जब से मैंने केस स्टडीज का मन बनाया, तभी से मैंने आसपास को जानना शुरू कर दिया था। क्यूंकि, जितना कैंपस क्राइम केसों से और कुछ यहाँ के हादसों से जो कुछ समझ आया, वो ये बता रहा था, की सब सही नहीं है। कहीं ना कहीं गड़बड़ घौटाला है। मेरी मेरे अपने गाँव की सामाजिक स्तर पर समझ, शायद बहुत पुराने वक़्त की थी। उसपे काफी हद तक सिमित भी। क्यूँकि, घर से बाहर जाना कम ही होता था। अब जब गाँव की तरफ रुख किया, तो समझ आया, की मैं अपनी एक्सटेंडेड फैमिली तक को ढंग से नहीं जानती। किसके कितने बच्चे हैं, कौन-कौन हैं और क्या करते हैं? थोड़ा बहुत ही पता था। आधा अधूरा-सा जैसे। उसपे गाँव में आसपास की थोड़ी बहुत जानकारी के लिए, ले दे के एक भाभी ही थी। मेरे यहाँ आने के कुछ वक्त बाद, यहाँ भी कोई अजीबोगरीब-सी खटपट होने लगी थी। वो खटपट क्या थी? कहाँ से और कैसे आई थी? या कहना चाहिए की कहाँ से साजिश का हिस्सा, थोंपी हुई थी? शायद जलन, इस घर से ही। मैं ज्यादातर ऐसे माहौल से दूर रहना पसंद करती हूँ, जहाँ बेवजह के वाद-विवाद हों। उसपे Resignation के बाद, भारत रहने का ईरादा नहीं था मेरा। यूनिवर्सिटी से Enforced Resignation के बावजूद, कैंपस घर ना छोड़ पाने की एक वजह, शायद इस गाँव का माहौल भी था, खासकर आसपास का। जो कुछ खास राजनीतिक पार्टियों द्वारा थोंपा हुआ था। कौन हैं ये पार्टियाँ? क्या रोल है इन पार्टियों का, इस घर को बर्बादी की तरफ धकेलने में? या शायद कहना चाहिए की आसपास सब घरों के हालातों के जिम्मेदार। सबको एक-दूसरे के ही खिलाफ प्रयोग करके।
कैंपस क्राइम सीरीज के साथ-साथ, सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयोँ को जानना और समझना और भी रोचक था। या कहना चाहिए की है। इसी दौरान एक्सटेंडेड फैमिली, अड़ोस-पड़ोस में भी थोड़ा संवाद होने लगा था। इतने सालों बाद, गाँव के इस माहौल को जानना, थोड़ा रोचक भी था और अजीब भी। एक दिन ऐसे ही, एक लड़की से बात हो रही थी। उसने कहा, ये लैपटॉप उसे मत देना, मेरे अपने भाई को। मुझे बड़ा अजीब लगा, ये सब सुनकर, की कोई ऐसे कैसे बोल सकता है? मैं अपने खुद के भाई को क्या दूँ और क्या ना, ये मुझे बताने वाला कोई बाहर का बंदा कैसे हो सकता है? वो भी जिसे अभी तक मैं ढंग से जानती तक नहीं। राजनीती के कोढों में उलझा दिए गए ये लोग। जिन्हें खुद नहीं मालूम, की उनके अपने लिए, ऐसे कोढ़ वाले सिस्टम में ठीक से ज़िंदगी जीने और फलने-फूलने के कोड क्या हैं? तभी ये ज़िंदगियाँ बर्बाद हैं। इधर से उधर धकेली हुई, कोढ़ की राजनीती के अनुसार। इनके दिमागों में भावनात्मक भड़काव भरे जाते हैं, जो सामने वाले का नुकसान तो करते ही हैं, खुद इनके अपने खिलाफ होते हैं। नहीं तो किसी को क्या मतलब, अपने बहन-भाई को कौन क्या दे और क्या ना? ये सब मुझे खुद थोड़ा बहुत समझ आया, जब लैपटॉप रजिस्ट्री का जिक्र भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के सम्बोधनों में यहाँ-वहाँ मिलने लगा।
फिर एक दिन ऐसे ही, उसने दूसरे भाई के बारे में कुछ ऐसा बोला, जो हज़म नहीं हो रहा था। भाभी की मौत के बाद, बच्चे के किडनैप वाले ड्रामे में भी, ये अहम शख्शियत थी। एक तरफ, ये मुझे मेरे अपनों के खिलाफ भड़का रही थी। तो दूसरी तरफ पता चला, की मेरे अपनों के दिमाग में, मेरे खिलाफ जहर भरने का भी काम चल रहा था यहाँ से। हज़म होने लायक तो ये सब था ही नहीं। उसपे बच्चे तक को नहीं बक्सा हुआ था। वहाँ भी ईर्ष्या। लोग इतने जाहिल कैसे हो सकते हैं? भाभी के जाने के