ये Cult पॉलिटिक्स का भी हिस्सा है और Extreme Form of Surveillance Abuse का भी। किसी भी लैब प्रैक्टिकल के लिए, ये अहम होता है, सूक्ष्म प्रबंधन। जब वो लैब सामाजिक सामान्तर घड़ाई हो, तो और भी अहम हो जाता है। क्यूँकि, यहाँ किसी भी कम दिमाग वाले जीव को नहीं, बल्की इंसान को नियंत्रित करना है। अब दिमाग वाले जानवर को नियंत्रित करना है तो पहला नियंत्रण दिमाग पे ही करना होगा। मानव रोबोट घड़ाई तभी संभव है। आओ, अपने आसपास के कुछ एक उदहारण बताती हूँ।
इंसानों पे कब्जे और जमीनों पे कब्जे
ज़मीनों के चक्करों में इंसानों पे कब्जे?
या इंसानों के चक्करों में ज़मीनों पे?
या राजनीती और व्यवसायों के (टेक्नोलॉजी खासकर) चक्करों में, सामांतर घड़ाईयाँ और सिस्टम का आदमखोर हो जाना?
स्कूल पे ही आते हैं। मैं गाँव में स्कूल खोलने तो आई नहीं थी। कैंपस क्राइम सीरीज उस वक़्त मेरा फोकस था और साथ में कुछ बीमारियों और हादसों के रहस्य जानने की कोशिश। अब आप घर ज्यादा रहेंगे, तो स्वाभिक ही है की घर के बन्दों से बातचीत भी पहले से ज्यादा होगी। भाभी से अक्सर श्याम की चाय पर या छुट्टी वाले दिन ही थोड़ी-बहुत बात हो पाती थी। क्यूँकि, किसी भी नौकरी करने वाले इंसान के पास वक़्त की अक्सर कमी होती है। एक तरफ मैं अपने लिखने के जूनून में वयस्त थी, तो दूसरी तरफ बहुत-सी छोटी-मोटी बातों से अंजान भी। यूनिवर्सिटी के जाने-पहचाने माहौल से दूर, गाँव का ये संसार थोड़ा रहस्मय भी था और रोचक भी। भला आपके अपने गाँव में ऐसा रहस्यमय क्या हो सकता है? रिश्ते-नाते? कौन, कहाँ-कहाँ से है? क्या करता है या करती है? कहाँ पढ़ता है या काम करता है? अगर बाहर से है, तो कब आया है या आई है? ये कुछ-कुछ ऐसे ही था, जैसे दूसरे जानवरों या पक्षियों का माइग्रेशन पढ़ा जाता है, यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहाँ? इंसान भी जीव-विज्ञान के अनुसार एक जानवर ही है। दूसरे जीवों से थोड़े से ज्यादा दिमाग वाला जानवर। इसीलिए शायद, इसे दूसरे जीवों से अलग बहुत सारे काम होते हैं। बहुत से अच्छे और बहुत से बुरे। लिखाई-पढ़ाई, नौकरी कुछ ऐसे ही काम हैं। जैसे मैं अपनी नौकरी से तंग आ चुकी थी, ऐसे ही भाभी भी वो स्कूल छोड़ना चाहती थी, जिसमें वो नौकरी करती थी। प्राइवेट स्कूलों का जितना मुझे समझ आया वो ये की वो काम बहुत ज्यादा लेते हैं और उसके बदले देते बहुत कम हैं। ऐसे ही कोई बात हो रही थी और उन्होंने कहा कौन चाहता है इन प्राइवेट स्कूल में काम करना। मेरा बस चले तो मैं तो छोटा-सा अपना स्कूल खोल लूँ। फिर उन्होंने एक-दो, इधर-उधर के उदाहरण दिए, की कैसे-कैसे लोग सरकारी नौकरी करते हैं और ठाली का खाते हैं। या कैसे-कैसे स्कूल मालिक बने बैठे हैं। मुझे भी लगा की कह तो सही रहे हैं। और मैंने ऐसे ही