजों में शोषण को गूँथ देता है। इसलिए अगर किसी भी समाज को आगे बढ़ाना है या ये दो समाजों के बीच की खाई को दूर करना है तो आस्था, विश्वास और रीती-रिवाजों के द्वार पर पढ़ाई-लिखाई और संवाद को रखना होगा। ताकी शातीर लोगों द्वारा इनमें गुँथे गए शोषण पे प्रहार हो सके। शिक्षा के इन संस्थानों का दायरा सिर्फ बोर और उबाऊ किताबों तक ना रखकर, रोचकता की तरफ बढ़ाना होगा। जहाँ जबरदस्ती की बजाए, किसी भी विषय में रुची पैदा करने के तरीके हों। विकसित देशों का शिक्षा संसार शायद वही सब कर रहा है। जिसमें भारत जैसे देश आज भी काफी पीछे हैं। ये फर्क वहाँ के और यहाँ के डिग्री प्रोग्राम्स, उनका सिलेबस, पढ़ाने और सिखाने के तौर-तरीके और सुविधाओं से समझा जा सकता है।                 

पढ़ाई-लिखाई वाला ये सभ्य, साफ-सुथरा, हरा-भरा, वाद-विवाद या संवाद वाला ये संसार, सही मायने में किसी भी संसार की दिशा या दशा तय करता है। जहाँ-जहाँ इस संसार में गड़बड़ है, वहाँ-वहाँ के समाज में भी कुछ-कुछ वैसी-सी ही गड़बड़ है। जितना ये समाज सभ्य है या सही है या अपना योगदान जिस किसी तरह से समाज में दे रहा है, वैसा-सा ही, वहाँ का समाज है। हर जगह सामान्तर घड़ाईयों का समाज कैसा है, ये तो अभी ठीक से नहीं कह सकती। मगर जितना समझ आया, हकीकत हर जगह, कम या ज्यादा ऐसी-सी ही है।              

जब भी जहाँ कहीं आप घुमने जाते हैं, तो क्या सोचकर जाते हैं? आपके दिमाग में उस जगह के बारे में क्या खास होता है? और वहाँ जाने का आपका इरादा क्यों बना? यही सब आपकी उस घुमाई या सैर को परिभाषित करता है। दुनिया भर के अलग-अलग कोनों में, अलग-अलग यूनिवर्सिटी, एक अलग ही तरह के संसार को दिखाती, बताती और अनुभव कराती हैं। शिक्षा के इन संस्थानों में काफी कुछ एक जैसा-सा होते हुए भी, काफी कुछ अलग है और खास है। क्या है वो? चलो जानते हैं, उन्हीं के आँगन से कुछ शब्दों से, कुछ तस्वीरों से, कुछ वीडियो से, कुछ प्रोग्रामों से या उनके सिलेबस से, पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों से, सुविधाओं से या दुविधाओं से? उन्हें चलाने वाले या वहाँ काम करने वाले लोगों के नजरिये से, उनके कामों से और उन्हीं के शब्दों, शोधों या जुबानों से। कैसे शिक्षा के संस्थान वहाँ के समाज को प्रभावित कर रहे हैं या कोई भी दिशा या दशा, उस समाज को दे रहे हैं? कहाँ से शुरू करें?

2012, जब आखिरी बार मैं किसी विदेशी यूनिवर्सिटी की दहलीज़ पर थी, मॉस्को, रूस। कुछ कारणों की वजह से, उसके बाद मैंने खुद ही जैसे कांफ्रेंस पे एक फुल स्टॉप लगा दिया। और तय किया की अब कांफ्रेंस में कभी नहीं जाउँगी। जब भी जाना होगा, तो कुछ सिखने या सिखाने, पढ़ाने या शोध करने, थोड़ा लंबे वक़्त के लिए होगा। कम से कम, कुछ महीने या साल। मॉस्को से वापस आते वक़्त, मेरा स्टॉप अल्माटी, कजाकिस्तान था। वो भी पुरे 9 या 10 घंटे का स्टॉप। मैं थकी हुई थी और बुखार-सा अनुभव हो रहा था। दिमागी बुखार शायद। कुछ चल रहा था शायद उस दिमाग में। उन्हीं दिनों के आसपास, मैंने एक अलग-सा विषय उठाया हुआ था, पढ़ने और थोड़ा बहुत उसके बारे में जानने के लिए। ये विषय एक तरह से Bioinformatics से थोड़ा अलग राह चुनने के लिए था। या शायद उसके साथ जोड़ने के लिए। क्यूँकि जब Molecular Lab में समस्याएँ हल होती नज़र नहीं आई तो मैंने Bioinformatics विषय उठा लिया, मगर उसमें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं हो पाया। उसे जबरदस्ती जैसे घसीट रही थी, बस। Evolution और Genetics कभी से मेरे इंटरेस्ट के विषय रहे थे। तो ये उसी इंट्रेस्ट का परिणाम था शायद। इन 9-10 घंटो में शायद ऐसा कुछ ही देख-समझ रही थी। और तो कुछ था नहीं करने को, आते-जाते लोगों को देखने के सिवाय। क्या था वो?   

आम भाषा में कहें तो इंसान का हुलिया। थोड़ी नई-सी ईजाद की गई भाषा में कहें तो IMAGE (छवि?)। जीव विज्ञान की भाषा में कहें तो Evolution of Human. मतलब, इंसान, आज जैसा दिखता है या है, दुनियाँ के किसी भी कोने में, वैसा क्यों हैं? इसकी उत्पत्ति और विकास की कहानी क्या है? सिर्फ किसी इंसान का हुलिया देखकर, हम उसके बारे में कितना कुछ बता सकते हैं? शायद काफी कुछ। जैसे, इतने सारे बदलावों के बावजूद, मैं खुद अपने सिर के बालों से उतना नहीं सीख पाई, जितना मेरी छोटी-सी भतीजी और भांजी के बालों ने मुझे सिखाया या समझाया, किसी सिस्टम के ताने-बाने को, जाल को। एक ऐसा सिस्टम, जो बच्चों तक को नहीं बक्सता। उसके बाद आसपास के कुछ एक और बच्चों की अजीबोगरीब बिमारियों (?) के बारे में भी जाना। और फिर तो जैसे एक के बाद एक छोटे क्या, बड़े क्या, सबकी बीमारियाँ शायद कुछ एक जैसा-सा ही इशारा कर रही थी -- सिस्टम की तरफ। 

तो शुरू करते हैं, इस पढ़े- लिखों की दुनियाँ (यूनिवर्सिटी) की सैर को जिससे शायद समाज के उस आखिरी तबके को सिखने, समझने और जानने को ज्यादा मिले। और पढ़े-लिखों को सोचने को, की विकसित समाज, अपने उस आखिरी तबके को भी कैसे साथ लेके चलता है? ना की सिर्फ उसका शोषण करता है, ज्यादा, ज्यादा और ज्यादा की चाहत में? और आज तक, 21वीं सदी में भी अविकसित या विकासशील देशों के हालात ऐसे क्यों हैं?

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