बाद, उनके बारे में भी बेवजह की खामखाँ की बकवास। आसपास के ही, कुछ अपने कहे जाने वाले, एकता कपूर सास-बहु सीरीज टाइप लोग। ज्यादातर हद से ज्यादा ठाली औरतें, जैसे बकबक करती रहती हैं। इसी बकबक से कुछ लोगों की जलन भी समझ आई। और ये भी की मेरे गाँव आने के बाद, जो थोड़ी बहुत घर में अनबन शुरू हुई थी, वो भी अपने आप नहीं थी। वो जो भाभी को अपने घर लाना चाहते थे? उनके जाने के बाद, उन्हीं की बुराई कर रहे थे। यही राजनीती थी उसके पीछे? और उसमें आसपास के लोगों का ही दुरुपयोग हो रहा था। फुट डालो, राज करो विभाग। इनकी जरुरतें, उनकी जरुरतों की रेकी (Extreme form of Surveillance Abuse) और एक दूसरे के खिलाफ भावनात्मक भड़काव। कितना सहज और आसान हो जाता है ना, ये सब करने वालों के लिए।
अपनी ज़िंदगियों पे फोकस ना करके, दूसरे के घरों में महाभारत रचने की साजिश वाले लोग। केकैयी जैसे किरदार जैसे। अगर आपकी खुद की ज़िंदगी सही नहीं है या वहाँ पे कोई गड़बड़ है तो बेहतर होता है, उसपे ज्यादा फोकस करना। मगर यहाँ तो, एकदम से उल्टा था।
एक तरफ जहाँ भाभी की मौत के बाद बच्चे के किडनैप का ड्रामा था। तो दूसरी तरफ, एक-दूसरे के खिलाफ भड़काव। इतना जहरीला भावनात्मक भड़काव, जो सच के आसपास भी ना हो। जो सामाजिक सामान्तर घड़ाईयों से समझ आया, वो ये, की इन सामाजिक सामांतर घड़ाईयोँ में सामने वाले के दिमाग में ऐसा घुसेड़ा जाता है की जो उनके अपने यहाँ हो रहा है, वही हूबहू कहीं और का सच है लगने लगे। Alter Ego घड़ना, जैसे रावण के 10-सिर। एक ही इंसान को अलग-अलग पार्टियाँ कितने ही रूपों में पेश कर सकती हैं। ये Alter Ego या अलग-अलग रूप या सामाजिक घड़ाई जितनी भी किसी पार्टी की जरुरतों के आसपास हो जाए, उतना बढ़िया। जहाँ ना हो पाए, वहाँ पार्टियों का अपनी ही तरह का प्रचार-प्रसार विभाग काम करता है। अपनी ही तरह के प्रचार-प्रसार विभाग में अहम है, कुछ दिखाना, कुछ बताना और कुछ छिपाना। जो छिपा दिया जाता है, वो शायद ज्यादा अहम होता है। ये छिपाना उतना ही वक़्त काम का होगा, जितना जो सच बता सकें, उन्हें जितनी देर तक हो सके दूर रखना। ये दूर रखना या करना ही "फुट डालो, राज करो" विभाग का हिस्सा है। जितना ज्यादा आप दूर होंगे, जितनी देर दूर होंगे, उतना ही झूठ हक़ीकत लगने लगेगा। वो कहते हैं ना की किसी भी झूठ को अगर 100 बार सच कहा जाए, तो वो सच लगने लगता है। एक दूसरे से दूर करने में और भी बहुत कुछ घड़ा जा सकता है। जैसे निराशा, किसी भी तरह की जरुरत, वो भी हद से ज्यादा। ऐसे दिखाना या अहसास करवाना, जैसे सबकुछ खत्म हो गया हो। कुछ बचा ही ना हो। या बहुत ज्यादा गुब्बारे की तरह फुलाना, ताकी फोड़ने में आसानी हो। जितना ज्यादा हकीकत से दूर फुलाया जाएगा, उतना ही ज्यादा आसान होगा, खत्म करना। उसपे, गुप्त तरीकों से उस तरफ धकेलना। माँ और भाई के साथ ऐसा हो चूका था और उन्हें आज तक अहसास तक नहीं की हुआ क्या है? वैसे ही जैसे राजनीतिक बीमारियों में या मौतों में आम आदमी को कुछ नहीं पता लगता। या कहना चाहिए की लगने दिया जाता। जो कोई वो सब बाहर निकालने लगता है या आम आदमी को बताने लगता है, उसी की घेरा बंदी कर दी जाती है। उसी का ईलाज कर दिया जाता है।
जरुरत पैदा करना
जैसे भाभी की मौत के बाद, बच्चे के किडनैप का ड्रामा। उसके साथ-साथ बुआ के खिलाफ भड़काई। बुआ द्वारा बनाया गया खाना तक बंद करवा देना। बच्चे को बुआ से दूर करना, मतलब बाकी काम भी, अब माँ-बेटे को ही करने पड़ेंगे। पड़ गई जरुरत किसी काम वाली की?