बोल दिया, की स्कूल खोलने में तो काफी पैसा चाहिए। उन्होंने कहा, नहीं बहुत ज्यादा भी नहीं। थोड़ा हो तो थोड़े में भी शुरू हो सकता है। एक-दो आसपास के उदहारण थे और मुझे भी लगा की संभव है। मैंने अपनी बचत से थोड़ा पैसा लगाने की हाँ कर दी। और योजना शुरू हो गई। कुछ वक़्त सब सही चला। ठीक-ठाक जगह अपनी ज़मीन थी। सँभालने वाले बन्दे भी और थोड़ा बहुत पैसा भी। कुछ उनके पास था। कुछ मैं हाँ कर चुकी थी। मगर, थोड़े वक़्त बाद कुछ और भी शुरू हो गया था। ये "कुछ और" उस वक़्त समझ नहीं आया। भद्दी और बेहुदा वाली राजनीती। फुट डालो, राज करो अभियान। एक तरफ मेरी कैंपस क्राइम सीरीज, कुछ लोगों को खटक रही थी तो दूसरी तरफ, ये योजना शायद। उनके चुंगल से निकल भागने वाले पक्षियों की योजना जैसे। तब तक मुझे ऐसा कोई अहसास ही ना था की इसका अंजाम इस घर के लिए क्या हो सकता है। मुझे आसपास वाले लोगों की समझ भी कम थी। और धीरे-धीरे लोगों की भाषा, कहानियाँ और कारनामे जान, कुछ से मैं दूरी बनाने लगी थी। तो कुछ मुझ से। काफी वक़्त लग गया ये सब समझने में। मगर तब तक लोगबाग एक और काँड रच चुके थे। जो समझ आते हुए भी, वक़्त पर रोका ना जा सका। राजनीती का सूक्ष्म प्रबंधन, लोगों को मशीनों से अलग नहीं समझता। वो उनसे मशीनों की तरह ही व्यवहार करता है। जैसे मशीनों से खास तरह के काम करवाने के लिए, खास तरह के प्रोटोकॉल होते हैं, प्रकिर्या होती है। वैसे ही आदमियों का है। इस मशीन से भी खास तरह के काम करवाने के लिए, खास तरह का माहौल बनाना होता है। उसी तरह का दाना-पानी परोसना होता है।
इस दाने-पानी में आपके आसपास कैसे-कैसे लोग हैं, बहुत अहम है। ये कैसे-कैसे लोग आपको आगे भी ले जा सकते हैं और पीछे भी धकेल सकते हैं। वो आसपास के लोगबाग ये भी बताते हैं, की यहाँ पे नियंत्रण किस पार्टी का है या अलग-अलग पार्टियों की आपस में खींचतान चल रही है। किसी एक ही मुद्दे पर अलग-अलग पार्टियों की खींचतान या लोगों पर कब्जे जैसी लड़ाईयाँ, शायद ज्यादा नुकसान करती हैं। लोगों के रहस्य्मय जैसे माइग्रेशन के साथ-साथ चौंकाने जैसा-सा रहस्य था, घरों के डिज़ाइन, बनावट। कब टूटे, कब बने, कब फिर से टूटे और फिर से बने। किसने बनाए, बनाने के लिए मटेरिअल कहाँ-कहाँ से आया, कितना खर्चा हुआ आदी। कौन-कौन कब अलग हुए और कहाँ-कहाँ गए या रहने लगे या कोई काम-धाम करने लगे। मुझे लग रहा था इतने सारे बारीकी डिटेल्स शायद यूनिवर्सिटी जैसे सरकारी संस्थानों या शहरों के सेक्टरों, कॉलोनियों तक ही सिमित होंगे। मगर जिस किसी जगह को आप जितने अच्छे से जानते हैं या जान सकते हैं, ये सब कोढ़ जैसा सामान्तर घढ़ाईयोँ का ज्ञान उतना ही ज्यादा समझ आने लगता है।
आओ काम करने वाले लोगों पे आते हैं
हाउस हैल्पर्स, वर्कर्स, मजदूर