दादी बूढ़ी हो चली, बाप इतने सारे काम अकेला करे। अरे, कोई तो काम वाली चाहिए। घर वाली नहीं, काम वाली। और लो जी, काम वाली पेश है। क्या फर्क पड़ता है, क्या है, कहाँ से है, क्यों है, वगैरह, वगैरह। काम ही तो चलाना है? अरे क्या हुआ आप लोगों की पसंद का? जैसे, ज़िंदगी भागी जा रही हो। अब शादी नहीं की, तो जैसे हो ही ना? छिपाने और जल्दबाज़ी का एक और हिस्सा, साजिश रचने वालों का, घर वालों को तीतर-बितर कर, पुरे घर पर कब्ज़ा जैसे। और साथ में ये भी, की अबकी बार कुछ अच्छा यहाँ घुसने नहीं देना। तो फूट डालो, राज करो विभाग, एक साथ कितनी तरह के काँड रच सकता है? वैसे, ऐसा क्या है उस घर में कब्जे लायक? या किसी भी घर में, क्या हो सकता है? धन-दौलत? जमीन-ज़ायदाद? या उससे कहीं ज्यादा अहम कुछ, खासकर राजनीतिक पार्टियों के लिए? कैसे-कैसे मायावी और महामायावी खेल?
गुब्बारे की तरह फुलाना
अगर कुछ बुरा हुआ हो या किया गया हो, तो भी ये दिखाने की कोशिश, की सब सही है। या इससे भी थोड़ा आगे जाके, थोड़ा और बेहुदा होके, "जो हुआ, सही हुआ"। बुरे वक़्त को भले की तरफ, अपने और हकीकत के आसपास रहने वाले लोग, फिर भी कर सकते हैं। मगर, जो हुआ सही हुआ कहकर, हवा में उड़ाने वाले, बचा-खुचा भी उड़ाने वाले शातीर होते हैं। भाभी की मौत के बाद जो कुछ चला, वो सब यही गा रहा था। भाभी पैसे को सहजने वाली औरत थी। भाई के स्वभाव के थोड़ा विपरीत। हर घर में हर किसी के बीच थोड़े बहुत मतभेद होते हैं। हालाँकि, ये भाई-भाभी की लव मैरिज थी। मगर जितनी उनकी पटती थी, वैसे ही तुनकमिज़ाजी भी थी। थोड़ी बहुत खटपट होती ही रहती थी। उसको भी भुनाने वालों ने, उनके जाने के बाद, उनके खिलाफ ही भुना। जो पैसा है, उसे चकाचौंध में उड़वा दो। जमीन को बिकवाली की तरफ धकवा दो। ऐसा करने में मनचाही सफलता ना मिले, तो सबका हिस्सा किसी एक के नाम करवाने की चालें चला दो। एक तरफ ये सब सतर्क कर रहा था। तो दूसरी तरफ, थोड़ा समझ से बाहर भी था। एक सामान्य से मिडल क्लास घर पे, किन्हीं पार्टियों का इतना फोकस? वो भी उसे बर्बाद करने में। क्यों और किसलिए? क्या मिल जाएगा उन्हें ये घर खत्म करके? ऐसा क्या खास है यहाँ? ये सब मेरे लिए भी सबक था और थोड़ा हैरान करने वाला भी।
मेरे लिए आसपास की सामान्तर घड़ाईयोँ को जानने का मतलब, सिर्फ कुछ हादसों और बीमारियों को जानना था। मगर यहाँ तो उससे आगे बहुत कुछ समझ आ रहा था।
कुर्सियों के ताने-बाने, इंसानों पे कब्जे, इंसानों को रोबॉट बनाना और घिनौने टाइप का पुरे समाज पे नियंत्रण। उसमें इंसानो की छोटी-मोटी कमियों का बढ़ा-चढ़ा कर दोहन। छोटी-मोटी सी जरुरतों को बढ़ाना-चढ़ाना। छोटी-मोटी इंसानी-सी ईर्ष्याओं को बढ़ा-चढ़ा कर, अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रयोग करना। इंसानो पे ही नहीं, तकरीबन हर जीव पे नियंत्रण जैसे।
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