मुझे जब एक्सीडेंट के बाद हॉस्टल छोड़कर सैक्टर-14 जाना पड़ा, तो मेरा खाना बनाने वाला हॉस्टल का ही एक पुराना वर्कर था। स्वाभाविक था, सालों हॉस्टल रही थी तो वहीं एक वर्कर को बोल दिया और काम चल गया। वहाँ से जब यूनिवर्सिटी कैंपस H#16, टाइप-3 गई तो कमला थी। अच्छा खाना बनाती थी। मगर, एक वक़्त के बाद शायद वो थोड़ा ज्यादा व्यस्त हो गई और मुझे भी मोटा होने का खतरा लगने लगा। जब आप हॉस्टल रहते हैं तो खाने का निर्धारित समय होता है और मीनू भी। घर में ये थोड़ी गड़बड़ हो सकती है, खासकर अगर आप डेरी प्रोडक्ट्स के शौक़ीन हों। जैसा हरियाणा वालों के साथ पैदाइशी होता है। यहाँ से थोड़ी बहुत कुकिंग अपने आप शुरू हो गई थी। थोड़ा-बहुत खाना बनाने का शौक भी था तो थोड़ी-बहुत मजबूरी भी। कैंपस घर में आगे-पीछे थोड़ा लॉन भी था, तो थोड़ा-बहुत बागवानी का शौक भी पूरा होने लगा था। मेरा पहला माली वहाँ शायद से रवि था। उसके बाद तरुण। ऐसे ही साफ़-सफाई वालों का था। 2-3 चेहरे बदले, अलग अलग वजहों से। कैंपस H#16, टाइप-3, तक काफी कुछ सही था शायद। H#30, टाइप-4, लाक्ष्यागृह जैसे, ने काफी कुछ बदल दिया। 2016, के आखिर में ये घर मिला था और 2017 में मैंने शिफ्ट किया था। शिफ्ट करने के कुछ वक़्त बाद ही तांडव जैसे, कुछ शुरू हो चुका था। एक के बाद एक करके, यहाँ मैं सब हॉउस-हेल्पर्स को हटा चुकी थी। हाउस हैल्प के लिए, थोड़ा बहुत मशीनों की तरफ बढ़ चुकी थी। या छुट्टी वाले दिन ही किसी मजदूर को लेके आती थी। H#30, टाइप-4, जहाँ एक तरफ सिस्टम के कोढ़ को समझा रहा था, वहीं उसी सिस्टम के एक भाग कुर्सियों की, नौकरियों की या मजदूरों की अजीबोगरीब इधर-उधर की, अदला-बदली की कहानी भी गा रहा था। नौकरियों या कुर्सियों का ही नहीं, बल्की मजदूरों का भी इतना सूक्ष्म प्रबंधन? ये कौन-सा संसार है, जहाँ इन कोढों वाले लोगों ने हर जीव को इतना जकड़ा हुआ है? कौन किसके यहाँ काम करने आएगा या कौन नहीं आएगा, वो भी ये बताएँगे? नहीं बताएंगे नहीं, बल्की गोटियों की तरह चलाएंगे, वो भी उनकी खबर के बिना। यही नहीं, बल्की हाउस हेल्पर्स या मजदूरों से इस तरह का सा व्यवहार या ऐसी नज़र से देखना, जैसे वो इंसान ही ना हों।
वक़्त के साथ-साथ गाँव में भी कुछ-कुछ, यूनिवर्सिटी जैसा-सा ही मजदूरों का या हॉउस हेल्पर्स का मैनेजमेंट समझ आया। कौन करते हैं ये सब? कैसे करते हैं? ये इधर से उधर के तबादले जैसे? जैसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी या वक़्त के लोगों का, इनके घर या उनके घर काम करना। या किसी का ना करना या छोड़ देना। या कहीं और शुरू कर देना। बड़ा ही रोचक जहाँ है ये, इतने सूक्ष्म स्तर पे मानव संसाधन प्रबंधन या शायद कहना चाहिए कुप्रबंधन (HR, Human Resource Management या Mismanagement)।
No comments:
Post a Comment